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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Wednesday, May 1, 2013

वैश्विक पैमाने पर गहरा होता जा रहा है पूँजीवाद का संकट

वैश्विक पैमाने पर गहरा होता जा रहा है पूँजीवाद का संकट

साथियो,

127 वर्ष पहले सन् 1886 में एक मई के ही दिन अमेरिका के शिकागो शहर के मजदूरों ने उत्पीड़न और शोषण के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूँक दिया था और एकजुट होकर व्यापक हड़ताल कर दी थी। इस विद्रोह को अमेरिका के सत्ताधारियों ने बन्दूक और गोली के दम पर कुचल दिया लेकिन उसकी आवाज को वे दबा नहीं सके और अन्तत: उन्हें अपने कदम पीछे हटाने पड़े। पहले उस देश में और बाद में पूरी दुनिया में उन्हें आठ घण्टे के कार्य दिवस को मान्यता देनी पड़ी। इतिहास का यह रक्तरंजित पन्ना मजदूर वर्ग के उस शानदार संघर्ष एवं उसकी उपलब्धियों के याद दिलाता है और मई दिवस या अन्तर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस के रूप में दुनिया भर के मजदूर वर्ग की एकजुटता और उसके लिये संकल्प को दुहराने का दिन बना हुआ है।

इस संघर्ष के एक सदी से भी ज्यादा गुजर जाने के बाद इतिहास आज खुद को दुहराने की तैयारी में है। आज मजदूर वर्ग की स्थिति औद्योगिक क्रान्ति के बीते जमाने जैसी हो गयी है और हालात गुलामी से भी बदतर हो गये हैं। अब न तो काम के घण्टे तय रहे और न हीमजदूरी के मोलभाव का अधिकाररहा। पेनशन, भविष्यनिधि और सुरक्षा जैसे बुनियादी अधिकार तक छिन गये। यहाँ तक कि यूनियन बनाने तक का अधिकार भी जाता रहा। मजदूरी अब नाममात्र की रह गयी है और उस पर भी पूँजीपतियों की बनावटी महँगाई ने सेंध लगा दी है । तीन-तीन चार-चार हजार में बहुलांश मजदूर फैक्ट्रियों व कल कारखानों में दिनों-रात खट रहे हैं और किसी तरह अपना गुजारा कर रहे हैं। उनकी सुनवाई कहीं नहीं है क्योंकि वे एकजुट नहीं हैं। मजदूर एक ऐसी स्थिति में खड़े हैं जहाँ उन्हें अपने संघर्ष की शुरुआत एकदम नये सिरे से और नये तौर-तरीकों से करनी है ।

पिछली सदी में मजदूरों ने अनगिनत कुर्बानियों से जो कुछ हासिल किया थाधीरे-धीरे वह सभी कुछ छिनता जा रहा है। जिस आठ घण्टे काम की माँग के लिये मजदूरों ने कुर्बानी दी वह तक छिन चुका है और 12 घण्टे काम एक आम बात हो गयी है। हमारे देश में आठ घण्टे के कार्य दिवस का कानून हो या दूसरे ऐसे अधिकार हों,  मसलन, यूनियन बनाने का अधिकार, न्यूनतम मजदूरी का कानून, काम के अतिरिक्त घण्टों के लिये विशेष दरों पर ओरव टाइम भत्ते का अधिकार, परिवारजनों के शिक्षा और इलाज का अधिकार, सेवा निवृति के बाद की सुविधाएँ आदि, इन सभी को मजदूरों ने अपनी एकता, संघर्ष और कुर्बानियों के बल पर हासिल किया था। अब ये सारे अधिकार पूँजीवाद की सर्वग्रासी हवस की भेंट चढ़ चुके हैं। इसीलिये तमाम देशों में पूँजी के जुए के नीचे पिस रही जनता सड़कों पर उतर रही है और पूरी दुनिया में मजदूर आन्दोलनों की झड़ी सी लग गयी है। अपना देश भी इससे अछूता नहीं है। पिछली शताब्दी के उत्तरार्द्ध में आया ठहराव अब खत्म होने की कगार पर है और एकता की ताकत ने फिर से करवट लेनी शुरू कर दी है। भारत के मजदूर वर्ग का समय-समय पर फूट पडऩे वाला गुस्सा इस बात का सबूत है कि वह फिर से उठ खड़े होने की कोशिश में हैं।

