कब्रिस्तान या श्मसान में तब्दील निजी अस्पतालों के शिकंजे से बचने के लिए मेहनतकशों के अपने अस्पताल जरुरी!
ममता बनर्जी ने खोला अस्पतालों और नर्सिंग होम का कच्चा चिट्ठा,जनता के जख्मों पर मलहम भी लगाया,लेकिन वे भी यह गोरखधंधा को खत्म करने के मूड में नहीं!
अब मुक्तबाजार के खिलाफ अनिवार्य है जन स्वास्थ्य आंदोलन!
पलाश विश्वास
अभी आलेख लिखने से पहले समाचारों पर नजर डालने पर पता चला कि महाराष्ट्र के पालिका चुनावों मे हाल में भाजपा से अलग होने के बाद शिवसेना मुंबई में बढ़त पर है,जहां भाजपा दूसरे नंबर पर है।बाकी महाराष्ट्र में भाजपा की जयजयकार है और कांग्रेस का सफाया है।बहुजन चेतना,बामसेफ,क्रांति मोर्चा,अंबेडकर मिशन, रिपबल्किन राजनीति के मामले में महाराष्ट्र बाकी देश से आगे है।इस नीले झंडे की सरजमीं पर शिवाजी महाराज की विरासत अब विशुध पेशवाराज है।भगवाकरण के तहत केसरिया सुनामी भी वहां सबसे तेज है।
इसी बीच दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कालेज में फिर भगवा तांडव का नजारा है और यूपी में चरणबद्ध मतदान में अब कब्रिस्तान या श्मशानघाट चुनने की बारी है।
उत्पादन प्रणाली तहस नहस है क्योंकि भारत का सत्तावर्ग को उत्पादन के बजाय मार्केटिंग में ज्यादा दिलचस्पी है।चूंकि उत्पादन श्रम के बिना नहीं हो सकता,जाहिर है कि उत्पादन के लिए मेहनतकशों के हकहकूक का ख्याल भी पूंजीवादी विकास के लिए रखना अनिवार्य है।
दूसरी ओर,मार्केटिंग में मेहनतकशों के हकहकूक का कोई मसला नहीं है।हमारी मार्केंटिंग अर्थव्यवस्था में इस लिए सारे श्रम कानून खत्म हैं और रोजगारीकी कोई गारंटी अब कहीं नहीं है।उत्पादन में पूंजी और जोखिम के एवज में मुनाफा के बजाय फ्रैंचाइजी,शेयर और दलाली से बिना कर्मचारियों और मेहनतकशों की परवाह किये तकनीकी क्रांति के जरिये मुनाफा का मुक्त बाजार है यह रामराज्य।
कारपोरेट पूंजी के हवाले देश के सारे संसाधन और अर्थव्यवस्था है।जाहिर है सर्वत्र छंटनी का नजारा है।मुक्तबाजार के समर्थक सबसे मुखर मीडिया में भी अब कारपोरेट पूंजी का वर्चस्व है और वहां भी मशीनीकरण से दस कदम आगे आटोमेशन और रोबोटीकरण के तहत छंटनी और बेरोजगारी संक्रामक महामारी लाइलाज है।फिरभी भोंपू,ढोल,नगाडे़ का चरित्र बदलने के आसार नहीं हैं।
श्मशानघाट और कब्रिस्तान का नजारा खेतों खलिहानों और छोटे कारोबार में सर्वव्यापी हैं।भुखमरी,बेरोजगारी,मंदी,बुनियादी जरुरतों और बुनियादी सेवाओं के लिए क्रय क्षमता से महाबलि सत्ता वर्ग और उनका मौकापरस्त पढ़ा लिखा समझदार ज्ञानी संपन्न मलाईदार तबका जाहिर है मोहताज नहीं है।वित्तीय प्रबंधन और राजकाज के नीति निर्धारक तमाम बगुला भगत,झोला छाप विसेषज्ञ इसी तबके के हैं और भारतीय समाज में पढ़े लिखे ओहदेदार तबके का नेतृ्त्व जाति,धर्म,नस्ल क्षेत्र,पहचान में बंटी जनता का नया पुरोहिततंत्र है और बहुसंख्य बहुजन जनता इसी नये पुरोहित तंत्र के शिकंजे में फंसी है।
नवधनाढ्य इस सत्तावर्ग को हिंदुत्व के कारपोरेट एजंडे और नरसंहारी मुक्तबाजार में अपनी संतान संतति का पीढ़ी दरपीढ़ी आरक्षित भविष्य नजर आता है।
जाहिर है कि मुक्तबाजार के खिलाफ कोई आवाज राजनीति में नहीं है तो समाज में साहित्य में,संस्कृति,कला विधा माध्यमों में भी नहीं है।
है तो माध्यमों पर बाजार और कारपोरेट पूंजी के कार्निवाल विज्ञापनी प्रायोजित पेइड वर्चस्व के कारण उसकी कही कोई गूंज नहीं है।
जनपक्षधर ताकतों में अभूतपूर्व बिखराव और दिशाहीनता है।
महाराष्ट्र का सच यूपी समेत बाकी देश का सच बन जाये तो हमें ताज्जुब नहीं होना चाहिए क्योंकि हम सभी लोग कमोबेश मुक्तबाजार के बिछाये शतरंज के दस दिगंत कुरुक्षेत्र में भगवा कारपोरेट एजंडे के तहत जनता के अस्मिताबद्ध,जाति बद्ध,धर्म नस्ल क्षेत्र आधारित बंटवारे के इस खेल में जाने अनजाने शामिल हो गये हैं,जिसमें जीत या हार चाहे किसी की हो,आखिर में अर्थव्यवस्था,उत्पादन प्रणाली और आम जनता की मौत तय है।
खेती,कारोबार,उद्योगों की हम पिछले 26 साल से सिलसिलेवार चर्चा करते रहे हैं।लेकिन जनता तक हमारी आवाज पहुंचने का कोई माध्यम या सूत्र बचा नहीं है।कोई मंच या संगठन या मोर्चा हमारे लिए बना या बचा नहीं है जहां हम उत्पीड़ित,वंचित,मारे जा रहे बेगुनाह इंसानों की चीखों की गूंज बन सकें।
