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Memories of Another day

Memories of Another day
While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Monday, June 13, 2016

अगर दुनिया बदलने की जिद नहीं है अगर राष्ट्र सत्ता राजनीति धर्म और बाजार से लड़ने का दम नहीं है अगर अस्पृश्यता और रंगभेद के खिलाफ,सामंती साम्राज्यवादी नरसंहारी वर्चस्व की दुनिया में लहूलुहान इंसानियत और कायनात के हक में लामबंद होने का जज्बा नहीं है तो कृपया किसी मुहम्मद अली को याद न करें पलाश विश्वास

चाहे आम हो या चाहे खास

अगर दुनिया बदलने की जिद नहीं है

अगर राष्ट्र सत्ता राजनीति धर्म और बाजार से लड़ने का दम नहीं है

अगर अस्पृश्यता और रंगभेद के खिलाफ,सामंती साम्राज्यवादी नरसंहारी  वर्चस्व की दुनिया में लहूलुहान इंसानियत और कायनात के हक में लामबंद होने का जज्बा नहीं है तो कृपया किसी मुहम्मद अली को याद न करें

पलाश विश्वास




सत्ता से नत्थी लोकतंत्र और मानवाधिकार के परिंदों, मुझे माफ करना कि मुहम्मद अली को विदा कहने वाले तमाम प्रथम नागरिकों और सत्ता प्रमुखों के सुभाषित के मुकाबले आप तक इस नाचीज की लिखी ये पंक्तियां पहुंच रही हैं।


मुहंजुबानी प्रगति और धर्मनिरपेक्षता की जुगाली से आत्मरति सुखी सामंतों और पाखंडियों,मौकापरस्तझेडवरदारो,सिपाहसालारों,पैदल फौडों और हजारों पीढ़ियों के पुरखों की विरासत से गद्दारी करने वाले पढ़े लिखे विद्वानों बुद्धिकारोबारियों, मुझे माफ करना कि मुहम्मद अली को विदा कहने वाले तमाम प्रथम नागरिकों और सत्ता प्रमुखों के सुभाषित के मुकाबले आप तक इस नाचीज की लिखी ये पंक्तियां पहुंच रही हैं।


सतह पर मेरा वजूद अभी बना नहीं है और जनमजात जमींदोज हूं और खिला भी नहीं हूं जंगल की आग की तरह,और न ब्रांडेड कोई खुशबू है या सुर्खियों में कही हूं या किताबों में कहीं चर्चा है,फिरभी समय को पल दर पल हमारी चुनौती है और इसी चुनौती के पीछे उस महानतम महाबली की मुक्केबाजी की वही ताकत फिर फिर है कि कुछ न होकर भी हम सरदर्द का सबब बने रहेंगे हमेशा चाहे हमसे किसी को मुहब्बत हो न हो।


जिनसे हमें बपनाह मुहब्बत रही है और जिनने कभी मुड़कर देखा भी न हो,उस अस्पृश्यता और रंगभेद का नाम है ज्वालामुखी की तरह सुलगता अली,अछूत अश्वेत दुनिया का मुक्मल वजूद मुहम्मद अली,जिसमें जान अनजाने हम भी शामिल हैं।


राजनीति चीजों को सही परिप्रेक्ष्य में समझने ही नही देती क्योंकि राजनीति आखिरकार स्थाई मनु्मृति है और उसकी सीमाओं में न स्वतंत्रता है,न लोकतंत्र है और न मानवाधिकार।राजनीतिकरण की वजह सै ही इतनी असहिष्णुता और इतनी घृणा और इतनी आत्मघाती हिसा और इतनी खून की नदियां।वंचितों और उत्पीड़तों का इतना दमन,यह सैन्यराष्ट्र,मुक्त बाजार,गगन घटा गहरानी आपदाएं दस दिगंत,पृथ्वी पर सर्वत्र यह नरसंहार।


सत्ता की इस राजनीति के प्रतिपक्ष जनपक्षधर राजनीति सिरे से लापता हैं तो अस्पृश्य अश्वेत हर वजूद वही मुहम्मद अली,विश्वविजेता हो न हो या पिर कोई धमाका हो न हो,हर सथ्गित महाविस्फोट का नाम मुहम्मद अली।


