तमिलनाडु में सेंधमारी और बंगाल में राम की सौगंध, गायपट्टी में मुंह की खाने की हालत में ग्लोबल हिंदुत्व का पलटवार!
पंजाब,कश्मीर और असम के बाद बंगाली और तमिल राष्ट्रीयताओं के साथ बेहद खतरनाक खेल हिंदुत्व के नाम!
ध्रूवीकरण समीकरणःसंघियों ने अमर्त्य सेन समेत बंगाल के बुद्धिजीवियों पर निशाना साधा तो ममता दीदी ने पचानब्वे फीसद मुसलमानों को दे दिया आरक्षण।
नोटबंदी के बावजूद यूपी हारने के बाद उत्तराखंड भी संघ परिवार के सरदर्द का सबब!
हरिद्वार में बाबा रामदेव ने पलटी मारी और कहा,पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के बाद देश की राजनीति में भूचाल आ जाएगा और भारी उथल-पुथल मचेगी!
पलाश विश्वास
आज यूपी में दूसरे चरण का मतदान है।उत्तराखंड में भी आज जनादेश की कवायद है।इससे एक दिन पहले तमिलनाडु में दिवंगत जयललिता को चार साल की कैद के अलावा सौ करोड़ के जुर्माने की सजा सुप्रीम कोर्ट ने सुना दी है तो बंगाल में कल ही लव जिहाद के खिलाफ हिंदुत्व का घनघोर अभियान गायपट्टी की तर्ज पर चला है।इसके अलावा दक्षिण 24 परगना के मुस्लिम बहुल इलाकों से होकर मध्य कोलकाता के धर्मतल्ला के रानी रासमणि रोड तक संघ परिवार के हिंदू संहति मंच का विशाल जुलूस जय श्रीराम के जयघोष के साथ निकला है।
बजरंगियों के मत्थे पर भगवा पट्टी थी तो नेताओं के सुर में मुसलमानों के खिलाफ खुला जिहाद।डोनाल्ड ट्रंप का दुनियाभर में पहला खुल्ला समर्थन।
उधर आय से अधिक संपत्ति मामले में 4 साल की सजा सुनाए जाने के बाद सरेंडर के लिए कुछ मोहलत मांगने सुप्रीम कोर्ट पहुंचीं शशिकला को करारा झटका लगा है। शीर्ष अदालत ने एआईएडीएमके की नेता को बेंगलुरु स्थित ट्रायल कोर्ट के समक्ष सरेंडर करने के लिए और वक्त दिए जाने से इनकार कर दिया है।
खबरों के मुताबिक वह सरेंडर करने के लिए जल्दी ही बेंगलुरु ट्रायल कोर्ट के लिए रवाना होंगी। वह बुधवार शाम तक बेंगलुरु ट्रायल कोर्ट के समक्ष सरेंडर कर सकती हैं। इससे पहले शशिकला ने मरीना बीच जाकर पूर्व सीएम जयललिता को श्रद्धांजलि अर्पित की।
मुसलमान बहुल इलाकों में इस जुलूस पर छिटपुट पथराव और जबाव में जुलूस में शामिल बजरंगियों के तांडव की भी खबर है।
सबसे खास बात है कि कभी आमार नाम वियतनाम,तोमार नाम वियतनाम के नारे के साथ अमेरिकी साम्राज्यवाद के खिलाफ सबसे मुखर रहे कोलकाता में संघियों ने व्यापक पैमाने पर मुसलमानों के खिलाफ जिहाद का ऐलान करने वाले डान डोनाल्ड ट्रंप की तस्वीरों के साथ उनके इस्लामविरोधी जिहाद के समर्थन में दक्षिण 24 परगना और कोलकाता में व्यापक पोस्टरबाजी की है,प्रगतिशील,धर्मनिरपेक्ष और उदारता के झंडेवरदार बंगाल के लिए यह बेहद शर्मनाक हादसा है।
