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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Sunday, January 29, 2012

आजाद लबों को सिलने की तैयारी में सरकार, विरोध करें!

आजाद लबों को सिलने की तैयारी में सरकार, विरोध करें!



 आमुखसंघर्ष

आजाद लबों को सिलने की तैयारी में सरकार, विरोध करें!

29 JANUARY 2012 ONE COMMENT
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♦ असीम त्रिवेदी

क सर्वे के अनुसार भारत में तीन करोड़ अस्सी लाख लोग फेसबुक इस्तेमाल करते हैं और ट्विटर पर सक्रिय लोगों की संख्या करीब एक करोड़ बीस लाख है। प्रतिशत के हिसाब से देखें तो ट्विटर इस्तेमाल करने वालों की संख्या भारत की कुल जनसंख्या की महज एक प्रतिशत और फेसबुक इस्तेमाल करने वालों की संख्या करीब तीन प्रतिशत आंकी जा सकती है। अब प्रश्न ये उठता है कि महज तीन प्रतिशत लोगों ने ऐसा क्या बखेड़ा खडा कर दिया है कि सरकार अभिव्यक्ति की आजादी की ऐसी तैसी करके इंटरनेट पर सेंसरशिप का ग्रहण लगाने पर तुल गयी है?

जवाब भी इन्‍हीं आंकड़ों में है।

विस्तार में जाएं, तो 2011 में भारत में इंटरनेट यूजर्स की कुल संख्या करीब 11 करोड़ 20 लाख है, जो कि देश की कुल संख्या का दस प्रतिशत भी नहीं है। लेकिन दिलचस्प बात ये है कि आंकड़े कहते हैं कि ये संख्या आगे चार साल में दोगुनी से भी अधिक हो सकती है और इन इंटरनेट यूजर्स में से करीब 75 फीसदी युवा हैं। अब अगर ये मानें कि युवा देश के भविष्य हैं, तो हमें ये भी मानना होगा कि इंटरनेट की भी देश के भविष्य में बड़ी भूमिका होने वाली है, शायद सबसे बड़ी। ऐसे में स्पष्ट है कि इंटरनेट पर नियंत्रण बनाने का प्रयास सरकार द्वारा लोकतंत्र पर शिकंजा कसने का एक दूरंदेशी कदम है।

हमारे निजामों को अच्छी तरह मालूम है कि देश में इंटरनेट अभी एक बच्चे की तरह है। इसे जैसे चाहें नियंत्रण में ले सकते हैं। पर अगर एक बार ये अपने विराट स्वरूप में आ गया, तो इसे नियंत्रित करना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन हो जाएगा। तीन प्रतिशत लोगों की आवाज दबाना आसान है, पर एक बार यही फेसबुक अगर देश के पचास प्रतिशत लोगों तक पहुंच गया, तो सरकार चाहकर भी कुछ नहीं कर पाएगी।

राजनीति फिर सस्ती चालें खेल रही है। हमें बताया जा रहा है कि सोशल मीडिया पर अपलोड कंटेंट से धार्मिक द्वेष फैल रहा है जबकि पूरे देश में अभी तक कहीं भी ऐसा कोई वाकया सामने नहीं आया है, जहां सोशल मीडिया पर अपलोड कंटेंट ने किसी धार्मिक फसाद को जन्म दिया हो। हमारी धार्मिक आस्थाओं की आड़ लेकर हमारी जुबान काटी जा रही है। और हम बड़ी खामोशी से ये नजारा देख रहे हैं। ताज्जुब होता है ये देखकर कि हमारी लड़ाई फेसबुक और गूगल लड़ रहे हैं और हम घर में बैठकर न्यूज पेपर पढ़ रहे हैं और खाली टाइम में फेसबुक अपडेट कर रहे हैं, इससे बेखबर कि हमारा भी कोई फर्ज बनता है अपने अधिकारों के लिए लड़ने का, नहीं कुछ तो इस लड़ाई में सोशल मीडिया साइट्स के साथ कंधा मिलाकर खड़े होने का।

सेंसरशिप का सवाल सिर्फ सोशल मीडिया तक ही नहीं है, हमारी निजी साइट्स भी बैन की जा रही हैं। कोई भी अधिकारी स्वयं को संविधान मानकर ये फैसला कर सकता है कि कौन सा कंटेंट नेट पर रहना चाहिए और कौन सा बैन हो जाना चाहिए। वो कभी भी बिना आपसे संपर्क किये, बिना आपको नोटिस दिये आपकी साइट बैन कर सकता है और फिर आप कोर्ट जाइए और वहां जाकर केस फाइल कीजिए। पर बताइए जनाब कि भारत में कितने राइटर्स, ब्‍लॉगर्स और आर्टिस्ट अपनी साइट या ब्लॉग के बैन होने पर अदालत तक का दुर्गम सफर तय करना चाहेंगे।

सोशल मीडिया साइट्स तो अब लोगों के लिए चाय की दुकान और कॉफी हॉउस जैसी हो गयी है, जहां वो अपने चार दोस्तों से अपने मन की बातें बांट कर अपने मन को हल्का कर सकते हैं। तो क्या सरकार अब चाय की दुकानों पर भी निगरानी रखेगी और कोई भी आपत्तिजनक बात कहे जाने पर दुकान और चाय पीने वाले को बैन कर देगी।

