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Memories of Another day

Memories of Another day
While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Monday, February 13, 2017

रिलायंस इंडस्ट्रीज़ लिमिटेड {अंग्रेज़ी: Reliance Industries Limited) एक भारतीय संगुटिका नियंत्रक कंपनी है, जिसका मुख्यालय मुंबई, महाराष्ट्र में स्थित है। यह कंपनी पांच प्रमुख क्षेत्रों में कार्यरत है: पेट्रोलियम अन्वेषण और उत्पादन, पेट्रोलियम शोधन और विपणन, पेट्रोकेमिकल्स, खुदरा तथा दूरसंचार।[2][3] आरआईएल बाजार पूंजीकरण के आधार पर भारत की दूसरी सबसे बड़ी सार्वजनिक रूप कारोबार करने वाली कंपनी है

रिलायंस देश में मीडिया भी रिलायंस हवाले,अब पत्रकारिता तेल,गैस,संचार,निर्माण विनिर्माण कारोबार की तर्ज पर!

सत्ता संरक्षित कारपोरेट वर्चस्व के मुकाबले देशी स्थापित औद्योगिक घरानों के लिए मौत की घंटी!

पलाश विश्वास

ऐम्बेसैडर ब्रांड के अस्सी हजार में बिक जाने पर लिखते हुए हमने डिजिटल कैशलैस इंडिया में  कारपोरेट एकाधिकार की वजह से देशी कंपनियों के खत्म होने का अंदेशा जताया था।सत्ता संरक्षण और कारपोरेट लाबिइंग से छोटी बड़ी कंपनियों का क्या होना है,बिड़ला समूह के हालात उसका किस्सा बयान कर रहे हैं।टाटा समूह दुनिया पर राज करने चला था और साइरस मिस्त्री के फसाने से साफ हो गया कि उसके वहां भी सबकुछ ठीकठाक नहीं है।नैनो का अंजाम पहले ही देख लिया है।यह बहुत बड़े संकट के गगनघटा गहरानी परिदृश्य है।फासिज्म के राजकाज में आम जनता ,खेती बाड़ी, काम धंधे और खुदरा कारोबार में जो दस दिगंत सर्वनाश है,जो भुखमरी,मंदी और बेरोजगारी की कयामतें मुंह बाएं खड़ी है,इनकी तबाही से देशी पूंजी के लिए भी भारी खतरा पैदा हो गया है।बिड़ला और टाटा समूह का भारतीय उद्योग कारोबार में बहुत खास भूमिका रही है।बिड़ला समूह से किन्हीं मोहनदास कर्मचंद गांधी का भी घना रिश्ता रहा है। इस हकीकत का सामना करें तो हालात देशी तमाम औद्योगिर घरानों और दूसरी छोटी बड़ी कंपनियों के लिए बहुत खराब है।

निजी तौर पर हम जैसे पत्रकारों के लिए हिंदुस्तान का रिलायंस में विलय भारत में स्वतंत्र पत्रकारिता का अवसान है।वैसे भी मीडिया पर रिलायंस का वर्चस्व स्थापित है।यह वर्चस्व तेल,गैस,संचार,पेट्रोलियम,ऊर्जा से लेकर मीडिया तक अंक गणित के नियमों से विस्तृत हुआ है तो इसमें सत्ता समीकरण का हाथ भी बहुत बड़ा है।आजाद मीडिया अब भारत में नहीं है,यह अहसास हम जैसे सत्तर के दशक से पत्रकारिता में जुड़े लोगों के लिए सीधे तौर मौत की घंटी है। खबर है कि बिड़ला घराने की ऐम्बसैडर कार के बाद उसका अखबार हिंदुस्तान टाइम्स भी बिक गया है।खबरों के मुताबिक शोभना भरतिया के स्वामित्व वाले हिंदुस्तान टाइम्स के बारे में चर्चा है कि हिंदुस्तान टाइम्स की मालकिन शोभना भरतिया ने इस अखबार को पांच हजार करोड़ रुपये में देश के सबसे बड़े उद्योगपति रिलायंस के मुकेश अंबानी को बेच दिया है।यही नहीं चर्चा तो यहाँ तक  है कि प्रिंट मीडिया के इस सबसे बड़े डील के बाद शोभना भरतिया 31 मार्च को अपना मालिकाना हक रिलायंस को सौंप देंगी और एक अप्रैल 2017 से हिंदुस्तान टाइम्स रिलायंस का अखबार हो जाएगा।

