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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Monday, January 30, 2012

रोशनी बुझी नहीं

http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/10069-2012-01-30-04-21-06

Monday, 30 January 2012 09:50

मणींद्र नाथ ठाकुर जनसत्ता 30 जनवरी, 2012:  गांधी की मृत्यु की खबर से विचलित होकर नेहरू ने कहा था कि 'हमारी जिंदगी से रोशनी चली गई है'। शायद यह शोक व्यक्त करने का उनका अपना अंदाज हो, या फिर वे गांधी के इस तरह अचानक चले जाने पर देश के मानस में उपजे दर्द को अभिव्यक्त करना चाहते हों। लेकिन क्या गांधी-विचार के आधार पर नेहरू के इस वक्तव्य के महत्त्व को जांचा जा सकता है! गांधी के दैहिक रूप से अनुपस्थित हो जाने से आखिर किस 'रोशनी' का अभाव हो गया, जिसने स्वतंत्र भारत को बेहद प्रभावित किया। इस प्रश्न के कई जवाब हो सकते हैं। 
जवाब कितने भी हों, इतना तय है कि इन्हें गांधी के विचारों के भीतर ही ढूंढ़ा जाना चाहिए। जब इन्हें तलाशा जाएगा तो ऐसे विचार भी मिलेंगे जो आधुनिकतावादियों को नागवार गुजरें। भारतीय ज्ञान-परंपरा के बारे में गांधी का दृष्टिकोण और आधुनिकता के पैरोकार नेहरू की इससे असहमति एक प्रस्थान बिंदु हो सकता है। निश्चित ही गांधी की दैहिक उपस्थिति नीतियों के व्यावहारिक धरातल पर नेहरू को कहीं न कहीं बांधती भी रही होगी।
गांधी के विचारों को मनुष्यता के भविष्य के लिए और भी समझने की जरूरत है। इस बात से उग्र किस्म के आधुनिकतावादी और भारतीय मूल के पश्चिमी सोच वाले कुछ बुद्धिजीवी भले ही सहमत न हों, दुनिया के बडेÞ हिस्से के बौद्धिक जगत में गांधी के विचारों का पुनर्पाठ यह दिखाता है कि गैर-आधुनिक और गैर-यूरोपीय ज्ञान-परंपराओं के बारे में उनके विचार मानव जाति के लिए बेहद उपयोगी हैं। इस संदर्भ में कुछ उदाहरणों के विश्लेषण से बात और स्पष्ट हो सकती है।
इसके पहले कि हम उदाहरणों पर जाएं, यह समझ लेना मुनासिब होगा कि गांधी का ज्ञान-परंपराओं के प्रति दृष्टिकोण क्या था। औपनिवेशिक युग में जब पश्चिमी देश आधुनिकता का परचम लिए घूम रहे थे और सभ्यता का मापदंड तय कर आधुनिक ज्ञान-परंपराओं की कसौटी पर दुनिया की अन्य ज्ञान-परंपराओं को खारिज कर रहे थे, ठीक उसी समय गांधी ने उन्हें आईना दिखाने की ठानी। 'हिंद स्वराज' के मूल में आधुनिक यूरोप के सभ्यता के दंभ का विरोध ही है। उन्होंने साफ शब्दों में कहना शुरू किया कि जिसे सभ्यता का नाम दिया जा रहा है उससे मानवता को खतरा है और इसलिए जरूरत दरअसल दुनिया की बाकी सभ्यताओं से सीखने की है।