वामपक्ष के सफाये पर उतारु दीदी ने मुसलमान वोट बैंक अटूट रखकर फासिज्म के राजकाज के साथ जो जहरीला रसायन तैयार किया है,उसके नतीजे बंगाल में सीमाओं के आर पार भयंकर तो होंगे ही,बाकी देश भी अछूता नहीं रहेगा।
गौरतलब है कि वामशासन काल में 1980 के सिख संहार,असम और पूर्वोत्तर में खूनखराबे और बाबरी विध्वंस के वक्त भी कोई धार्मिक ध्रूवीकरण नहीं हुआ था।
अब 2011 के परिवर्तन के बाद यह ध्रूवीकरण आहिस्ते आहिस्ते सुनामी में तब्दील है।धूलागढ़ को लेकर दंगा व्यापक बनाने की हिंदुत्व मुहिम जारी है तो जिलों में लगातार सांप्रदायिक संघर्ष उत्तर बंगाल,मध्य बंगाल और दक्षिण बंगाल का रोजनामचा बन गया है।
दुर्गा पूजा,सरस्वती पूजा और मुहर्रम के मौके पर भी अब तनातनी आम है।
2014 से बंगाल में हिंदुओं के ध्रूवीकरण में बांग्लादेश में बचे खुचे दो करोड़ हिंदुओं और गैर मुसलमानों पर लगातार तेज होते हमलों के साथ साथ असम में उल्फाई राजकाज के साथ जमीनी स्तर पर संघी कैडरों की ममता राज में बेलगाम सक्रियता बहुत तेजी आयी है।बंगाल जीतने के लिए शरणार्थी समस्या नागरिकता कानून बनाकर गहराने के बाद संघियों ने शरणार्थियों को भी अपनी गिरफ्त में दबोच लिया है,जिनका बाकी कोई तरनहार नहीं है।
शारदा फर्जीवाड़ा के तुरुप का पत्ता खींसे में रखकर दो सांसदों को गिरफ्तार करते ही दीदी हिंदुत्व की पटरी पर फिर वापस हो गयी हैं।हालांकि चुनावी समीकरण के मुताबिक उन्होंने मुसलमान वोट बैक को अटूट रखने के लिए ओबीसी आरक्षण के तहत बंगाल के पचानब्वे फीसद मुसलमानों को दे दिया है।पश्चिम बंगाल के कमिशन फॉर बैकवर्ड क्लासेज ने सोमवार को यह तय किया कि मुस्लिम समुदाय की 'खास' जाति को भी ओबीसी कैटिगरी के अंतर्गत लाया जाना चाहिए। अब तक मुस्लिम समाज के करीब 113 समुदायों को ओबीसी कैटिगरी में शामिल कर लिया गया है।
इसके विपरीत ओबीसी हिंदुओं को आरक्षण के बारे में उन्हें कोई सरदर्द नहीं है।बंगाल में ओबीसी जनसंख्या पचास फीसद से ज्यादा है।दलितों और मतुआ और शरणार्थियों के साथ उनके केसरियाकरण से बंगाल में अब हिंदुत्व की सुनामी है।
इस खतरे का अंदेशा भी दीदी को खूब है।लेकिन वे अपने ही बिछाये जाल में उलझ गयी है।
बहरहाल केसरिया सुनामी पर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने दावा किया है कि किसी भी समुदाय द्वारा की जाने वाली हिंसा से उनकी सरकार सख्ती से निपटेगी। उन्होंने कहा कि पश्चिम बंगाल में दंगा भड़काने की किसी भी कोशिश को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। दीदी ने कहा, 'हम उन्हें नहीं बख्शेंगे जो दंगे की आग भड़काते हैं और दूसरों को उकसाते हैं। हम किसी भी समुदाय, चाहे वह हिंदू हो, मुसलमान हो, सिख हो या फिर ईसाई, किसी की भी हिंसक गतिविधियों से सख्ती से निपटेंगे।'
