अण्णा आंदोलन का फिल्मी संस्करण: पानसिंह तोमर
तिगमांशु धूलिया निर्देशित फिल्म पानसिंह तोमर और अण्णा टीम में कुछ प्रचंड समानताएं हैं। अण्णा टीम संसद और सरकार से लेकर छोटे-छोटे अधिकारी तथा पटवारी सभी को भ्रष्ट समझती है और पानसिंह तोमर फिल्म भी फौज के अतिरिक्त सभी सरकारी विभागों के अधिकारी- कर्मचारियों को चोर घोषित करते हुए कहती है-सरकार तो चोर है। आर्मी को छोड़कर सभी चोर हैं। वैसे आज की तारीख में यह बताना मुश्किल नहीं है कि सेना कितनी भ्रष्ट है। फिर भी फिल्म सेना को क्लिन चिट दे देती है। भला क्यों न दे, वास्तविक पानसिह तोमर तो सेना में था ही अण्णा साहब भी सेना के जवान रहे हैं। दोनों में ईमानदारी के साथ- साथ ईमानदारी का मद भी है।
देश में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को दिशा देने का दावा करने वाले अण्णा टीम आंदोलन के मुखियाओं में एक केजरीवाल सरीखे जिम्मेदार नागरिक अगर यह कहें कि पानसिंह तोमर फिल्म में जब नायक संसद सदस्यों को डकैत कहता है; बीहड़ में तो बागी होते हैं, डकैत मिलते हैं पार्लियामेंट में।" तो उस पर सरकार के सैंसर बोर्ड की आपत्ति नहीं होती है किंतु यही बात यदि हमलोगों में से कोई बोल दे तो इस पर इतनी आपत्ति क्यों ? अब केजरीवाल तो इतने भोले हैं नहीं कि वह यह नहीं समझते हों कि फिल्म जीवन नहीं होती, जीवन जैसी हो सकती है। कदाचित वह यह भी जानते होंगे कि कला के किसी भी रूप में जीवन जस-का-तस नहीं होता। भले ही वह वास्तविक जीवन-चरित्र पर बनी कोई फिल्म ही क्यों न हो। प्रत्येक कला रूप में कुछ जुड़ता-घटता ही नहीं बल्कि उसमें डिस्टॉरशन भी होता है और यही कला की विलक्षणता भी होती है। इसलिए कहानी हो या कविता, पेंटिंग हो या नाटक या फिर फिल्म उसमें जो बात कही जा सकती है, आवश्यक नहीं कि उसका उदाहरण देकर वास्वविक जीवन में भी कही जाय। उनका यह वक्तव्य ठीक वैसा ही लगता है जैसे कोई अपराधी कहे कि उसने यह अपराध अमुक फिल्म से प्रेरित होकर किया है। मजे की बात यह है कि उनके इस नितांत हल्के वक्तव्य से पानसिंह तोमर की खिड़कियों पर भीड़ बढऩे लगी। कोई आश्चर्य नहीं कि उक्त वक्तव्य फिल्म को व्यवसायिक सफलता के उद्येश्य से सायास डाला गया हो।
खास ऐसे समय में जब संसद बनाम भ्रष्टाचार की बहस चल रही हो, पानसिंह तोमर के प्रसारण के निहितार्थ को समझना आवश्यक है। फौजी खिलाड़ी पानसिंह की मृत्यु सर्किल इंसपेक्टर महेंद्र प्रताप सिंह एवं साथियों द्वारा किए गए इनकॉउन्टर में लगभग 30 वर्ष पूर्व 1 अक्तूबर, 1981 को हो गई थी। निर्देशक धूलिया भी सन् 1990 से फिल्म निर्माण से जुड़े हुए हैं। दूरदर्शन तथा अन्य चैनलों के अतिरिक्त उन्होंने हासिल, चरस तथा साहब, बीबी और गेंगेस्टर सरीखें अच्छी फिल्में बनायी है। किंतु एन वक्त पर पानसिंह तोमरके प्रति जगे उनके प्रेम के दूरगामी कारणों से इंकार नहीं किया जा सकता है। संभव है कि अण्णा साहब के आंदोलन की बुझी आग को हवा देना फिल्म का एक महत्त्वपूर्ण ऐजेंडा हो। इसे कहते हैं एक तीर से दो निशाना। एक तो इस फिल्म ने भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से हताश निराश मध्यवर्ग के लोगों को जगाने का प्रयास किया है तो दूसरी ओर एक बड़े तबके को इस फिल्म ने अपनी ओर आकर्षित किया है। जो भी हो, धूलिया साहब को काल यानी समय की पकड़ जबर्दस्त है। गरम लोहे पर चोट करने में वह पीछे नहीं रहे।