कोई ओबामा और किसी कल्कि अवतार के लिए मुहम्मद अली के होने न होने का मतलब ठीक ठीक वैसा नहीं है जैसा इस दुनिया में पल दर पल नारकीय अमावस्या जैसी अस्पृश्यता और रंगभेद जीने वाले अरबों मामूली लोगो के लिए है।


आपने अनेक विद्वानों और अनेक गुणी मानी संपादक लेखक कवि को पढ़ा ही होगा तो हम हद से हद एक गैरमामूली उपसंपदक है और जिसका लिखा हुआ कहा हुआ कुछ भी पूरे तैतालीस साल तक कभी खास या गौरतलब माना नहीं गया,तो आप फिरभी हमारे लिखे कहे पर तनिको गौर फरमायें तो हम पाषणवत अहिल्या को प्राणस्पर्श मिले।


दि ग्रेटेस्ट मुहम्मद अली ने 1960 में रोम ओलंपिक में मुक्केबाजी में स्वर्णपदक जीतने के बाद उसे जब रंगभेद के खिलाफ ओहियो नदी में विसर्जित कर दिया,तब मेरी उम्र इतनी नहीं थी कि उनके इस करतब को समझ सकूं।


कुछ ऐसा हुआ जरुर कि वियतनाम युद्ध में सामिल होने से इंकार करने वाले और कैसियस क्ले से मुहम्मद अली  बन जाने वाले दि ग्रेटेस्ट के बारे में घर में डाक से  आने वाले बांग्ला स्वाधीनता और दैनिक बसुमति के अलावा हिंदी अंग्रेजी अखबारों और दिनमान धर्मयुग साप्ताहिक हिदुस्तान के जरिये मुझे लगातार खबर होती रही और न जाने वे कब मेरे वजूद के हिस्से में तब्दील हो गये।


उनके अवसान के बाद मेरे भीतर भी किरचों की तरह कुछ टूटा बिखरा है क्योंकि दुनियाभर में अश्वेत अस्पृश्य मेहनतकश मनुष्यता के लिए अली का अवसान किसी मार्टिन लुथर किंग,जार्ज वाशिंगगटन,लेनिन, अंबेडकर, गांधी या नेल्सन मंडेला या माओ के अवसान से बड़ा नुकसान है क्योंकि नरंसहारी मुक्तबाजार के वधस्तल के मुकाबले अब कहीं कोई अली नहीं है।आपके भीतर भी शायद कुछ हुआ हो।


1960 में दिनेशपुर में अखिल भारतीय शरणार्थी सम्मेलन का आयोजन हुआ था और उसके ढेरों पोस्टर घर में पड़े हुए थे,जिनका मैंने बरसों लिखने और कलाकारी करने में इस्तेमाल किया।ढिमरा ब्लाक किसान विद्रोह का सैन्य दमन इतना जबरदस्त था कि जेलयात्रा करने वाले किसान नेताओं के घर कोई पर्चा पोस्टर पूरी तराई भर में खोजने के बावजूद हमें नहीं मिला।


फिरभी कैसियस क्ले से मुहम्मद अली तक के सफर की त्रासदी और दुनिया बदलने की जिद को लेकर महानतम महाबलि बनने वाले उस जीवंत किंवदंती को मैंने हमेशा जीने की कोशिश की है।हम सत्तापक्ष के किसी गृहयुद्ध युद्ध महायुद्ध में शामिल नहीं हैं और न हम कुरुक्षेत्र में सव्जन वध के गीतोपदेश के कर्मफल सिंद्धात के मुताबिक जन्म जन्मंतार का अभिशाप जीने को तैयार हैं और इसीलिए महाभारत की शतरंज बाजी को मुहम्मद अली की फुर्तीली मु्केबाजी से बदल देने की महात्वाकांक्षा जीता हूं।