दूसरी तरफ,शशिकला की जेलयात्रा के साथ साथ तमिलनाडु और तमिल राजनीति पूरी तरह संघ परिवार के शिकंजे में है।अन्नाद्रमुक द्रमुक आंदोलन की तरह दो फाड़ है और द्रमुक भी इस जुगत में है कि या तो सत्ता उसे किसी समीकरण के साथ मिल जाये या फिर मध्यावधि चुनाव हो जाये।
जाहिर है कि जो भी सरकार बनेगी ,वह केंद्र सरकार के रहमोकरम पर होगी।तमिल राष्ट्रीयता तीन धड़ों में बंट गयी है और सत्ता समीकरण जो भी हो, तमिलनाडु में संघ परिवार की सेंधमारी चाकचौबंद है।
जो भी नई सरकार बनेगी,वह जाहिर है कि केंद्र सरकार से नत्थी हो जायेगी और उस धड़े के सांसद केसरिया अवतार में होंगे।जो भूमिका बंगाल के तृणमूल की संसद में रही है।
भारत संविधान के मुताबिक लोक गणतंत्र है।
संविधान के मुताबिक संसदीय लोकतंत्र है।
विविधता और बहुलता में एकता के मकसद से राष्ट्र का ढांचा संसदीय है और भाषावार राज्यों का भूगोल बना है।
अमेरिका में पचास राज्य है।वहां संघीय ढांचे में राज्यों को ज्यादा स्वतंत्रता और स्वायत्ता है।हर राज्य का अपना कानून है।संघीय कानून सर्वत्र लागू होता नहीं है।वहां भी राष्ट्रीयताओं को स्वयात्तता है।इसी तरह सोवियत संघ में स्टालिन ने सभी राष्ट्रीयताओं को को समाहित करने के बवाजूद उनकी स्वायत्ता को खत्म नहीं किया था।इसके विपरीत बारत में केंद्रीयकृत सत्ता है।
तमाम राष्ट्रीयताएं और राज्य केंद्र की सत्ता के आधीन बंधुआ हैं,जिनकी अपनी कोई स्वायत्तता या स्वतंत्रता नहीं है।
राष्ट्र की सैन्यशक्ति राष्ट्रीयताओं के दमन में लगी है।
मध्यभारत का आदिवासी भूगोल हो या मणिपुर और समूचा पूर्वोत्तर या फिर कश्मीर सर्वत्र यही कहानी है।
बाकी हिमालयी क्षेत्र में गोरखालैंड आंदोलन के जरिये गोरखा राष्ट्रीयता के उभार के अलावा बाकी जगह फिलहाल केंद्र सरकार और उनके सूबेदारों की तानाशाही के बावजूद,घनघोर अस्पृश्यता के बावजूद,पलायन और विस्थापन के बावजूद अमन चैन है।अमन चैन इसलिए है कि न हिमाचल और उत्तराखंड में कोई आंदोलन है।राष्ट्र के दमन के बीभत्स चेहरे से वे फिलहाल मुखातिब वैसे नहीं है,जैसे कश्मीर, मणिपुर, छत्तीसगढ़ ,झारखंड या पंजाब की राष्ट्रीयताओं की अभिज्ञता है।
यह अमन चैन कैसा है,उदाहरण के लिए हिमाचल और उत्तराखंड हैं,जहां बारी बारी से कांग्रेस और भाजपा में सत्ता हस्तांतरण है और जन पक्षधर ताकतों का कोई प्रतिनिधित्व राजनीति और सत्ता में नहीं है।आम जनता के जनादेश से एक से बढ़कर एक भ्रष्ट नेता केंद्र या राज्य में सत्ता के दम पर पूरा प्रदेश और उसके संसाधनों का खुल्ला दोहन कर रहे हैं।जनहित,जन सुनवाई हाशिये पर है।
उत्तराखंड के साथ पहले झारखंड और छत्तीसगढ़ राज्य बनाकर इन राष्ट्रीयताओं के केसरियाकरण में संघ परिवारको नायाब कामयाबी मिल गयी है।बाद में तेलंगना अलग राज्य बनाकर तेलुगु राष्ट्रीयता दो फाड़ करके दोनों धड़ों का केसरियाकरण हुआ है।
