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Memories of Another day

Memories of Another day
While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Tuesday, May 24, 2016

फासिज्म की निरकुंश सत्ता मनुस्मृति की पितृसत्ता है और उसके खिलाफ मोर्चाबंदी ही हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता है। स्त्री अस्मिता के हम पक्षधर हैं तो फासिज्म विरोधी ताकतों को पहले एकजुट करें। बाकी जहां जहां संतन पांव धरिन,तहां तहां पतंजलि साम्राज्य! असम में नये मुख्यमंत्री की ताजपोशी के साथ ही कारपोरेट बाबा को बोडोलैंड में जमीन,उल्फा भी विरोध में! पलाश विश्वास



फासिज्म की निरकुंश सत्ता मनुस्मृति की पितृसत्ता है और उसके खिलाफ मोर्चाबंदी ही हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता है।

स्त्री अस्मिता के हम पक्षधर हैं तो फासिज्म विरोधी ताकतों को पहले एकजुट करें।

बाकी जहां जहां संतन पांव धरिन,तहां तहां पतंजलि साम्राज्य!

असम में नये मुख्यमंत्री की ताजपोशी के साथ ही कारपोरेट बाबा को बोडोलैंड में जमीन,उल्फा भी विरोध में!

पलाश विश्वास

हमारे हिसाब से फासिज्म की निरकुंश सत्ता मनुस्मृति की पितृसत्ता है और उसके खिलाफ मोर्चाबंदी ही हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता है।इस वक्त लोकतंत्र से बड़ा कोई मुद्दा नहीं है और फासिजम की पितृसत्ता तेजी से लोकतंत्र को खत्म कर रही है,संविधान की हत्या कर रही है और कानून का राज है ही नहीं।

हम लोग अगर स्त्री अस्मिता के हम पक्षधर हैं तो व्यक्तियों के खिलाफ मोर्चाबंदी की बजाये फासिज्म विरोधी ताकतों को पहले एकजुट करें।हम जनांदोलन में व्यकित के तानाशाही नेतृत्व और व्यक्तिनिर्भर आंदोलन को जितना आत्मघाती मानते हैं ,उसीतरह व्यक्ति केंद्रित विमर्श के हम एकदम खिलाफ हैं,चाहे आप जो समझें।

बाकी हालात ये हैं कि जहां जहां संतन पांव धरिन,तहां तहां पतंजलि साम्राज्य।

बाकी जहां जहां कमल खिलखिला रहे ,पतंंजलि साम्राज्य ही चक्रवर्ती महाराजाधिराज के स्मार्ट डिजिटल विकास का स्रवोत्तम आर्थिक सुधार है और यह पतंजलि अश्वमेध राजसूय का आवाहन दरअसल अबाध पूंजी है।संपू्र्ण निजीकरण और संपूर्ण विनिवेश है तो स्त्री का संपूर्ण उपभोक्ताकरण का पुत्रजीवक अभियान भी यह है।


यह वर्णश्रेष्ठों के वर्चस्व का रंगभेदी राजधर्म है तो अल्पसंख्यको,स्त्रियों,छात्रों,बच्चों,दलितों,पिछड़ों और आदिवासियों का आखेट भी है।तो हमारे प्रतिरोध का एकमात्र विकल्प जनपक्षधर लोकतांत्रिक ताकतों का मोर्चा है और हमने इसी पर फोकस किया है।


ताजा खबर यह है कि असम में नये मुख्यमंत्री की ताजपोशी के साथ ही कारपोरेट बाबा को बोडोलैंड में जमीन,उल्फा भी विरोध में है।केसरिया सुनामी के विस्तार के साथ साथ जो हिंदुत्व का एजंडा योगाभ्यास और बजरंगी धावा है,उसका यह पतंजलि विस्तार भी संजोग से है और अंबानी अडानी देशी पूंजी के जल जंगल जमीन लूटो देश बेचो हिंदुत्व का असली चेहरा यह सनातन है जो कभी मनमोहन का मायावी संसार रहा है तो अब विशुध पुत्रजीवक है।

