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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Tuesday, September 16, 2014

‘इस्राइल को सिर्फ ताकत की जुबान ही समझ में आती है’ -श्लोमो जैंड

'इस्राइल को सिर्फ ताकत की जुबान ही समझ में आती है' -श्लोमो जैंड

Posted by Reyaz-ul-haque on 9/13/2014 12:30:00 PM


तेल अवीव यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर, अग्रणी इस्राइली इतिहासकार श्लोमो जैंड से यह बातचीत फ्रांसीसी पत्रिका तेलेरामा ने 2009 में की थी. लेकिन यह बातचीत आज भी गाजा में जारी इस्राइली हमलों का एक बहुत ताकतवर जवाब है. साथ ही, यह इस बात की निशानदेही भी है कि कैसे गाजा में, और पूरे फलस्तीन में समय बीत कर भी नहीं बीतता है. साल दर साल, दमन और कब्जे की वही कहानी दोहराई जाती रही है. अच्छी बात यह है कि फलस्तीनी जनता की मुक्ति संघर्ष और उसके प्रति दुनिया भर की जनता के समर्थन के संदर्भ में भी यही बात कही जा सकती है: यह समर्थन न सिर्फ बरकरार है, बल्कि बढ़ता जा रहा है. इस साक्षात्कार में गौर करने वाली बात जैंड द्वारा प्रस्तावित समाधान तथा फलस्तीनी जनता के संघर्ष को उनके द्वारा दिया जाने वाला अविराम समर्थन है. यहां प्रस्तुत है इस बातचीत का संपादित अंश. अनुवाद: रेयाज उल हक

सवाल: इस्राइल का जनमत गाजा युद्ध (2008-2009) की हिमायत करता है. आप एक ऐसी आवाज हैं, जो इससे मेल नहीं खाती...

जवाब: मैंने अपना अकादमिक करियर पूरा कर लिया है, मेरे पास खोने के लिए अब कुछ नहीं और मैं नहीं डरता. हां, बेशक मैं बहुत अकेला महसूस करता हूं. लेकिन मत भूलिए कि करीब दस हजार नौजवानों ने 3 जनवरी (2009) को तेल अवीव में प्रदर्शन किया है. यहां तक कि 2006 में भी हिज्बुल्ला के साथ जंग की शुरुआत में इतनी बड़ी गोलबंदी नहीं हुई थी. यह एक बहुत ही राजनीतिक प्रदर्शन था, जिसमें क्रांतिकारी वाम से लेकर तेल अवीव और जाफा में रहने वाले इस्राइली अरब तक शामिल हुए थे.

सवाल: वाम और यहां तक कि आमोस ओज और अव्राहम बी. येहोशुआ जैसे लेखकों तक ने इन बमबारियों को सही ठहराया है...

जवाब: यहां यह सामान्य है. 1973 के बाद से हरेक जंग की शुरुआत में इस्राइल को सभी जायनिस्ट वामपंथी बुद्धिजीवियों का पूरा समर्थन मिलता आया है. उनकी राय कुछ समय बीतने के बाद ही बदलती है. आज हमें महान दार्शनिक प्रोफेसर येशायाहू लेइबोवित्ज कमी बेहद महसूस हो रही है, जिनका 1994 में निधन हो गया. वे हमेशा इस्राइल के गैर रक्षात्मक युद्धों के खिलाफ लड़ते रहे और उनके नहीं रहने से एक नैतिक खालीपन भर बच गया है.

सवाल: यानी इस्राइल कोई रक्षात्मक युद्ध नहीं कर रहा? इस्राइली शहरों पर रॉकेट गिर रहे थे...

जवाब: बेशक यह सामान्य बात नहीं है कि इस्राइली पर रॉकेट गिर रहे हैं. लेकिन क्या यह कोई सामान्य बात है कि इस्राइल ने अब तक यह फैसला नहीं किया है कि उसकी सरहदें क्या हैं? जो राज्य इन रॉकेटों को बरदाश्त नहीं कर सकता, वही एक ऐसा राज्य भी है जो 1967 में जीते गए इलाकों को छोड़ना भी नहीं चाहता. इसने 2002 के अरब लीग के प्रस्ताव को ठुकरा दिया जिसमें वह 1967 से पहले की सरहदों के साथ इस्राइल को पूरी तरह मान्यता देने वाला था.