झारखंड और छत्तीसगढ़ आदिवासी बहुल हैं।गोंड भाषा का भूगोल किसी भी भाषा के मुकाबले कम नहीं है।ब्रिटिश हुकूमत के समय गोंडवाना नाम से परिचित आदिवासी भूगोल कई राज्यों में बांट दिया गया है।संथाल,हो,मुंडा,भील,गोंड,कुड़मी जैसे आदिवासी समुदायों का दमन का सिलसिला आबाध है।
अब वहां अकूत खनिज संपदा,वन संपदा और जल संपदा के खुल्ला लूट का सलवा जुड़ुम है और सहहदों के बजायभारत के सैन्यबल और अर्द्ध सैन्यबल वहां केसिरया राजकाज के संरक्षण में निजी कारपोरेट पूंजी के हित में राष्ट्रीयताओं का दमन कर रहे हैं।आदिवासी भूगोल की रोजमर्रे की जिंदगी लहूलुहान है और बाकी देश की सेहत पर कोई असर नहीं है।
इसके बावजूद अमेरिका या सोवियत संघ की तरह भारत में किसी नागरिक को राष्ट्रीयता पर बोलना निषेध है।संसदीय राजनीति में भी यह निषिद्ध विषय है।
इसके विपरीत केंद्र सरकार,कारपोरेट कंपनियों और राजनीतिक दलों को इन राष्ट्रीयताओं के साथ खतरनाक खेल खेलने की खुली छूट है।
इस खतरनाक खेल के दो ज्वलंत उदाहरण पंजाब और असम हैं।
कश्मीर तो बाकायदा निषिद्ध विषय है और वहां की जनता के नागरिक और मानवाधिकारों पर सबकी जुबान बंद है।
बाकी देश से अलग थलग होने के साथ सात भारत पाक युद्ध का रणक्षेत्र बने रहने की वजह से कश्मीर से बाकी देश के संवाद की कोई गुंजाइश नहीं है।
कश्मीर और मणिपुर में दोनों जगह सशस्त्र सैन्यबल विशेषाधिकार कानून आफ्सा लागू है।हम मणिपुर की जनता के हकहकूक को लेकर कमोबेश बोलते लिखते रहे हैं।कश्मीर के मामले में वह गुंजाइश भी नहीं है।
नागरिकों का बोलना लिखना मना है,लेकिन वहां सत्ता की राजनीति चाहे तो कुछ भी कर सकती है।इसका कुल नतीजा इस महादेश में परमाणु हथियारों की दौड़ है।आजादी के बाद कश्मीर को लेकर युद्ध की आड़ में देशभक्ति और अंध राष्ट्रवाद के रक्षा कवच से लैस सत्तावर्ग ने रक्षा सौदों में अरबों अरबों कमाया है और विदेशों में जमा कालाधन का सबसे बड़ा हिस्सा कश्मीर संकट की वजह से हथियारों की होड़ में अंधाधुंध रक्षा व्यय है,जो वित्तीय घाटा और लगातार बढ़ते विदेशी कर्ज के सबसे बड़े कारण हैं,लेकिन वित्तीय प्रबंधकों और अर्थशास्त्रियों के लिए भी रक्षा व्यय शत प्रतिशत विनिवेश के बावजूद निषिद्ध विषय है।
तमिल राष्ट्रीयता,सिख और पंजाबी राष्ट्रीयता,असमिया,मणिपुरी और बंगाली राष्ट्रीयताएं आदिवासी भूगोल की राष्ट्रीयताओं और कश्मीरियत से कहीं कम संवेदनशील और विस्फोटक नहीं है,जहां भाषा,संस्कृति और मानसिकता केसरियाकरण और हिंदुत्वकरण की धूम के बावजूद वैदिकी संस्कृति से अलग है।
तमिल शासकों ने दक्षिण पूर्व एशिया में फिलीपींस से लेकर कंबोडिया तक अपना साम्राज्य विस्तार किया है और तमिल इतिहास का आर्यवर्त के भूगोल और इतिहास से कोई लेना देना नहीं है।
