प्रलेस में बदलाव
अंतत: प्रगतिशील लेखक संघ (प्रलेस) का अध्यक्ष बदल ही गया है। दिल्ली में 12 अप्रैल से शुरू हुए तीन दिन के 15वें राष्ट्रीय सम्मेलन में नामवर सिंह को हटाया गया या वह स्वयं हटे यह महत्त्वपूर्ण नहीं है। महत्त्वपूर्ण है उनका हटना। अगर वह न हटते तो यह बड़ा आश्चर्य अवश्य होता। अपने अध्यक्ष पद के दौरान उन्होंने इस संगठन, जो देश का सबसे पुराना और बड़ा लेखक संगठन रहा है, और संभवत: अब भी है, क्या भला किया, कहा नहीं जा सकता। पर यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि उन्होंने इसे जितना हो सकता था नुकसान निश्चित तौर पर पहुंचाया। वह संगठन के किसी भी नियम-कानून को नहीं मानते थे और न ही उसकी मर्यादा को निभाते थे। संभवत: उन पर उनकी कोई आस्था थी भी नहीं। वह अपने आप में एक समानांतर संस्थान बन चुके थे और संगठन उनके लिए एक माध्यम था जिसका इस्तेमाल जरूरत के हिसाब से, कर लेते थे। पर यह भी उतना ही सत्य है कि संगठन ने उन्हें अध्यक्ष बनाया भी इसलिए था कि उनका अपना अलग व्यक्तित्व था।
वैसे उनके हटाये जाने के आसार प्रलेस की 75वीं वर्षगांठ पर गत वर्ष 8 अक्टूबर को लखनऊ में दिए उनके आरक्षण विरोधी बयान के बाद ही नजर आने लगे थे। इसके विरोध में स्वयं उत्तर प्रदेश इकाई के सचिव मंडल के सदस्य और युवा आलोचक वीरेंद्र यादव ने दिल्ली की एक पत्रिका में लेख लिखा था। इस वक्तव्य में नामवर सिंह ने कहा था, ''आरक्षण के चलते दलित तो हैसियतदार हो गए हैं, लेकिन बामन-ठाकुर के लड़कों की भीख मांगने तक की नौबत आ गई है।" यही नहीं दलित लेखक धर्मवीर द्वारा मुर्दहिया की आलोचना से कुपित उन्होंने यह तक कह डाला कि ''आप चाहे जितना इनका (दलितों) समर्थन करें, ये कभी आपके होनेवाले नहीं हैं।" (देखें: समयांतर, दिसंबर, 11)
इसके बाद इसी वर्ष प्रलेस के एक और पदाधिकारी शकील सिद्दीकी ने समयांतर को लिखे अपने पत्र में संकेत दे दिया था कि आरक्षण के मामले को यों ही नहीं छोड़ा जानेवाला है। उन्होंने लिखा, ''नामवर सिंह ने दलितों को दिए जाने वाले आरक्षण के संबंध में ठीक वही टिप्पणी की थी जैसा कि सोनकर ने उल्लेख किया (देखें: 'दलित, दलित विमर्श और सवर्ण आलोचक': मूलचंद सोनकर, समयांतर जनवरी, 12), लेकिन तीर कमान से निकल चुका था। बहुत से लोगों ने इस वक्तव्य को प्रगतिशील आंदोलन के लिए गंभीर चुनौती के रूप में लिया, बहुत संभव है प्रगतिशील लेखक संघ की राष्ट्रीय परिषद की आगामी बैठक में भी यह मुद्दा उठे या अगले अधिवेशन में।"
इसके साथ ही एक और महत्त्वपूर्ण बात यह हुई कि प्रलेस के राष्ट्रीय महासचिव अली जावेद ने भी कह दिया कि उनके इस बयान से संगठन का कोई लेना-देना नहीं है। इससे यह तो स्पष्ट था कि कि संगठन के अध्यक्ष से स्वयं संगठन सहमत नहीं है। इस के बाद नैतिक रूप से होना तो यह चाहिए था कि नामवर सिंह को तत्काल संगठन से त्यागपत्र दे देना चाहिए था पर वह अपने वक्तव्य की लीपा-पोती करते रहे। आश्चर्य की बात यह नहीं है कि नामवर सिंह ने ऐसी बातें कीं, आश्चर्य इस बात का है कि प्रलेस ने उन्हें इतने वर्षों तक सहन किया और एक मायने में उनकी लीपा-पोती को स्वीकार भी किया। जो भी हो, इस पृष्ठभूमि में नामवर सिंह को यह अंदेशा तो होगा ही कि अगले राष्ट्रीय सम्मेलन में उनका विरोध किया जाएगा। संभव है इसलिए वह पहले ही अध्यक्ष पद की दौड़ से हट गए। बढ़ती उम्र व स्वास्थ्य का बहाना भी था। उनकी असुरक्षा और नाराजगी उनके व्यवहार से भी छिपी नहीं रही। उन्होंने दिल्ली वाले समारोह में 'समयाभाव और अस्वस्यता' की आड़ में बोलने की औपचारिकता भर निभाई। बाकी के दो दिन वह आये भी नहीं।
पर मजे की बात यह है कि उनका विरोध हुआ ही नहीं। नामवर सिंह क्या कहते और करते रहे हैं यह हिंदी पट्टी से बाहर संभवत: किसी को पता ही नहीं था। हिंदी वाले, जो सब कुछ जानते थे, उन में अगर बिहार के राजेन्द्र राजन को छोड़ दें तो उनके खिलाफ कोई बोला ही नहीं। बल्कि दिल्ली और उत्तर प्रदेश के प्रतिनिधियों ने सबसे ज्यादा विरोध महासचिव अली जावेद का ही किया।
आखिर ऐसा हुआ क्यों?