हमें स्त्री की अस्मिता और मनुस्मडति मुताबिक उसकी यौनदासी के विधान का प्रतिरोध दरअसल इसी बिंदू से राजधर्म के खिलाफ जनप्रतिबद्ध गोलबंदी के तहत करना चाहिए और व्यक्ति निर्भर आंदोलन की तरह व्यक्ति निर्भर संवाद और विमर्श से यथासंभव बचना चाहि,ऐसी मेरी राय है और मजहबी सियासत और सियासती मजहब की तरह जनपक्षधरता भी असहिष्णुता का विशुध फतवा है,तो मुझे स्पष्टीकरण कोई अब देना नहीं है।चाहे तो आप हमें सिरे से खारिज कर दें या बजरंगी अवतार में हमारा सर कलम कर दें।

हमारे लिए इस महादेश में ही नहीं,ग्लोबल व्यवस्था में रंगभेदी वर्चस्व है तो अटूट जाति धर्म क्षेत्रीय अस्मिताओं की प्रचंड पितृसत्ता का वीभत्स चेहरा है,जो दरअसल हिंदुत्व का एजंडा है और हमारी तमाम गतिविधियों पर इस तिलिस्म में सत्ता पक्ष का ही नियंत्रण है और जनमत की अभिव्यक्ति और निर्माण की गुंजाइश कहीं नहीं क्योंकि मुक्तबाजार सबसे बड़ा हथियार सूचना तंत्र मीडिया और सोशल मीडिया है जिसकी भाषा,विधा,माध्यम,सौदर्यशास्त्र सबकुछ पर मुक्तबाजारी निरंकुश सत्ता है और हम देवमंडल के सनातन पुजारी या तो व्यक्ति पूजा या फिर व्यक्ति नेतृत्व या व्यकितविरोध की क्रांति में निष्णात हैं।हमारे मुद्दे नहीं हैं।

प्रकृति भी स्त्री है और यह पृथ्वी भी स्त्री है और उसके साथ बलात्कार उत्सव अब फासिजम का राजकाज राजधर्म है और उसके खिलाफ प्रतिरोध की क्या कहें, जनमत बनाने की हमारी कोई तैयारी है नहीं और हम मीडिया के रचे जनादेश पर हालात बजलने की मुहिम में जाने अनजाने लगे हुए जनपक्षधरता निभा रहे हैं।


जल जंगल जमीन मनुष्यता सभ्यता लहूलुहान हैंं।हिमालयउत्तुंग शिखरों और समूचे जलस्रोतों के साथ दावानल के कारपोरेट माफिया उद्यम में रोज रोज खाक है तो परमाणु उर्जा का विकल्प चुनकर समुद्र रेडियोएक्टिव है और राष्ट्र अब नागरिकों के खिलाफ युद्ध में है क्योंकि राष्ट्र भी विशुध पतंजलि का विशुध सैन्यतंत्र है।


बाकी मुक्त बाजार में या सूखा है या भूकंप है या बेरोजगारी या भुखमरी है,किसानों की हत्या है,मेहनतकशों के कटेहिए हाथ पांव है,छात्रों के सर कलम हैं और बेइतंहा बेदखली है और जनसंहार का निरंकुश कार्निवाल है।हमारा मुद्दा क्या है।

गायपट्टी के बाद आदिवासी भूगोल का सफाया करने के बाद पूरब और पूर्वोत्तर में केसरिया सुनामी है और बुद्धमय बंगाल का संपूर्ण केसरियाकरण है क्योंकि दस फीसद वोटर विशुध हिंदुत्व का सनातन कैडर है और तमाम स्लीपिंग सेल एक्टिव है और हमें मालूम भी नहीं है कि हमारे क्या ऐसेट हैं।हमें मालूम भी नहीं है कि सारे संसाधन और सारी विरासत और सारा इतिहास भूगोल हमारे हैं।हमारा बिनाशर्त आत्मसमर्पण है।

वैचारिक क्रांति की आत्मरति घनघोर है और दसों दशाओं में फासिज्म की सुनामी है।कारपोरेटराज अब विशुध पतंजलि और बजरंगी योगाभ्यास है और हमारी जवनप्रतिबद्धता विशुध सनातन संस्कृति पितृसत्ता में तब्दील है।


स्त्री को कदम कदम पर यौन दासी बनाने के तंत्र मंत्र यंत्र के विरोध के अनिवार्य कार्य़भार को तिलाजंलि देकर हम देहमुक्ति में स्त्री मुक्ति तलाश रहे है जो फासिज्म के इस मनुस्मृति राज में निहायत असंभव है।


