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Memories of Another day

Memories of Another day
While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Sunday, March 15, 2015

मुक्तबाजारी कारपोरेट फासीवाद को खिलाफ लड़ाई बहुजनों की सक्रिय हिस्सेदारी के बिना असंभव है फासिस्ट कारपोरेट संघ परिवार ने इस पूरी बहुजन कवायद को न सिर्फ समझा है बल्कि उसे सिरे से आत्मसात करके महाबलि बनकर खड़ा है और हम चुनिंदे लोग फासीवाद के खिलाफ चीख चिल्ला रहे हैं जबकि बहुजन समाज के आकार में जो सर्वहारा वर्ग है,वह केसरिया केसरिया कमल कमल है। पलाश विश्वास

मुक्तबाजारी कारपोरेट फासीवाद को खिलाफ लड़ाई बहुजनों की सक्रिय हिस्सेदारी के बिना असंभव है

फासिस्ट कारपोरेट संघ परिवार ने इस पूरी बहुजन कवायद को न सिर्फ समझा है बल्कि उसे सिरे से आत्मसात करके महाबलि बनकर खड़ा है और हम चुनिंदे लोग फासीवाद के खिलाफ चीख चिल्ला रहे हैं जबकि बहुजन समाज के आकार में जो सर्वहारा वर्ग है,वह केसरिया केसरिया कमल कमल है।


पलाश विश्वास




आज मान्यवर कांशीराम जी की जयंती है।


जाहिर है कि जयंती पालन करने में बहुजन समाज सबसे आगे होता है।सुबह ही कर्नल साहब ने याद दिलाया कि मान्यवर का जन्मदिन है आज।कर्नल साहेब से मौजूदा बहुजन आंदोलन और कारपोरेट फासीवाद के खिलाफ लड़ाई के सिलसिले में आर्थिक मुद्दों को लेकर अस्मिता के आर पार बहुजनों की लामबंदी की चुनौतियों पर लंबी बातचीत चली।


कर्नल साहब मानते हैं कि बहुजन कार्यकर्ता आऱ्थिक मुद्दों और कारपोरेट फीसीवाद को समझते तो हैं लेकिन उनको गोलबंद करके प्रतिरोध की जमीन बनाने में हम कोई पहल नहीं कर पा रहे हैं।


पीसी खोला तो विद्याभूषण  रावत और एचएल दुसाध के दो आलेखों के अलावा बहुजनों की ओर  से तमाम पोस्ट देखने को मिले।


फेसबुक के स्टेटस पर पहला पैरा लगाते न लगाते हमारे मित्र डा. लेनिन  का मंतव्य आ गयाः

Lenin Raghuvanshi Udit Raj ji kar rahe hai. Bina Neo Dalit movement Ke Kuchh nahi hoga


इधर महीनेभर से लागातार अस्वस्थ होने के कारण लिखने पढ़ने पर बिगड़ती सेहत ने अंकुश लगा दी है।


मान्यवर कांसीराम जी के महिमामंडन के लिए मेरे लिए कुछ भी लिखना संभव नहीं है।हम मौजूदा चुनौतियों के मुकाबले उनके बहुजन आंदोलन की प्रासंगिकता पर बात करना चाहेंगे जो कि मुक्तबाजारी फासीवाद से जूझने के लिए जरुरी भी है।


परसो शाम नई दिल्ली में हमारे मित्रों ने अन्वेषा की ओर से आयोजित संगोष्ठी में फासीवाद के खिलाफ राजनीतिक तौर पर सक्रिय संस्कृतिकर्म पर विचार विमर्श किया है।


एक तो नौकरी की आखिरी पायदान में हूं,सेहत दगा देने लगी है और आगे नये सिरे से जिंदा रहने की तैयारी भी बड़ी चुनौती है।मैं दिल्ली या आसपास कहीं,यहां तक कि कोलकाता तक दौड़ लगाने की हालत में नहीं हूं।