हिंदुत्व के सबसे भव्य और धनी हिंदू धर्मस्थल होने के बावजूद तमिलनाडु में द्रविड़ संस्कृति है।तमिल संस्कृत से भी प्राचीन भाषा है और तमिलनाडु के लोग तमिल के अलावा अंग्रेजी से भी कोई प्रेम नहीं करते।उनका इतिहास सात हजार साल तक निरंतर धाराप्रवाह है जहां कोई अंधायुग नहीं है।
अस्सी के दशक में तमिल ईलम विद्रोह को दबाने के लिए भारतीय शांति सेना पंजाब और असम में राष्ट्र के लहूलुहान हो जाने के बाद,बावजूद भेजी गयी थी।उसका अंजाम आपरेशन ब्लू स्टार जैसा भयंकर हुआ।
इसका अलग ब्यौरा दोहराने की जरुरत नहीं है।
बहरहाल पंजाब,असम और त्रिपुरा में राष्ट्रीयता के सवाल पर जो खतरनाक खेल खेला गया है,उसीकी पुनरावृत्ति अब बंगाल और तमिलनाडु में फिर हो रही है।
सरकारें आती जाती हैं लेकिन कश्मीर और असम की समस्याएं अभी अनसुलझी हैं,पंजाब के मसले सुलझे नहीं है।गोरखालैंड बारुद के ढेर पर है।
ऐसे में समूचे असम और पूर्वोत्तर से लेकर बंगाल तमिलनाडु तक हिंदुत्व की प्रयोगशाला में तब्दील है,इससे हिंदुत्व का पुनरुत्थान हो या न हो,इन राष्ट्रीयताओं के उग्रवादी से लेकर आतंकवादी विकल्प देश के भविष्य और वर्तमान के लिए भयंकर संकट में तब्दील हो जाने का अंदेशा है।
असम में साठ के दशक से संघ परिवार उल्फाई राजनीति के हिंदुत्व एजंडा को अंजाम दे रहा है तो अब असम में उल्फाई राजकाज संघ परिवार का है और अब संघ परिवार के कारपोरेट हिंदुत्व के निशाने पर न सिर्फ बंगाल,समूचा पूर्वोत्तर से लेकर तमिलनाडु तक हैं।ये बेहद खतरनाक हालात हैं।
बांग्लादेश की सरहद भी पाकिस्तान की सरहद से कम संवेदनशील नहीं है। बांग्लादेश में भारतविरोधी गतिविधियां पाकिस्तान से कम नहीं है और फर्क इतना है कि फिलहाल बांग्लादेश में भारत की मित्र सरकार है और बांग्लादेश फिलहाल शरणार्थी संकट खड़ा करते रहने के बावजूद भारत के लिए कोई फौजी हुकूमत नहीं है।
फिरभी बंगाल में धार्मिक ध्रूवीकरण से राष्ट्रीयता का जो खतरनाक उग्रवादी तेवर है,उससे डरने की जरुरत है क्योंकि कश्मीर और पंजाब,तमिलनाडु की तरह यह उग्र राष्ट्रीयता सरहदों के आर पार है।
बहरहाल,यूपी में जिन इलाकों में आज वोट गिरने हैं,वहां बाकी यूपी से मुसलमानों के वोट ज्यादा हैं।जो 26 फीसद के करीब बताया जाता है।
पश्चिम यूपी में मुसलमानों के हिचक तोड़कर फिर दलित मुसलिम एकता के तहत भाजपा खेमे में आ जाने से संघियों के मंसूबे पर पानी फिर गया है।
मायावती ने सौ मुसलमान प्रत्याशियों को टिकट दिये हैं तो समरसता के संघ परिवार ने अमेरिकी राष्ट्रपति डान डोनोल्ड ट्रंप को यूपी जैसे राज्य में कोई टिकट नहीं दिया है,यह कल एच एल दुसाध ने डंके की चोट पर लिखा है।
इसका असर हुआ तो दूसरे चरण में ही छप्पन इंच का सीना कितना चौड़ा और हो जाता है,यह नजारा देखना दिलचस्प होगा।