May Day 2013 , मई दिवस पर श्रमजीवी पहल का  कार्यक्रमतमाम केन्द्रीय यूनियनों के अह्वान पर विगत फरवरी में आयोजित दो दिवसीय देशव्यापी हड़ताल भले ही रस्मी रही हो लेकिन वह जिस स्तर पर सफल रही उसने एक तरफ तो भारतीय पूँजीपतियों के माथे पर शिकन ला दियावहीं दूसरी ओर मजदूर वर्ग के हौसले को बढ़ाया है। हड़ताल के दौरान नोएडा और दिल्ली एनसीआर के कुछ अन्य इलाकों में मजदूरों का गुस्सा फूट पड़ा और प्रशासन को उनके दमन का रास्ता अख्तियार करना पड़ा। गुडग़ाँव में मारुति सुजुकी के मजदूरों ने एक ऐसी माँग के लिये लम्बे समय तक बहादुराना संघर्ष चलाया जो हमारे संविधान के मुताबिक एक मौलिक अधिकार है, यानी, यूनियन बनाने का अधिकार। और यह माँग केवल उनकी ही नहीं है, बल्कि आज भारत की सम्पूर्ण मजदूर आबादी के एक बड़े हिस्से की माँग है। सम्भवत: इसीलिये मारुति सुजुकी के मजदूरों के संघर्ष को तोड़ने के लिये लगभग समूचे भारतीय पूँजीपति वर्ग और सत्ताधारियों ने कन्धे से कन्धा मिलाकर काम किया। भले ही यह आन्दोलन बेनतीजा रहा हो लेकिन इसने भविष्य के मजदूर आन्दोलनों की एक झलक जरूर दिखा दी है। मजदूर वर्ग की कसमसाहटों की ये कुछ बानगी भर हैं।

मई दिवस पर एक स्थानीय कार्यक्रमहाल ही में दिल्ली में हुये अनेक विरोध प्रदर्शनों ने भी जनता की बेचैनी को सतह पर ला दिया है। भ्रष्टाचार और महँगाई से त्रस्त आवाम में अब सड़कों पर उतरने की हिचक जाती रही। देश के न्यायप्रिय नौजवान अन्याय के खिलाफ संघर्ष में अग्रिम पंक्ति में खड़े नजर आ रहे हैं। महँगाई और भ्रष्टाचार ने जनता की नज़रों में इस बात का पर्दाफाश कर दिया है कि देश की सत्ता की लगाम असल में देशी-विदेशी पूँजीपतियों के हाथ में है। इन्ही पूँजीपतियों के इशारे पर 1990 में शुरू हुई आर्थिक नीतियों ने श्रम कानूनों को कूड़ेदान में डाल दिया ताकि मजदूरों से अमानवीय श्रम करवा कर अधिकाधिक मुनाफा निचोड़ा जा सके, किसानों की उपजाऊ जमीनों के धड़ाधड़ अधिग्रहण का रास्ता खोल उन्हें अपनी जगह-जमीन से बेदखल कर दिया और जंगलों के खजाने पर कब्जा करने को कानूनी जामा पहनाकर आदिवासियों को बेघर-बार कर दिया। यह घनघोर अन्याय देश की आवाम के लिये दिन के उजाले की तरह साफ है। इसमें रत्ती भर भी संदेह नहीं कि, अगर किसी में इस अन्याय से लड़ सकने और आवाम को मुक्ति दिला सकने की क्षमता है तो वह मजदूर वर्ग की एकजुट ताकत में है।