कविता कृष्णपल्लवी के लेखन से मैं हमेशा प्रभावित रहा हूं और दिल्ली में इस आयोजन की वे संयोजक थी।संगोष्ठी में हमारे दो प्रिय कवि मंगलेश डबराल और विष्णु नागर हाजिर थे।सक्रिय लेखक कार्यकर्ता आशुतोष भी वहां थे।इसके अलावा वैकल्पिक मीडिया में सबसे जुझारु और सक्रिय हमारे दो साथी अमलेंदु और अभिषेक भी वक्ताओं में थे।कविता सोलह मई के संयोजक और बेहतरीन समकालीन कवि रंजील वर्मा भी वहां थे।


कविता जी और हमारे दूसरे प्रतिबद्ध साथी मुझे माफ करें,इस गोष्ठी में दिल्ली में बसे संस्कृतिकर्मियों की जिस भागेदारी की मुझे उम्मीद थी,वह दिखी नहीं।राजनैतिक और वैचारिक वक्तव्यों से भी मुझे दिशा निकलती दीख नहीं रही है।


हमने सुबह सुबह अमलेंदु को फोन लगाया कि गोष्ठी में क्या कुछ हुआ और कुल कितने लोग और कौन लोग शामिल थे।उनसे आगे की योजनाओं पर चर्चा हुई और अपने मोर्चे को और संगठित और व्यापक बनाने पर लंबी चर्चा के साथ हस्तक्षेप को जारी रखने की फौरी चुनौती पर भी बात हुई।


मुझे भारी निराशा है कि हम कारपोरेट मुक्तबाजारी फासीवाद के खिलाफ  इस लड़ाई के दायरे में पुराने परिचित और आत्मीय चेहरों को ही देख पा रहे हैं।


हम तो हस्तक्षेप की टीम का भी विस्तार चाहते हैं और चाहते हैं कि आर्थिक मुद्दों को हम बेहतर तरीके से संबोधित कर सकें।


संसाधनों और मदद का हाल यह है कि सिर्फ आर्थिक सूचनाओं को सही परिप्रेक्ष्य में बतौर समाचार लगाते रहने का उपाय नहीं है और एजंसियों की सेवा लेने के पैसे नहीं हैं।जबकि आर्थिक सूचनाएं वस्तुगत ढंग से तुरंत जारी किये बिना,लगों को सचेत किये बिना हम दरअसल कुछ भी नहीं कर सकते हैं।


हम कारपोरेट पत्रकार हैं नहीं और न हम कारपोरेट संस्कृतिकर्मी हैं।दरअसल हम पर अपने पिता और बहुजनों के पुरखों की विरासत का दबाव है कि हमें हर हाल में सीने पर जख्म खाकर भी पीठ दिखाना नहीं है और लड़ते जाना है।यह गांव बसंतीपुर के वजूद का मामला भी है जो हम पीछे हट नहीं सकते।वरना हालात यह है कि हम जिंदा रहने लायक भी नहीं हैं।


हमारे बच्चे अगर इस विरासत के प्रति तनिकों गंभीर होते या कमसकम आतमनिर्भर होते तो हम मदद की गुहार भी न लगाते।हमारी मजबूरी समझें।हम बहुजनों के संसाधनों की लूटभी रोक नहीं सके हैं और न उनको जनमोर्चा का हिस्सा बना सके हैं,इससे हम इतने असहाय हैं।वरना पेशेवर दक्षता तो इतनी कम से कम है कि वैकल्पिक मीडिया का कम से कम एक तोपखाना जारी रखें।


जेएनयू जामिया मिलिया में हमारे जो प्रतिबद्ध आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं और जो सचमुच कारपोरेटमुक्त बाजारी फासीवाद के खिलाफ देशबर में किसी न किसी स्तर पर सक्रिय हैं और आर्थिक मुद्दों को संबोधित कर सकते हैं,वे लगातार लिखें तो हम यह बहस चला सकते हैं।


हस्तक्षेप को जारी रखने के लिए मित्रों से सहयोग और सक्रिय पहल की जरुरत है क्योंकि अगर हम यह मोर्चा जारी रख सकें तो सूचनाओं को बेनकाब करने का काम चलेगा।


चूंकि आज कांशीराम जी का जन्मदिन भी है तो मैं शुरु से ही यह बताना चाहता हूं कि मुक्तबाजारी फासीवाद की निरंकुश कामयाबी के पीछे बहुजनों का भगवाकरण है और इसे हम समझने से इंकार कर रहे हैं।


