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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Wednesday, March 28, 2012

आधुनिक राज्‍य के झूठे वादों की कहानी है पान सिंह तोमर

http://mohallalive.com/2012/03/28/paan-singh-tomar-is-the-story-of-false-promises-by-the-modern-state/

 आमुखसिनेमा

आधुनिक राज्‍य के झूठे वादों की कहानी है पान सिंह तोमर

28 MARCH 2012 2 COMMENTS

♦ मिहिर पंड्या

"हम तो एथलीट हते, धावक। इंटरनेशनल। अरे हमसे ऐसी का गलती है गयी, का गलती है गयी कि तैनें हमसे हमारो खेल को मैदान छीन लेओ। और ते लोगों ने हमारे हाथ में जे पकड़ा दी। अब हम भग रए चंबल का बीहड़ में। जा बात को जवाब को दैगो, जा बात को जवाब को दैगो?"


'पान सिंह तोमर' अपने दद्दा से जवाब मांग रहा है। इरफान खान की गुरु-गंभीर आवाज पूरे सिनेमा हाल में गूंज रही है। मैं उनकी बोलती आंखें पढ़ने की कोशिश करता हूं। लेकिन मुझे उनमें बदला नहीं दिखाई देता। नहीं, 'बदला' इस कहानी का मूल कथ्य नहीं। पीछे से उसकी टोली के और जवान आते हैं और अचानक विपक्षी सेनानायक की जीवनलीला समाप्त कर दी जाती है। पान सिंह को झटका लगता है। वो बुलंद आवाज में चीख रहा है, "हमारो जवाब पूरो न भयो।"

अचानक सिनेमा हाल की सार्वजनिकता गायब हो जाती है और पान सिंह की यह पुकार सीधे किसी फ्लैश की तरह आंखों के पोरों में आ गड़ती है। हां, इस कथा में 'दद्दा' मुख्य विलेन नहीं, गौण किरदार हैं। दरअसल यह कथा सीधे बीहड़ के किसान पान सिंह तोमर की भी नहीं, वह तो इस कथा को कहने का इंसानी जरिया बने हैं। यह कथा है उस महान संस्था की जिसके 'संगे-संगे' पान सिंह तोमर की कहानी शुरू होती है और अगले पैंतीस साल किसी समांतर कथा सी चलती है। भारतीय राज्य, नेहरूवियन आधुनिकता को धारण करने वाली वो एजेंसी जिसके सहारे आधुनिकता का यह वादा समुदायगत पहचानों को सर्वोपरि रखने वाले हिंदुस्तानी नागरिक के जीवन-जगत में पहुंचाया गया, यह उसके द्वारा दिखाये गये ध्वस्त सपनों की कथा है। उन मृगतृष्णाओं की कथा, जिनके भुलावे में आकर पान सिंह तोमर का, सफलताओं की गाथा बना शुरुआती जीवन हमेशा के लिए पल्टी खा जाता है।

यह अस्सी के दशक की शुरुआत है। गौर कीजिए, स्थानीय पत्रकार (सदा मुख्य सूचियों से बाहर रहे, गजब के अभिनेता ब्रिजेंद्र काला) पूछता है सूबेदार से, डकैत बने पान सिंह से, "बंदूक आपने पहली बार कब उठायी?" और पान सिंह का जवाब है, "अंगरेज भगे इस मुल्क से। बस उसके बाद। पंडित जी परधानमंत्री बन गये, और नवभारत के निर्माण के संगे-संगे हमओ भी निर्माण शुउ भओ।" गौर कीजिए, अपने पहले ही संवाद में पान सिंह इस आधुनिकता के पितामह का न सिर्फ नाम लेता है, उनके दिखाये स्वप्न 'नवभारत' के साथ अपनी गहरी समानता भी स्थापित करता है।