आम जनता को अर्थव्यवस्था समझ में नहीं आती और अपने भोगे हुए यथार्थ का विश्लेषण करने की फुरसत रोज रोजदम तोड़ रही उनकी रोजमर्रे की बिन दिहाड़ी बेरोजगार मेहनतकश भुखमरी की जिंदगी में नहीं है।
गांधी की पागल दौड़ के विमर्श के बदले अब राममंदिर का स्वराज रामराज्य है और मुक्तबाजार स्वदेश है।डान डोनाल्ड ट्रंप की रंगभेदी प्रतिमा की हमारे धर्मस्थलों में देवमंडल के अवयव में प्राण प्रतिष्ठा हो गयी है।
मार्क्सवाद, लेनिनवाद, माओवाद, समाजवाद जैसे रंगबिरंगेवाद विवाद की आम जनता में कोई साख बची नहीं है।विचारधाराें चलन से बाहर है और सर्वव्यापी आस्था का अंध राष्ट्रवाद हिंदुत्व की कारपोरेट सुनामी है।जनता के हक में हर आवाज अब राष्ट्रद्रोह है और जनता का उत्पीड़न,शोषण औरदमन,नरसंहार देशभक्ति है।
इस मुक्त बाजार में असल कब्रिस्तान और श्मशानघाट कारपोरेट पूंजी के हवाले स्वास्थ्य बाजार है।सार्वजनिक स्वास्थ्य से राष्ट्र का पल्ला झाड़ लेनेके बाद हम इसी कारपोरेट स्वास्थ्य बाजार के हवाले हैं।
जनस्वास्थ्य के लिए सरकारें अब स्वास्थ्य हब बना रही है।
गली गली गांव गांव मोहल्ला मोहल्ला नई संस्कृति का मकड़ जाल बुनते हुए बार रेस्तरां खोलने की तर्ज पर हेल्थ हब और हेल्थ टुरिज्म के बहाने हेल्थ सेक्टर में सरकार अधिगृहित जमीन मुफ्त में देकर या लीज पर,कर्ज पर देकर आम जनता को जिंदा जलाने या दफनाने के लिए इन्हीं कब्रिस्ताऩों और श्मसान घाटों के हवाले कर रही हैं जनता की चुनी हुई सरकारें।मौत का वर्चस्व कायम है जिंदगी पर।
मुक्त बाजार से पहले तक अधिकांश जनता का सस्ता इलाज सरकारी अस्पतालों में बड़े पैमाने पर होता रहा है।साठ के दशक तक देहात के लोग इन अस्पतालों से भी दूर रहते थे।उस दौर का ब्यौरा हमारे साठ के दशक के साहित्य में दर्ज है।मसलन ताराशंकर बंद्योपाध्याय का आरोग्य निकेतन।
अभी 21 फरवरी को अमेरिका के कैलिफोर्निया के पालो आल्टा में विश्वप्रसिद्ध अर्थशास्त्री कैनेथ ऐरो का निधन हो गया,जिन्हें 1972 में नोबेल पुरस्कार मिला था।
इन्हीं अर्थशास्त्री ऐरो ने 1963 में चेतावनी दी थी कि सारा समाज इस पर सहमत है कि स्वसाथ्य सेवा को सिर्फ बाजार के हवाले करने पर विचार किया ही नहीं जा सकता।
22 फरवरी को कोलकाता के टाउन हाल में निजी और कारपोरेट अस्पतालों के कर्णधारों को बुलाकर बंगाल की पोपुलिस्ट मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने उन अस्पतालों के कामकाज की समीक्षा और जनसुनवाई कर दी।उन अस्पतालों को लेकर लगातार तेज हो रहे विस्फोटक जनरोष की रोकथाम के बतौर।जिसमें इन अत्याधुनिक कब्रिस्तानों और श्मशानघाटों की भयंकर तस्वीरें सामने आयी हैं,जो आज के तमाम तमाम अखबारों में छपा है।
बहरहाल मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने साफ शब्दों में यह एलान कर दिया है कि इलाज के नाम पर प्राइवेट अस्पतालों व नर्सिंग होम की लूट-खसोट नहीं चलेगी।
जाहिर है कि मुख्यमंत्री लूटखसोट का यह तंत्र जारी रखते हुए उसमें जनता को बतौर उपभोक्ता खुश करने के लिए उसमें सेवा को शोषणविहीन बनाने पर जोर दिया है। वे वैकल्पिक जन स्वास्थ्य आंदोलन खड़ा करके पूंजी और बाजार के खिलाफ खड़ा होने के मूड में नहीं है जो सत्ता राजनीति और समीकरण के हिसाब से सही भी है।
बुधवार को कोलकाता के ऐतिहासिक टाउनहॉल में महानगर और आसपास के इलाकों के प्राइवेट अस्पतालों व नर्सिंग होम के प्रतिनिधियों को बैठक में पेशी करके मुख्यमंत्री ने साफ साफ कहा कि उनके पास इस बात के सबूत हैं कि प्राइवेट अस्पतालों में मरीजों के इलाज में लापरवाही व मनमानी की जाती है। मरीजों से अधिक बिल वसूला जाता है। यहां तक कि पैसे नहीं दिये जाने पर अस्पताल प्रबंधन परिजनों को शव तक ले जाने नहीं देता है।
मुख्यमंत्री ने सभी अस्पतालों और नर्सिंग होम का कच्चा चिठ्ठा सिलसिलेवार उन अस्पतालों के प्रतिनिधियों के सामने खोलकर कड़ी चेतावनी भी जारी की।
यह आम जनता की शिकायत की भाषा नहीं है।ममता बनर्जी बाहैसियत मुख्यमंत्री अपने संवैधानिक पद से ये शिकायत कर रही हैं तो सच का चेहरा कितना भयंकर होगा,इसका अंदाजा लगाया जा सकता है।
दीदी ने तो फिरभी यह पहल की है,बाकी देश में निजी अस्पतालों और नर्सिंग होम के गोरखधंधे के खिलाफ सरकारें,प्रशासन,कानून का राज और राजनीति अखबारी चीखती सुर्खियों में रोजाना दर्ज होते नंगे सच के मुकाबले सिरे से खामोश हैं।यही नहीं, इन सभी तत्वों की हेल्थ बिजनेस में बेशर्म हिस्सेदारी है।