सिनेमा और किताबें दूसरा मसला हैं, वहां फिर भी सेंसरशिप के नियम बनाये जा सकते हैं। सेंसर बोर्ड के पक्ष में तर्क दिये जा सकते हैं। पर सोशल मीडिया बहुत बेसिक यूनिट है संवाद की। ऐसे तो सरकार हमारे घरों की तरफ बढ़ रही है? आप फोन पर क्या बात करते हैं, अब अगली सेंसरशिप उस पर होगी। आप अपनी बीवी से क्या बात करते हैं, उसकी भी निगरानी हो सकती है या शायद कोई नियम इस बारे में भी आ जाए कि आप रोज शाम को अपनी डायरी में क्या लिख सकते हैं और क्या नहीं। आपको और आपकी डायरी को बैन किया जा सकता है। हालत बिगड़ रहे हैं, क्योंकि हम खामोश हैं। वो हमारी खामोशी का फायदा उठा कर हमें हमेशा के लिए खामोश कर देंगे।

एक और बात जो भारत में सेंसरशिप के लिए फायदेमंद साबित हुई है, वो है कभी हमारा एक न होना। कहीं पढ़ा था, "चार अमेरिकी साथ चलते हैं, जब सामने पैसों का पेड़ खड़ा हो। चार अंगरेज साथ चल पड़ते हैं, जब देश पर कोई संकट खड़ा हो। पर चार भारतीय केवल तभी साथ चलते हैं, जब कंधे पर कोई पांचवां पड़ा हो।" हमें जो अनेकता में एकता पढ़ाया गया था स्कूल में, शायद गलत था। सही होता तो हमेशा 'फूट डालो राज करो' कैसे एप्लाई हो जाता हम पर।

भारत में हमारी खुद की खींची सेंसरशिप की लकीरों ने भी सरकार को मजबूत किया है और उसके लिए जनता की आवाज दबाना आसान रहा है। हुसैन और रश्दी जैसे रचनाकारों की राह में भी ज्यादा कांटे कानूनी सेंसरशिप ने नहीं, सामाजिक सेंसरशिप ने बिछाये। हम भारत के लोग यूं तो बहुत ही सहनशील और सहिष्णु हैं। सारे अत्याचार, महंगाई, भ्रष्टाचार और आतंकवाद सहते समय हम सहनशीलता का आदर्श पेश करते हैं लेकिन जब बात आस्था पर आती है, हमारी सारी सहिष्णुता जवाब दे जाती है। हमारे सिस्टम को हमारी यही अदा खूब भाती है। और हमेशा इसी का फायदा उठा कर हमें आपस में लड़ाया जाता है और कमजोर किया जाता है। अगर हम इतिहास के पन्ने पलटें, तो पाएंगे कि ऐसा हमेशा से नहीं था वरना खजुराहो की प्रतिमाएं कब की लोगों के गुस्से की भेंट चढ़ गयी होतीं। कबीर कभी लोगों की आस्था के प्रतीक मंदिर और मस्जिद पर दोहे लिखकर अंधविश्वास और कुरीतियों पर चोट न कर पाता। कहीं न कहीं तो कमी आयी है हमारी सहनशीलता में। अपने विचारों से अलग हटकर हम कुछ सुनना ही नहीं चाह रहे और लगातार कला की दुनिया की सीमाएं खींचते जा रहे हैं, जिससे आने वाले दिनों में हमारा लोकतंत्र निश्चित रूप से कमजोर होगा। बिना साहित्य और कला के कभी कोई समाज तरक्की नहीं कर पाया। हम जितना जड़ रहेंगे, उतनी ही सड़न पैदा होगी।

इंटरनेट की ये लड़ाई दो विचारधाराओं के बीच की है। एक तरफ संकीर्णता है और एक तरफ व्यापकता, एक तरफ जड़त्व है और एक तरफ प्रगति, एक तरफ तानाशाही है और एक तरफ सच्चा लोकतंत्र, जहां देश के किसी सुदूर कोने में बैठा कोई आम आदमी भी अपनी बात खुलकर समाज के सामने रख सके। हमें सच का सामना करना सीखना होगा, छुपाने से सच नहीं बदल जाता। शीशे को तोड़कर हम अपना चेहरा नहीं बदल सकते। हमें सिर्फ कानून में ही नहीं, अपने सोचने के ढंग में भी बदलाव करना पड़ेगा। वरना हम किसी कीमत पर अपनी अगली पीढ़ी को एक आजाद हिंदुस्तान नहीं दे पाएंगे।

(असीम त्रिवेदी। युवा कार्टूनिस्‍ट। कानपुर में रहते हैं। भ्रष्‍टाचार के खिलाफ कार्टूनों की एक लोकप्रिय सीरीज बनायी। संसद पर उनके बनाये कुछ कार्टूनों के चलते उनकी वेबसाइट पर पाबंदी लगा दी गयी है। असीम से cartoonistaseem@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)

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