बनारस में हो तो अपना लक पहन के चलो!
अभिषेक श्रीवास्तव
बनारस के अख़बारों में मरने-मारने की ख़बरें हाल तक काफी कम होती थीं। एक समय था जब कुछ लोग ऐसा दावा भी करते थे कि बनारस में बलात्कार नहीं होते और लोग खुदकुशी नहीं करते। मारपीट और गुंडई की बात अलग है लेकिन लोगों के बीच दैनिक जीवन में असहिष्णुता तो नहीं ही होती थी। आज बनारस के अखबार उठाकर देखिए। दो बातें दिखाई देंगी। पहला, स्थानीय संस्करणों के शुरुआती तीन-चार पन्ने रियल एस्टेट के विज्ञापनों से पटे पड़े हैं। दूसरा, भीतर के पन्नोंं पर हत्या, पीट कर मार डालने, खुदकुशी, फांसी लगाने जैसी खबरें बहुतायत में हैं। परसों कोई जाम में फंस कर मर गया। एक लड़की ने मायके में फांसी लगा ली। एक इंजीनियर ने बेटी का गला घोंट दिया और खुद को मार लिया। एक छेड़छाड़ के आरोपी युवक को लोगों ने पीट-पीट कर मार दिया। यह बदलते हुए बनारस का एक नया चेहरा है।
बनारस के आकाश में पहली बार अवसाद नाम की चिडि़या जाने कहां से उड़कर आई है। कल डीएलडब्लू में अवसाद से ग्रस्त एक इंजीनियर ने अपनी बेटी समेत खुद को मार डाला। बीएचयू गेट के बाहर धरना दे रहे निष्कासित 40 संविदा कर्मी अवसाद की कगार पर हैं। लोगों के कान में खोंसा हुआ मोबाइल का इयरफोन इस बात की मुनादी कर रहा है कि बनारस बदल रहा है और लोग अकेले पड़ रहे हैं। इस बदलते हुए शहर में यथास्थिति से पैदा हुई खीझ ने लोगों के कदमों को पर लगा दिए हैं। पिछले साल अपेक्षाएं आसमान पर थीं, इस साल मालवीय पुल से पीलीकोठी तक तीन किलोमीटर लंबा जाम है। जाम से बाहर निकलने की छटपटाहट लोगों को शॉर्ट कट के लिए प्रेरित कर रही है। शॉर्ट कट में कोई दारू पीकर सीढ़ी से गिर जा रहा है, तो कोई अपनी गाड़ी ठोंक दे रहा है। बाइक के नए-नए आधुनिक संस्करण सड़क पर दिख रहे हैं लेकिन उनकी चाल साइकिल से भी धीमी है। यह विरोधाभास खतरनाक स्थितियों को जन्म दे रहा है।
मसलन, इस शहर के युवाओं को ज़रा करीब से देखिए। कल तक बीएचयू के हिंदी विभाग में पढ़ रहे छात्रों की स्थिति देश के किसी दूसरे हिंदी विभाग जैसी ही होती थी। वे पढ़ते थे, लिखते थे, लेकिन साहित्य की राजनीति से उन्हें कोई खास मतलब नहीं होता था। कह सकते हैं कि आज से पांच-दस साल पहले उनकी पहुंच भी राजधानी के विमर्शों तक नहीं होती थी। शायद इसीलिए जब कोई नामवर सिंह या ऐसा ही शख्स बनारस आता था तो उसका खुले दिल से इस्तकबाल किया जाता था। लड़के उसे सुनने को बेचैन रहते थे कि शायद कुछ नया सीखने को मिल जाए। आज हालात बदल चुके हैं। हर चीज़ के बारे में छात्रों की न सिर्फ एक तय राय है, बल्कि वे अपने समय की परिघटनाओं का वर्चुअल हिस्सा भी हैं। दिल्ली के हौज खास गांव के कुंजम कैफे में एक कविता पाठ होता है तो उसकी ख़बर बनारस में बैठे एमए के छात्र को भी उतनी ही होती है जितनी उस गोष्ठी में शामिल लोगों को। वह वर्चुअल दुनिया के माध्यम से उस गोष्ठी का हिस्सा है। उसे पता है कि वहां कौन शख्स अनामंत्रित आया था, किसने क्या पढ़ा और क्यों पढ़ा। वह जब दिल्ली के अपने