बंगाल में अभी निजी अस्पतालों से नवजात शिशुओं की तस्करी का सिलसलेवार पर्दाफाश हो रहा है।अभी ताजा खुलासा से उत्तर बंगाल की एक बड़ी भाजपाई महिला नेता कटघरे में हैं तो बाकी राजनीति भी दूध से धुली नहीं है।
बहरहाल मुख्यमंत्री ने कहा कि वह काफी दिनों से प्राइवेट अस्पतालों के साथ इन मुद्दों पर बैठक करना चाहती थीं। जाहि्र है कि सीएमआरआइ में इलाज में लापरवाही से मरीज की मौत के बाद भारी हिंसा के बाद की घटना के बाद यह बैठक जरूरी हो गयी थी।
हाल के जनरोष और हिंसा की घटनाओं के सिलसिले में दीदी ने कहा कि किसी की मौत पर परिजनों का दुखी होना स्वाभाविक है, पर कानून हाथ में लिये जाने का समर्थन नहीं किया जा सकता है।
दीदी ने बाकायदा आंकडे पेश करते हुए कहा कि राज्य में 2,088 नर्सिंग होम हैं। केवल महानगर में नर्सिंग होम की संख्या 370 है। मां माटी मानुष की सरकार ने 942 नर्सिंग होम में सर्वे करवाया था, जिसमें से 70 को कारण बताओं नोटिस जारी किया गया। वहीं, 33 का लाइसेंस रद्द कर दिया गया। नर्सिंग होम वालों की लूट-खसोट से परेशान होकर पश्चिम बंगाल विधानसभा के स्पीकर ने भी एक सर्वे करवाया था, जिसमें भी प्राइवेट अस्पतालों की काफी गलतियां सामने आयीं।
बैठक के ब्यौरे के मुताबिक मुख्यमंत्री ने कहा कि हद तो यह है कि स्वास्थ्य स्कीम के द्वारा जारी किये गये बीमा पर भी ये लोग मरीजों से पैसे वसूलते हैं। स्वच्छता व को-ऑर्डिनेशन का सख्त अभाव है। बिल बढ़ा कर लिया जाता है। यहां तक कि इलाज के बगैर भी बिल वसूलने की घटना नजर आती है। मरीजों पर महंगा टेस्ट करवाने के लिए दबाव डाला जाता है। बगैर जरूरत मरीज को वेंटिलेशन व ऑपरेशन थियेटर में डाल दिया जाता है। इससे बड़ा अनैतिक काम और नहीं हो सकता है। मरीजों को उनके मामले का विवरण नहीं दिया जाता है.।तय पैकेज पर एक्सट्रा पैकेज लेने का मामला भी सामने आया है।
मुख्यमंत्री ने टाउन हॉल में मौजूद सभी बड़े नामी अस्पतालों के प्रतिनिधियों की एक एक करके क्लास लगायी।
दीदी के जबाव तलब के जबाव भी बेहद दिलचस्प हैं।
मसलन दीदी ने अपोलो अस्पताल के प्रतिनिधि को संबोधित करते हुए कहा कि सबसे अधिक शिकायत आप लोगों के खिलाफ हैं। यहां गैरजरूरी टेस्ट आम है। मरीजों व उनके परिजनों को तरह-तरह से परेशान किया जाता है। उन पर महंगा टेस्ट करवाने के लिए दबाव बनाया जाता है। 35-40 लाख रुपये का बिल बना दिया जाता है। इतना बिल तो फाइव स्टार होटल में रहने पर भी नहीं बनता है। आखिर आम लोग लाखों रुपये बिल का भुगतान कैसे करेंगे?
अपोलो अस्पताल के प्रतिनिधि ने मुख्यमंत्री के इस विस्फोटक बयान पर जबाव में सफाई दी कि वे लोग साफ-सुथरा बिल बनाते हैं। चूंकि काफी महंगे यंत्र लगाये हैं और कुछ विशेष प्रोटोकॉल है, तो इसलिए खर्च कुछ ज्यादा होता है।
ब्यौरे के मुताबिक मुख्यमंत्री बेलव्यू अस्पताल के प्रतिनिधि को लताड़ लगाते हुए कहा कि आपके यहां स्वास्थ्य परिसेवा का स्तर पहले के मुकाबले निम्न हो गया है।सीध दीदी ने कहां कि ऊपर से जिस प्रकार आप लोग मोटा बिल बना रहे हैं, उससे मैं संतुष्ट नहीं हूं। इस पर बेलव्यू के प्रतिनिधि ने कहा कि हमारे यहां की नर्सें अक्सर दूसरे अस्पतालें में चली जाती हैं, जिससे हमारी स्वास्थ्य सेवा प्रभावित हुई हैं।
सीएमआरआइ अस्पताल की क्लास लेते हुए मुख्यमंत्री ने कहा कि आपके यहां मरीजों से काफी ज्यादा बिल लिया जाता है। जिससे वहां जानेवाले रोगियों व उनके परिजनों को काफी परेशानी होती है। पिछले दिन सीएमआरआइ में जो घटना हुई, वह ठीक नहीं थी, पुलिस ने एक्शन लिया है, पर आप लोग भी सेवा पर अधिक ध्यान दो।गौरतलब है कि इसी हिंसा के मद्देनजर यह पेशी हुई है।
रूबी अस्पताल को लताड़ लगाते हुए मुख्यमंत्री ने कहा कि आपके यहां काफी चार्ज लिया जाता है, उसे ठीक करें। साथ ही आप के यहां मरीजों को उनके इलाज से संबंधित रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं कराया जाता है, जो ठीक नहीं है।
मुख्यमंत्री ने सबसे कड़ा प्रहार मेडिका अस्पताल पर किया, इस अस्पताल का प्रतिनिधि जब अपनी बात कहने के लिए खड़ा हुआ, तो मुख्यमंत्री ने उन्हें कहा कि आपके यहां किडनी रैकेट किस तरह चल रहा है?