इस संदर्भ में महत्त्वपूर्ण बात यह है कि आधुनिकता से जुड़ी ज्ञान-परंपरा में व्यक्तिवाद को इतना महत्त्व दिया गया कि ज्ञान के स्वामित्व का मसला अचानक बहुत महत्त्वपूर्ण हो गया। मानव इतिहास में पहली बार ज्ञान के मूल स्रोतों को मिटा कर उस पर स्वामित्व जताने की प्रवृत्ति शुरू हुई है। सभ्यताएं इसके पहले भी एक दूसरे से बहुत कुछ लेती थीं, लेकिन उनके स्रोतों की याद को जीवंत रखती थीं। उदाहरण के लिए, अरबों ने भारत से जो कुछ भी लिया उसके स्रोतों को सैकड़ों सालों के बाद भी कृतज्ञतापूर्वक याद रखा गया। पंचतंत्र जैसे ग्रंथ का अगर अनुवाद किया गया तो पात्रों के नाम तक को नहीं बदला गया। लेकिन उसी पचतंत्र को जब आधुनिक पश्चिम ने लिया तो उसके स्वरूप में आमूल परिवर्तन कर दिया और फिर इसके मूल स्रोत से जुडेÞ तार को काट दिया गया।  
गांधी को शायद उससे कोई एतराज नहीं था, उनकी समस्या थी आधुनिकता की ज्ञान-मीमांसा के साथ। खारिज करने की इस आधुनिक प्रक्रिया में बहुत कुछ ऐसा भी गायब हो गया जो लोककल्याणकारी था। आश्चर्य की बात यह है कि इन तथ्यों के उजागर होने के बावजूद पश्चिम इसे मानने को तैयार नहीं था। शायद इसलिए कि  उसकी बौद्धिक ईमानदारी उसके औपनिवेशिक दंभ से दबी हुई थी।     
सबसे पहले आधुनिक कही जाने वाली ज्ञान-परंपरा के धर्म के प्रति रवैये को ही लें। पश्चिम में धार्मिक संस्थानों में एक खास प्रकार की ज्ञान-मीमांसा की मान्यता थी, जिसमें यह माना जा रहा था कि ज्ञान का श्रेष्ठ उपागम इलहाम है और परमात्मा गिने-चुने लोगों को ही इस लायक समझता है और इस तरह की विशिष्ट क्षमता देता है। धार्मिक संस्थाओं के वर्चस्ववादी दृष्टिकोण का विरोध करने के क्रम में आधुनिकता ने आत्मानुभूति के मीमांसात्मक महत्त्व को ही नकार दिया। गांधी ने स्पष्ट किया कि आत्मानुभूति ज्ञान का एक महत्त्वपूर्ण उपागम है, अंतर केवल इतना है कि मनुष्य मात्र को यह क्षमता प्राप्त है और इस क्षमता का विकास संभव है। इसलिए गांधी बार-बार अंतरात्मा की आवाज सुनने पर जोर दिया करते थे।
यह सच है कि भौतिक जगत के ज्ञान के लिए मनुष्य को अपनी ज्ञानेंद्रियों पर भरोसा करना पड़ता है और हर मनुष्य को प्रकृति ने बाह्य जगत को देखने-समझने की क्षमता भी दी है। लेकिन इससे केवल स्थूल जगत के बारे में सूचनाएं इकट्ठा की जा सकती हैं। मनुष्य की भावनाओं को समझने या सही-गलत के निर्णय के लिए तो अंतरात्मा का ही सहारा लेना पडेÞगा।
आधुनिक विज्ञान और उससे उपजे दृष्टिकोण ने मूल्यों का ऐसा संकट पैदा कर दिया है कि हम अपनी प्रजाति को समूल नष्ट करने के उपायों को खोजने में लग गए और उन्हें हासिल कर लेना ही हमारे लिए शक्तिशाली होने का पर्याय हो गया।
गांधी ने आधुनिकता के इसी दंभ की प्रतिक्रिया में अहिंसा का मार्ग सुझाया। और अहिंसा के लिए गांधी का तर्क मीमांसा की कसौटी पर बिल्कुल खरा है।