सवाल: लेकिन हमास इस्राइल को मान्यता नहीं देता.

जवाब: हमास ने, जो एक क्रूर तथा गैर कूटनीतिक आंदोलन है, गाजा और पश्चिमी तट में एक दीर्घकालिक युद्ध विराम की पेशकश की थी. इस्राइल ने इसे खारिज कर दिया, क्योंकि यह पश्चिमी तट में हमास के लड़ाकों की हत्या जारी रखना चाहता था. असल में इसने कई महीनों की शांति के बाद अक्तूबर-नवंबर (2008) में पंद्रह लड़ाकों की हत्या की. इस तरह रॉकेट हमलों के फिर से शुरू होने की कुछ जिम्मेदारी इस्राइल पर आती है. हमास के उदार धड़े को मजबूत करने के बजाए, इस्राइल फलस्तीनियों को और हताशा की तरफ धकेल रहा है. हमने पिछले बयालीस सालों से एक पूरी आबादी की घेरेबंदी (घेट्टोकरण) कर रखी है और उसे संप्रभुता देने से इन्कार करते आए हैं. या अगर मैं इस्राइल के प्रति नरमी भी बरतूं तो कहें कि बीस सालों से, (1988 से) हम ऐसा करते आए हैं, जब अराफात और फलस्तीनी प्राधिकार ने इस्राइल राज्य को मान्यता दी और इसके बदले में उन्हें कुछ भी नहीं मिला. किसी तरह की गलतफहमी न रहे: मैं हमास के रुख से सहमत नहीं हूं और उसकी धार्मिक विचारधारा से तो और भी नहीं. मैं एक धर्मनिरपेक्षतावादी हूं, एक डेमोक्रेट बल्कि एक उदारवादी हूं. एक इस्राइली और एक इंसान होने के नाते मैं रॉकेटों को पसंद नहीं करता. लेकिन एक इस्राइली और एक इंसान होने के नाते मैं यह नहीं भूल सकता कि जो लोग (इस्राइल पर) रॉकेट दाग रहे हैं, वे उन लोगों के बच्चे और बच्चों के बच्चे हैं जिन्हें 1948 में जाफा और अश्केलोन से खदेड़ दिया गया था. मैं श्लोमो जैंड उन लोगों को उसी जमीन पर शरणार्थी के रूप में देखता हूं, जो कभी उनकी अपनी हुआ करती थी. मैं यह नहीं कह रहा हूं कि मैं उन्हें उनकी जमीन वापस दे सकता हूं. लेकिन शांति के हर प्रस्ताव की शुरुआत इसको स्वीकार करने से ही होनी चाहिए. जो कोई भी इसे भूलता है, वह फलस्तीनियों को एक इंसाफ पर आधारित शांति पेश करने के काबिल नहीं होगा.

सवाल: लेकिन इस बमबारी के हिमायतियों का कहना है कि इस्राइल ने गाजा को छोड़ दिया और तब भी रॉकेट हमले दोगुने हो गए हैं.

जवाब: बकवास! कल्पना कीजिए कि जर्मनों ने दक्षिणी फ्रांस छोड़ कर उत्तरी फ्रांस पर फिर से कब्जा कर लिया है, जैसा कि उन्होंने 1940 में किया था. तब क्या आप कहेंगे कि वे फ्रांसीसी जनता के आत्म-निर्णय के अधिकार का सम्मान कर रहे थे? शेरोन एकतरफा तौर से गाजा से वापस हुए ताकि उन्हें अराफात के साथ शांति समझौता न करना पड़े और पश्चिमी तट नहीं छोड़ना पड़े. लेकिन फलस्तीनी लोग गाजा में भारत की आरक्षण व्यवस्था जैसी कोई चीज नहीं मांग रहे हैं. वे गाजा और पश्चिमी तट में एक स्वतंत्र फलस्तीनी राज्य की मांग कर रहे हैं.

सवाल: यानी सारी गलती इस्राइली पक्ष की है?

जवाब: अफसोस की बात यह है कि इस्राइल को सिर्फ ताकत की जुबान ही समझ में आती है. इक्कीसवीं सदी की शुरुआत में इंसाफ पर आधारित एक शांति समझौते पर पहुंचना नामुमकिन होने की वजह रॉकेट नहीं हैं, बल्कि फलस्तीनियों का कमजोर होना है. इस्राइल ने सिर्फ सादात से 1977 में शांति कायम की थी, क्योंकि मिस्र 1973 में जीत के करीब पहुंच गया था.