मुख्यमंत्री के इस बात हतप्रभ मेडिका के प्रतिनिधि ने कहा कि ऐसी कोई बात नहीं है। हमारा किडनी रैकेट से कोई लेना-देना नहीं है। मुख्यमंत्री ने उनकी बात को काटते हुए कहा कि किडनी रैकेट में आप लोगों का नाम है।. दिल्ली से केंद्र सरकार की हमें रिपोर्ट मिली है। सीआइडी ने भी मामले की जांच की है।
मुख्यमंत्री ने कहा कि हमारा केवल यही कहना है कि हम लोग अपने राज्य में किसी भी हाल में किडनी व शिशु तस्करी रैकेट चलने नहीं देंगे।
गौरतलब है कि शिशु तस्करी का जालकोलकाता से दिल्ली तक फैला हुआ है और प्रभावशाली तबके के साथ इसका नाभिनाल का संबंध है।
भागीरथी नेवटिया वूमेन एंड चाइल्ड केयर सेंटर के प्रतिनिधियों को मुख्यमंत्री ने कहा कि आप के यहां से मरीजों के साथ लापरवाही की काफी रिपोर्ट हमारे पास आयी है। आपके यहां इलाज काफी महंगा है.।
मुख्यमंत्री ने मौजूद सभी प्राइवेट अस्पतालों के प्रबंधन से कहा कि मलेरिया व डेंगू का प्रकोप आरंभ होने वाला है। यह नवंबर तक चलेगा। काफी मामले सामने आये हैं कि नर्सिंग होम वाले डेंगू का डर दिखा कर लाखों रुपया मरीजों से लूट लेते हैं। इलाज करें, पर लोगों को भयभीत न करें।
फिर उन्होंने हेल्थ हब और हलेथ टुरिज्म के मुक्तबाजारी बिजनेस के थीमसांग की तर्ज पर कहा कि हमारे यहां बांग्लादेश, नेपाल, बिहार, उत्तर पूर्व से काफी लोग इलाज के लिए आते हैं। नर्सिंग होम वालों को यह ध्यान में रखना होगा कि यह ईंट व लकड़ी का व्यवसाय नहीं, बल्कि जिंदगी बचाने का काम है। सेवा को कभी बेचा नहीं जाता। मरीजों को मानवीय दृष्टि से देखना चाहिए। 20 प्रतिशत की जगह अगर 100 प्रतिशत कमाई करेंगे, तो यह सेवा नहीं, संपूर्ण व्यवसाय बन जायेगा।
यह अस्पतालों की तस्वीरें ही नहीं हैं,ये कुल मिलाकर मुक्त बाजार में हमारे समाज, राजनीति, अर्थव्यवस्था, संस्कृति, मीडिया, लोक, जनपद, मीडिया, उत्पादन प्रणाली, हाट बाजार, खेत खलिहान, कल कारखानों, दफ्तरों की आम तस्वीरे हैं जिन्हें सुनहले दिनों की तस्वीरें और अत्याधुनिक विकास की आयातित स्मार्ट बुलेट मिसाइल राकेट झांकियां मानकर कारपोरेट हिंदुत्व एजंडे के रामराज्य में मनुस्मृति बहाल करने मनुस्मृति शासन के फासिज्म के राजकाज के तहत हम नरसंहारी अश्वमेधी पैदलसेनाओं में शामिल हैं।जाहिर है कि कंबधों के वोट से कोई जनादेश नहीं है।
हिंदू राष्ट्र के मुक्तबाजार के खिलाफ पहले शहीद कामरेड शंकर गुहा नियोगी ने अपने संघर्ष और निर्माण राजनीति के तहत छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चे के कार्यक्रम में जन स्वास्थ्य को प्राथमिकता दी थी और बिना पूंजी या बाहरी मदद के अपने संसाधनों से मेहनकशों के अपने अत्याधुनिक शहीद अस्पताल में बाजार के व्याकरण और दबाव तोड़कर आम जनता को नाम मात्र खर्च पर सही इलाज का माडल तैयार किया था।
नियोगी की शहादत के बाद छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा का बिखराव हो जाने से छत्तीसगढ़ में यह स्वास्थ्य आंदोलन आगे शहीद अस्पताल के बने रहने के बावजूद नहीं चला लेकिन नियोगी के साथी डा. पुण्यव्रत गुण की अगुवाई में बंगाल के स्वास्थ्यकर्मी और डाक्टर बंगालभर में उत्तर और दक्षिण बंगाल में मेहनतकश तबके की अगुवाई में बिना सरकारी या बाहरी मदद यह आंदोलन जारी रखे हुए हैं।
दल्ली राजहरा के शहीद अइस्पताल के माडल के मुताबिक कोलकाता,दक्षिण बंगाल और सुंदरवन इलाके में करीब दर्जनभर श्रमजीवी अस्पताल और स्वास्थ्य केंद्र चल रहे हैं।जरुरत है कि बाकी देश में स्वास्यकर्मी,मेहनतकश तबका,डाक्टर और जनपक्षधर ताकतें मुक्तबाजार के खिलाफ यह जनपक्षधर जनस्वास्थ्य आंदोलन चलायें ताकि आम जनता को इस मुक्तबाजारी श्मशानघाटों या कब्रिस्तानों में जिंदा जलाने या जिंदा दफनाने की रस्म अदायगी का नर्क जीने से हम बचा सकें।
डा.पुण्यव्रत गुण ने शहीद अस्पताल के बारे में जो लिखा है,वह बेहद गौरतलब हैः
दल्ली राजहरा जनस्वास्थ्य आंदोलन और शहीद अस्पताल