जबकि हिंदू ह्रदय सम्राट और उनके गुजराती अश्वमेध विशेषज्ञ सिपाहसालार ने उत्तराखंड जैसे छोटे से राज्य को जीतने के लिए एढ़ी चोटी का जोर लगा दिया है और वहां भी इस चुनाव में मणिपुर की महिलाओं की तरह केंद्र की फासिस्ट सत्ता के खिलाफ महिलाएं मजबूती से लामबंद हो गयी है।
उत्तराखंड राज्य आंदोलन की शहादतें मुखर होने लगी हैं और महिला आंदोलनकारियों के समर्थन से खड़े निर्दलीय उम्मीदवार कुमायूं और गढ़वाल में भाजपाइयों कांग्रेसियों के सत्ता समीकरण बिगड़ने में लगे हैं।
अलग राज्य बनने के बाद पलायन और विस्थापन में तेजी के अलावा उत्तराखंड को कुछ हासिल नहीं हुआ है,यह शिकायत आम है।
बाबा रामदेव की कपालभाति भी अब संघ परिवार के लिए सरदर्द का सबब है क्योंकि उन्होंने अबकी दफा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) का भी खुले तौर पर समर्थन नहीं किया। उन्होंने कहा कि वह इस चुनाव में 'निष्पक्ष' हैं। रामदेव ने आगे कहा कि इस बार के विधानसभा चुनाव से उत्तराखंड में भूचाल आ सकता है।
निष्पक्ष रहने की वजह पूछे जाने पर रामदेव ने कहा कि देश की जनता काफी विवेकशील है।
मजे की बात है कि बाबा रामदेव ने कहा कि देश की जनता ही चायवाले को प्रधानमंत्री और पहलवान को मुख्यमंत्री बना देती है।
गौरतलब है कि बाबा रामदेव ने लोकसभा चुनाव के वक्त खुले तौर पर भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी का समर्थन किया था।
मौसमी बाबा राजनीति मौसम के विशेषज्ञ है और कारपोरेट मार्केटिंग और कारपोरेट लाबिइंग में वे कारपोरेट घरानों और कंपनियों के मुकाबले भारी हैं।
ऐसे में बाबा का तेवर संघ परिवार के लिए खतरे की घंटी है।
गौरतलब है कि दस साल तक वे मनमोहन के खास समर्थक थे।फिर हवा बदलते देखते ही संघ परिवार की शरण में चले गये।
यूपी और उत्तराखंड में सबकुछ केसरिया होता तो बाबा का हिंदुत्व मिजाज ऐसे न बदला होता।यूपी उत्तराखंड में अगर भाजपा जीत रही होती तो धुरंधर कारोबारी बाबा रामदेव का कारपोरेट दिमाग कुछ अलग ही गुल खिलाये रहता।
यही नहीं,बुधवार को उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में हुई वोटिंग के दौरान कई दिग्गजों ने वोट डाला तो हरिद्वार के पोलिंग बूथ पर वोट डालने पहुंचे बाबा रामदेव ने कहा कि इस बार की वोटिंग में देश का विकास सबसे बड़ा मुद्दा है।
योग गुरु का साफ साफ कहना है कि पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के बाद देश की राजनीति में भूचाल आ जाएगा और भारी उथल-पुथल मचेगी।
ईमानदार को डाले वोट हरिद्वार में वोट डालने आए बाबा रामदेव से पत्रकारों ने जब पूछा कि क्या उथल-पुथल होगी, तो उन्होंने इसका कोई सीधा सा जवाब देने की बजाए यही कहा कि इस बार के चुनाव खासे महत्व के हैं.
