शकील सिद्दीकी
सआदत हसन मंटो पर विद्यार्थी चटर्जी का लेख पढ़ा। अहमद राही का खयाल सही नहीं है कि ''मंटो की मौत उसी दिन शुरू हो गई जिस दिन उन्होंने पाकिस्तान की धरती पर कदम रखा।'' जबकि उनकी मौत उस क्षण आरंभ हो गई थी जिस क्षण उन्होंने पहली बार शराब पी थी। बहुत उम्दा सिगरेट और शराब के शौकीन होने के बावजूद शुरुआती दिनों में वह देसी तक पी जाते थे, बाद में भी पी जाते हों तो क्या भरोसा।
एक तरफ शराब दूसरी तरफ फाका मस्ती, दोनों ने मिलकर उन्हें खोखला किया था। शराब, जुआ, आवारागर्दी तथा स्कूल न जाना, बेतहाशा फिल्में देखना, कुछ उनका लाउबालीपन व आजादमर्दी वाले स्वभाव के कारण पारिवारिक हालात में छिपे हुए थे। जिस असंयमित तरीके से वह शराब पी रहे थे, अगर वह भारत में रहते तब भी उनका यही हश्र होता। भुवनेश्वर, दुष्यंत कुमार, मजाज, अदम गोंडवी, ये सब तो भारत में रहते थे, फिर उनकी मंटो जैसी ही मौत क्यों हुई?
इसी प्रकार मंटो और रूश्दी को साथ रखना भी तर्कसंगत नहीं है। मंटो ने मजहब के बारे में अपने दृष्टिकोण के लिए अधिक दृढ़ता व साहस का परिचय दिया है। इस दृष्टिकोण की पृष्ठभूमि में सामाजिक सरोकार की निश्चित उपस्थिति है, जबकि रूश्दी के साथ ऐसा नहीं है। उनके लक्ष्य व्यावसायिक अधिक हैं। मंटो को अपने इस नजरिये के कारण कोई ऐसी कीमत भी नहीं चुकानी पड़ी। उन्हें अधिक प्रताडऩा अश्लीलता की समझ न रखने वाले विद्वानों, संपादकों तथा सरकारी न्याय के जिम्मेदार लोगों के कारण बर्दाश्त करनी पड़ी। उन पर ज्यादा मुकदमे विभाजन पूर्व चले। समझना चाहिए कि वह केवल सेक्स, मजहब और हिंसा, जिसमें सब तरह के शोषण भी शामिल हैं, के बीच क्रूर रिश्तों को बेपर्दा ही नहीं करते बल्कि सामाजिक सड़ांध पैदा करने वाली बुराई को देखने की दृष्टि भी देते हैं। बावजूद इसके पाकिस्तान की सरकार ने उन पर धर्मविरोधी या उसके आलोचक होने के कारण नहीं, बल्कि कम्युनिस्ट होने के आरोप में प्रतिबंध लगाया था। यद्यपि उन्हें श्रद्धांजलि स्वरूप वहां के रेडियो से आधे घंटे का कार्यक्रम प्रसारित हुआ तथा उनकी 50 वीं पुण्यतिथि के अवसर पर डाक टिकट भी जारी हुआ। तथ्य यह भी है कि बदनामी के बावजूद पाकिस्तानी साहित्यिक क्षेत्र में व सामान्य पाठकों में भी उनकी रचनाओं, विशेष रूप से कहानियों की मांग बराबर बनी रही। क्या कारण था कि संपादक व प्रकाशक उनको कहानियों के एवज में अग्रिम पारिश्रमिक देने को तैयार रहते थे और क्या कारण था कि उनके निधन का समाचार सुनकर अनेक प्रकाशकों ने अपने शटर गिरा दिए थे, और क्या वजह थी कि लाहौर में वह रात-बिरात अकेले घूमते रह सकते थे? वह नशे में होते थे या बोतल उनके हाथ में या जेब में होती थी? तांगेवाले उनके इंतजार में रहते थे।