छात्र जीवन से दल्ली राजहरा में मजदूरों के स्वास्थ्य आंदोलन के बारे में कहानियां सुन रखी थीं।शहीद अस्पताल की स्थापना से पहले 1981 में मजदूरों के स्थ्यास्थ्य आंदोलन में शरीक होने के लिए जो तीन डाक्टर गये थे,उनमें से डा.पवित्र गुह हमारे छात्र संगठन के संस्थापक सदस्यों में एक थे।(बाकी दो डाक्टर थे डा. विनायक सेन और डा.सुशील कुंडु।)शहीद अस्पताल की प्रेरणा से जब बेलुड़ में इंदो जापान स्टील के श्रमिकों ने 1983 में श्रमजीवी स्वास्थ्य परियोजना का काम शुरु किया,तब उनके साथ हमारा समाजसेवी संगठन पीपुल्स हेल्थ सर्विस एसोसिएशन का सहयोग भी था।हाल में डाक्टर बना मैं भी उस स्वास्थ्य परियोजना के चिकित्सकों में था।
मैं शहीद अस्पताल में 1986 से लेकर 1994 तक कुल आठ साल रहा हूं।1995 में पश्चिम बंगाल लौटकर भिलाई श्रमिक आंदोलन की प्रेरणा से कनोड़िया जूटमिल के श्रमिक आंदोलन के स्वास्थ्य कार्यक्रम में शामिल हो गया।चेंगाइल में श्रमिक कृषक स्वास्थ्य केंद्र, 1999 में श्रमजीवी स्वास्त्य उपक्रम का गठन,1999 में बेलियातोड़ में मदन मुखर्जी जन स्वास्थ्य केंद्र,2000 में बाउड़िया श्रमिक कृषक स्वास्थ्य केंद्र, 2007 में बाइनान शर्मिक कृषक मैत्री स्वास्थ्य,2006-7 में सिंगुर नंदीग्राम आंदोलन का साथ,2009 में सुंदरवन की जेसमपुर स्वास्थ्य सेवा,2014 में मेरा सुंदरवन श्रमजीवी अस्पताले के साथ जुड़ना,श्रमजीवी स्वास्थ्य उपक्रम का प्रशिक्षण कार्यक्रम,2000 में फाउंडेशन फार हेल्थ एक्शन के साथ असुक विसुख पत्रिका का प्रकाशन,2011 में स्व्स्थ्येर वृत्ते का प्रकाशन --यह सबकुछ असल में उसी रास्ते पर चलने का सिलसिला है,जिस रास्ते पर चलना मैंने 1986 में शुरु किया और दल्ली राजहरा के शमिकों ने 1979 में।
शुरु की शुरुआत
एक लाख बीस की आबादी दल्ली राजहरा में कोई अस्पताल नहीं था,ऐसा नहीं है।भिलाई इस्पात कारखाना का अस्पताल,सरकारी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र,मिशनरी अस्पताल,प्राइवेट प्रैक्टिसनर,झोला छाप डाक्टर -मसलन की इलाज के तमाम बंदोबस्त पहले से थे।सिर्फ गरीबों का ऐसे इंतजामात में सही इलाज नहीं हो पाता था।
खदान के ठेका मजदूरों और उनके परिजनों को भी ठेकेदार के सिफारिशी खत के बाबत बीएसपी अस्पताल में मुफ्त इलाज का वायदा था।लेकिन वहां वे दूसरे दर्जे के नागरिक थे।डाक्टरों और नर्सों को उनकी लालमिट्टी से सराबोर देह को छूने में घिन हो जाती थी।
इसी वजह से दिसंबर,1979 में छत्तीसगढ़ माइंस एसोसिएशन की उपाध्यक्ष कुसुम बाई का प्रसव के दौरान इलाज में लापरवाही से मौत हो गयी।उस दिन बीएसपी अस्पताल के सामने चिकित्सा अव्यवस्था के खिलाफ विरोध प्रदर्शन में दस हजार मजदूर जमा हो गये थे।नहीं,उन्होंने अस्पताल में किसी तरह की कोई तोड़ फोड़ नहीं की और न ही किसी डाक्टर नर्स से कोई बदसलूकी उन्होंने की।बल्कि उन लोगों ने शपथ ली एक प्रसुति सदन के निर्माण के लिए ताकि किसी और मां बहन की जान कुसुम बाई की तरह बेमौत इसतरह चली न जाये।
8 सितंबर,1980 को शहीद प्रसुति सदन का शिलान्यास हो गया।
स्वतःस्फूर्तता से चेतना की विकास यात्रा
1979 में छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ के जो सत्रह विभाग शुरु किये गये,उनमें स्वास्थ्य विभाग भी शामिल हो गया।
`स्वास्थ्य और ट्रेड यूनियन' शीर्षक निबंध में कामरेड शंकर गुहा नियोगी ने कहा है- `संभवतः भारत में ट्रेडयूनियनों ने मजदूरों की सेहत के सवाल को अपने समूचे कार्यक्रम के तहत स्वतंत्र मुद्दा बतौर पर कभी शामिल नहीं किया है।यदि कभी स्वास्थ्य के प्रश्न को शामिल भी किया है तो उसे पूंजीवादी विचारधारा के ढांचे के अंतर्गत ही रखा गया है।इस तरह ट्रेड यूनियनों ने चिकित्सा की पर्याप्त व्यवस्था, कार्यस्थल पर चोट या जख्म की वजह से विकलांगता के लिए मुआवजा और कमा करते हुए विकलांग हो जाने पर श्रमिकों को मानवता की खातिर वैकल्पिक रोजगार देने के मुद्दों तक ही खुद को सीमित रखा है।
---हमें यह सवाल उठाना होगा कि सही आवास, स्कूल, चिकित्सा, सफाई, जल, इत्यादि स्वस्थ जीवन के लिए जरुरी व्यवस्थाओं की जिम्मेदारी मालिकान लें।-- मजदूर वर्ग सामाजिक बदलाव का हीरावल दस्ता है,तो यह उसकी जिम्मेदारी बनती है कि वह अधिक प्रगतिशील वैकल्पिक सामाजिक प्रणालियों की खोज और उन्हें आजमाने के लिए विचार विमर्श करें और परीक्षण प्रयोग भी।इसके अंतर्गत वैकल्पिक स्वास्थ्य प्रणाली भी शामिल है।इसके साथ साथ यह भी जरुरी है कि श्रमिक वर्ग आज के उपलब्ध उपकरण और शक्ति पर निर्भर विकल्प नमूना भी स्थापित करने की कोशिस जरुर करें।'