करोड़ों बजरंगियों से निबटने के बजाय इकलोता बजरंगी के खिलाफ हम तीर तरकश आजमा रहे हैं और यह भी समझ में नहीं रहे हैं कि यह प्रतिस्थापित विमर्श है हवा हवाई।लगे रहो भाई।

असम भी अब गुजरात है और हमारे लिए यह कोई मुद्दा नहीं है।

सलावाजुड़ुम मुद्दा नहीं है।आफस्पा मुद्दा नहीं है।सैन्यतंत्र सलवा जुडुम मुद्दा नहीं है।जाति और आरक्षण मुद्दा है।मुक्तबाजार,संपूर्ण निजीकरण,संपूर्ण विनिवेश,अबाध पूंजी और सत्ता का फासिज्म और सैन्य राष्ट्र हमारे मुद्दे नहीं हैं।हम क्रांतिकारी हैं।

असम को सर्बानंद सोनोवाल के रूप में आज प्रदेश का नया मुख्यमंत्री मिला है जिनने पद संभालने से पहले ही बांग्लादेशियों के बहाने शरणार्थियों,अल्पसंख्यकों और असम में रहने वाले गैर असमिया जनसंख्या के खिलाफ जंग का ऐलान कर दिया है।


लोकतंत्र का यह जनादेश है या फिर उल्फा का आतंक है,कहा नहीं जा सकता।अस्सी के दशक का असम फिर नये कलेवर में उल्फा नियंत्रण में है।


बहरहाल मीडिया की खबर है कि मुख्यमंत्री की  इस कुर्सी के साथ सोनोवाल को मिल रहा है एक बड़ा सवाल। सवाल भी छोटा नहीं है, पतंजलि के सर्वेसर्वा और योग गुरु स्वामी रामदेव से जुड़ा है।


बहरहाल मीडिया की खबर है कि दरअसल, रामदेव प्रदेश में कुछ जमीन लेना चाहते हैं लेकिन राज्य में बीजेपी की गठबंधन सहयोगी बोडोलैंपल्स फ्रंट (बीपीएफ) पतंजलि ट्रस्ट को जमीन अलॉट करने में नाकाम दिख रही है। बड़ी बात यह है कि उन्हें अपने ही धड़े यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम (उल्फा) की नाराजगी का सामना करना पड़ रहा है।

बहरहाल मीडिया की खबर है कि टीम अन्ना के पूर्व सदस्य और कृषक मुक्ति संग्राम समिति के अध्यक्ष अखिल गोगोई ने बोडोलैंड टेरिटोरियल काउंसिल (बीटीसी) के पतंजलि को जमीन अलॉट करने के कदम का विरोध किया है।


बहरहाल मीडिया की खबर है कि राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि राज्य के नए मुख्यमंत्री सोनोवाल को शुरू में ही इस मामले से निपटना होगा। उनके लिए रामदेव को जमीन मुहैया कराना बड़ी चुनौती होगी। यही नहीं, भविष्य में रामदेव का इनवेस्टमेंट भी इसी पर निर्भर करेगा। बता दें कि अखिल गोगोई पहले लैंड पॉलिसी के खिलाफ आंदोलन करते रहे हैं।


सबसे पहले यह साफ कर दूं बाहैसियत लेखक मेरी शैली और भाषा से शायद मैं अपना पक्ष साबित नहीं कर पा रहा हूं जो हर हालत में पितृसत्ता के खिलाफ स्त्री पक्ष है।मैं मुक्तबाजारी उत्तरआधुनिकतावाद के तहत यौन संवतंत्रता का जो उपभोक्ता करण है,उसका हमेशा विरोध करता रहा हूं लेकिन मैं स्त्री की अपना सेक्स पार्टनर की स्वतंत्रता और सेक्स की इच्छा और अनिच्छा के मामले उसकी स्वतंत्रता का समर्थन करता हूं।हिंदुत्व हो या अन्य़ कोई धर्ममत,राजनीति हो या बाजार स्त्री को यौनदासी बनाने की हर परंपरा और सनातन रीति के खिलाफ मैं खड़ा हूं।


कविता कृष्णन  भी शायद मुक्तबाजारी उन्मुक्त सेक्स कार्निवाल की बात नहीं कर रही है बल्कि वह सीधे तौर पर स्त्री अस्मिता और स्त्री स्वतंत्रता की बात कर रही है।