सवाल: फ्रांस के ग्रांड रब्बी गिलेस बर्नहाइम ने कहा है कि इस्राइल को 'बेहतरीन भावनाओं के नाम पर खुदकुशी नहीं कर लेनी चाहिए.'

जवाब: लेकिन उनका मतलब क्या है? हमारे अस्तित्व को किससे खतरा है? हमारे पास सबसे बेहतरीन हथियार हैं और हमें दुनिया की महाशक्ति का समर्थन हासिल है. अरब दुनिया हमें 1967 की सरहदों के आधार पर पूरी शांति की पेशकश कर रही है. जिस आखिरी युद्ध ने इस्राइल के अस्तित्व के लिए खतरा पैदा किया था, वह 35 साल पहले (1973 में) हुआ था! इसलिए हो सकता है कि यह बात ग्रांड रब्बी की समझ में नहीं आ रही हो.

सवाल: अकेले वही नहीं हैं. इस्राइल की बमबारी के बारे में लिखते हुए आंद्रे ग्लुक्समान ने दलील दी है कि 'अपने को अस्तित्व में बनाए रखने की इच्छा में कुछ भी अतिरेक नहीं है.'

जवाब: बर्नार्ड-हेनरी लेवी की तरह आज आंद्रे ग्लुक्समान हमेशा सबसे ताकतवर के पक्ष में रहते हैं, इस बार वे येरुशेलम के पक्ष में हैं. वे बदले नहीं हैं.

सवाल: लेकिन बर्नार्ड-हेनरी लेवी ने ध्यान दिलाया है कि आईडीएफ (इस्राइली डिफेंस फोर्स) इमारतों पर बमबारी करने से पहले लोगों को फोन करके उन्हें खाली कर देने को कहती है और यह कि इस्राइल ने नागरिकों को नुकसान पहुंचने से बचने के लिए हर संभव काम किए हैं...

जवाब: ओह, इस्राइल ने फोन किया, इस्राइल ने सावधानी बरती? लेकिन फलस्तीनी परिवार (घर खाली करके) जाएंगे कहां? यह सही है कि इस्राइल अनेक सावधानियां बरतता है. लेकिन सिर्फ अपनी सेना के लिए! उस तरह की मौतें सचमुच चिंताजनक हैं क्योंकि हम एक व्यक्तिवादी और सुविधाभोगी समाज बन गए हैं और हमारे नेताओं को सिर्फ दोबारा चुन लिए जाने की बड़ी चिंता रहती है.

सवाल: बर्नार्ड-हेनरी लेवी का यह भी कहना है कि हमास द्वारा मानवों को ढाल के रूप में इस्तेमाल करने की रणनीति...

जवाब: क्या दोमुंहापन है! क्या वे माओ से सीखी हुई वह बात भूल गए हैं? एक प्रतिरोध आंदोलन को पानी की मछली की तरह जन समुदाय के बीच तैरने में सक्षम होना चाहिए. हमास एक सेना नहीं है. यह आतंक का सहारा लेने वाला प्रतिरोध आंदोलन है, जो एफएलएन से लेकर वियतकॉन्ग की तरह के सभी पूर्ववर्ती आंदोलनों की तरह काम करता है. ऐसा ठीक ठीक इसलिए है कि हमारे नेता जानते हैं कि उन्हें कूटनीति का विशेषाधिकार हासिल है और उन पर नागरिकों का जनसंहार करने से बचने की जिम्मेदारी है. हमने यह साबित किया है कि हममें कोई नैतिक संयम नहीं है, फ्रांस से ज्यादा नहीं, जिसने अल्जीरिया में 1957 में एक पूरे गांव को तबाह कर दिया था. जो बात मुझे पहले से ज्यादा अब आघात पहुंचाती है वह यह है कि जिस राज्य में मैंने दो युद्धों में सैनिक के रूप में सेवाएं दीं और जो 1948 के अपने डिक्लियरेशन ऑफ इंडिपेंडेंस के जरिए खुद को सभी यहूदियों का राज्य कहता है वह अब मेरे विश्वविद्यालय के दोस्तों की तुलना में, जो यहां रहते हैं और कर चुकाते हैं लेकिन अरब मूल के हैं, बर्नार्ड-हेनरी लेवी का राज्य ज्यादा है. ऐसे में जायनिस्ट होने का क्या मतलब है, जब आप फ्रांस में रहते हैं और एक यहूदी सरकार के तहत नहीं रहना चाहते हैं और फिर भी इस्राइल के नेताओं की बदतरीन नीतियों के साथ खड़े होते हैं. इसका मतलब यहूदी विरोध को हवा देना है.