इस निबंध में नियोगी की जिस अवधारणा का परिचय मिला,बाद में वही `संघर्ष और निर्माण की विचारधारा' में तब्दील हो गयी। संघर्ष और निर्माण राजनीति का सबसे सुंदर प्रयोग हुआ शहीद अस्पताल के निर्माण में।(हम उसी अवधारणा का प्रयोग हमारे चिकित्सा प्रतिष्ठानों में अब कर रहे हैं।)
`स्वास्थ्य के लिए संघर्ष करो'
15 अगस्त,1981 को स्वास्थ्य के लिए संघर्ष करो कार्यक्रम की शुरुआत कर दी गयी।उस वक्त के पंफलेट में जिन मुद्दों को रखा गया था,जो मैंने देखा,वे इस प्रकार हैंः
टीबी की चिकित्सा का इंतजाम करना।
गर्भवती महिलाओं के नाम दर्ज करना,उनकी देखभाल इसतरह करना ताकि सुरक्षित प्रसव सुनिश्चित हो जाये और बच्चे स्वस्थ हों।
बच्चों की देखभाल और उनके पालन पोषण का इंतजाम,सही वक्त पर उनका टीकाकरण।
एक स्वास्थ्यकेंद्र का संचालन ,खासतौर पर उन सभी के लिए जिन्हें बोकारो स्टील प्लांट अस्पताल में इलाज कराने की सुविधा नहीं मिलती।
एक अस्पताल का संचालन,जहां देहाती किसानों को जरुरी चिकित्सा सेवाएं मुहैय्या करायी जा सकें।
पर्यावरण को स्वस्थ रखना,खासतौर पर शुद्ध पेयजल की जरुरत के बारे में घर घर जानकारी पहुंचाना।इसी तरह हैजा और दूसरे रोगों की रोकथाम करना।
संगठन और आंदोलन में शरीक हर परिवार के संबंध में तमाम तथ्य संग्रह और उनका विश्लेषण।
संगठन के जो सदस्य स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करने के इच्छुक हों,उन्हें प्रशिक्षित करके `स्वास्थ्य संरक्षक' बनाना और उनके जरिये प्राथमिक चिकित्सा और अन्य स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार करना।
सफाई आंदोलन से…
दल्ली राजहरा की मजदूर बस्तियों में सफाई का कोई इंतजाम नहीं था।फिर एक दिन मजदूर बस्तियों के तमाम मर्द औरतों,छात्र युवाओं और व्यवसायियों ने मिलकर मोहल्ले का सारा मैला एक जगह इकट्ठा कर लिया।इसके बाद खदानों से माल ढोने के लिए जाते हुए तेरह ट्रकों में भरकर वह सारा मैला माइंस मैनेजर के क्वार्टर के सामने ले जाया गया।मैनेजर को चेतावनी दे दी गयी कि -मजदूर बस्तियों को साफ सुथरा रखने का बंदोबस्त अगर नहीं न हुआ तो रोज सारा मैला माइंस मैनेजर के क्वार्टर के आगे लाकर फेंक दिया जायेगा।
डाक्टर आ गये
1981 में खदान मजदूरों के एक आंदोलन के सिलसिले में शंकर गुहा नियोगी तब राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत जेल में कैद थे।दूसरी तरफ प्रशासन मजदूर आंदोलन को तोड़कर टुकड़ा टुकड़ा करने के मकसद से तरह तरह के दमनात्मक कार्वाई में लगा हुआ था।तभी पीपुल्स यूनियन फार सिविल लिबर्टीज की एक जांच टीम के सदस्य बतौर डा. विनायक सेन दल्ली राजहरा आ गये।जेएनयू के सेंटर आफ सोशल मेडिसिन एंड कम्युनिटी हेल्थ में 1976 से 1978 तक अध्यापन करने के बाद 1978 से फिर नये सिरे से जिंदगी का मायने खोजने के मकसद से वे होशंगाबाद जिले फ्रेंड्स रुरल सेंटर में टीबी मरीजों को लेकर काम करने लगे थे।उनके साथ आ गयी समाजविज्ञानी उनकी पत्नी डा.इलिना सेन।
करीब करीब उसी वक्त डा.आशीष कुंडु भी आ गये।बंगाल में क्रांतिकारी मेडिकल छात्र आंदोलन के अन्यतम संगठक आशीष हाउसस्टाफशिप खत्म करके मेहनकश आवाम के संघर्षों में अपनी पेशेवर जिंदगी समाहित करने के लिए तब मजदूर आंदोलन के तमाम केंद्रों में काम के मौके खोज रहे थे।
छह महीने बाद डा. पवित्र गुह उनके साथ हो गये।निजी कुछ समस्याओं की वजह से वे इस दफा ज्यादा वक्त तक रह नहीं सके।वे फिर शहीद अस्पताल से नियोगी की शहादत के बाद 1992 में जुड़ गये। अब बी वे दल्ली राजहरा में हैं।
स्वास्थ्य कमिटी
पहले ही मैंने यूनियन के सत्रह विभागों में खास स्वास्थ्य विभाग की चर्चा की है।इस विभाग का काम था,बीएसपी अस्पताल में मरीज के दाखिले के बाद उनकी देखभाल करना।फिर सत्तर केदशक से अस्सी के दशक के अंत तक जो शराबबंदी आंदोलन (मद्यपान निषेध आंदोलन) चला,उसमें यूं तो समूची यूनियन शामिल थी,लेकिन उसमें भी स्वास्थ्य विभाग की भूमिका खास थी।81 के सफाई आंदोलन में कामयाबी की वजह से,चिकित्सकों के प्रचार अभियान के लिए प्रिशिक्षित होने के बाद जो सौ से ज्यादा मजदूर सामने आ गये,उन्हें और डाक्टरों को लेकर स्वास्थ्य कमिटी बना दी गयी।