पश्चिमी आधुनिकता की नकल पर तैयार किया खास भारतीय आधुनिकता का मॉडल, जिसमें मिलावटी रसायन के तौर पर यहां की सामंती व्यवस्था चली आती है। यह अर्ध सामंती – अर्ध पूंजीवादी राष्ट्र-राज्य संस्था की कथा है, जिसकी बदलती तस्वीर 'पान सिंह तोमर' में हर चरण पर नजर आती है। मुख्य नायक खुद पान सिंह तोमर इसी पुरानी सामंती व्यवस्था से निकलकर आया है और आप उसके शुरुआती संवादों में समुदायगत पहचानों के लिए वफादारियां साफ पढ़ सकते हैं। अफसर द्वारा पूछे जाने पर कि क्या देश के लिए जान दे सकते हो, उसका जवाब है, "हां साब, ले भी सकते हैं। देस-जमीन तो हमारी मां होती है। मां पे कोई उंगली उठाये तो का फिर चुप बैठेंगे?" और यहीं उसके जवाबों में आप नवस्वतंत्र देश के नागरिकों की उन शुरुआती उलझनों को भी पढ़ सकते हैं, जो राज्य संस्था, उसके अधिकार क्षेत्र और उसकी भूमिका को ठीक से समझ पाने में अभी तक परेशानी महसूस कर रहे थे। पूछा जाता है पान सिंह से कि क्या वो सरकार में विश्वास रखता है, और उसका दो टूक जवाब है, "ना साब। सरकार तो चोर है। जेई वास्ते तो हम सरकार की नौकरी न कर फौज की नौकरी में आये हैं।"

स्पष्ट है कि पान सिंह के लिए राज्य द्वारा स्थापित किये जा रहे आधुनिकता के इस विचार की आहट नयी है। लेकिन यह विचार सुहावना भी है। अपने समय और समाज के किसी प्रतिनिधि उदाहरण की तरह वो जल्द ही इसकी गिरफ्त में आ जाता है। और इसी वजह से आप उसके विचारों और समझदारी में परिवर्तन देखते हैं। यह पान सिंह का सफर है, "हमारे यहां गाली के जवाब में गोली चल जाती है कोच सरजी" से शुरू होकर यह उस मुकाम तक जाता है, जहां गांव में विपक्ष से लेकर अपने पक्ष वाले भी उसका बंदूक न उठाने और बार-बार कार्यवाही के लिए पुलिस के पास भागे चले जाने का मजाक उड़ा रहे हैं। अपने-आप में यह पूरा बदलाव युगांतकारी है। और फिल्म के इस मुकाम तक यह उस नागरिक की कथा है, जो आया तो हिंदुस्तान के देहात की पुरातन सामंती व्यवस्था से निकलकर है, लेकिन जिसको आधुनिकता के विचार ने अपने मोहपाश में बांध लिया है। जिसका आधुनिक 'राज्य' की संस्था द्वारा अपने नागरिक से किये वादे में यकीन है। वह उससे उम्मीद करता है और व्यवस्था की स्थापना का हक सिर्फ उसे देता है।

विचारक आशीष नंदी भारतीय राष्ट्र-राज्य संस्था पर बात करते हुए लिखते हैं, "स्वाधीनता के पश्चात उभरे अभिजात्य वर्ग की राज्य संबंधी अवधारणा राजनीतिक रूप से 'विकसित' समाजों में प्रचलित अवधारणा से उधार ली गयी थी। चूंकि हमारा अभिजात्य वर्ग राज्य के इस विचार में निहित समस्याओं से अनभिज्ञ नहीं था, इसलिए उसने भारत की तथाकथित अभागी और आदम विविधताओं के साथ समझौता करके थोड़ा मिलावटी विचार विकसित किया।" यही वो मिलावटी विचार है, जहां आधुनिकता के संध्याकाल में वही पुराना सामंती ढांचा फिर से सर उठाता है और ठीक यहीं किसी गठबंधन के तहत राज्य अपने हाथ वापस खींच लेता है।