सवाल: वास्तव में जब पेरिस के प्रदर्शनों के दौरान इस्राइली झंडा जलाए जाते देख कर आपको धक्का नहीं लगा?

जवाब: बेशक इससे मैं परेशान हुआ था. यही वजह है कि मेरी तरह सोचने वाले दूसरे इस्राइलियों को सुना जाना महत्वपूर्ण है. चीजों को उस दिशा में जाने पर फौरन रोक लगाई जाए. हमारी बात इसे यकीनी बनाने के लिए भी सुनी जानी चाहिए कि हमारे नेताओं की नीतियों को सारे इस्राइलियों के साथ न जोड़ा जाए, और बेशक न ही सारे यहूदियों के साथ. क्योंकि मुझे यकीन है कि सत्ता प्रतिष्ठान से दूरी रखने वाले फ्रांसीसी यहूदी भी मेरे जैसी राय रखते होंगे.

सवाल: पश्चिमी तट में फलस्तीनियों में हलचल नहीं है...

जवाब: इस युद्ध ने उनकी हताशा को बढ़ाया है. नवंबर 2007 के एनापोलिस सम्मेलन के बाद महमूद अब्बास ने हर तरह के समझौते किए, जिससे उन्हें लगा कि शांति प्रक्रिया आगे बढ़ेगी. यहां तक कि उन्होंने हमास लड़ाकों को कैद भी किया. और इस्राइल ने उनका शुक्रिया इस तरह अदा किया कि उसने जांच चौकियों में कई गुना इजाफा कर दिया, और भी यहूदी बस्तियों का निर्माण बढ़ाता गया और भविष्य के फलस्तीनी राज्य के इलाके में एक दीवार का निर्माण करने लगा. फिर कौन स्वाभिमानी फलस्तीनी होगा जो अब अब्बास का समर्थन करेगा?

सवाल: और इस्राइली अरब लोगों के मन में क्या है?

जवाब: मैं अपने अरब छात्रों के लगातार संपर्क में हूं. उनकी हालत बड़ी अटपटी है. वे हिब्रू बोलते हैं, अक्सर तो मुझसे भी बढ़िया हिब्रू बोलते हैं. मैं देखता हूं कि वे सांस्कृतिक तौर पर वे दिन ब दिन ज्यादा से ज्यादा इस्राइली हो रहे हैं, लेकिन राजनीतिक तौर पर वे दिनोंदिन ज्यादा से ज्यादा इस्राइल-विरोधी हो रहे हैं. वे उस देश में कैसे रह सकते हैं जो उन्हें पूरे नागरिक के रूप में कबूल नहीं करता? मुझे डर है कि उनके अलगाव का नतीजा गैलिली में एक कोसोवो को पैदा करने के रूप में निकलेगा.

सवाल: आप इस्राइलियों से कुछ ऐसा देने को कह रहे हैं जो बहुत बड़ी चीज है, कि वे 1967 के बाद की सरहदों पर से अपना दावा छोड़ दें – वेलिंग वेल या पश्चिमी दीवार के पार के इलाके पर – बल्कि आप यह भी मांग करते हैं कि वे एक इस्राइली गणतंत्र का निर्माण करें जो सिर्फ यहूदियों का राज्य न हो. क्या यह यथार्थवादी है?