26 जवरी,1982 से यूनियन दफ्तरके बगल के गैराज में सुबह शाम दो दफा स्वास्थ्य सेवा का काम शहीद डिस्पेंसरी में शुरु हो गया।स्वास्थ्य कमिटी के कुछ सदस्यों ने पालियों में डिस्पेंसरी चलाने में डाक्टरों की मदद करने लगे।डाक्टरों ने भी उन्हें स्वास्थकर्मी बतौर प्रशिक्षित करना शुरु कर दिया।अब स्वास्थ्य कमिटी के बाकी सदस्यों के जिम्मे था अस्पताल का निर्माण।
26 जनवरी,1982 से 3 जून,1983 की अवधि में अस्पताल चालू होने से पहले करीब छह हजार लोगों की चिकित्सा शहीद डिस्पेंसरी में हुई।
1977 के ग्यारह शहीद और शहीद अस्पताल
छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ के जन्म के बाद घर बनाने के लिए बांस बल्ली भत्ता की मांग लेकर आंदोलन कर रहे मजदूरों के आंदोलन को तोड़ने के लिए 2 जून, 1977 को यूनियन दफ्तर से पुलिस ने कामरेड नियोगी को अगवा कर लिया। अपने नेता की रिहाई की मांग लेकर मजदूरों ने पुलिस के दूसरे दल को घेरे लिया।उस घेराव को तोड़ने के लिए पुलिस न पहलीबार 2 जून की रात,फिर अगले दिन जिला शहर से भारी पुलिस वाहिनी के आने के बाद दूसरी बार मजदूरों पर गोली चला कर घेराव में कैद पुलिसवालों को निकाला।
2-3 जून के गोलीकांड में ग्यारह मजदूर शहीद हो गये- अनुसुइया बाई, जगदीश, सुदामा, टिभुराम, सोनउदास, रामदयाल, हेमनाथ, समरु, पुनउराम, डेहरलाल और जयलाल।इन शहीदों की स्मृति में 1983 के शहीद दिवस पर शहीद अस्पताल का उद्बोधन हुआ। बाहैसियत मजदूर किसान मैत्री के प्रतीक खदान के सबसे वरिष्ठ मजदूर लहर सिंह और आसपास के गांवों में सबसे बुजुर्ग किसान हलाल खोर ने अस्पताल का द्वार उद्घाटन किया।उसदिन श्रमिक संघ के पंफलेट में नारा दिया गया-`तुमने मौत दी,हमने जिंदगी'-तुम शासकों ने मौत बाटी है,हम जिंदगी देंगे।
मजदूरों के श्रम से ही कोई अस्पताल का निर्माण हो पाता है,किंतु छत्तीसगढ़ के लोहा खदानों के मजदूरों के स्वेच्छाश्रम से बने शहीद अस्पताल ही भारत का पहला ऐसा अस्पताल है,जिसका संचालन प्रत्यक्ष तौर पर मजदूर ही कर रहे थे।शहीद अस्पताल का सही मायने यह हुआ- `मेहनतकशों के लिए मेहनतकशों का अपना अस्पताल' - मेहनतकश आवाम के लिए मेहनतकशों का अपना कार्यक्रम।अस्पताल शुरु होने से पहले डिस्पेंसरी पर्व में डा.शैबाल जाना उससे जुड़ गये।अस्पताल शुरु हो जाने के बाद 1984 में डां.चंचला समाजदार भी पहुंच गयीं।
शहीद अस्पताल एक नजर में
जिला सदर दुर्ग 84 किमी दूर, राजनांदगांव 62 किमी दूर, 66 किमी दूरी पर रायपुर जिले का धमतरी,दूसरी तरफ बस्तर जिले से सटा डो़न्डी- इनके मध्य एक विशाल आदिवासी बहुल इलाके के गरीबों के इलाज के लिए मुख्य सहारा बन गया शहीद अस्पताल।(यह जो भौगोलिक स्थिति का ब्यौरा मैंने दिया है,वह छोटा अलग राज्य छत्तीसगढ़ बनने से पहले का है।अब दल्ली राजहरा बालाद जिले में है।)
मंगलवार को छोड़कर हफ्ते में छह दिन सुबह 9.30 बजे से 12.30 तक और शाम को 4.30 से 7.30 तक आउटडोर खुला हुआ।इमरजेंसी के लिए अस्पताल हर रोज चौबीसों घंटे खुला।1983 में अस्पताल की शुरुआत के वक्त शय्या संख्या 15 थी,1989 में दोमंजिला बनने के बाद शय्या संख्या बढ़कर 45 हो गयी,हालांकि अतिरिक्त शय्या (मरीजों के घर से लायी गयी खटिया) मिलाकर कुल 72 मरीजों को भरती किया जा सकता था।अस्पताल में सुलभ दवाएं भी खरीदने को मिलती हैं।पैथोलाजी, एक्सरे, ईसीजी जैसे इंतजाम हैं।आपरेशन थिएटर और एंबुलेंस भी।
चिकित्साकर्मियों में डाक्टरों के सिवाय एक नर्स को छोड़कर कोई संस्थागत तौर पर प्रशिक्षित नहीं था।मजदूर किसान परिवारों के बच्चे प्रशिक्षित होकर चिकित्साकर्मी का काम शहीद अस्पताल में कर रहे थे।अस्पताल के लिए बड़ी संपदा बतौर मजदूर स्वेच्छासेवकों की टीम थी।ये मजदूर स्वेच्छासेवक ही शहीद डिस्पेंसरी के समय से डाक्टरों के साथ काम कर रहे थे,जो आजीविका के लिए खदान में काम करते थे और शाम को और छुट्टी के दिन बिना पारिश्रामिक स्वास्थय कार्यक्रमके तहत काम करते थे।
सिर्फ इलाज नहीं बल्कि ,जनता को स्वास्थ्य के प्रति सजग बनाना और स्वास्थ्य आंदोलन संगठित करना शहीद अस्पताल का काम था।
किनके पैसे से बना अस्पताल?
1983 15 बेड के एक मंजिला अस्पताल से 1998 में आधुनिक सुविधाओं से लैस विशाल अस्पताल का निर्माण हुआ।इतना पैसा कहां से आया?