किसी मित्र से मिलता है तो बनारस या बीएचयू की बात नहीं करता बल्कि दिल्ली की गोष्ठी की बात करता है और ऐसे करता है मानो वह छात्र नहीं, साहित्य की राजनीति का एक सक्रिय किरदार हो। हिंदी विभाग का एक छात्र स्लिप डिस्क के चलते बीएचयू के स्पेशल वार्ड में भर्ती है, लेकिन दोस्तों से मुलाकात में दिल्ली की गोष्ठी के आयोजकों का निंदा रस पान उसकी रीढ़ में झुरझुरी पैदा करता है। यह फेसबुक और मोबाइल पर पली पीढ़ी है जिसकी दिल्ली अपने विभाग में ही बसती है, बल्कि अपने विभाग को वह दिल्ली की टुच्ची परिघटनाओं का एक हिस्सा मानता है। वह जानता है कि इन्हीं रास्तों के सहारे मंजिले मकसूद हासिल होगी।
एक दूसरा स्तर है जहां छात्र सीधे राजनीति में उतर चुका है। पिछले साल जब बीजेपी का हाइटेक चुनाव कार्यालय बनारस में खुला तो आइआइटी बीएचयू से छांट-छांट कर छात्रों को इसमें भरा गया। कोई फिजिक्स में पीएचडी था, कोई एमटेक तो कोई फार्मा का नया-नवेला असिस्टेंट प्रोफेसर। इन लड़कों ने वाकई अच्छा काम किया और अपने हुनर के सहारे बीजेपी व संघ के आलाकमान तक पहुंच बना ली। सवा साल बीत चुका है, आज इन्हीं में से एक प्रशांत कुमार सिंह आरा के बड़हरा विधानसभा क्षेत्र से बीजेपी के टिकट पर चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे हैं। पिछले साल बीजेपी के आइटी सेल के प्रमुख रहे आदित्य सिंह उनके लिए संसाधन जुटा रहे हैं। प्रशांत को खड़ा करने के पीछे आदित्य का ही हाथ है। वे कहते हैं, ''मैंने गडकरीजी से कहा कि मैं चाहता तो एकाध लाख की नौकरी कर सकता था, वैज्ञानिक हूं, लेकिन राष्ट्रवाद के नाम पर मैं राजनीति में आ गया। अच्छे लोगों की राजनीति में बहुत जगह है।''
ऐसा लगता है कि बनारस किसी जादूगर के मंत्र से बिद्ध है। हर कोई चमत्कार की उम्मीद में बैठा है, खड़ा है और दौड़ रहा है। सबके दिमाग में एक जादू चल रहा है। कोई मेट्रो ट्रेन का सपना देख रहा है, कोई विधायक बनने का ख्वाब देख रहा है तो कोई हिंदी का पुरस्कृत कवि बनने का सपना संजोए है। किसी को उम्मीद है कि सरकार बदलने के बाद उसके बेटा-बेटी को सरकारी नौकरी मिल जाएगी। किसी को लगता है कि सिर्फ राष्ट्रवाद, गणवेश, संघ आदि शब्दों को दुहराकर वैतरणी पार लग जाएगी।
बनारस में बहुत युवाओं के मुंह से इस बार राष्ट्रवाद शब्द सुनने को मिला। यह बात अलग है कि विचारधारा के स्तर पर जिस राष्ट्रवाद से प्रेरित होकर वे भाजपा के साथ जुड़े थे, बीते एक साल में उसका हश्र देखकर मोहभंग की स्थिति में भी पहुंच चुके हैं। एक दूसरा कारण जातिगत गोलबंदी का भी है। मसलन, आदित्य सिंह को इस बात से तो संतोष है कि बीएचयू के वीसी संघ के रखे हुए हैं, लेकिन इस बात की नाराज़गी है कि वे सिर्फ ब्राह्मणों की ही नियुक्ति कर रहे हैं। वे कहते हैं, ''कुछ प्रोफेसर अइसन हउवन कि भाजपा के नेतवन के देखते कहे लगेलन कि मैं तो बचपन से ही गणवेश में रहता था। मजाक बना देले हउवन सब।'' बीते एक साल के तजुर्बे ने भाजपा में गए इन छात्रों को यह सबक दिया है कि मोदी-मोदी करने से बहुत कुछ हासिल नहीं होने वाला, संघ के भीतर पैठ बनानी होगी। इसीलिए कल यानी मंगलवार को संघ के नेता संजय जोशी के बनारस में स्वागत की तैयारियां पूरी हैं। पढ़े-लिखे युवाओं की जो फौज मोदी को सत्ता में लेकर आई है, वह अब धीरे-धीरे संघ के दूसरे धड़े की ओर मुड़ रही है।