अब सवाल यह भी उठता है कि इस फिल्म के जरिए निर्देशक कहना क्या चाहते हैं। व्यक्तिगत प्रतिहिंसा के महिमामंडन पर दर्शक से लेकर निर्देशक तक की आत्ममुग्धता को समझना आसान नहीं। यहां हमें व्यक्तिगत प्रतिरोध के लिए हिंसा और सामूहिक मुद्दों को लेकर चलाए जा रहे हिंसक आंदोलन के बीच फर्क करने की आवश्यकता है। पानसिंह का प्रतिरोध नितांत व्यक्तिगत है। इस हिंसक कार्रवाई का न तो कोई सामाजिक आधार है, न विचारधारा और न ही कोई दर्शन। यहां हिंसा सिर्फ हिंसा के लिए है। सामूहिक हिंसक आंदोलन का मुख्य जोर कुव्यवस्था को समाप्त कर व्यवस्था परिवर्तन का होता है न कि व्यक्ति विशेष को, यह दूसरी बात है कि आंदोलन के दरम्यान किसी व्यक्ति विशेष की हत्या हो जाए। जोर अपराध को समाप्त करने पर होना चाहिए न कि अपराधी को। कारण अपराधी भी उसी गलत व्यवस्था की उपज होता है। अपराधियों को फांसी पर लटका देना चाहिए वाली खतरनाक मनोवृति पर पुनर्विचार की आवश्यकता है। एक व्यक्ति आखिर कितने अपराधियों को मार सकता है? इस दृष्टि से वास्तविक जीवन का पानसिंह तोमर हो या इरफान के रूप में पानसिंह का किरदार, उनके कृत्यों का औचित्यीकरण नहीं किया जा सकता है।
सवाल यह है कि खिलाड़ी पानसिंह के प्रति किस भारतीय में अपार सम्मान का भाव नहीं होगा? पानसिंह की व्यवस्था द्वारा घोर उपेक्षा पर किस व्यक्ति का मन क्षोभ से नहीं भर उठेगा? किंतु इस बिना पर पानसिंह तोमर द्वारा बंदूक उठा लेना विवेक की मांग करता है। एक महान खिलाड़ी या बड़ा विद्वान भी किसी मोड़ पर गलत निर्णय का शिकार हो सकता है। दमन का रचनात्मक और सकारात्मक प्रतिरोध की संभावनाओं की तलाश की जा सकती है। उस दमन के खिलाफ छोटे स्तर पर ही सही ओदोलन की जमीन तैयार की जा सकती है। शोषितों-पीडि़तों को लामबंद किया जा सकता है।
इतना तो माना ही जा सकता है कि चारों ओर के दरवाजे बंद हो जाने के बाद तात्कालिक आवेग में पानसिंह को बंदूक के अलावा कोई चारा नजर नहीं आया। किंतु विरोधियों से बदला लेने के बाद भी उस कृत्य से चिपके रहना किस मनोदशा का परिचायक है? विशेष परिस्थिति में आत्मसमर्पण हार या पराजय नहीं होती बल्कि कई बार वह प्रतिरोध का रचनात्मक रूपांतरण भी होती है। आत्मसमर्पण कर फौज में कोच के ऑफर को दो-दो बार ठुकरा कर हत्या और लूट की दौड़ भावना से तुलना करना और दौड़ में कभी भी न रुकने की बात , हत्या और लूट का वीभत्स महिमामंडन है। कभी-कभी तो लगता है पानसिंह मनोरोगी चरित्र है। आरंभ में बागी तो परिस्थितिवश हुआ किंतु धीरे-धीरे उसे इस कार्य में रस मिलने लगता है। उसका चरित्र इस बात का परिचायक है कि वह जो भी करता है, जूनूनी तौर पर करता है। फौज में आने पर जनूनी फौज बनता है, खेल में आता है तो जूनून के साथ और जब बागी बनता है तो जूनून के साथ। इसलिए कई अन्य बागियों की तरह वह आत्मसमर्पण कर जीवन को नया आयाम या विस्तार नहीं दे पाता है।