उनका मानना है कि सत्य बहुआयामी है और किसी व्यक्ति या व्यक्ति समूह को किसी भी समय सत्य के सभी आयामों की जानकारी हो सके, यह संभव नहीं है। प्रकृति के नियमों के अलावा बाकी सत्य संस्कृति-सापेक्ष भी हो सकता है। ऐसे में   अपने से विपरीत विचारों के लोगों को अपना विरोधी मान लिया जाए और उनकी हत्या कर दी जाए यह सर्वथा अनुचित है। उनके अनुसार, आवश्यकता मीमांसा के इस आयाम को समझ कर सभ्यताओं, ज्ञान-परंपराओं और लोगों के बीच उचित संवाद स्थापित करने की है। और इसके लिए दोनों पक्षों को अपने-अपने सत्य के प्रति निष्ठावान होना ही चाहिए और उसके लिए आग्रह भी करना चाहिए। लेकिन साथ ही दूसरे के दृष्टिकोण के प्रति भी सम्मान रखना चाहिए। संवाद की इसी प्रक्रिया को गांधी सत्याग्रह का नाम दिया करते थे।
गांधी की दैहिक अनुपस्थिति के बाद आधुनिकता से प्रभावित भारतीयों ने भी संवाद के इस मूलमंत्र को नहीं माना और फिर 'आधुनिक मंदिरों' के निर्माण ने भारतीय समाज की मौलिक संरचना पर बर्बर प्रहार शुरू कर दिया। क्योंकि आधुनिक चिंतकों के लिए सूक्ष्म चेतना की जगह स्थूल भौतिक या दैहिक आयाम ज्यादा महत्त्वपूर्ण रहा। नेहरू भी आधुनिकता के दबाव में बह गए। मालूम नहीं कि अगर गांधी स्वतंत्रता के बाद भी ज्यादा दिन तक बचे रहते तो हमारी आर्थिक नीति क्या होती, लेकिन यह तो कहा ही जा सकता है कि जिस रोशनी के खोने की बात नेहरू कहते हैं वह अगर होती तो विकास इतना अंधकार भरा नहीं होता। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की तरह वे शायद इतने लाचार नहीं होते कि चालीस प्रतिशत बच्चों के भूखे रहने की हकीकत जान कर भी विश्व बैंक के नवउदारवादी एजेंडे पर ही देश के विकास का सपना संजोते रहते। उनके सत्य के प्रयोगों को समझ कर तो यही लगता है कि गांधी आधुनिकता के जीवनमूल्यों के बरक्स नए आंदोलन की तैयारी करते और सरहदों की सीमा के बाहर भी इसकी गूंज सुनाई देती।
ऐसा नहीं  है 
कि उनकी आत्मानुभूतिमूलक ज्ञान-मीमांसा से जिस नई जीवन-पद्धति की समझ बनती है उसमें आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण का संपूर्णता में तिरस्कार हो। बल्कि उससे भी संवाद स्थापित करने में गांधी को कोई परेशानी नहीं थी। प्रकृति के विषय में शुद्ध वैज्ञानिक समझ से उन्हें कोई दिक्कत नहीं थी। उन्हें एतराज था विज्ञान के दंभ पर, और पूंजीवाद और उपनिवेशवाद के साथ उसकी सांठगांठ से। 'हिंद स्वराज' में गांधी की चिंता है बाजार के विस्तार से। और बाजार केवल दुकानें नहीं हैं बल्कि व्यक्तिगत लाभ के चश्मे से प्रकृति और मनुष्य के संबंधों को देखने की प्रक्रिया है।
इस संबंध से ही खीज कर बाबा नागार्जुन ने लिखा होगा 'एहन शहर के हमर प्रणाम जकर हर घर में छै दुकान' (ऐसे शहर को मेरा प्रणाम जिसके हर घर में है दुकान)। गांधी वकीलों और डॉक्टरों से इसलिए परेशान नहीं थे कि उनका ज्ञान बेकार है। आधुनिक युग के पहले भी इस तरह के ज्ञानी हुआ करते थे। वे इसलिए परेशान थे कि अब इनका उद््देश्य जनकल्याण नहीं, बल्कि दूसरों की कमजोरी पर अपनी जीविका चलाना है।
शायद उन्हें यह आभास हो चला था कि पूंजीवाद मनुष्य की काम-भावनाओं को आधार बना कर भी बाजार का विस्तार करेगा, इसलिए उन्होंने अपने प्रयोगों में इसे भी शामिल कर लिया था। एक मायने में गांधी घोर वैज्ञानिक थे कि उन्होंने किसी स्थापित सत्य को बिना परखे नहीं माना। हजारीप्रसाद द्विवेदी के उपन्यास 'अनामदास का पोथा' के प्रमुख पात्र रैक्व की तरह बिना प्रयोग किए कुछ भी सही नहीं मानना उनका स्वभाव था और बाकी लोगों से भी सत्य के प्रति इसी आग्रह का अनुरोध था।
भारत में स्वतंत्रता के बाद विज्ञान के नाम पर जो कुछ हुआ उसमें इस प्रयोग का अभाव और पश्चिम के विज्ञान को उसके बाजार और औपनिवेशिक मूल्यों के साथ स्वीकार कर लिया गया। भारतीय संस्कृति की जिस देन की बात गांधी  कर रहे थे दुनिया उससे वंचित रह गई। इसी मूल्य को प्रेमचंद ने अपनी कहानी 'मंत्र' में दिखाने का प्रयास किया है। यह दो ज्ञानियों की कहानी है। एक भारतीय ज्ञान परंपरा के 'इलम' का अधिकारी और दूसरा आधुनिक ज्ञान का डॉक्टर। जब पहले का पुत्र बीमार होता है और उसे दूसरे की जरूरत होती है तो डॉक्टर ज्ञान के बाजारू दृष्टिकोण से ग्रसित रहता है और बच्चा मर जाता है। लेकिन जब डॉक्टर के बच्चे को सांप काट लेता है और पहले को सिर्फ सूचना भर मिल जाती है तो उसके मन में द्वंद्व जरूर होता है और बदले की भावना भी जगती है, लेकिन ज्ञान से जुडेÞ मूल्य का प्रभाव उसके दृष्टिकोण को साफ  कर देता है और अपने 'इलम' पर किसी भी जरूरतमंद का अधिकार समझ वह जा पहुंचता है डॉक्टर के बच्चे को ठीक करने।
यही वह सांस्कृतिक मूल्य है जिसकी परवाह गांधी कर रहे थे। विज्ञान और तर्क इस मूल्य को स्थापित नहीं कर सकता। आधुनिकता अपनी सफलता के नशे में इतनी मदहोश हो गई कि संवाद की संभावना को ही भूल गई। गांधी के दैहिक अवसान से शायद इस मूल्य को पुनर्स्थापित करने वाली रोशनी बुझ गई थी। बुझी नहीं थी, शायद धीमी हो गई थी। इसलिए दुनिया भर में जो लोग आज सड़कों पर उतर रहे हैं, 'ओक्युपॉय आंदोलन' चला रहे हैं, उन्हें अब भी रोशनी गांधी से मिल रही है।

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