यह संयोग नहीं है कि शहर की अडि़यों पर हार्दिक पटेल को लेकर चर्चा गरम है। कुछ युवा उसे आइकन के तौर पर देख रहे हैं। कुछ और उसकी सच्चाई को जान रहे हैं और बोल भी रहे हैं। लंका पर हमें जे.पी. सिंह मिले। कई साल सूरत में रहकर कारोबार कर चुके हैं। बताते हैं कि हार्दिक पटेल संघ का मोहरा है और भाजपा प्रायोजित है। वह आरक्षण के खिलाफ है। भाजपा के आलाकमान तक सीधी पैठ रखने वाले आदित्य भी मुस्कराते हुए इस बात को स्वीकारते हैं। ''अगर ईमानदारी की ही राजनीति करनी है तो भाजपा ही क्यों, कोई और क्यों नहीं?'' हमने यह सवाल जब आदित्य से पूछा, तो वे ईमानदारी से बोले, ''तमाम दलों में भाजपा ही अपेक्षाकृत कम भ्रष्ट है। जब लगेगा कि नहीं चल पा रहा, तो कुछ नया खड़ा करेंगे। दिक्कत सिर्फ संघ की मोनार्की से है। हम लोग इसी मोनार्की को संघ के भीतर रह कर चुनौती दे रहे हैं और अपनी जगह बना रहे हैं।''
चाहे राजनीति करने वाले युवा हों या रचना करने वाले, वे अपने एजेंडे और सोच में बिलकुल स्पष्ट हैं। यह दस साल पुराने बीएचयू से बिलकुल अलग स्थिति है। जैसे-जैसे परिसर में छात्र संघ की राजनीति को कुचला गया है, उसी क्रम में छात्रों का राजनीतिकरण निजी स्तर पर और तीखा होता गया है। यह बात अलग है कि फिलहाल दक्षिणपंथी रुझान ज्यादा हावी दिखते हैं, लेकिन इनकी साफ़गोई से कोई इनकार नहीं कर सकता। मसलन, अरविंद केजरीवाल के बारे में बात करते हुए आदित्य सिंह हमारे रिटर्न गिफ्ट वाले विश्लेषण को पुष्ट करते हैं जब वे कहते हैं, ''दिल्ली का चुनाव तो पहले से सेट था। अमित शाह जी ने कहा था कि केजरीवाल को एक जगह बांधना जरूरी है नहीं तो वो देश भर में उछल-उछल कर दिक्कत पैदा करेगा। इसीलिए दिल्ली में आप देखेंगे कि भाजपा ने एक भी बूथ कमेटी नहीं बनाई। सब कुछ पहले से तय था। केजरीवाल को ही जीतना था। हमने उसे जिताया।'' बीएचयू के पूर्व छात्र और हमारे पुराने मित्र संतोष यादव इस बात का जिक्र करते हैं कि आज नहीं तो कल, यह सच्चाई खुल कर आएगी ही कि लोकसभा चुनाव में भाजपा ने ईवीएम मशीनों को मैनिपुलेट किया था। बिलकुल यही काम दिल्ली में हुआ रहा होगा। आदित्य मुस्कराते हुए कहते हैं कि चाहे जो हुआ रहा हो, जिस तरह केंद्र में भाजपा आई है उसी तरह दिल्ली में केजरीवाल जीते हैं। दोनों के पीछे भाजपा ही है।
एमए, पीएचडी कर रहे छात्र जब निजी स्तर पर संगठित राजनीति कर रहे हों, वह भी ऐसे वक्त में जब छात्र आंदोलन हाशिये पर जा चुका हो और छात्र संघ अतीत की बात हो गया हो, तो यह चौंकाने वाली बात लगती है। हो सकता है कि इसमें सरोकार का कोई अंश भी हो, लेकिन मोटे तौर पर ऐसा लगता है कि विकल्पहीनता से उपजे अवसाद को चुनौती देने के लिए उन्होंने महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए प्रतिरोध की जगह सत्ता का रास्ता चुना है। पहले यही काम प्रतिरोध की राजनीति और छात्रसंघ के रास्ते होते थे। अब डायरेक्ट राजनीति हो रही है सत्ता के लिए और सत्ताधारी दल के साथ। कहीं कोई शर्म, लिहाज या झेंप नहीं है। जो है, सामने है।
