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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Wednesday, March 28, 2012

दारुकुट्टई और उपहारउठाई के दौर में दीदी की सेंसरशिप

दारुकुट्टई और उपहारउठाई के दौर में दीदी की सेंसरशिप

पलाश विश्वास

किस नपुंसक समय में जिंदा रहने के लिए मुर्दा बने हुए हैं हम। आपातकाल और बिहार प्रेस विधेयक के वक्त पत्रकारिता का जो तेवर दिखा था,​ ​ आज वह प्रेस क्लबों में दारुकुट्टई और बाजार से मुफ्त कूपन और उपहार बीनने की औकात में समाहित हो गया है। बंगाल से तीन पत्रकार दीदी की कृपा से इस बार सांसद बन गये हैं तो इसका अंजाम यह हुआ कि उन्होंने पाठकों पर ही सेंसर लगा दी। दिल्ली में रेल मंत्री बदलने गयी दीदी ने पत्रकारों को​ ​ वेतन सिफारिशें लागू करने की मांग कर दी तो प्रेस इतना कृतज्ञ हो गया कि कहीं कोई प्रतिक्रिया नहीं है। वाह!

महाश्वेता दी से हमारे संबंध तीन दशक पुराने हैं। जेएनयू में हमारे मित्र उर्मिलेश झारखंड घूमने गये थे। धनबाद में वे कवि मदन कश्यप के वहां​ ​ ठहरे। मदनजी तब दैनिक आवाज में थे। आवाज के मालिक बंकिम बाबू ने उनसे आवाज में काम करने के लिए कहा तो उन्होंने मेरे नाम की​ ​ सिफारिश कर दी। अब दिल्ली में बड़े पत्रकार उर्मिलेश की तब पत्रकारिता में कोई रुचि नहीं थी। मेरी भी नहीं थी। लेकिन उत्तराखंडी होने के कारण झारखंड आंदोलन का हम समर्थन करते थे। हमारे मित्रों का मानना था कि भारतीय अर्थ व्यवस्था को समझना हो ता झारखंड जरूर जानना चाहिए।​ ​ और हम पहुंच गये। महाश्वेता दी से जब हम मिले, तब हम कोयला खानों और खान दुर्घटनाओं पर काम कर रहे थे। हमने आवाज के जरिये​
​ महाश्वेता दी के आदिवासी केंद्रित साहित्य को आदिवासी समाज के सामने पेश करने का मुहिम भी चलाया हुए थे। कोलकाता आकर हम उनके भाषा बंधन में भी शामिल हुए। पिर २००१ में जब उत्तराखंड के बंगाली शरणार्थी आंदालन कर रहे थे, तब बुद्धदेव और उनकी सरकार, माकपा और दूसरे राजनीतिक दल और मीडिया ने हमारे आंदोलन का खुलकर समर्थन किया। बंगाली सुशील समाज से हमारा तालमेल होने लगा था। हम सिंगुर और नंदीग्राम आंदोलनों के दौरान भी साथ साथ थे। चूंकि हम माकपा की पूंजीपरस्त किसान विरोधी नीतियों का विरोध कर रहे थे। इसी दर्म्यान भाषा बंधन और महाश्वेता दी से संपर्क टूटता रहा क्योंकि बार बार आग्रह के बावजूद उन्होंने बंगाली अछूत शरणार्थियों की समस्याओं में कोई दिलचस्पी नहीं ली। ऩ भाषा बंधन में देशभर में छितराये हमारे लोगों के लिए कोई जगह थी। पर बाकी देश की तरह हम महाश्वेता दी को ही लेखक समाज की नेता मानते रहे और उन्हें साहित्य अकादमी अध्यक्ष बनाने के मुहिम में भी सक्रिय रहे। लेकिन ऐन लोकसभा चुनाव के वक्त महाश्वेता दी की अगुवाई में समूचे सुशील समाज के तृणमूल के जिताने की मुहिम में हम शामिल न हो सकें। लोकसभा चुनाव के बाद दीदी ने बुद्धजीवियों को पालतू बनाने का खेल शुरू किया ्पने रेल महकमे के जरिए । अनेक सम्मानित लोग रेलवे महकमे की विभिन्न समितियों के वेतनभोगी होकर रह गये। नन्दीग्राम आंदोलन के दौरान ही हमेने पुस्तकमेला, रवीन्द्र सदन , बांग्ला अकादमी और नंदन जाना बंद कर दिया था। अब वहां जजाने की दरकार ही नहीं होती।​​
​​
​बंगाल का सुशील समाज और बंगाल के पत्रकारों के पिट्ठू बनते जाने की रामकहानी यही है। पर बाकी देश के लेखक पत्रकारों को क्या हुआ बिहार प्रेस विधेयक तो बिहार का ही मामला था, लेकिन आंदलन तोधदेशभर में चला था। आज क्या हमारे लोग बाकी राज्यों में भी ममता दीदी का नूस्खा आजमाये जाने का इंतजार कर रहे हैं?