चंबल घाटी के बीहड़ों पर कई फिल्में बनी है। इन फिल्मों में गंगा-जमुना से लेकर पानसिंह तोमर तक का नाम लिया जा सकता है। लेकिन इन फिल्में में शेखर कपूर निर्देशित फिल्म बैंडिट क्वीन ने जो उंचाई प्राप्त की है, तिग्मांशु घूलिया वहां तक नहीं पहुंच पाए। जबकि इन्होंने अपनी फिल्मी कैरियर की शुरुआत इसी बैंडिट क्वीन फिल्म से की है। सन् 1990 में बनी इस फिल्म में घूलिया साहब ने बतौर कास्ट डिजाइनर काम किया है। यद्यपि यह फिल्म भी व्यक्तिगत हिंसा का महात्म्य प्रदर्शित करती है किंतु वास्तविक जिंदगी में बाद में फूलन आत्मसमर्पण कर इस कृत्य से अपनी असहमति दर्ज करा देती है। बैंडिट की उंचाई न छू पाने के कारणों में निर्देशकीय क्षमता के अतिरिक्त दोनों निर्देशकों में उद्देश्य का फर्क होना है। शेखर कपूर का उद्येश्य फूलन के शोषण और प्रतिरोध के साथ-साथ चंबल को विश्वसनीय रूप में दर्शकों के सामने रखना था। किंतु धूलिया का उद्येश्य कदाचित तात्कालिक संदर्भ में सरकार बनाम भ्रष्टाचार को पानसिंह के बहाने सामने लाना था। इसलिए पानसिंह तोमर खेल का राजनीतिक खेल बनकर रह गया है। एक बड़े फिल्म समीक्षक ने पानसिंह तोमर को दोहा नहीं महाकाव्य की संज्ञा दी है। किंतु फिल्म किस तरह महाकाव्य है वे इसे प्रमाणित नहीं कर पाये है।
बैंडिट क्वीन को महाकाव्यात्मक फिल्म कहा भी जा सकता है क्योंकि इस फिल्म ने अत्यंत बारीकी से फूलन के बचपन से लेकर बागी होने तक की घटनाओं और दृश्यों को अद्भुत कलात्मकता से सजाया है। पानसिंह तोमर तो फिर भी ऐसे चरित्र का फिल्मांकन है जो अब जीवित नहीं है लेकिन जीवित चरित्र पर फिल्म बनाना अत्यंत चुनौतीपूर्ण और साहस का कार्य है। शेखर कपूर ने इस चुनौती को स्वीकार कर काफी अच्छी फिल्म बनायी। इस फिल्म में आधे पौन घेटे में निर्देशक अपनी कलात्मक सूझ-बूझ और संवेदनशील पकड़ से दर्शकों को इस तरह मोह लेते हैं कि यह फिल्म फिल्म होने का आभास नहीं देती, बल्कि किसी विलक्षण वृत्तचित्र का आभास देती है। ठेठ गांव का माहौल, बंदेलखंडी भाषा की सहजता और चंबल की घाटियों की भयावहता एक साथ मिलकर किसी बड़े कैनवास को रूपायित करती है। ऐसा लगता है मानो वास्वविक घटनाओं को कैमरे में कैद कर लिया गया है। इस वास्वविकता का आभास दे पाने में पानसिंह तोमर असमर्थ है।
इतना ही नहीं बैंडिट क्वीन की तकनीक जितनी उम्दा है तीस वर्ष बाद जबकि फिल्म तकनीक में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है, पानसिंह तोमर यह नहीं है। साहित्यकार और फिल्म समीक्षक सुधा अरोड़ा के शब्दों में चंबल घाटियों में गूंजता नुसरत फतह अली का प्रभावी संगीत हो या पथरीले रास्तों पर भटकता अशोक मेहता का कैमरा या बेहमई के डाकुओं के आने पर साथ-साथ जुड़े छतों पर से फैंका जाता समान और दहशत में भागते लोगों का लॉंग शॉट या फिर गांव की लड़की फूलन की शादी का एक दूर से लिए हुए कोलाज का बेहतरीन छायांकन आदि जहां बैंडिट क्वीन को कला या महाकाव्यात्मक फिल्म सिद्ध करती है वहीं पानसिंह तोमर को नितांत व्यवसायिक।
नोट: इस आलेख को लिखने की प्रेरणा सुप्रसिद्ध शिक्षाविद् एवं हरियाणा केंद्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति मूलचंद शर्मा से मिली, आभार। उन्होंने विश्वविद्यालय में पानसिंह तोमर पर केंद्रित 'फिल्म: एज ए टेक्सट' शीर्षक से दो दिनों का विमर्श रखा। इस परिचर्चा में पांच विद्यार्थियों एवं पांच शिक्षकों ने अलग-अलग चर्चा की।
यह भी पढ़ें : बैंडिट क्वीन की आलोचना अरुंधती राय द्वारा (पुराना आलेख)
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