इसे समझे बिना और इसकी तोड़ निकाले बिना फासीवाद के खिलाफ लड़ाई हवा में लाठियां भांजने के सिवाय कुछ भी नहीं हैं,हमें ऐसा लिखना पड़ रहा है और इसके लिए हमारे प्रतिबद्ध और समझदार साथी हमें माफ करें।


फासीवाद का तिलिस्म अगर बहुजनों की धर्मोन्मादी पैदल सेना बन जाने से तामीर हो पााया है तो इस तिलिस्म के खिलाफ बहुजनों को लामबंद किये बिना सिर्फ वैचारिक और बौद्धिक सक्रियता से हम कारपोरेट केसरिया फासीवाद का जमीन पर हर्गिज मुकाबला कर नहीं सकते।


अन्वेषा की संगोष्ठी के आयोजकों की वैचारिक राजनीतिक आर्थिक समझ का मैं हमेशा कायल रहा हूं।वे लोग हमसे कहीं ज्यादा प्रतिबद्ध हैं और सक्रिय भी हैं,लेकिन वे लोग कुल मिलाकर कितने लोग हैं।


फिरभी मुझे कहना ही होगा कि जिस मेहनकश सर्वहारा की बात हम लोग करते हैं,जिस वर्गीय ध्रूवीकरण के तहत गोलबंदी के जरिये हम राज्यतंत्र में बदलाव का मंसूबा बांधते हैं,उनके सामाजिक आधार और मौजूदा अवस्थान को समझे बिना हमारी लड़ाई शुरु ही नहीं सकती।


फासीवाद,सम्राज्यवाद,उत्पादन संबंधों,आर्थिक मुद्दों ,राजनीतिक और वैचारिक मुद्दों पर हमारे कामरेड शुरु से गजब के जानकार रहे हैं। लेकिन रिजल्ट फिरभी सिफर क्यों है,यह हमारी परेशानी का सबब है।


हम संसदीय वामपंथ की बात नहीं कर रहे हैं,बदलाव की लड़ाई में जो सबसे प्रतिबद्ध और ईमानदार लोग हैं,उनकी बात कर रहे हैं।


वैचारिक और राजनीतिक बहस के अलावा हरित क्रांति की शुरुआत और किसानों के जनविद्रोह के जमाने से लेकर अबतक फासिस्ट ताकतें लगातार मजबूत होती रही मेहनतकश सर्वहारा वर्ग के भगवेकरण की कामयाब राजनीति और रणनीति के तहत और उनके धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद के मुकाबले हम अभी लड़ाई की पहल भी नहीं कर सकें।


तो इसका सीधे सीधे मतलब है कि हमने न जनता के बीच जाने की तकलीफें उठायी हैं और जनता से सीखने की कोशिश की है।अप्रिय सत्य कहने के लिए माफ जरुर करें।


जनता के मौजूदा संकट.उसके खिलाफ नरसंहारी कारपोरेट फासीवादी अश्वमेध,उसकी बेदखली और उत्पदान प्रणाली ,संसाधनों और अर्थव्यवस्था से उसके निष्कासन का जिम्मेदार जनता को बताकर हम बौद्धिक लोग लेकिन अपनी हैसियत खो देने को कोई जोखिम उठा नहीं रहे हैं और फासीवाद हर किसी को शहीद भी नहीं बनाता।


हम महज जनता को शिक्षित करने का अहंकार जीते रहे हैं।


वातानुकूलित बंद सभागृहों से हम फासीवाद के खिलाफ लड़ ही नहीं सकते।


जो मीडिया का कारपोरेट तंत्र है,वहां फासीवाद के खिलाफ राजनीतिक और वैचारिक सोच को संप्रेषित करने के रास्ते बंद है।


इसीलिए हम हस्तक्षेप,समकालीन तीसरी दुनिया,समयांतर और वैकल्पिक मीडिया के तमाम मंचों को जीवित रखने के लिए जनहिस्सेदारी की बात बार बार कर रहे हैं।