इसीलिए, फिल्म में सबसे निर्णायक क्षण वो है, जहां पान सिंह के बुलावे पर गांव आया कलेक्टर यह कहकर वापस लौट जाता है, "देखो, ये है चंबल का खून। अपने आप निपटो।" यह आधुनिकता द्वारा दिखाये उस सपने की मौत है, जिसके सहारे नवस्वतंत्र देश के नागरिक पुरातन व्यवस्था की गैर-बराबरियों के चंगुल से निकल जाने का मार्ग तलाश रहे थे। फिर आप राज्य की एक दूसरी महत्वपूर्ण संस्था 'पुलिस' को भी ठीक इसी तरह पीछे हटता पाते हैं। यहीं हिंदुस्तानी राष्ट्र-राज्य संस्था और उसके द्वारा निर्मित खास आधुनिकता के मॉडल का वो पेंच खुल कर सामने आता है, जिसके सहारे मध्यकालीन समाज की तमाम गैर-बराबरियां इस नवीन व्यवस्था में ठाठ से घुसी चली आती हैं। पहले यह सामाजिक वफादारियों को राज्य के प्रति वफादारी में बदलने के लिए स्थापित गैर-बराबरीपूर्ण व्यवस्थाओं का अपने फायदे में भरपूर इस्तेमाल करता है और इसीलिए बाद में उन्हें कभी नकार नहीं पाता। जाति जैसे सवाल इसमें प्रमुख हैं। नेहरूवियन आधुनिकता में मौजूद यह फांक ही जाति व्यवस्था को कहीं गहरे पुन:स्थापित करती है। पान सिंह की उम्मीद राज्य रूपी संस्था और उसके द्वारा किये आधुनिकता के वादे से सदा बनी रहती है। वह खुद बंदूक उठाता है लेकिन अपने बेटे को कभी उस रास्ते पर नहीं आने देता। वह दिल से चाहता है कि राज्य का यह आधुनिक सपना जिये। लेकिन राज्य उसके सामने कोई और विकल्प नहीं छोड़ता।

यह ऐतिहासिक रूप से भी सच्चाई के करीब है। अगर आप फिल्म में देखें, तो यह अस्सी के दशक तक कहानी का वो हिस्सा सुनाती है, जिसमें अगड़ी जाति के लोग जमीन पर कब्जे के लिए लड़ रहे हैं और राज्य संस्था इसे पारिवारिक अदावत घोषित कर इसे सुलझाने से अपने हाथ खींच लेती है। दरअसल आधुनिक राज्य संस्था ने स्थानीय स्तर पर उन सामंती शक्तियों से समझौता कर लिया था, जिनके खिलाफ उसे लड़ना चाहिए था। यह नवस्वतंत्र मुल्क में शासन स्थापित करने और अपनी वैधता स्थापित करने का एक आसान रास्ता था। ऐसे में जरूरत पड़ने पर भी वह उनकी गैरबराबरियों के खिलाफ कभी बोली नहीं। बंदूक उठाने वाले यहीं से पैदा होते हैं। वे आधुनिक राज्य द्वारा किये उन वादों के भग्नावशेषों पर खड़े हैं, जिनमें समता और समानता की स्थापना और समाज से तमाम गैर-बराबर पुरातन व्यवस्थाओं को खदेड़ दिये जाने की बातें थीं।