गौरतलब है कि 2014 में फासिज्म के राजकाज के बिजनेस फ्रेंडली माहोल में रिलायंस ने नेटवर्क 18 खरीदकर मीडिया में अपना दखल बढ़ाया है।नेटवर्क.18 कई प्रमुख डिजिटल इंटरनेट संपत्तियों की मालिक हैं, जिसमें इन डॉट कॉम, आईबीएनलाइव डॉट कॉम, मनीकंट्रोल डॉट कॉम, फर्स्टपोस्ट डॉट कॉम, क्रिकेटनेक्स्ट डॉट इन, होमशाप18 डाट काम, बुकमाईशो डॉट कॉम,बुकमाईशो डॉट कॉम, शामिल हैं। इनके अलावा यह कलर्स, सीएनएनआईबीएन, सीएनबीसी टीवी18, आईबीएन7, सीएनबीसी आवाज चैनल चलाती है।

जाहिर है कि हिंदुस्तान समूह के सौदे से एकाधिकार  कारपोरेट वरचस्व का यह सिलसिला थमने वाला नहीं है।स्वतंत्र पत्रकारिता और अभिव्क्ति की आजादी का क्या होना है,इसकी कोई दिशा हमें नहीं दीख रही है।खबर तो यह भी है कि रिलायंस डीफेंस अब अमेरिका नौसेना के सतवें बेड़े की भी देखरेख करेगा।वहीं सातवा नौसैनिक बेड़ा जो हिंद महासागर में भारत पर हमले के लिए 1971 की बांग्लादेश लड़ाी के दौरान घुसा था।अब यह भी खबर है कि मुप्त में इंचरनेट की तर्ज पर मुफ्त में अखबार भी बांटेगा रिलायंस।जाहिर है कि भारतीय जनता को भी मुफ्तखोरी का चस्का लग चुका है। इसी बीच रिलायंस जियो की वीडियो ऑन डिमांड सेवा जियोसिनेमा, जिसे पहले जियोऑन डिमांड के नाम से जाना जाता था, में देखने लायक कई सिनेमा उपलब्ध हैं। अब इस ऐप में नया फ़ीचर जोड़ा गया है।

इस भयावह जीजीजीजीजी संचार क्रांति से भारतीय मीडिया अब समाज के दर्पण, जनमत, जनसुनवाई, मिशन वगैरह से हटकर विशुध कारोबार है सत्ता और फासिज्म के राजकाज के पक्ष में,जिसे देश के रहे सहे ससंधन भी तेल और गैस की तरह रिलायंस के हो जायें।यह जहरीला रसायन आम जनता के हित में कितना है,पत्रकारिया के संकट के मुकबाले हमारे लिए फिक्र का मुद्दा यही है।

भारत सरकार के बाद रिलायंस समूद देश में सबसे ताकतवर संस्था है।विकिपीडिया के मुताबिकः

रिलायंस इंडस्ट्रीज़ लिमिटेड {अंग्रेज़ी: Reliance Industries Limited) एक भारतीय संगुटिकानियंत्रक कंपनी है, जिसका मुख्यालय मुंबई, महाराष्ट्र में स्थित है। यह कंपनी पांच प्रमुख क्षेत्रों में कार्यरत है: पेट्रोलियम अन्वेषण और उत्पादन, पेट्रोलियम शोधन और विपणन, पेट्रोकेमिकल्स, खुदरा तथा दूरसंचार[2][3]

आरआईएल बाजार पूंजीकरण के आधार पर भारत की दूसरी सबसे बड़ी सार्वजनिक रूप कारोबार करने वाली कंपनी है एवं राजस्व के मामले में यह इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन के बाद भारत की दूसरी सबसे बड़ी कंपनी है।[4] 2013 के रूप में, यह कंपनी फॉर्च्यून ग्लोबल 500 सूची के अनुसार दुनिया की सबसे बड़ी कंपनियों में 99वें स्थान पर है।[5] आरआईएल भारत के कुल निर्यात में लगभग 14% का योगदान देती है।[6]