उनके अकेलेपन को समझने के लिए उनके व्यक्तित्व के भीतर उतरना होगा। उनमें खिलंदड़ापन तो था ही, गहरी आत्म-मुग्धता भी थी जो अहंकार की हद को छू गई थी। आत्महनन की प्रवृत्ति के कुछ तत्त्व भी उनमें थे, बावजूद इसके अपनी आलोचना को वह पसंद नहीं कर पाते थे। अपनी प्रशंसा सुनना उनकी कमजोरी बन गई थी। अपने बारे में लगातार बोलने तथा उधार मांगने की आदत के कारण उनके मित्र-परिचित उनसे दूर होने लगे थे। उन्हें उधार देने का मतलब था, उन्हें मौत के करीब भेजना। व्यक्तिवादी रुझान अर्थात अपने को अलग दिखाने की लालसा के कारण भी वह व्यक्तियों व संगठनों से दूर हुए। वरना एक समय में वह बाकायदा प्रगतिशील लेखक संघ के साथ थे। मुकदमों के समय अनेक प्रगतिशीलों, कम्युनिस्टों ने उनका साथ दिया जिनमें फैज भी शामिल हैं। उनके लेखकीय व्यक्तित्व के निर्माण में वामपंथ व वामपंथियों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है, जिसका उन्होंने स्वयं कामरेड बारी से संबंधित मूल्यवान संस्मरण में उल्लेख किया है। अत: यह कहना भी तर्कसंगत नहीं है कि राजनीतिक विचारधाराओं के प्रति उनमें जन्मजात अविश्वास था। उन्होंने न केवल मार्क्स, गोर्की व रूसी क्रांति पर लेख लिखे, बल्कि भारत में भी रूसी तर्ज के इंकलाब का समर्थन किया। वह समूची चेतना से पूंजीवाद व साम्राज्यवाद, दमन, असमानता व शोषण के विरोधी थे। यही कारण है कि उनकी कहानियों के अधिकांश पात्र दबे-कुचले वर्गों से आए हैं। उन्होंने तवायफों की नहीं बहुत छोटी रकम में जिस्म बेचने पर मजबूर स्त्री की दारुण अवस्था का भी संवेदनात्मक चित्रण किया है। जीवन के प्रति उनका प्रखर वैज्ञानिक दृष्टिकोण जिसने उन्हें अतिरिक्त विशिष्टता तथा अच्छे-बुरे की समझ प्रदान की। उनके जवानी के दिनों के कम्युनिस्ट मित्रों तथा योरोपीय देशों के परिवर्तन की चेतना संचारित करने वाले साहित्य की ही देन है, जिसका उन्होंने विषद अध्ययन किया था। साथ ही ऐसे साहित्य पर केंद्रित एक पत्रिका के विशेषांक का संपादन भी किया। धार्मिक- सामाजिक पाखंड, मानवीय विभेद, तमाम तरह की अवैज्ञानिकताओं तथा स्त्री अवमानना के विरुद्ध उनके विवेक की प्रखरता यहीं से आई थी।
उनके नितांत मौलिक होने के दावे की सच्चाई भी इसी प्रकाश में देखी जानी चाहिए। उनकी शुरुआती दौर की कहानियां तो फ्रेंच व रूसी कथा साहित्य से गहरे तक प्रभावित हैं, बाद में भी इस प्रभाव की छवियां देखी जा सकती हैं। बहरहाल वह अपनी तरह के अद्वितीय लेखक थे, केवल कथाकार नहीं, उन्होंने समाज के हर उस जख्म की तरफ ध्यान खींचा है, जिसे उभारना आवश्यक था। उनमें बड़े से बड़े आदमी का उपहास उड़ाने का साहस था। वह अपना उपहास भी उड़ा सकते थे, बल्कि उड़ाया भी था। जैसा तीखा प्रतिरोधात्मक व्यंग्य उन्होंने देश के गैर सैद्धांतिक विभाजन तथा 'चचा सैम' के साम्राज्यवादी मंसूबों के खिलाफ किया, वह अपनी मिसाल आप हैं। उन्होंने प्रचलित यथार्थवाद का निषेध अवश्य किया परंतु उसकी जद से पूरी तरह आजाद नहीं हो पाये।
फ़ोटो : स्रोत
No comments:
Post a Comment