जय अर्जुन सिंह फिल्म पर अपने आलेख में इस बात का उल्लेख करते हैं कि फिल्म के अंत में आया नर्गिस की मौत की खबर वाला संदर्भ इसे कल्ट फिल्म 'मदर इंडिया' से जोड़ता है और यह उन नेहरूवियन आदर्शों की मौत है, जिनकी प्रतिनिधि फिल्म हिंदी सिनेमा इतिहास में 'मदर इंडिया' है। मुझे यहां उन्नीस सौ सड़सठ में आयी मनोज कुमार की 'उपकार' याद आती है। एक सेना का जवान जो किसान भी है, ठीक पान सिंह की तरह, और जिसकी सामुदायिक वफादारियां इस आधुनिक राष्ट्र राज्य के मिलावटी विचार के साथ एकाकार हो जाती हैं। तिग्मांशु धूलिया की 'पान सिंह तोमर' इस आदर्श राज्य व्यवस्था की स्थापना वाली भौड़ी 'उपकार' की पर्फेक्ट एंटी-थिसिस है। यहां भी एक सेना का जवान है, जो मूलत: किसान है, लेकिन आधुनिकता का महास्वप्न अब एक छलावा भर है। इस जवान-किसान की भी वफादारी में कोई कमी नहीं, उसने देश के लिए सोने के तमगे जीते हैं। लेकिन देखिए, वह पूछने पर मजबूर हो जाता है कि, "देश के लिए फालतू भागे हम?" अंत में वह व्यवस्था द्वारा बहिष्कृत समाज के हाशिये पर खड़ा है और उसके हाथ में बंदूक थमा दी गयी है। वह जवाब मांग रहा है कि उसके हाथ में थमायी गयी इस बंदूक के लिए जिम्मेदार कौन है, और कौन उन्हें सजा देगा?

गौर करने की बात है कि 'पान सिंह तोमर' में मारे जाने वाले गूर्जर हैं, जिनका स्थान सामाजिक पदक्रम में अगड़ी जातियों से नीचे आता है। और यह तीस-पैंतीस साल पुरानी बात है। आज यही गूर्जर राजस्थान में अपने हक की जायज-नाजायज मांग करते निरंतर आंदोलनरत हैं। और इस जाति व्यवस्था के आधुनिकता के बीच भी काम करने का सबसे अच्छा उदाहरण खुद फिल्म में ही देखा जा सकता है। वहां देखिए जहां इंस्पेक्टर (सदा सर्वोत्कृष्‍ट जाकिर हुसैन) गोपी के ससुराल मिलने आये हैं। यह सामाजिक पदक्रम में नीचे खड़ा परिवार है। पुलिसिया थानेदार का उद्देश्य पान सिंह तोमर के गिरोह की टोह लेना है और वह कहते हैं, "जात पात कछू न होत कक्का। इंसान-इंसान के काम आनो चहिए। और जिसके हाथ के खाए हुवे थे धरम भरष्ट हो जावे, ऐसे धरम को तो भरष्ट ही हो जानो चहिए।" वे पानी पीने को भी मंगाते हैं। गौर कीजिए कि तमाम सूचनाएं निकलवा लेने के बाद किस चालाकी से वह बिना उनके घर का पानी पिये ही निकल जाते हैं। यही दोहरे मुखौटे वाला आधुनिक भारतीय राज्य का असल चेहरा है।

जिला टोंक अपने देश में कहां है, ठीक-ठीक जानने के लिए शायद आप में से बहुत को आज भी नक्शे की जरूरत पड़े। और क्योंकि मैं उन्हीं के गृह जिले से आता हूं, इसलिए अच्छी तरह जानता हूं कि चंबल की ही एक सहायक नदी 'बनास' के सहारे बसा होने के बावजूद टोंक की स्थानीय बोली बीहड़ की भाषा से कितनी अलग है। और इसीलिए इरफान ने जिस खूबी से उस लहजे को अपनाया है, मेरे मन में उनके भीतर के कलाकार की इज्जत और बढ़ गयी है। जिस तरह वे पर्लियामेंट, मिलिट्री, स्पोर्ट्स जैसे खास शब्दों के उच्चारण में एकदम माफिक अक्षर पर विराम लेते हैं और ठीक जगह पर बलाघात देते हैं, भरतपुर-भिंड-मुरैना-ग्वालियर की समूची चंबल बैल्ट जैसे परदे पर जी उठती है। वे दौड़ते हैं और उनका दौड़ना घटना न रहकर जल्द ही किसी बिंब में बदल जाता है। बीहड़ में विपक्षी को पकड़ने के लिए भागते हुए जंगल में सामने आयी बाधा कैसे स्टीपलचेज धावक को उसका मासूम लड़कपन याद दिलाती है, देखिए।