असल में हो यह रहा है कि लेखक संगठनों, (विशेष कर प्रलेस और जलेस) के अधिकारी अपने पदों का इस्तेमाल सत्ताधारियों तक, विशेषकर कांग्रेस और यूपीए जैसी मध्यमार्गी सरकारों तक पहुंचने और उनसे संबंध बनाने के लिए करते हैं और इस तरह विभिन्न सरकारी कमेटियों और संस्थाओं के सदस्य, पदाधिकारी आदि बन कर लोगों को उपकृत करने की ताकत हासिल कर लेते हैं। इस ताकत का इस्तेमाल वह कला-साहित्य और अकादमिक क्षेत्र में अपना वर्चस्व बढ़ाने के लिए करते हैं। देखने की बात यह है कि विशेष कर प्रलेस, और काफी हद तक बाकी संगठनों के साथ भी, दिक्कत यह हो गई है कि उसमें लेखक कम, अध्यापक-लेखकों का ज्यादा वर्चस्व हो गया है। कम से कम हिंदी क्षेत्र के बारे में तो यह बात कही ही जा सकती है। इन लोगों को पदोन्नति, स्कॉलरशिप, विदेशी पद आदि के लिए लगातार ऐसे लोगों की जरूरत पड़ती है जो उनके लिए मददगार साबित हो सकें। यही नहीं विभिन्न विश्वविद्यालयों में अपने नाते-रिश्तेदारों को नियुक्त करवाने में भी यही संबंध काम आते हैं। कुल मिलाकर यह अध्यापक वर्ग अपने लेखन से कम आपसी नेटवर्किंग से ज्यादा जाना जाता है और यही नामवर सिंह जैसे लोगों का आधार है। नतीजा यह है कि सत्ता से जुड़े लोगों का इन वामपंथी संगठनों पर कब्जा हो गया है। नामवर सिंह का एक अर्से तक इस संगठन में पदासीन रहना इसी पावर बैलेंस का कमाल है। (वह महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलाधिपति हैं ही।) आखिर ऐसा क्यों है कि इन संगठनों के शीर्ष पदों पर अपवाद स्वरूप ही रचनाकार लेखक दिखलाई दें? यानी नामवर सिंह का हिंदी अकादमिक जगत में अभी भी कम बोलबाला नहीं है।
इस विरोध न होने का दूसरा कारण भी था। उत्तर प्रदेश में एक अर्से से प्रलेस का मुख्य केंद्र लखनऊ रहा है पर इधर एक और केंद्र उभरा है जो बनारस है। बनारस नामवर सिंह का गृहनगर है और वहां उनके भाई काशीनाथ सिंह का साहित्यिक क्षेत्र में अच्छा दबदबा है। यों ही नहीं है कि नामवर सिंह कमला प्रसाद के जन्म दिन पर उनकी स्मृति में सतना में होनेवाले समारोह में न जाकर दिल्ली में साहित्य अकादेमी के समारोह में शामिल हुए थे जिसमें उनके भाई को अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित किया जा रहा था। इस समारोह की तिथि को नामवर सिंह के कारण बदल कर 25 मार्च (कमला प्रसाद की पहली पुण्यतिथि) किया गया था। यह और बात है कि वायदा करने के बावजूद वह वहां उस दिन भी नहीं पहुंचे।
यह नहीं भुलाया जा सकता कि नामवर सिंह ने पिछले कुछ वर्षों में जो काम किए वे प्रलेस के लिए तो घातक साबित हुए ही उन्होंने पूरे वामपंथी लेखक समुदाय को भी कम नुकसान नहीं पहुंचाया। उदाहरण के लिए कुछ बातें याद की जा सकती हैं। यहां हम उनके द्वारा सार्वजनिक मंचों से किसी आयकर अधिकारी के उपन्यास की तुलना वार एंड पीस से करने या किसी दूसरे पुलिस अधिकारी की कविताओं की तुलना लोर्का से करने जैसी छोटी-मोटी बातों की बात नहीं कर रहे हैं। बड़ी बातों को लीजिए। वह भाजपा नेता जसंवत सिंह की किताब का विमोचन करनेवालों में से एक थे। जिलाधिकारी की हत्या के आरोप में जेल काट रहे दबंग आनंद मोहन के कविता संग्रह का वह विमोचन करते-करते बचे। अन्यथा निमंत्रण पत्र में उनका बाकायदा नाम था। भाजपा सांसद और आरएसएस से जुड़े पांचजन्य के संपादक रह चुके तरुण विजय की किताब का विमोचन उन्होंने इसी वर्ष मार्च में ताल ठोक कर विश्व पुस्तक मेले में किया।