हमने पत्रकारिता नौकरी के लिए नहीं की है।जीआईसी नैनीताल में जब हम ग्यारहवीं बारहवीं के छात्र थे,तभी हमारे तमाम सहपाठी आईएएस पीसीएस डाक्ट इंजीनियर वगैरह वगैरह होने की तैयारी कर रहे थे।बचपन से जीआईसी के दिनों तक हम साहित्य के अलावा जिंदगी में कुछ और की कल्पना नहीं करते थे।अब जनपक्षदर पत्रकारिता के लिए साहित्य और सृजनशील रचनाधर्मिता को भी तिलांजलि दिये दो दशक पूरे होने वाले हैं।पूरी जिंदगी पत्रकारिता में खपा देने वाले हम जैसे नाचीज लोगं के लिए यह बहुत बड़ा झटका है,काबिल कामयाब लोगों के लिए हो या न होजो नई विश्व व्यवस्था,फासिज्म के राजकाज की तरह रिलायंस समूह के साथ राजनैतिक रुप से सही कोई न कोईसमीकरण जरुर साध लेंगे।हम हमेशा इस समीकरणों के बाहर हैं।

डीएसबी में तो कैरियरवादी तमाम छात्र कांवेंट स्कूलों से आकर हमारे साथ थे।जब हम युगमंच,पहाड़ और नैनीताल समाचार से जुड़े तब भी हमारे साथ बड़ी संख्या में कैरियर बनाने वाले लोग थे जिन्होंने अपना अपना कैरियर बना भी लिया।

हममें फर्क यह पड़ा कि गिर्दा राजीव दाज्यू और शेखर पाठक जैसे लोगों की सोहबत में हम भी पत्रकार हो गये।तब भी हम यूनिवर्सिटी में साहित्य पढ़ाने के अलावा कोई और सपना भविष्य का देखते न थे।दुनियाभर का साहित्य पढ़ना हमारा रोजनामचा रहा है,लेकिन नवउदारवाद के दौर में हमने साहित्यपढ़ना भी छोड़ दिया है।

लेकिन उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी और चिपको आंदोलन की वजह से पत्रकारिता हम पर हावी होती चली गयी।हम अखबारों में नियमित लिखने लगे थे।उन्ही दिनों से हिंदुतस्तान समूह से थोड़ा अपनापा होना शुरु हो गया।खास वजह  वहां मनोहर श्याम जोशी, हिमांशु जोशी और मृणाल पांडे की लगातार मौजूदगी रही है।

हमने टाइम्स समूह के धर्मयुग और दिनमान में लिखा लेकिन हिंदुस्तान के लिए कभी नहीं लिखा।हमने 1979 में जब एमए पास किया,उसके तत्काल बाद 1980 में इंदिरा गांधी की सत्ता में वापसी हो गयी और पिताजी के मित्र नारायण दत्त तिवारी देश के वित्त मंत्री बन गये।तिवारी के सरकारी बंगले में पिताजी के रहने का स्थाई इंतजाम था।वित्त मंत्री बनते ही तिवारी ने पिताजी से कहा कि मुझे वे दिल्ली भेज दें।उन्होंने कहा था कि यूनिवर्सिटी में नौकरी लग जायेगी और मैं बदले में उनके लिखने पढ़ने के काम में मदद कर दूं।

पहाड़ और तराई में हमने तिवारी का हमेशा विरोध किया है तो यह प्रस्ताव हमें बेहद आपत्तिजनक लगा और हमने इसे ठुकरा दिया और फिर उर्मिलेश के कहने पर मदन कश्यप के भरोसे धनबाद में कोयलाखान और भारत में औद्योगीकरण,राष्ट्रीयता की समस्या के अध्ययन के लिए पत्रकारिता के बहाने धनबाद जाकर दैनिक आवाज में उपसंपादक बन गये।फिर हम पत्रकारिता से निकल ही नहीं सके।

उन दिनों हिंदुस्तान समूह में केसी पंत की चलती थी और केसी पंत भी चाहते थे कि मैं हिंदुस्तान में नौकरी ले लूं और दिल्ली में पत्रकारिता करुं।हमने वह भी नहीं किया।