इन तमाम विमर्श से अलग 'पान सिंह तोमर' कविता की हद को छूने वाली फिल्म है। पहली बार मैं सुनता हूं जब कोच सर कहते हैं, "ओये तू पाणी पर दौड़ेगा।" और समझ खुश होता हूं कि यह स्टीपलचेज जैसी दौड़ के लिए एक सुंदर मुहावरा है। लेकिन दूसरी बार सिनेमाहाल में फिल्म देखते हुए अचानक समझ आता है कि इस वाक्य के कितने गहरे निहितार्थ हैं। यह संवाद पान सिंह तोमर की पूरी जिंदगी की कहानी है। जिंदगी भर वो बीहड़ में चंबल के पानी पर ही तो दौड़ता रहा। संदीप चौटा का पार्श्वसंगीत फिल्म को विहंगम भाव प्रदान करता है और बेदाग सिनेमैटोग्राफी महाकाव्य सी ऊंचाई। तिग्मांशु की अन्य फिल्मों की तरह ही यहां भी संवाद फिल्म की जान हैं, लेकिन सबसे विस्मयकारी वे दृश्य हैं, जहां इरफान बिना किसी संवाद वो कह देते हैं, जिसे शब्दों में कहना संभव नहीं। मेरा पसंदीदा दृश्य फिल्म के बाद के हिस्से में आया वो शॉट है, जहां सेना के कंटोनमेंट एरिया में अपने जवान हो चुके बेटे से मिलने आये अधेड़ पान सिंह पीछे से अपने वर्दी पहने बेटे को जाता हुआ देख रहे हैं। आप सिर्फ उन आंखों को देखने भर के लिए यह फिल्म देखने जाएं। ऐसा विस्मयकारी दृश्य लोकप्रिय हिंदी सिनेमा के लिए दुर्लभ है।

'पान सिंह तोमर' जैसी फिल्में हिंदी सिनेमा में दुर्लभ हैं और मुश्किल से नसीब होती हैं। हम इस राष्ट्र की किसी एक उपकथा के माध्यम से इस बिखरी तस्वीर के सिरे आपस में जोड़ पाते हैं। 'पान सिंह तोमर' वह उपकथा है, जिसमें आधुनिक राज्य अपना किया वादा पूरा नहीं करता और निर्णायक क्षण में अपने हाथ वापस खींच लेता है। एक सामान्य नागरिक बंदूक उठाने के लिए इसलिए मजबूर होता है क्योंकि उसके लिए दो ही विकल्प छोड़े गये हैं, पहला कि बंदूक उठाओ या फिर दूसरा कि मारे जाओ। मरना दोनों विकल्पों में बदा है। वर्तमान में इसी राज्य द्वारा पोषित कथित 'विकास' के अश्वमेधी घोड़े के रथचक्र में पिस रहे असहाय नागरिक द्वारा विरोध में उठाये जाते विद्रोह के झंडे को भी इसी संदर्भ में पढ़ने की कोशिश करें। देखें कि आखिर उसके लिए हमारी राज्य व्यवस्था ने कौन से विकल्प छोड़े हैं? और यह भी कि अगर निर्वाह के लिए वही विकल्प आपके या मेरे सामने होते तो हमारा चयन क्या होता?

mihir pandya(मिहिर पंड्या। दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय में रिसर्च फेलो। हिंदी सिनेमा में शहर दिल्‍ली की बदलती संरचना पर एमफिल। आवारा हूं नाम से मशहूर ब्‍लॉग। कथादेश के नियमित स्‍तंभकार। उनसे miyaamihir@gmail.com पर संपर्क करें।)

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