हमारे प्रतिबद्ध लोग चाहे कितने समझदार और परिपक्व है,यह सिरे से बेमायने हैं अगर हम फासीवादी तिलिस्म में फंसे बहुसंख्य बहुजन मेहनतकश सर्वहारा वर्ग के वर्गीय ध्रूवीकरण की कोई सही और कारगर रणनीति बनाकर उसे जमीन पर अमली जामा पहनाने की कोशिश नहीं करते और कार्पोरेट केसरिया मुक्तबाजारी धर्मोन्मादी ध्रूवीकरण से तोड़कर मेहनतकश तबके को मुक्तिकामी सर्वहारा वर्ग में तब्दील नहीं कर सकते।


कल भी हमने लिखा है कि जो बहुजन पैदल सेनाएं हैं और उनके किसिम किसिम के रंगबाज सिपाहसालार हिंदुत्व के बजरंगी है,उन्हें मालूम ही नहीं है कि जिस विधर्मी अल्पसंख्यक भारत के खिलाफ धर्मोन्मादी ध्रूवीकरण फासिस्ट हिंदू साम्राजवाद के कारपोरेट ग्लोबल हिंदुत्व की पूंजी है,वह तबका उनका अपना खून है और उनसे कमसकम बहुजनों और मेहनतकशों का कोई वैमनस्य नहीं है।


धर्मांतरित बहुसंख्य लोग कृषि समुदायों की अछूत अंत्यज जातियां रही हैं और हिंदुत्व की जातिव्यवस्था जिनके लिए नर्क है।वे सारे लोग बहुजनसमाज के ही लोग हैं।उनका हमारा खून एकचआहे।


यह नर्क कितनी भयंकर है ,उसे समझने के लिए बाबासाहेब के बौद्धमयभारत बनाने के महासंकल्प से पहले दिये गये वक्तव्यको उसकी पूरी बावना के साथ समझना बेहद जरुरी है।


बाबासाहेब ने कहा था,मैं हिंदू होकर जनमा हूं,लेकिन मैं हिंदू रहकर मरुंगा नहीं।


बाबासाहेब का यह वक्तव्य भारत का वर्गीय सामाजिक यथार्थ है,जिसे समझने से हम अब भी इंकार कर रहे हैं।


इसी सिलसिले में यह ध्यान दिलाना बेहद जरुरी है कि भारत में तमाम आदिवासी और किसान विद्रोहों में बहुजन नायकों की भूमिका निर्णायक रही है,जो साम्राज्यवाद और सामंतवाद के खिलाफ बहुजन समाज की लामबंदी से संभव हुए।


हम अपनी क्रांति के बौद्धिक उत्सव में इतिहास की उस निरंतरता को बनाये रखने में इसलिए भी नाकाम रहे कि बहुजनों के वर्गीय ध्रूवीकरण के लिए जिन सामाजिक यथार्थों से हमें टकराने की दरकार थी,हम उससे टकराने से बचते रहे हैं।


कांशीराम जी ने बहुजनों के लिए सत्ता में भागीदारी का रास्ता तैयार किया है,इसके लिए हम उन्हें महान नहीं मानते हैं क्योंकि सत्ता या सत्ता की चाबी से हमें कुछ लेना देना नहीं है।


फासिस्ट कारपोरेट सत्ता में हिस्सेदारी तो सामंती और साम्राज्यवादी ताकतों को मजबूत करने का ही काम है।


बाबासाहेब डा.भीमराव अंबेडकर ने कभी जाति अस्मिता की बात की हो या जाति अस्मिता के आधार पर समता और सामाजिक न्याय की बात की हो,हमें नहीं मालूम। वे शुरु से आखिर तक डीप्रेस्ड क्लास की बात कर रहे थे।


बाबासाहेब के राजनीति और आर्थिक विचारों को लेकर विवाद हो सकते हैं,उनके रचे संविधान की भी आलोचना कर सकते हैं,लेकिन डीप्रेस्ट क्लास के अंबेडकरी सामाजिक यथार्थ को नजरअंदाज करके और अंबेडकरी जाति उन्मूलन के एजंडा के आधार पर बहुजनों को अस्मिता मुक्त जाति मुक्त मुक्तकामी मेहनतकश सर्वहारा वर्ग में तब्दील करने की राजनैतिक वैचारिक चुनौती का हम कितना निर्वाह कर पाये,इसकी समीक्षा भी अनिवार्य है।