साहित्य और राजनीति में इस किस्म की युवा गोलबंदी सिर्फ एक लक्षण है। बनारस के विशिष्ट संदर्भ में फर्क यह आया है कि आज यहां का सांसद देश का प्रधानमंत्री है। यह फर्क बड़ा फर्क है। आदित्य कहते हैं, ''सब जान रहे हैं कि बस बनारस का पाला छू लो, चरण स्पर्श करो और काम में लग जाओ। कुछ न कुछ तो मिल ही जाएगा। आज आपको कुछ करना-करवाना है तो बस बनारस आने की ज़रूरत है। रास्ता अपने आप बन जाएगा।'' यह बड़ी बात है। इसे हम बनारस से जुड़े आदमी की नीयत को 2015 में परखने की कसौटी भी मान सकते हैं। अगर सिर्फ बनारस का जाप करने से आज लोगों का जीवन पार लग रहा है, तो ज़ाहिर है कि बनारस के बनारस बने रहने में उनकी कोई खास दिलचस्पी नहीं होगी। आदित्य कहते हैं, ''बताइए, नाव से शव ले जाने की परंपरा कभी बनारस में थी क्या? इसे शुरू कर दिया गया है। जो लोग बनारस और परंपरा के साथ अपनी महत्वाकांक्षा के लिए खिलवाड़ करेंगे, उन्हें बनारस माफ नहीं करेगा।''
बनारस में और देश में पिछले साल जो घटा है, उसमें युवाओं का बहुत बड़ा हाथ है। यही युवा दो महीने बाद बिहार और दो साल बाद यूपी की भी तकदीर तय करने जा रहे हैं। यह ट्रेंड अभी कुछ समय तक और चलेगा। यह अस्मिता बनाम महत्वाकांक्षा की जंग है जिसमें अस्मिता और उसकी राजनीति पीछे छूट जाएगी। महत्वाकांक्षाएं इतनी ऊंची होंंगी कि उन्हें खस्ताहाल सड़क और जाम से निकलने की बेचैनी तो होगी, लेकिन बनारस को बनारस बनाए रखने से कोई सरोकार नहीं होेगा। बनारस की सड़कों के ऊपर टंगे लक्स कोज़ी के बैनरों से बेहतर इस भाव को और कोई ज़ाहिर नहीं कर सकता, जिन पर सभ्य बनने के तमाम दिशानिर्देशों के बावजूद एक लाइन परमानेंट लिखी होती है, ''अपना लक पहन के चलो।''
एक दूसरा स्तर है जहां छात्र सीधे राजनीति में उतर चुका है। पिछले साल जब बीजेपी का हाइटेक चुनाव कार्यालय बनारस में खुला तो आइआइटी बीएचयू से छांट-छांट कर छात्रों को इसमें भरा गया। कोई फिजिक्स में पीएचडी था, कोई एमटेक तो कोई फार्मा का नया-नवेला असिस्टेंट प्रोफेसर। इन लड़कों ने वाकई अच्छा काम किया और अपने हुनर के सहारे बीजेपी व संघ के आलाकमान तक पहुंच बना ली। सवा साल बीत चुका है, आज इन्हीं में से एक प्रशांत कुमार सिंह आरा के बड़हरा विधानसभा क्षेत्र से बीजेपी के टिकट पर चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे हैं। पिछले साल बीजेपी के आइटी सेल के प्रमुख रहे आदित्य सिंह उनके लिए संसाधन जुटा रहे हैं। प्रशांत को खड़ा करने के पीछे आदित्य का ही हाथ है। वे कहते हैं, ''मैंने गडकरीजी से कहा कि मैं चाहता तो एकाध लाख की नौकरी कर सकता था, वैज्ञानिक हूं, लेकिन राष्ट्रवाद के नाम पर मैं राजनीति में आ गया। अच्छे लोगों की राजनीति में बहुत जगह है।''