रोम ओलंपिक के विजय मंच से उतकर रंगभेद के खिलाफ युद्ध घोषणा और फिर वियतमनाम युद्ध के अंध धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद के खिलाफ खड़े होकर नीग्रो अछूत दुनिया की ओर से श्वेत जायनी साम्राज्यवादी सत्ता और राष्ट्र के खिलाप महाविद्रोह के बाद जेलयात्रा के वे दृश्य बचपन के छपे आखरों की स्मृतियों में धूमिल हैं,लेकिन फ्रेजियर और फोरमैन के खिलाफ उनकी बेमिसाल मोर्चाबंदी की जीत के बीज में फिर हमारी वही व्यूह रचना है निरंकुश सत्ता के सैन्यतांत्रिक मनुस्मृति के विरुद्ध।


जहां फिर हममें और मुहम्मद अली में कोई फर्क नहीं है जीत के सिवाय।वे जीत हासिल करने वाले महानतम महाबलि है और हम लड़ाई शुरु भी नहीं कर सके हैं।सतह से नीचे ही पनपना बीज की नियति है और महाअरण्य में बीज कहीं नजर आते नहीं हैं।


बीज बनकर भी हम महाअरण्य में तब्दील हो सकते हैं और यह पृथ्वी पिर हरियाली बन सकती है और मनुष्यता और प्रकृति के साहचार्य में इस घृणा हिंसा असमता अन्याय का अंत हो सकता है,मुहम्मद अली की जीत इसी यकीन का नाम है।


हालांकि यह पढ़कर आपको हंसी ही आयेगी क्योंकि न उनकी तरह मैं कोई विश्वविजेता तो क्या गली मुहल्ला जीता भी नहीं हूं और न व्यवस्था और राष्ट्र,धर्म और सत्ता से लोहा नलेने का जिगर या दम हममें से किसी भारतीय में है।


फिरभी अमेरिका की नीग्रो बस्तियों से बेहतर भारत विभाजन की लहलहाती फसल शरणार्थी विस्थापित बस्तियों की आज भी नहीं है और उस वैश्विक रंगभेद के शिकंजे में हम जनमजात जैसे बंध होते हैं आखिरी सांस तक तो अली से बेहतर कोई और करिश्मा का ख्वाब तो जिया ही नहीं जा सकता कि मुक्केबाजी के धमाके से इस दुनिया की तस्वीर बदलकर रंगभेदी साम्राज्यवाद के खिलाफ कोई मोर्चाबंदी में अपना वजूद खपा दिया जाये।मोर्चाबंदी संभव है तो जीत भी असंभव है नहीं।इसी असंभव मोर्चाबंदी का नाम है मुहम्मद अली महानतम।


भले ही हमारी कद काठी ऐसी कभी नहीं रही कि हम किशोरावस्था में भी किसी से भयंकर रोमानी दिवास्वप्न में भी प्रेम निवेदन करने का दुस्साहस कर सकें क्योंकि कोई भी प्रेमिका सबसे निचले पायदान पर खड़े अछूत परिदृश्य में हमें सत्ता की मूरत ही नजर आती थी।


हमें किसी से कभी प्रेम हुआ ही नहीं है।क्योंकि प्रेम का अधिकार भी अस्पृश्यों को तब तक होता नहीं है जबतक कि न यह दुनिया सेरे से बदल दी जाये और इसके लिए किसी मुहम्मद अली की विजेता मुक्केबाजी अनिवार्य है।हम मुक्केबाज बन नहीं सके।


मेरे पिता अंबेडकरी,कम्युनिस्ट,तेभागा के लड़ाके,ढिमरी ब्लाक किसान विद्रोह के नेता और शरणार्थियों के नेता थे और मेरी मां के नाम बसे बसंतीपुर गांव के साझा परिवार में किसी की कोई कुंडली बनाने का रिवाज नहीं रहा है।1956 में रुद्रपुर में हुए शरणार्थी आंदोलन के नतीजतन बसंतीपुर,पंचानन पुर और उदयनगर के गांव बसे।


पूर्वी बंगाल के तेभागा आंदोलन की विरासत से जुड़े दलित शरणार्थियों और किसान आंदोलन के मेरे अंबेडकरी कम्युनिस्ट पिता के वे तमाम साथी जो बंगाल और उड़ीशा के शरणार्थी कैंपों में बवाल मचाते रहने की वजह से तराई के घने जंगल में फेंक दिये गये थे।