उस वक्त शहीद अस्पताल का निर्माण पूरीतरह मजदूरों के पैसे से हुआ। शुभेच्छुओं ने बार बार मदद की पेशकश भी की लेकिन मजदूरों ने विनम्रता पूर्वक मदद लेने से इंकार कर दिया।क्योंकि वे अपने सामर्थ्य को तौलना चाहते थे।शहीद अस्पताल के लोकप्रिय होने के बाद देशी विदेशी फंडिंग एजंसियों की तरफ से आर्थिक अनुदान के प्रचुर प्रस्ताव आते रहे,लेकिन उन तमाम प्रस्तावों को दृढ़ता के साथ खारिज कर दिया जाता रहा क्योंकि मजदूरों को अच्छी तरह मालूम था कि बाहर से आने वाला पैसे का सीधा मतलब बाहरी नियंत्रण होता है।
`आइडल वेज' या `फाल बैक वेज' के बारे में हममें से ज्यादातर लोग जानते नहीं हैं।मजदूर काम पर चले गये लेकिन मालिक किसी वजह से कमा नहीं दे सके तो ऐसे हालात में न्यूनतम मजूरी का अस्सी फीसद फाल बैक वेज बतौर मजूरों को मिलना चाहिए।दल्ली राजहरा के मजदूरों ने ही सबसे पहले फाल बैक वेज वसूल किया।उसी पैसे से अस्पताल के निर्माण के लिए ईंट-पत्थर-लोहा-सीमेंट खरीदा गया।यह सारा माल ढोने के लिए छोटे ट्रकों के मालिकों के संगठन प्रगतिशील ट्रक ओनर्स एसोसिएशन ने मदद की।अस्पताल के तमाम अासबाब सहयोगी संस्था शहीद इंजीनियरिंग वर्कशाप के साथियों ने बना दिये।
अस्पताल की शुरुआत के दौरान यूनियन के हर सदस्य ने महीनेभर का माइंस एलाउंस और मकान किराया भत्ता चंदा बतौर दे दिये।इस पैसे का कुछ हिस्से से दवाइयां और तमाम यंत्र खरीद लिये गये।बाकी पैसे से एक पुराना ट्रक खरीद लिया गया,जिसे वाटर टैंकर में बदल दिया गया।खदान में पेयजल ले जाता था वह ट्रक और उस कमाई से डाक्टरों का भत्ता आता था।
शुरुआत में पैसा इसी तरह आया।इसके बाद जितनी बार कोई विकास हुआ, निर्माण हुआ या बड़ा कोई यंत्र खरीदा गया,मजदूरों ने चंदा करके पैसे जुगाड़ लिये।
अस्पताल चलाने के लिेकर्मचारियों के भत्ते वगैरह मद में जो पैसे चाहिए थे- उसके लिए मरीजों को थोड़ा खर्च करना पड़ा।आउटडोर में मरीजों के देखने के लिए पचास पैसे (जो बढ़कर बाद में एक रुपया हुआ) और दाखिले के बाद बेड भाड़ा बाबत तीन रुपये रोज (जो बाद में बढ़कर पांच रुपये रोज हो गया) मरीजों के देने होते थे।लेकिन आंदोलनरत बेरोजगार मजदूरों और उनके परिजनों,संगठन के होलटाइमरों और बेहद गरीब मरीजों के सभी स्तर का इलाज मुफ्त था।
इस तरह स्थानीय संसाधनों के दम पर आत्मनिर्भरता की राह पर बढ़ता चला गया शहीद अस्पताल।
तर्कसंगत वैज्ञानिक चिकित्सा के लिए लड़ाई
एक तरफ परंपरागत ओझा - बाइगा की झाड़फूंक तुकताक,दूसरी तरफ पास और बिना किसी पास के चिकित्सा कारोबारियों का गैर जरुरी नुकसानदेह दवाओं का अंधाधुंध इस्तेमाल- इस दुधारी दुश्चक्र में फंसे हुए थे दल्ली राजहरा के लोग।वैज्ञानिक चिकित्सा की अवधारणा सिरे से अनुपस्थित थी।कुछ उदाहरणोें से आप बेहतर समझ सकते हैं-मसलन मेहनत के मारे थके हारे खदान मजदूरों को यकीन था कि लाल रंग के विटामिन इंजेक्शन और कैल्सियम इंजेक्शन से उनकी कमजोरी दूर हो जायेगी।बुखार उतारने के लिए अक्सर प्रतिबंधित एनालजिन इंजेक्शन इस्तेमाल में लाया जाता था- जिससे खून में श्वेत रक्त कोशिकाओं का क्षय हो जाता,लीवर किडनी नष्ट हो जाते। प्रसव जल्दी कराने के लिए पिटोसिन इंजेक्शन का इस्तेमाल होता था- जिससे गर्भाशय में तीव्र संकोचन की वजह से गर्भाशय फट जाने की वजह से मां की मौत का जोखिम बना रहता।..
दल्ली राजहरा का मजदूरों के स्वास्थ्य आंदोलन ही समसामयिक भारत में दवाओं के तर्कसंगत इस्तेमाल का आंदोलन रहा है।मजदूरों को जिन डाक्टरों का साथ मिला,वे सभी इस आंदोलन के साथी हैं-जिनमें से कोई पश्चिम बंगाल ड्रग एक्शन फोरम के साथ जुड़ा था तो कोई आल इंडिया ड्रग एक्शन नेटवर्क से जुड़ा।दवाओं के तर्कसंगत प्रयोग की अवधारणा का बड़े पैमाने पर प्रयोगक्षेत्र बन गया शहीद अस्पताल।
जहां घरेलू नूस्खे से इलाज संभव था,वहा दवाओं के इस्तेमाल का विरोध किया जाता था। मसलन-पेट की तकलीफों की वजह से नमक पानी की कमी को दुरुस्त करने के लिए पैकेट बंद ओआरएस के बदले नमक चीनी नींबू का शरबत बनकार पीने के लिए कहा जाता था।एनालजिन इंजेक्शन के बदले बुखार उतारने के लिए ठंडा पानी से शरीर को पोंछने के लिए कहा जाता था।खांसी के इलाज के लिए कफ सिराप के बदले गर्म पानी की भाप लेने की सलाह दी जाती थी।…
दवा का इस्तेमाल जब किया जाता था,वह विश्व स्वास्थ्य संस्था की अत्यावश्यक दवाओं की सूची के मुताबिक किया जाता था। डाक्टर सिर्फ दवाओं के जेनरिक नाम लिखते थे। बहुत कम विज्ञानसंगत अपवादों को छोड़कर एक से ज्यादा दवाओं का निर्दिष्ट मात्रा में मिश्रण का कतई इस्तेमाल नहीं किया जाता था।इस्तेमाल नहीं होता था- एनाल्जिन,फिनाइलबिउटाजोन,अक्जीफेनबिउटाजोन, इत्यादि तमाम नुकसानदेह दवाइयां।प्रेसक्रिप्शन पर लिखा नहीं जाता था- कफ सिराप,टानिक,हजमी एनजाइम,हिमाटेनिक,इत्यादि की तरह गैरजरुरी दवाएं।जहां मुंह से खाने की दवा से काम चल जाता था,वहां इंजेक्शन का विरोध किया जाता था।..
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