हुआ यह कि ​ममता सरकार ने राज्य के सरकारी मदद पाने वाले पुस्तकालयों को एक सर्कुलर भेजकर वहां मंगाये जाने वाले अखबारों की सूची ​​बना दी और सूची से बाहर के अखबार मंगाने पर मदद रोक देने का निर्देश जारी कर दिया। मालूम हो कि डा. जगन्नाथ मिश्रा ने कभी आर्यावर्त को सबक सीकाने के मकसद से बागी अखबारों को विक्ज्ञापन बंद करने की गरज से १९८३ में बिहार प्रेस विधेयक लाने का दुस्साहस किया था। तब इतना बवाल मचा कि मुख्यमंत्री और राज्यपाल की खबरों और सरकारी बयानों को लीड बनाने का रिवाज ही खत्म हो गया। भहरहाल बंगाल की सूचा में पुस्कालयों के पाठकों के लिए बंगाल का कोई बड़ा अखबार नहीं है। न आनन्द बाजार और न ही ममता को सत्ता में लाने में सबसे अहम भूमिका निभाने वाला वर्तमान। बंगाल के महज पांच सरकार समर्थ क अखबार इस सूची में हैं। ङिंदी से एकमात्र दैनिक सन्मार्ग। उर्दू से दो अखबार अखबार-ए- मशरीक और आजाद हिंद। मजे की बात तो यह है कि इस सूची में कोई अंग्रेजी अखबार शामिल नहीं है।जाहिर है कि बंगाल के पुस्तकालयों में अब सरकार के पिट्ठू अखबारों को ही लोग पढ़ने को बाध्य होंगे।पुस्तकालय अपनी मरजी से अब अखबार नहीं ले सकते हैं।अधिसूचना में कहा गया है कि ये अखबार विकास में महत्वपूर्ण योगदान है तथा पुस्तकालय में जानेवालों को ये स्वतंत्र सोच की ओर ले जाते हैं।14 मार्च को ही यह अधिसूचना जारी हुई थी.आठ से ज्यादा अखबार नहीं लेने का साफ़ निर्देश दिया गया है। बांग्ला के प्रतिदिन, सकाल बेला, एक दिन, खबर 365, दैनिक स्टेट्समैन, हिंदी में सन्मार्ग व उर्दू के आजाद हिंद व अखबार-ए- मशरीक शामिल हैं।  साथ ही यह साफ़ तौर पर कह दिया गया है कि इसके अलावा किसी अन्य अखबारों की खरीद पर सरकार एक भी रुपया खर्च नहीं करेगी। इन आठ अखबार की सूची अधिसूचना में दे दी गयी है.किसी अन्य अखबार की खरीद पर रोक लगा दी गयी है।

