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By चन्द्रशेखर करगेती
अनुभव की बात जो अनसुनी रही......?
"गढ़वाल की प्रसिद्ध पर्यावरणविद मीरा बेन ने जीवन भर हिमालयी क्षेत्रों को बचाने के प्रयास किए। इसी के चलते 5 जून 1950 को उन्होंने 'द हिन्दुस्तान टाइम्स' में एक लेख प्रकाशित कराया था, प्रस्तुत हैं उसी लेख के अंश ।"
'साल दर साल उत्तर भारत में आने वाली बाढ़ का रूप विकराल होता जा रहा है और इस वर्ष तो यह बहुत विध्वंसक रही। इसका मतलब यह कि हिमालय में हालात कुछ गड़बड़ हैं और यह 'कुछ' सीधे वहां के जंगलों से जुड़ा है ।
दक्षिणी ढलान के क्षेत्र में बढ़ते वृक्षों की नस्ल में आई तब्दीली का मुझे ज्ञान है - यह वही क्षेत्र है जहां से बाढ़ का पानी नीचे आता है । यह घातक परिवर्तन बंज (हिमालयी लकड़ी) से चीड़ के पेड़ों के रूप में सामने आया है । चूंकि यह मामला वनों के कटने की बजाय जंगलों का स्वरूप बदलने से है, इसलिए इसे बहुत गंभीरता से नहीं लिया गया । सच तो यह है कि अर्ध-व्यावसायिक हो चुका वन विभाग इस ओर से आंखें तक मूंद चुका है । ऐसा इसलिए कि बंज उसे नकद मुनाफा नहीं देता जबकि चीड़ इस मामले में बहुत मुनाफा पहुंचाता है, उसकी पैदावार से मिलने वाली लकड़ी और राल दोनों की बिक्री होती है । परंतु करोड़ों रुपए के मिलने वाले राजस्व का क्या मतलब जब हर वर्ष हमें वही पैसा बाढ़ की तबाही के बाद पुनर्वास पर खर्च करना पड़े ?
बंज के पेड़ों के कारण नीचे झाड़ियां, लताएं और घास का एक प्रचुर सांचा अस्तित्व में आता है, जिसके कारण भी बंज की पत्तियों में भी बड़ी वृद्धि होती है और अंतत: एक ऐसा वन तैयार होता है जिसमें करीब सारा वर्षा जल समा जाता है । शेष बचा पानी वाष्पित हो जाता है और कुछ ढलान से लुढ़क जाता है। इसके विपरीत, चीड़ के पेड़ बिल्कुल उलटा प्रभाव डालते हैं । इसकी पत्तियों के कारण एक समतल, सूखी जमीन तैयार होती है जो कुछ भी नहीं सोखती और जमीन के अंदर भी कोई नई शक्ति नहीं पनपती । दरअसल, यह देखा गया है कि अक्सर चीड़ के पेड़ों की जमीन मरुभूमि जैसी सूखी होती है। सवाल यह है कि बंज के वन आखिर इतनी तेजी से क्यों गायब होते जा रहे हैं । इसका एकमात्र कारण यही नहीं है कि वन विभाग चीड़ के पेड़ों को बढ़ावा दे रहा है, बल्कि यह भी कि वह ग्रामीणों को उनके मवेशियों के चारे के लिए बंज की पत्तियां आदि एक सीमा में इस्तेमाल करने से जुड़े जरूरी कदम नहीं उठा रहा है ।
नतीजतन, जब बंज के पेड़ कमजोर होती जड़ों और शाखाओं के कारण दुबले होते जाते हैं तो जंगल में चीड़ के पेड़ों की तादाद बढ़ती है, और बढ़ने के बाद उसकी वन लताएं जमींदोज हो जाती है जिससे अन्य पेड़ मरने लगते हैं । यदि चीड़ के पेड़ों को उनकी सही ऊंचाई पर रोपा जाए और बंज के वनों को पुन- र्जीवित किया जाए तो वर्ष-दर-वर्ष पेड़ों पर पड़ने वाला बोझ कम होगा और मवेशियों के लिए चारा भी भारी मात्रा में मिलेगा । दक्षिणी हिमालय की ढलान पर बंज के वन वहां के आर्थिक चक्र की रीढ़ या केंद्र हैं। उन्हें नष्ट करना उस क्षेत्र की हृदयगति को काटना है । हिमालयी वन उत्तरी मैदानों को पालते हैं और उत्तरी क्षेत्र देश का अनाज देयता कहलाता है । कहना न होगा कि हमारे इस अभिभावक को सरकार की ओर से जितना भी प्रश्रय और सहयोग मिले, कम है ।'