कांसीराम के मुकाबले बाबासाहेब का कद और योगदान को किसी भी स्तर पर रखा नहीं जा सकता। लेकिन यह ऐतिहासिक सच है कि भारते के डीप्रेस्ड क्लास को बाबासाहेब किसी भी स्तर पर संगठित नहीं कर पाये।विचारक और मनीषी बाबासाहेब बहुत बड़े हैं,लेकिन बतौर संगठक उनका कृतित्व बेहद कम है।


इसे मानने में किसी को ऐतराज नहीं होना चाहिए कि कांशीराम जी ने अपनी सांगठनिक दक्षता से बहुजनसमाज को आकार ही नहीं दिया ,उसे संगठित करके राजनीतिक अंजाम तक भी पहुंचाया।


बामसेफ का गटन ही बहुत बड़ा क्रांतिकारी काम रहा है।लेकिन बामसेफ आखिरकार धनवसूली ,मसीहा पैदा करने वाली मशीन और सामाजिक जनजागरण के बजाय विशुद्ध घृणा अभियान में जो तब्दील हुआ,उसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि कि बामसेफ में फिर दूसरा कोई कांसीराम नहीं हुआ।


बामसेफ के तहत गोलबंद बहुजनों की ताकत और संभावनाओं को,जाति अस्मिता को वर्गीय ध्रूवीकरण  में बदलने और सवर्णों के खिलाफ अंध घृणा के बजाय उसे सामंती और साम्राज्यवादी सत्ता वर्चस्व के खिलाफ खड़ा कर पाने की चुनौती हम मंजूर नहीं कर सकें।


बामसेफ को बहुजनों के जल जंगल जमीन नागरिकता आजीविका के हक हकूक की लड़ाई का मोर्चा हम बना नहीं सकें और आर्थिक मुद्दों पर बहस हम तेज कर सकें और बहुजनों की आंखें खोलकर उन्हें फासिस्ट कारपेरट वर्ण वर्चस्व के मनुस्मृति राज का असली चेहरा दिखा पाये हैं।


इसके लिए बामसेफ के लोग उतने जिम्मेदार नहीं हैं जितने कि बामसेफ के बाहर तमाशबीन जमीन से कटे वैचारिक और प्रतिबद्ध समूह।उन्होंने बहुजनों को संबोधित करने की कोई कोशिश ही नहीं की और जाति वर्चस्व के तहत वे बहुजनों से अस्पृश्यता का रंगभेदी अमानविकआचरण करते हुए सिर्फ अपनी मेधा और बौद्धिकता,अपनी कुलीनता का ढोल बजाने का काम करते रहे।यही उनकी राजनीति है,जिसका सामाजिक यथार्थ से कोई वास्ता नहीं है।


बहरहाल,जिस जाति की वजह से बहुजनों की नर्कदशा है,बामसेफ उसी जाति को मजबूत करता रहा और जाति वर्चस्व और जाति संघर्ष के जरिये मान्यवर कांशीराम का बहुजन समाज बिखरता रहा।


अछूतों की राजनीतिक गोलबंदी को चूंकि वैचारिक औरक बौद्धिक लोगों ने समझने की कोशिश ही नहीं की तो बहुजनों से संवाद के हालात कभी बने नहीं हैं।


बेहद निर्मम है यह सामाजिक यथार्थ कि भारत में बहुजन, अल्पसंख्यक और अछूत सिर्फ वर्णवर्चस्वी मनुस्मृति रंगभेदी सवर्ण हेजेमनी का वोट बैंक है।


और यही लोकतंत्र है जिसका फासीवादी कायाकल्प इस मसामाजिक यथार्थ की तार्किक परिणति है क्योंकि इस लोकतंत्र में बहुजनों,अल्पसंख्यकों और अछूतों का,महिलाओं का भी कोई हिस्सा नहीं है।


इसके विपरीत फासिस्ट कारपोरेट संघ परिवार ने इस पूरी बहुजन कवायद को न सिर्फ समझा है बल्कि उसे सिरे से आत्मसात करके महाबलि बनकर खड़ा है और हम चुनिंदे लोग फासीवाद के खिलाफ चीख चिल्ला रहे हैं जबकि बहुजन समाज के आकार में जो सर्वहारा वर्ग है,वह केसरिया केसरिया कमल कमल है।


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