यह शहर लगातार किसी न किसी जादूगर के वश में है |
बनारस में बहुत युवाओं के मुंह से इस बार राष्ट्रवाद शब्द सुनने को मिला। यह बात अलग है कि विचारधारा के स्तर पर जिस राष्ट्रवाद से प्रेरित होकर वे भाजपा के साथ जुड़े थे, बीते एक साल में उसका हश्र देखकर मोहभंग की स्थिति में भी पहुंच चुके हैं। एक दूसरा कारण जातिगत गोलबंदी का भी है। मसलन, आदित्य सिंह को इस बात से तो संतोष है कि बीएचयू के वीसी संघ के रखे हुए हैं, लेकिन इस बात की नाराज़गी है कि वे सिर्फ ब्राह्मणों की ही नियुक्ति कर रहे हैं। वे कहते हैं, ''कुछ प्रोफेसर अइसन हउवन कि भाजपा के नेतवन के देखते कहे लगेलन कि मैं तो बचपन से ही गणवेश में रहता था। मजाक बना देले हउवन सब।'' बीते एक साल के तजुर्बे ने भाजपा में गए इन छात्रों को यह सबक दिया है कि मोदी-मोदी करने से बहुत कुछ हासिल नहीं होने वाला, संघ के भीतर पैठ बनानी होगी। इसीलिए कल यानी मंगलवार को संघ के नेता संजय जोशी के बनारस में स्वागत की तैयारियां पूरी हैं। पढ़े-लिखे युवाओं की जो फौज मोदी को सत्ता में लेकर आई है, वह अब धीरे-धीरे संघ के दूसरे धड़े की ओर मुड़ रही है।
यह संयोग नहीं है कि शहर की अडि़यों पर हार्दिक पटेल को लेकर चर्चा गरम है। कुछ युवा उसे आइकन के तौर पर देख रहे हैं। कुछ और उसकी सच्चाई को जान रहे हैं और बोल भी रहे हैं। लंका पर हमें जे.पी. सिंह मिले। कई साल सूरत में रहकर कारोबार कर चुके हैं। बताते हैं कि हार्दिक पटेल संघ का मोहरा है और भाजपा प्रायोजित है। वह आरक्षण के खिलाफ है। भाजपा के आलाकमान तक सीधी पैठ रखने वाले आदित्य भी मुस्कराते हुए इस बात को स्वीकारते हैं। ''अगर ईमानदारी की ही राजनीति करनी है तो भाजपा ही क्यों, कोई और क्यों नहीं?'' हमने यह सवाल जब आदित्य से पूछा, तो वे ईमानदारी से बोले, ''तमाम दलों में भाजपा ही अपेक्षाकृत कम भ्रष्ट है। जब लगेगा कि नहीं चल पा रहा, तो कुछ नया खड़ा करेंगे। दिक्कत सिर्फ संघ की मोनार्की से है। हम लोग इसी मोनार्की को संघ के भीतर रह कर चुनौती दे रहे हैं और अपनी जगह बना रहे हैं।''
चाहे राजनीति करने वाले युवा हों या रचना करने वाले, वे अपने एजेंडे और सोच में बिलकुल स्पष्ट हैं। यह दस साल पुराने बीएचयू से बिलकुल अलग स्थिति है। जैसे-जैसे परिसर में छात्र संघ की राजनीति को कुचला गया है, उसी क्रम में छात्रों का राजनीतिकरण निजी स्तर पर और तीखा होता गया है। यह बात अलग है कि फिलहाल दक्षिणपंथी रुझान ज्यादा हावी दिखते हैं, लेकिन इनकी साफ़गोई से कोई इनकार नहीं कर सकता। मसलन, अरविंद केजरीवाल के बारे में बात करते हुए आदित्य सिंह हमारे रिटर्न गिफ्ट वाले विश्लेषण को पुष्ट करते हैं जब वे कहते हैं, ''दिल्ली का चुनाव तो पहले से सेट था। अमित शाह जी ने कहा था कि केजरीवाल को एक जगह बांधना जरूरी है नहीं तो वो देश भर में उछल-उछल कर दिक्कत पैदा करेगा। इसीलिए दिल्ली में आप देखेंगे कि भाजपा ने एक भी बूथ कमेटी नहीं बनाई। सब कुछ पहले से तय था। केजरीवाल को ही जीतना था। हमने उसे