(साभार : दैनिक हिन्दुस्तान)
"गढ़वाल की प्रसिद्ध पर्यावरणविद मीरा बेन ने जीवन भर हिमालयी क्षेत्रों को बचाने के प्रयास किए। इसी के चलते 5 जून 1950 को उन्होंने 'द हिन्दुस्तान टाइम्स' में एक लेख प्रकाशित कराया था, प्रस्तुत हैं उसी लेख के अंश ।"
'साल दर साल उत्तर भारत में आने वाली बाढ़ का रूप विकराल होता जा रहा है और इस वर्ष तो यह बहुत विध्वंसक रही। इसका मतलब यह कि हिमालय में हालात कुछ गड़बड़ हैं और यह 'कुछ' सीधे वहां के जंगलों से जुड़ा है ।
दक्षिणी ढलान के क्षेत्र में बढ़ते वृक्षों की नस्ल में आई तब्दीली का मुझे ज्ञान है - यह वही क्षेत्र है जहां से बाढ़ का पानी नीचे आता है । यह घातक परिवर्तन बंज (हिमालयी लकड़ी) से चीड़ के पेड़ों के रूप में सामने आया है । चूंकि यह मामला वनों के कटने की बजाय जंगलों का स्वरूप बदलने से है, इसलिए इसे बहुत गंभीरता से नहीं लिया गया । सच तो यह है कि अर्ध-व्यावसायिक हो चुका वन विभाग इस ओर से आंखें तक मूंद चुका है । ऐसा इसलिए कि बंज उसे नकद मुनाफा नहीं देता जबकि चीड़ इस मामले में बहुत मुनाफा पहुंचाता है, उसकी पैदावार से मिलने वाली लकड़ी और राल दोनों की बिक्री होती है । परंतु करोड़ों रुपए के मिलने वाले राजस्व का क्या मतलब जब हर वर्ष हमें वही पैसा बाढ़ की तबाही के बाद पुनर्वास पर खर्च करना पड़े ?
बंज के पेड़ों के कारण नीचे झाड़ियां, लताएं और घास का एक प्रचुर सांचा अस्तित्व में आता है, जिसके कारण भी बंज की पत्तियों में भी बड़ी वृद्धि होती है और अंतत: एक ऐसा वन तैयार होता है जिसमें करीब सारा वर्षा जल समा जाता है । शेष बचा पानी वाष्पित हो जाता है और कुछ ढलान से लुढ़क जाता है। इसके विपरीत, चीड़ के पेड़ बिल्कुल उलटा प्रभाव डालते हैं । इसकी पत्तियों के कारण एक समतल, सूखी जमीन तैयार होती है जो कुछ भी नहीं सोखती और जमीन के अंदर भी कोई नई शक्ति नहीं पनपती । दरअसल, यह देखा गया है कि अक्सर चीड़ के पेड़ों की जमीन मरुभूमि जैसी सूखी होती है। सवाल यह है कि बंज के वन आखिर इतनी तेजी से क्यों गायब होते जा रहे हैं । इसका एकमात्र कारण यही नहीं है कि वन विभाग चीड़ के पेड़ों को बढ़ावा दे रहा है, बल्कि यह भी कि वह ग्रामीणों को उनके मवेशियों के चारे के लिए बंज की पत्तियां आदि एक सीमा में इस्तेमाल करने से जुड़े जरूरी कदम नहीं उठा रहा है ।
नतीजतन, जब बंज के पेड़ कमजोर होती जड़ों और शाखाओं के कारण दुबले होते जाते हैं तो जंगल में चीड़ के पेड़ों की तादाद बढ़ती है, और बढ़ने के बाद उसकी वन लताएं जमींदोज हो जाती है जिससे अन्य पेड़ मरने लगते हैं । यदि चीड़ के पेड़ों को उनकी सही ऊंचाई पर रोपा जाए और बंज के वनों को पुन- र्जीवित किया जाए तो वर्ष-दर-वर्ष पेड़ों पर पड़ने वाला बोझ कम होगा और मवेशियों के लिए चारा भी भारी मात्रा में मिलेगा । दक्षिणी हिमालय की ढलान पर बंज के वन वहां के आर्थिक चक्र की रीढ़ या केंद्र हैं। उन्हें नष्ट करना उस क्षेत्र की हृदयगति को काटना है । हिमालयी वन उत्तरी मैदानों को पालते हैं और उत्तरी क्षेत्र देश का अनाज देयता कहलाता है । कहना न होगा कि हमारे इस अभिभावक को सरकार की ओर से जितना भी प्रश्रय और सहयोग मिले, कम है ।'
(साभार : दैनिक हिन्दुस्तान)
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