सवाल: इस्राइल में अनेक लोग मेरी बात का समर्थन करते हैं. उन्नीस हफ्तों तक मेरी किताब बेस्टसेलर रही थी और दर्जन भर बार टीवी पर उस पर चर्चा हुई. हम एक ऐसा समाज हो सकते हैं जो नस्लवादी हो और पूरी तरह लोकतांत्रिक समाज न हो. लेकिन हम एक गहन उदारवादी और बहुलतावादी समाज भी हो सकते हैं. मेरे जैसे लोग अगर यह मांग करते हैं कि इस्राइल को अपने खुद के नागरिकों का राज्य होना चाहिए, भले ही वे यहूदी हों, अरब हों या कोई और, तो इस पर क्या आपत्ति उठाई जा सकती है? मैं जोड़ूंगा कि खास कर हिटलर के बाद आप यहूदियों की एकता को नकार नहीं सकते और इस्राइली राज्य को सताए हुए यहूदियों की शरणस्थली के रूप में अस्तित्व में रहना चाहिए. लेकिन इसे खुद ब खुद बर्नार्ड-हेनरी लेवी और उन यहूदियों का राज्य नहीं बन जाना चाहिए, जो इस्राइल में रहना नहीं चाहते.

सवाल:और क्या आप जायनिस्ट-विरोधी हैं?

जवाब: नहीं, क्योंकि खुद को जायनिस्ट विरोधी कहने का मतलब इस्राइल-विरोधी हो सकता है. मैं इस्राइल राज्य के अस्तित्व को स्वीकार करता हूं, क्योंकि मैं जायनिज्म और इसके इतिहास की उपज इस्राइली समाज को स्वीकार करता हूं. लेकिन मैं जायनिस्ट नहीं हूं, चूंकि यहां मेरे अस्तित्व को जो चीज परिभाषित करती है, वो यह तथ्य है कि मैं लोकतंत्रवादी हूं. इसका मतलब यह है कि राज्य को अपनी सामाजिक संस्था की अभिव्यक्ति होना चाहिए, न कि दुनिया भर के यहूदियों का. आप कह सकते हैं कि मैं एक पोस्ट-जायनिस्ट हूं.

सवाल: लेकिन क्या इससे यह खतरा पैदा नहीं हो जाएगा कि यहूदी अपने ही बनाए राज्य में अल्संख्यक बन जाएं?

जवाब: मैं इस डर को समझता हूं. इसीलिए मैं एक ऐसे द्विराष्ट्रीय राज्य के खिलाफ हूं, जो एक अरब बहुसंख्या वाला राज्य हो. इसीलिए मैं जितनी जल्दी संभव हो, इस्राइल को 1967 की सीमाओं को स्वीकार करने की हिमायत करता हूं जिससे यहूदी-इस्राइली वर्चस्व कायम रहेगा. लेकिन यह एक विशिष्ट (एक्सक्लूसिव) वर्चस्व नहीं होगा. इस्राइली राज्य को अनिवार्य रूप से धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक होना होगा. मेरी कल्पना में, मेरे कल्पना जगत में द्विराष्ट्रीय राज्य सबसे न्यासंगत संभव नतीजा होगा...

सवाल: अगर उसमें यहूदी अल्पसंख्यक बन जाएं तब भी?

जवाब: सांस्कृतिक रूप से कहें तो मुझे मेरे बच्चों की औलादों से अलग करने वाली दूरी कम से कम उस दूरी जितनी ही महत्वपूर्ण होगी जो मुझे मेरे दादा-दादी से अलग करती है. इसका मतलब है कि पूर्वी इलाकों में जीवन में अरब संस्कृति घुली-मिली रहेगी. इससे भी अधिक मैं यह भी इच्छा करूंगा कि 1967 की सीमाओं से इस्राइल के पीछे हटते ही एक इस्राइली-फलस्तीनी फेडरेशन की स्थापना हो. आमोस ओज जैसे लोगों का यह कहना एक नस्लवादी बकवास है कि हमें अरब लोगों से खुद को काट लेना चाहिए. शांति स्थापित होने के बाद हम थोड़े ज्यादा अरब हो जाएंगे, जैसे कि आप फ्रांसीसी लोग थोड़े ज्यादा यूरोपीय हो गए हैं.

सवाल: लेकिन इस्राइली समाज के बरअक्स, जो कि ज्यादातर धर्मनिरपेक्ष है, फलस्तीनी समाज उससे भी ज्यादा इस्लामी हो गया है जितना या तीस या चालीस साल पहले हुआ करता था...