जिताया।'' बीएचयू के पूर्व छात्र और हमारे पुराने मित्र संतोष यादव इस बात का जिक्र करते हैं कि आज नहीं तो कल, यह सच्चाई खुल कर आएगी ही कि लोकसभा चुनाव में भाजपा ने ईवीएम मशीनों को मैनिपुलेट किया था। बिलकुल यही काम दिल्ली में हुआ रहा होगा। आदित्य मुस्कराते हुए कहते हैं कि चाहे जो हुआ रहा हो, जिस तरह केंद्र में भाजपा आई है उसी तरह दिल्ली में केजरीवाल जीते हैं। दोनों के पीछे भाजपा ही है।
एमए, पीएचडी कर रहे छात्र जब निजी स्तर पर संगठित राजनीति कर रहे हों, वह भी ऐसे वक्त में जब छात्र आंदोलन हाशिये पर जा चुका हो और छात्र संघ अतीत की बात हो गया हो, तो यह चौंकाने वाली बात लगती है। हो सकता है कि इसमें सरोकार का कोई अंश भी हो, लेकिन मोटे तौर पर ऐसा लगता है कि विकल्पहीनता से उपजे अवसाद को चुनौती देने के लिए उन्होंने महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए प्रतिरोध की जगह सत्ता का रास्ता चुना है। पहले यही काम प्रतिरोध की राजनीति और छात्रसंघ के रास्ते होते थे। अब डायरेक्ट राजनीति हो रही है सत्ता के लिए और सत्ताधारी दल के साथ। कहीं कोई शर्म, लिहाज या झेंप नहीं है। जो है, सामने है।
व्यवस्था का पालन करें, लेकिन अपना लक पहन के चलें |
साहित्य और राजनीति में इस किस्म की युवा गोलबंदी सिर्फ एक लक्षण है। बनारस के विशिष्ट संदर्भ में फर्क यह आया है कि आज यहां का सांसद देश का प्रधानमंत्री है। यह फर्क बड़ा फर्क है। आदित्य कहते हैं, ''सब जान रहे हैं कि बस बनारस का पाला छू लो, चरण स्पर्श करो और काम में लग जाओ। कुछ न कुछ तो मिल ही जाएगा। आज आपको कुछ करना-करवाना है तो बस बनारस आने की ज़रूरत है। रास्ता अपने आप बन जाएगा।'' यह बड़ी बात है। इसे हम बनारस से जुड़े आदमी की नीयत को 2015 में परखने की कसौटी भी मान सकते हैं। अगर सिर्फ बनारस का जाप करने से आज लोगों का जीवन पार लग रहा है, तो ज़ाहिर है कि बनारस के बनारस बने रहने में उनकी कोई खास दिलचस्पी नहीं होगी। आदित्य कहते हैं, ''बताइए, नाव से शव ले जाने की परंपरा कभी बनारस में थी क्या? इसे शुरू कर दिया गया है। जो लोग बनारस और परंपरा के साथ अपनी महत्वाकांक्षा के लिए खिलवाड़ करेंगे, उन्हें बनारस माफ नहीं करेगा।''
बनारस में और देश में पिछले साल जो घटा है, उसमें युवाओं का बहुत बड़ा हाथ है। यही युवा दो महीने बाद बिहार और दो साल बाद यूपी की भी तकदीर तय करने जा रहे हैं। यह ट्रेंड अभी कुछ समय तक और चलेगा। यह अस्मिता बनाम महत्वाकांक्षा की जंग है जिसमें अस्मिता और उसकी राजनीति पीछे छूट जाएगी। महत्वाकांक्षाएं इतनी ऊंची होंंगी कि उन्हें खस्ताहाल सड़क और जाम से निकलने की बेचैनी तो होगी, लेकिन बनारस को बनारस बनाए रखने से कोई सरोकार नहीं होेगा। बनारस की सड़कों के ऊपर टंगे लक्स कोज़ी के बैनरों से बेहतर इस भाव को और कोई ज़ाहिर नहीं कर सकता, जिन पर सभ्य बनने के तमाम दिशानिर्देशों के बावजूद एक लाइन परमानेंट लिखी होती है, ''अपना लक पहन के चलो।''
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