मैं उनकी बहुत इज्जत करता हूं और उनके खिलाफ किसी भी मुहिम का उतना ही विरोध और निंदा करता हूं जितना मैं आदिवासी भूगोल,हिमालय क्षेत्र,शरणार्थी,अश्वेत अछूत दुनिया की तमाम स्त्रियों का समर्थन सोनी सोरी और इरोम शर्मिला तक करता रहा हूं।

हम पुत्रजीवक के कारोबारी नहीं रहे हैं और न हम वैचारिक कठमुल्ला हैं बजरंगी संस्कृति के मुताबिक।अंध राष्ट्रवाद का न हुआ ,धर्म राजनीति और बाजार का न हुआ तो वैचारिक जड़ अंध कठमुल्लापन की उम्मीद हमसे न करें तो बेहतर है।


हम लोकतांत्रिक संवाद के पक्ष में हैं और प्रतिपक्ष के वैचारिक मतभेद का तब तक सम्मान करते हैं ,जबतक संवाद की भाषा लोकतांत्रिक है।


जन्मजात बंगाली हूं लेकिन मेरा दिलोदिमाग विशुध कुंमाउनी है और जड़ें हिमालयी है,जहां भाषा और आचरण का संयम ही लोकसंस्कृति है जो कुल मिलाकर इस देश में विविधता और बहुलता की संस्कृति है।

इसके अलावा मैं करीब चार दशक से पत्रकारिता से जुड़़ हूं और निरंतर सामाजिक सक्रियता जारी रखने और रोजी रोटी कमाने के बीच कोई ऐसा अंतर्विरोध पैदा न हो कि हम जनपक्षधरता का मोर्चा छोड़कर सत्तापक्ष के समाने आत्मसमर्पण कर दूं।


यह निर्णय सत्तर के दशक में मैंने लिया था,जब पत्रकारिता सचमुच मिशन था और कारोबार से इसका दूर दूर का नाता तो इतना वीभत्स मुनाफावसूली का कार्यक्रम न था।वंचित वर्ग से होने के कारण अपने लोगों के रोजमर्रे की लड़ाई में मैंने हमेशा अपनी इस पेशा का उपयोग यथासंभव किया तो इस पेशे से पुरस्कार या सम्मान,हैसियत वगैरह की उम्मीद न मेरे पिता को थी और न मेरे भाइयों को और न मेरी पत्नी को थी।हमारी जनपक्षरता अटूट है,यही हमारी सबसे बड़ी उपलब्धि है।

मेरे अपढ़ पिता जो तेभागा आंदोलन की पुरखों की विरासत मेरे कंदे पर छोड़कर तजिंदगी जुनूनी हद तक जनपक्षधरता का इकलौता काम करते रहे और मेरी तरह रोजी रोटी की परवाह नहीं करते थे,उनकी सीख यही थी कि हर स्तर पर आखिरी क्षण तक संवाद का सिलसिला जारी रहना चाहिए और प्रतिपक्ष अगर भाषा का संयम खो दें और निजी हमले पर उतर आये,जनपक्षधरता के लिए जनहित में लोकतांत्रिक बहस का माहौल हर सूरत में बनाया रखना जरुरी है।


इसके साथ ही उनने यह सीख भी हमें दी है कि अपनी जमीन हो या अपने लोग या जिनके साथ काम काज के सिलसिले में दोस्ती हो,या जनांदोलन के जो साथी हैं,उनसे रिश्ता उनकी करतूतों के बावजूद यथासंभव बनाये रखनी चाहिए और अगर जनपक्षधरता की कीमत पर ऐसे रिश्ते को बनाये रखने की नौबत आती है,तो वे रिश्ते खतम करके पीछे भी देखना मत।


कुंमाउनी संस्कृति में भी अपनापा का जो रसायन है,मेरी रचनाधर्मिता की और मेरी जनपक्षधरता की जमीन भी वही है।

सुमंत भट्टाचार्य होंगे बड़े पत्रकार,उनके जैसे या किसी भी ऐसे पत्रकार साहित्यकार के महान रचनाक्रम में मेरी दिलचस्पी नही है क्योंकि मैं हेैसियत और प्रतिष्ठा देखकर कुछ भी नही पढ़ता।