प्रलेस की 75वीं वर्षगांठ के अवसर पर उनकी दलितों को लेकर की गई जातिवादी टिप्पणी बहुचर्चित है ही। असल में नामवर सिंह सारे वामपंथ के बावजूद कभी भी अपनी जातिवादिता से नहीं उबर पाए। चंद्रशेखर के भौंडसी आश्रम में वह इसलिए पहुंचे कि वह ठाकुर थे। जसवंत सिंह की किताब के विमोचन में उनकी उपस्थिति का कारण भी यही था। यही नहीं हत्या के आरोपी आनंद मोहन की किताब के विमोचन में उनका जाना इसलिए तय था कि वह भी क्षत्रिय कुल गौरव हैं। भाई-भतीजावाद का आलम यह है कि दो वर्ष पूर्व जब उन्हें बिहार हिंदी संस्थान का पुरस्कार देने का मौका मिला तो उन्होंने वह अपने भाई काशीनाथ सिंह को दे दिया। वह किस हद तक अपने भाई को प्रमोट करते रहे हैं यह भी हिंदीवाले जानते ही हैं। इस तरह की कई और भी बातें हैं जिन्हें याद किया जा सकता है।
इसलिए यह आश्चर्य की बात नहीं है कि नामवर सिंह का विरोध हिंदी वालों ने नहीं किया और क्यों उनकी सारी ताकत अली जावेद को निशाना बनाने में लगी रही। नामवर सिंह की अली जावेद को लेकर नाराजगी के समाचार हैं ही। कारपोरेट विज्ञापन तो एक बहाना है। क्या पश्चिम बंगाल सरकार में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी शामिल नहीं थी जो खुले आम देसी-विदेशी पूंजी को आमंत्रण दे रही थी? क्या पार्टियों के अखबार और पत्रिकाएं कारपोरेट विज्ञापन नहीं लेते? तब क्या इस नाटक का असली मकसद कुछ और ही था? याद करिये, अली जावेद ने नामवर सिंह के दलित विरोधी बयान से संगठन को अलग कर नाम बचा लिया था, पर इसके कारण नामवर सिंह अलग-थलग पड़ गए थे।
एक शीर्ष नेता या आदर्श पुरुष के विचलनों का जो दूरगामी नकारात्मक असर पड़ता है वह बाकी किसी भी गड़बड़ी से कहीं ज्यादा घातक होता है। वह आनेवाली कई पीढिय़ों के लिए ऐसे उदाहरण छोड़ जाता है जिनसे लडऩे में समाज की बहुत सारी शक्ति जाया होती है। नामवर सिंह और उनके समकालीन वामपंथी लेखकों के व्यवहारों ने हिंदी के युवा लेखकों में जो संदेश दिया वह है शुद्ध अवसरवाद का। लेखक संगठनों की विश्वसनीयता में आई गिरावट में उसके नेतृत्व ने बड़ी भूमिका निभाई है। प्रतिबद्धता और सरोकार जैसी चीजों के कोई मायने नहीं रहे हैं। सर्वमान्य मूल्य येन केन प्रकारेण सफलता प्राप्त करना हो गया है। दूसरी ओर आदर्शवादी युवा और लेखक इन से बचने लगे हैं। यही कारण है कि संगठनों में अंतत: एक निराशा और स्थिरता आ गई है। इसका एक कारण वे राजनीतिक दल भी हैं जिनसे ये वामपंथी संगठन जुड़े हैं। ये दल अपनी आभा गंवा चुके हैं और भारतीय राजनीति में हाशिये पर पहुंच गए हैं पर पर्दे के पीछे से लेखक संगठनों के बारे में लगातार फैसला करते रहते हैं।
फिलहाल प्रगतिशील लेखक संगठन ने नामवर सिंह को संरक्षक मंडल में शामिल कर लिया है और तमिल लेखक पुन्नीलन को नया अध्यक्ष चुना है।
- दरबारी लाल
No comments:
Post a Comment