जवाब: इस्राइल में रहनेवाले अरब नौजवानों, खास कर औरतों, में धार्मिकता नहीं बढ़ रही है. कट्टरपंथ, पश्चिमी दुनिया के विरोध में मजबूत हुआ है. यह धर्म की जीत नहीं है, बल्कि धर्मनिरपेक्ष समाजवाद की नाकामी है. जिस तरह से आप यूरोपीय लोग प्रवासी मजदूरों के साथ सलूक करते हैं, जिस तरह से अमेरिका इराक में अपने युद्ध छेड़ता है, और जिस तरह इस्राइल फलस्तीनियों के साथ पेश आता है, इन सबसे कट्टरपंथ मजबूत होता है. यह विवादों की उपज है, एक स्वाभाविक ऐतिहासिक रुझान नहीं है. देखिए कि अल्जीरिया में क्या हुआ: एफएलएन की पतित हो चुकी राजनीति ने वहां इस्लामपरस्ती को पैदा किया. लेकिन इसकी जड़ें गहरी नहीं थीं और अल्जीरिया अब आधुनिकता की तरफ बढ़ रहा है. यहां पर हमास भले ही इस्लामी बाना पहने हुए हो, यह हमेशा ही एक आधुनिक राष्ट्रवादी आंदोलन रहा है.

सवाल: अपनी किताब में आपने इस्राइल की स्थापना से जुड़े मिथकों को ध्वस्त किया है- जैसे कि निर्वासित लोगों के अपनी धरती पर लौटने का मिथक. लेकिन इसकी जगह आप इस देश के अस्तित्व को न्यायोचित ठहराने के लिए क्या पेश करेंगे?

जवाब: मुझे हाल ही में, येरुशेलम में फलस्तीनी यूनिवर्सिटी में यह सवाल किया गया था. मैंने इसका जवाब एक नाटकीय लहजे में दिया. मैंने कहा कि एक बलात्कार के नतीजे में पैदा हुए बच्चे को भी जीने का अधिकार होता है. यहूदियों द्वारा, जिनमें से अनेक जनसंहार शिविरों से बच कर आए थे, इस्राइल का निर्माण एक बलात्कार ही था, जो फलस्तीन की अरब आबादी के साथ किया गया था. इसने एक इस्राइली समाज को पैदा किया जो अब सत्तर साल पुराना हो चला है और इसने अपनी एक संस्कृति विकसित कर ली है. आप एक त्रासदी को खत्म करने के लिए दूसरी पैदा न करें. इस बच्चे को बने रहने का हक है. लेकिन इसे ऐसी शिक्षा मिलनी चाहिए कि यह अपने पैदा करने वालों की गलतियों को न दोहराए. तीस साल पहले मैं यह सारी बातें कह तक नहीं सकता था. लेकिन अरब दुनिया ने इस्राइल को मान्यता दे दी है. पीएलओ ने भी इंतिफादा में आधी जीत हासिल करने के बाद इसे स्वीकार लिया. आइए, हमास को भी एक मौका देते हैं. हम उन्हें कोई बहाना नहीं दे रहे हैं, लेकिन मत भूलिए कि अश्केलोन पर गोलीबारी कर रहे लोग जानते हैं कि इसे एक अरब गांव अल मजदाल के ऊपर बसाया गया है, जहां से उनके बाप-दादों को 1950 में खदेड़ दिया गया था.

सवाल: हम इस्राइली नीति से बहुत दूर हैं, यहां...

जवाब: इस्राइल शांति को स्वीकार तभी करेगा, जब उस पर दबाव बनाया जाएगा. मैं चाहता हूं, मैं उम्मीद करता हूं, मैं भीख मांगता हूं कि ओबामा कार्टर की तरह होंगे, न कि क्लिंटन की तरह. कार्टर ने इस्राइल को मिस्र के साथ शांति संधि करने के लिए मजबूर किया था. क्लिंटन ने इस्राइल को फलस्तीनियों के साथ शांति संधि करने के लिए मजबूर नहीं किया. इसमें जोखिम भी बहुत साफ है कि हिलेरी क्लिंटन का, जो इस्राइल-परस्त लॉबी के करीब हैं, विदेशी नीतियों पर भारी प्रभाव रहेगा. लेकिन मैं भाग्यवादी नहीं बनना चाहता, मेरी उम्मीद कायम है. 
 

(अंग्रेजी अनुवाद वर्सो बुक्स के ब्लॉग से साभार. समयांतर के सितंबर, 2014 अंक में प्रकाशित)

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