मैं शास्त्रीयता और शास्त्र का शिकार नहीं हूं।न व्याकरण का।भाषा हमारे लिए संवाद की अंनत नहीं है जो शुध पतंजलि और अशुध शूद्र नहीं है।


इसके बजाय आधे अधुरे अशुद्ध अधकचरे अशास्त्रीय कुछ भी,बुलेटिन,चिट्ठा,मंतव्य. परचा इत्यादि जो कुछ जनसंघर्ष और मेहनतकशों के जीवन आजीविका के लिए और उनके हकहकूक की लड़ाई में प्रासंगिक है,जो पीड़ितों,उत्पीड़ितों,वंचितों और सर्वहारा जनता की चीखें हैं,वे मेरे लिए अनिवार्य पाठ है और मैंने हमेशा रातदिन लगातार बिना व्यवधान 1973 से छात्रावस्था और पेशेवर नौकरी में भी इस कथ्य के लिए खुद को लाउडस्पीकर से ज्यादा कुछ कभी समझा नहीं है।यही मेरी औकात है।हैसियत है।

क्योंकि रचनाकर्म  मेरे लिए सामाजिक उत्पादन है और उसका आधार उत्पादन संबंध है तो उत्पादकों की दुनिया को उजाड़ने के हर उद्यम का विरोध करना और मेहनतकशों के हकहकूक के मोर्चे पर अंगद की तरह खड़ा होना मेरा अनिवार्य कार्यभार है।

सुमंत भट्टाचार्य की भाषा के बारे में और उनकी पत्रकारिता के बारे में भी जबसे वे जनसत्ता छोड़ गये,मुझे कुछ भी मालूम नहीं है।


चूंकि कविता कृष्णन मेहनतखशों के मोर्चे पर अत्यंत प्रतिबद्ध और अत्यंत सक्रिय कार्यकर्ता होने के साथ एक स्त्री भी है और मैं हर  हाल में पितृसत्ता के खिलाफ स्त्री के पक्ष में हूं तो फ्रीसेक्स विवाद मेरा विषय और मेरी प्राथमिकता नहीं होने के बावजूद मैंने सुमंत का वाल देखा और अपने पुराने साथी को जनसत्ता की पुरानी भूमिका और भाषा के विपरीत जिस भाषा का प्रयोग एक स्त्री के विरुद्ध करते देखा,उससे मुझे गहरे सदमे का अहसास तो हुआ ही,इसके साथ ही कुमांउनी जड़ों पर कुठाराघात जैसा लगा।

प्रभाष काल में सती प्रथा समर्थक जनसत्ता के संपादकीय का विरोध जितना व्यापक हुआ,उस इतिहास को देखें तो आम पाठकों के नजरिये से भी स्त्री के विरुद्ध ऐसा आचरण न जनसत्ता,न उनके दिवंगत संपादक प्रभाष जोशी और न उनके किसी अनुयायी से  किसी को कोई उ्मीद रही हैं।


बहरहाल मैं प्रभाष जोशी का न अनुयायी रहा हूं और न उनका प्रिय पात्र।


उन्हीं प्रभाष जोशी के प्रिय जनसत्ता के पूर्व पत्रकार के इस आचरण से मौजूदा कारपोरेट पत्रकारों का जो स्त्री विरोधी चेहरा बेपर्दा हुआ,इस सिलसिले में मेरी टिप्पणी इसे रेखांकित करने की थी।

मैंन बाद में सुमंत से कहा भी कि देहमुक्ति को मैं स्त्री मुक्ति नहीं मानता और मेरे लिए स्त्री को पितृसत्ता से मुक्ति अनिवार्य कार्यभार लगता है जिसके बिना समता और सामाजिक न्याय असंभव है।


मैंन बाद में सुमंत से कहा भी कि नैतिकता और संस्कृति के बहाने स्त्री की अस्मिता पर कुठाराघात के मैं खिलाफ हूं और यौन स्वतंत्रता का मामला इतना जटिल है और इतना संवेदनशील है कि इसपर चलताउ मंतव्य नही किया जा सकता।मैं नहीं करता।


बल्कि बिना शर्त मैं नारीवाद और नारीवादियों का समर्थन करता हूं जो अनिवार्य है।इसलिए केसरियाकरण के बावजूद मैं तसलिमा नसरीन का समर्थन करता रहा हूं।