हालांकि झारखंड से निकलकर मेऱठ में दैनिक जागरण की नौकरी के दिनों दिल्ली आना जाना लगा रहता था।दिनमान में रघुवीर सहाय के जमाने से छात्र जीवन से आना जाना था और वहां बलराम और रमेश बतरा जैसे लोग हमारे मित्र थे।बाद में अरुण वर्द्धने भी वहां पहुंच गये।देहरादून से भी लोग दिनमान में थे।लेकिन मेरठ में पत्ररकारिता करने से पहले रघुवीर सहाय दिनमान से निकल चुके थे और दिनमान से तमाम लोग जनसत्ता में आ गये थे।जिनमें लखनऊ से अमृतप्रभात होकर मंगलेश डबराल भी शामिल थे।नभाटा में बलराम थे और बाद में राजकिशोर जी आ गये।

नभाटा,जनसत्ता, कुछ दिनों के लिए रमेश बतरा ,उदय प्रकाश,पंकज प्रसून की वजह से संडे मेल और शुरुआत से आखिर तक पटियाला हाउस में आजकल और हिंदुस्तान के दफ्तर में मेरा आना जाना रहा है।आजकल में पंकजदा थे।हिंदुस्तान में जाने की एक और खास वजह वहां संपादक मनोहर श्याम जोशी को देखना भी था।

हम मेरठ जागरण में ही थे कि कानपुर जागरण से निकलकर हरिनारायण निगम दैनिक हिंदुस्तान के संपादक बने।दिल्ली पहुंचते ही उनने हमें मेरठ में संदेश भिजवाया कि हम उनसे जाकर दिल्ली में मिले।

हम जागरण छोड़ने के बाद 1990 में ही उनसे जाकर मिल सके।

यह सारा किस्सा इसलिए कि यह समझ लिया जाये कि निजी तौर पर हिंदुस्तान समूह में मेरी कोई दिलचस्पी कभी नहीं रही है।

1973 से हम नियमित अखबारों में लिखते रहे हैं।वैसे हमने 1970 में आठवीं कक्षा में ही तराई टाइम्स में छप चुके थे,जहां संपादकीय में तराई में पहले पत्रकार शहीद जगन्नाथ मिश्र और संघी सुभाष चतुर्वेदी के बाद पत्रकारिता शुरु करने वाले हमारे पारिवारिक मित्र दिनेशपुर के गोपाल विश्वास भी थे,जो बरेली से अमरउजाला छपने के शुरु आती दौर में उदित साहू जी के साथ भी थे।1970 से जोड़ें तो 47 साल और 1973 से जोड़ें तो 44 साल हम अखबारों से जुड़े रहे हैं।

नई आर्थिक नीतियों के नवउदारवादी मुक्तबाजार अर्थव्यवस्था के दिनों में पूरे पच्चीस साल हमने इंडियन एक्सप्रेस समूह जैसे कारपोरेट संस्थान में बिता दिये लेकिन इस पच्चीस साल में एक दिन भी शायद ऐसा बीता हो जब हमने अमेरिकी साम्राज्यवाद,मुक्त बाजार और कारपोरेट अर्थव्यवस्था के खिलाफ न लिखा हो या न बोला हो।हमें नियुक्ति देने वाले प्रभाष जोशी के अलावा हमारा एक्सप्रेस समूह के किसी संपादक प्रबंधक से कोई संवाद नहीं रहा है।

यहां तक कि ओम थानवी को बेहतर संपादक मानने के बावजूद उनकी सीमाएं जानते हुए संपादकीय बैठकों में भी लगातार अनुपस्थित रहा हूं।

कारपोरेट तंत्र का हिस्सा बने बिना पत्रकारिता में कोई तरक्की संभव नहीं है।लेकिन अपनी तरक्की मेरा मकसद कभी नहीं रहा है।