बहरहल हलात जो है,जीत भी जाये उत्तराखंड तो पंजाब और यूपी का घाटा पाटकर राज्यसभा में बहुमत पाना बेहद मुश्किल है।
अब तय है कि जो भी हो,यूपी में संघ परिवार का वनवास खत्म नहीं होने जा रहा है।पंजाब में भी खास उम्मीद नहीं है।
गोवा में फिलहाल कांग्रेस बढ़त पर नजर आ रही है।
असम के बाद समूचा पूरब और पूर्वोत्तर को केसरिया बनाने की मुहिम तेज होने के मध्य उत्तराखंड में जीत हासिल करके साख बचाने की बची खुची उम्मीद के सहारे रामराज्य के कारपोरेट हिंदुत्व के ग्लोबल एजंडा पर अमल करने में भारी रुकावटें पैदा हो रही है।
दूसरी तरफ बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना नजारा है।मीडिया रिलायंस हवाले है तो देश रिलायंस है और इसलिए सुप्रीम कोर्ट की निषेधाज्ञा के बावजूद निजी चैनलों में केसरिया सुनामी है और अखबारी कागज भी अब सिरे से केसरिया है।
मालिकान के सत्ता समीकरण के मुताबिक एक श्रमजीवी पत्रकार संपादक ने चुनाव आयोग की निषेधाज्ञा के बावजूद एक्जिट पोल छाप दिया तो उसे गिरफ्तार कर लिया,उससे उस अखबार के या बाकी रिलायंस मीडिया के केसरिया एजंडा में फर्क नहीं पड़ा है।मसलन बंगाल में एक बड़े अंग्रेजी अखबार के बांग्ला संस्करण में दावा किया गया है कि नोटबंदी से यूपी और उत्तराखंड में संघ परिवार के वोट दो फीसद बढ़ गये हैं और भाजपा को बढ़त है।
इसी तरह तमाम रेटिंग एजंसियों,अर्थशास्त्रियों की भारतीय अर्थव्यवस्था की डगमगाती नैय्या पर खुली राय के विपरीत सर्वव्यापी, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान मीडिया केसरिया रंगभेदी फासिस्ट हिंदुत्व के राजकाज में भारतीय अर्थव्यवस्था को दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ रही है।इन्हीं झूठे ख्वाबों में गरीबी दूर करने और सुनहले दिनों का सच है।
बंगल में हिंदूकरण अभियान के तहत प्रदेश भाजपा के संघी अध्यक्ष व विधायक दिलीप घोष एकदम प्रवीण तोगड़िया के अवतार में हैं और उनकी भाषा डान डोनाल्ड की है।
इन्हीं डान घोष ने हिंदुत्व के एजंडे को जायज ठहराने के लिए बंगाल के उदार,धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील बुद्धिजीवियों पर निशाना साधा है।
डान घोष ने नोबल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन पर खासतौर पर निशाना साधा है।घोष ने एक जनसभा को संबोधित करते हुए कहा, 'हमारे एक बंगाली साथी ने नोबल पुरस्कार जीता और हमें इस पर गर्व है लेकिन उन्होंने इस राज्य के लिए क्या किया? उन्होंने इस राष्ट्र को क्या दिया है?'
उन्होंने कहा, 'नालंदा विश्वविद्यालय के चांसलर के पद से हटाए जाने से सेन अत्यधिक पीड़ित हैं। ऐसे लोग बिना रीढ़ के होते हैं और इन्हें खरीदा या बेचा जा सकता है और ये किसी भी स्तर तक गिर सकते हैं।'
घोष के मुताबिक बंगाल के बुद्धिजीवी मेरुदंडविहीन है। बंगाल की शिक्षा व शिक्षा व्यवस्था की हालत बदतर होते जा रहे हैं, लेकिन बंगाल के बुद्धिजीवी चुप हैं। कोई आवाज नहीं उठा रहा है। कोई कुछ भी नहीं कह रहे हैं।अपनी सुविधा के लिए पहले वामपंथियों के पक्ष में लाल चोला पहन लिये थे और अब तृणमूल की शिविर में शामिल हो गये हैं।
आगे सरस्वती वंदना का अलाप है।घोष ने कहा है कि बंगाल के शिक्षण संस्थानों में मारपीट हो रही है। विद्यार्थी सरस्वती पूजा नहीं कर पा रहे हैं। सरस्वती पूजा करने की मांग को लेकर प्रदर्शन कर रहे हैं। दुर्गापूजा विसर्जन के लिए हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाना पड़ता है। बंगाल से अब आइएएस व आइपीएस ऑफिसर नहीं बन रहे हैं।
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