मैंने सुमंत से साफ साफ कहा कि मतभेद और वैचारिक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रश्न अलग है और विमर्श में विचार भिन्नता का स्पेस भी है।

इस देश की विविध और बहुलता की संस्कृति में तमाम मुद्दों पर वैचारिक मतभेद हो सकते हैं और उन पर लोकतांत्रिक संवाद हो सकता है और इसी लोकतंत्र के लिए हम निरंकुश फासिज्म की असहिष्णु सत्ता के विरोध में लामबंद है।लेकिन लोकतंत्र में विमर्श की भाषा भी लोकतांत्रिक होनी चाहिए।

मैंन कहा कि इस मुद्दे पर तुम्हारा मतामत तो अभिव्यक्त हुआ ही नहीं है और तुम्हारी भाषा और मंत्वय से तुम जो भी कहना चाहते हो,उसके बजाये यह सरासर स्त्री विरुद्ध मामला बन गया है और शायद अब विमर्श की गुंजाइश नहीं है।

विमर्श की अनुपस्थिति अगर पत्रकारिता की उपलब्धि है और निरंकुश असहिष्णुता अगर वैचारिक मतभेद की लहलहाती फसल है तो अभिव्यक्ति का यह संकट मेरे लिए बेहद घातक है।

मैं स्त्री के पक्ष में हूं और मुझे इस सिलसिले में हस्तक्षेप करना ही था तो मैंने पत्रकारिता के बदले चरित्र को और उसके कारपोरेट मुक्तबाजारी तेवर को रेखांकित करना ही बेहतर माना है।

न मैं वेचारिक पंडित और मौलवी हूं और दार्शनिक और विद्वान ।हम अपने अनुभव और अपनी संवेदनाओं का बात इंसानियत के मुल्क पर खड़ा कर सकता है।कुछ और नहीं।हमारा कोई शिल्प या कोई दक्षता नहीं है।इसलिए मैं सृजन का दुस्साहस भी नहीं करता।पहले लिखता था लेकिन सामाजिक यथार्थ को संबोधित करना अब मेरा काम है।इसके अलावा मेरी कोई दूसरी प्रतिबद्धता नहीं है।

इसके साथ ही हम ऐसे मुद्दों और ऐसे व्यक्तियों को बहस का विषय बना दें तो निरकुंश फासिज्म के खिलाफ लड़ाई के लिए अनिवार्य गोलबंदी का फोकस नष्ट होता है और सत्तापक्ष,मुक्तबाजारी मस्तिष्क नियंत्रण और फासिज्म के सूचना आधिपात्य के तहत हम डायवर्ट होते हैं।


बजाय मेहनतकशों के हक हकूक के हम ऐसे मुद्दों पर बेमतलब बहस में उलझ जाये तो बुनियादी मुद्दों पर हमारी ल़ड़ाई भी फोकस और फ्रेम के बाहर हैं और रात दिन चौबीसों घंटे लाइव सर्वव्यापी मीडिया यही गैर मुद्दा बेमतलब मुद्दा फोकस कर रहा है।मीडिया से सारे अनिवार्य सवाल और मुद्दे गायब है तो हम भी वही करे,सवाल यह है।

इसीलिए मैंने यह लिखने की जुर्रत की कि सुमंत को बेवजह नायक या खलनायक बनाने की जरुरत नही है और हस्तक्षेप पर अमलेंदु ने त्तकाल यह टिप्पणी टांग दी तो हमारे अत्यंत प्रिय और प्रतिबद्ध मित्र  मुझे स्त्री विरोधी साबित करने लगे हैं।


स्त्री के पक्ष में लिखना ही काफी होता नहीं है ,पितृसत्ता के खिलाफ मोर्चाबंदी सड़क से संसद तक अनिवार्य है और इस सिलसिले में हिंदी और अंग्रेजी में लगातार स्पष्टीकरण के बावजूद कुछ मित्र मुझे सुमंत का वकील और स्त्रीविरोधी साबित करने पर आमादा हैं,तो आगे अपना पक्ष रखने का उत्रदायित्व मेरा नहीं है ।आप खुद इन चार दशकों की मेरी सक्रियता और रचनाधर्मिता के मद्देनजर मेरा जो भी मूल्यांकन करें, वह सर माथे।




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