वाम शासनकाल में पुस्तकालयों में माकपा का मुखपत्र गणशक्ति रखना जरूर अनिवार्य था पर इसके लिए दूसरे अखबारों पर रोक नहीं थी। जब सारे के सारे अखबार और टीवी चैनल माकपा के खिलाफ हो गये, तब भी वाम शासकों ने ऐसा दुस्साहस करने की जुर्रत नहीं की।सरकारी सूची में जिस अखबार का नाम सबसे ऊपर है , वह है दैनिक प्रतिदिन जिसके सम्पादक और एसोसिएट संपादक दोनों तृणमूल कांग्रेस के राज्यसभा सांसद हैं। सन्मार्ग ौर अखबार-ए- मशरीक के संपादक भी पत्रकारों पर दीदी की खास कृपा के तहत इस बार राज्यसभा में पहुंच चुके हैं। सूची में शामिल बांग्ला ्खबार सकालबेला और उर्दू अखबार आजाद हिंद के सीईओ संयोग से प्रतिदिन के ही एसोससिएट संपादक ही हुए।

गौरतलब है कि इन्हीं तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने पिछले दिनों नई दिल्ली में मजीठिया वेतनबोर्ड की सिफारिशें लागू करने की पत्रकारों की मांग का पुरजोर समर्थन करते हुए कहा कि उनकी पार्टी के सांसद जल्द ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मुलाकात करके अखबारों और समाचार एजेंसियों के पत्रकार गैर पत्रकार कर्मचारियों की इस मांग को लागू कराने को कहेंगे। ममता नई दिल्ली में श्रम मंत्रालय के मुख्यालय श्रमशक्ति भवन पर पत्रकार एवं गैर पत्रकार कर्मिर्यों की एक सभा को संबोधित कर रही थीं।ये कर्मचारी कन्फेडरेशन आफ आल  इंडिया न्यूजपेपर्स एण्ड न्यूज एजेंसीज एम्पलाइज आर्गनाइजेशन्स के झंडे तले वेतन बोर्ड को लागू करने में आनाकानी के विरोध में प्रदर्शन कर रहे थे। ममता ने कहा कि तृणमूल के सदस्य इस मामले को संसद में भी उठाएंगे और वह दूसरी पार्टियों के नेताओं से भी कहेंगी कि वे इस मुद्दे पर अखबारी कर्मचारियों का समर्थन करें। जाहिर है कि दीदी ने ऐसा पत्रकारों को पटाने की कोशिश में किया होगा। वरना दिल्ली में पत्रकारों का समर्थन और कोलकाता में प्रेस पर अंकुश, ​​यह विरोधाभास समझ से परे है।

इस मुद्दे को लेकर बंगाल और बाकी देश का प्रेस अभी खामोश है,खामोश है बंगाल का बहुप्रचारित सुशील समाज भी। पर वामपंथी दलों ने विरोध करना शुरु कर दिया है। सरकार द्वारा कुछ चुनिंदा अखबार को राज्य के सरकारी अनुदान प्राप्त पुस्तकालयों में रखने के लिए जारी कई गई विज्ञप्ति को लेकर तृणमूल सहयोगी कांग्रेस ने सोमवार को विधानसभा में मुद्दा को उठाया और तत्काल इस विज्ञप्ति को वापस लेने की मांग की। सरकार में शामिल कांग्रेस के वरिष्ठ विधायक असीत मित्रा ने यह मुद्दा विधानसभा में उठाया और कहा कि सरकार का यह कदम अलोकतांत्रिक है। मित्रा ने कहा कि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी अक्सर कहती है कि मीडिया अपनी नीति के अनुसार काम करने के लिए स्वतंत्र है। उन्होंने मुख्यमंत्री से पुस्तकालयों के लिए अखबारों की खरीद में कटौती का निर्णय वापस लेने की मांग की।दूसरी ओर विपक्ष के नेता सूर्यकांत मिश्रा ने कहा कि इमरजेंसी के समय भी ऐसा नहीं देखा गया था। गणतंत्र की दुहाई देनेवाली सरकार ने हद कर दी है। यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है.इस फ़ैसले को सरकार को वापस लेना चाहिए। राज्य में पूरी तरह से तानाशाही चल रही है। मीडिया पर इस तरह से आक्रमण उचित नहीं माना जा सकता है।

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