हमने छात्र जीवन में टाइम्स समूह में लिखकर नैनीताल में पढ़ाई का खर्च जरुर निकाला लेकिन पेशेवर पत्रकारिता में लिखकर कभी नहीं कमाया है।रिटायर होने के बावजूद मेरा लेकन कामर्शियल नहीं है।आजीविका के लिए हम नियमित अनुवाद की मजदूरी कर रहे हैं ताकि हमारी जनपक्षधरता और राशन पानी दोनों चलता रहे।

पहले पहल मैं जब मुख्य उपसंपादक होकर नये पत्रकारों की भर्ती कर रहा था तब जरुर भविष्य में संपादक बनने की महात्वाकांक्षा रही होगी।लेकिन नब्वे के दशक में हम अच्छी तरह समझ गये कि जनपक्षधरता और कारपोरेट पत्रकारिता परस्परविरोधी हैं।दोनों नावों पर लवारी नामुमकिन है।जनपक्षधरता के रास्ते में तरक्की नहीं है।हमने जनपक्षधरता का रास्ता अख्तियार किया।हम अपनी नाकामियों के खुद जिम्मेदार हैं।अपने फैसलों के लिए मुझे कोई अफसोस नहीं है।

हिंदुस्तान समूह से कुछ भी लेना देना नहीं होने या टाटा बिड़ला से खास प्रेम मुहब्बत न होने की बावजूद देश के रिलायंस समूह में समाहित होने की यह प्रक्रिया हमें बेहद खतरनाक लग रही है।तेल गैस और पेट्रोलियम की तरह मीडिया का कारोबार होगा,एक्सप्रेस समूह में पच्चीस साल तक आजाद पत्रकारिता करने के बाद यह भयंकर सच हम हजम नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि हम पत्रकारिता के सिपाहसालार, मसीहा, संपादक ,आइकन, साहिबे किताब,प्रोपेसर वगैरह कभी नहीं रहे हैं और न होंगे।

छात्र जीवन में हमने जैसे समय को जनता के हक में संबोधित कर रहे थे और पेशेवर पत्रकारिता में आम लोगों की तकलीफों और पीड़ितों वंचितों की आवाज की गूंज बने रहने की कोशिश की है,उसके मद्देनजर प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया में कारपोरेट एकाधिकार के जरिये सत्ता के रंगभेदी फासिज्म के कारोबार में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का क्या होगा,उसकी हमें बहुत फिक्र हो रही है।

काबिल और कुशल लोग इस तंत्र में भी पत्रकारिता कर लेेंगे,लेकिन जो पैदल सेना है,उनकी पत्रकारिता और उनकी नौकरी दोनों शायद दांव पर है।

बहरहाल खबरों के मुताबिक एक अप्रैल 2017 से रिलायंस प्रिंट मीडिया पर अपना कब्जा जमाने के लिए मुफ्त में ग्राहकों को हिंदुस्तान टाइम्स बांटेगा। ये मुफ्त की स्कीम कहा कहाँ चलेगी इस बात की पुष्टि तो नहीं हो पाई है और इस पांच हजार करोड़ की डील में कौन कौन से हिंदुस्तान टाइम्स के एडिशन है और क्या उसमे हिंदुस्तान भी शामिल है इस बात की पुष्टि नहीं हो पा रही है लेकिन ये हिंदुस्तान टाइम्स में चर्चा तेजी से उभरी है कि हिंदुस्तान टाइम्स को रिलायंस ने पांच हजार करोड़ रुपये में ख़रीदा है और हिंदुस्तान टाइम्स ने ये समझौता रिलायंस से कर्मचारियों के साथ किया है।

अगर यह खबर सच होती है तो हिंदुस्तान टाइम्स के कर्मचारी 1 अप्रैल से रिलायंस के कर्मचारी हो जाएंगे। फिलहाल रिलायंस द्वारा प्रिंट मीडिया में उतरने और हिंदुस्तान टाइम्स को खरीदने तथा मुफ्त में अखबार बांटने की खबर से देश भर के अखबार मालिकों में हड़कंप का माहौल है।सबसे ज्यादा टाइम्स ऑफ इंडिया के प्रबंधन में हड़कंप का माहौल है।

खबर है कि शोभना भरतिया और रिलायंस के बीच यह डील कोलकाता में कुछ बैकरों और अधिकारियों की मौजूदगी में हुई है।इसका आशय भी बेहद खतरनाक है।


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