उन लोगों ने बंगाल और पंजाब के शरणार्थियों के साथ प्लेग हैजा मलेरिया जैसी महामारियो से सात बार उजड़ी तराई को फिर से दोबारा आबाद किया जो अब विकास की अंधी दौड़ में सीमेंट के जंगल में तब्दील है और मैं उनसे हजार मील दूर जड़ों से कटा जिदगी गुजर बसर कर रहा हूं।


वे सबकुछ खोकर भी सबकुछ हासिल करने की लड़ाई लड़ रहे थे।हमने कुछ भी नहीं खोया और न कुछहासिल करने की हमारी तमन्ना है।वे योद्धा रहे हैं और हम लोग असरक्षित शुतूरमुर्ग प्रजाति में तब्दील,जिनकी कोई रीढ़ होती है नहीं है।फिर भी मुहम्मद अली के होने से रीढ़ का अहसास होता रहा है।


किसी को उम्मीद नहीं थी कि हम आखिरकार पढ़ लिख पायेंगे।शरणार्थी बस्तियों की वह अपढ़ अधपढ़ दुनिया थी। तराई के स्कूल कालेजों से नैनीताल जाकर पढने लिखने वाले तमाम बंगाली पंजाबी सिख शरणार्थी के बच्चों के बारे में किसी को कुछ कोई खास उम्मीद कभी नहीं रही होगी।पढ़ाई लिखाई की बजाय खेती मे खपने की हमारी अनिवार्य प्राथमिकता थी और विडंबना यह है कि हम अपने खेत पर खेत नहीं हो सके।


उस वक्त तराई में जन्मे बच्चों की जन्मतिथि या तो 1956 के शरणार्थी आंदोलन या फिर 1958 के ढिमरी ब्लाक किसान विद्रोह के आगे पीछे दर्ज की जाती रही है।


आंदोलन के बाद दिनेशपुर में अस्पताल ,आईटीआई और जूनियर हाई स्कूल बनने के साथ साथ साथ तीन नये गांवोंकी बसावट के बाद सुंदरपुर में मेरे दोस्त हरिकृष्ण ढाली और मेरा जन्म हुआ।इस हिसाब से किसी रविवार को कुंभ राशि में शायद दिसंबर 1956 में 16,23 या 30 तारीख को मेरा जन्म हुआ होगा।मेरे बाद बसंतीपुर में टेक्का नित्यानंद मंडल और हरि का साल भर के भीतर जन्म हुआ।


स्कूल में दाखिला कराते वक्त उन दिनों प्राइमरी टीचरों को इस बात की खास परवाह ती कि हाईस्कूल की परीक्षा अगर कई दफा फेल हो जाये कोई बच्चा तो आगे वह ओवर एज न हो जाये,इस तरह जन्मतिथि दर्ज करायी जाये।


चित्तरंजनपुर बालिका विद्यालय की मैडम ख्रिष्टी नहीं बल्कि हरिदासपुर प्राइमरी स्कूल के हमारे पहले गुरुजी पीतांबर पंत जी ने 1956 के बजाये 1958 के 18 मई को मेरा जमन्म तिथि करीब डेढ़ साल के अंतर से दर्ज कराया और जब मैं पांचवी पास करके हाईस्कूल में दाखिला लेने गया तो मेरी उम्र नौ साल से कम रह गयी।


फिरभी स्मृतियां कभी कभी जन्म जन्मांतर देश काल पात्र के आर पार समय और इतिहास की स्मृतियों में भी तब्दील हो जाती है और उसी बिंदू पर मुहम्मदअली विश्वविजेता और बिना लड़े हमारी हारी हुई प्रजातियों की स्मृतियां एकाकार हैं।


चाहे आम हो या चाहे खास

अगर दुनिया बदलने की जिद नहीं है

अगर राष्ट्र सत्ता राजनीति धर्म और बाजार से लड़ने का दम नहीं है

अगर अस्पृश्यता और रंगभेद के खिलाफ,सामंती साम्राज्यवादी नरसंहारी  वर्चस्व की दुनिया में लहूलुहान इंसानियत और कायनात के हक में लामबंद होने का जज्बा नहीं है तो कृपया किसी मुहम्मद अली को याद न करें


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