मजदूर वर्ग के फिर से उठ खड़े होने और न्याय के लिये संघर्ष की परिस्थितियाँ आज दुनिया के पैमाने पर तैयार हो रही हैं।पूँजीवाद का असमाधेय संकट वैश्विक पैमाने पर गहरा होता जा रहा है। पश्चिम के पूँजीवादी देशों में भयावह आर्थिक संकट के कारण मजदूर आन्दोलनों का ताँता लगा हुआ है। स्पेन, पुर्तगाल, यूनान, साइप्रस समेत यूरोप के तमाम देश दिवालिया हो चुके हैं या होने की कगार पर हैं और वहाँ पेनशन और भविष्यनिधि के रूप में आवाम की बचत को हड़प कर जाने के खिलाफ सशक्त आन्दोलन चल रहा है। अमेरिका तक में जनता सड़कों पर उतर कर पूँजीवाद के खिलाफ अपने आक्रोश का इजहार कर रही है। दशकों से सत्ता पर काबिज तानाशाह को मिस्र की जनता ने उखाड़ फेंका और पूरे अरब जगत को जाग्रत कर दिया। बांग्लादेश के मजदूरों की हड़ताल की खबरों की स्याही अभी सूखी नहीं है और वहाँ आन्दोलन का सिलसिला बदस्तूर जारी है। वैश्विक परिदृश्य पर ये सारी स्थितियाँ इस ओर इशारा कर रही हैं कि इतिहास करवट ले रहा है। गैरजरूरी अधिकाधिक उत्पादन, उपभोग और मुनाफे की संस्कृति ने पूँजीवाद को एक ऐसे दलदल में फँसा दिया है जहाँ मजदूर वर्ग का एक धक्का उसे रसातल में पहुँचा सकता है।

पिछली शताब्दी में मजदूर वर्ग ने दुनिया के कई मुल्कों में अपना राज स्थापित किया और न्याय, बराबरी और तरक्की के अभूपूर्व कीर्तिमान स्थापित किए। लेकिन कुछ बाहरी वजहों और कुछ अन्दरूनी कमजोरियों के चलते उन देशों मजदूर वर्ग का शासन जारी नहीं रह सका। हालाँकि आज अतीत की इन गलतियों, कमियों और कमजोरियों का भार मजदूर वर्ग के कन्धों पर है लेकिन ऐसी अनुकूल परिस्थिति आ रही है जिनमें मजदूर वर्ग को खुद को और पूरी मानवता को पूँजी के जुए से मुक्त करने के ऐतिहासिक कार्यभार को पूरा करने के लिये एक बार फिर आगे आना होगा। इसके लिये अपनी एकजुटता कायम करनी होगी और किसानों, नौजवानों और देश की आवाम को एकजुट करना होगा। जाति और धर्म की बन्दिशों से निकल मजदूर वर्ग की सच्ची एकता स्थापित करनी होगी। यह काम आसान नहीं है लेकिन उतना मुश्किल भी नहीं जितना दिखाई देता है। शेर उतना ही खतरनाक होता है जितना दिलोदिमाग में उसकी दहशत पैठी रहती है। और फिर यह शेर तो कागजी है और इसका खौफ हमें अपने दिमागों से निकालना होगा। हमें अपनी एकता को सुदृढ़ करने के लिये कमर कस कर जी जान से जुट जाना होगा।

यह इतिहास का बहुत ही उथल-पुथल का दौर है। देश और दुनिया में अन्याय अत्याचार के खिलाफ लोगों में गुस्सा बढ़ता जा रहा है। पूँजीवाद अपनी ही बनाई खंदक में गिर कर पस्त है और खुद की मुश्किलों से पार पाने के लिये लाखों लोगों की ज़िन्दगी को गर्क कर रहा है। अन्याय और अत्याचार की पूँजीवादी दुनिया का खत्मा ही करोड़ों आवाम की ज़िन्दगी की शर्त बन चुका है। मई दिवस के अवसर पर हमें अपने अतीत के संघर्षों की विरासत की याद को ताजा करना होगा। हम जहाँ और जितने भी हैं, हमें वहीं और उतने से ही शुरुआत करनी होगी। एक नई दुनिया बनाने के लिये पूँजी के गुलामी के जुए को उखाड़ फेंकने का संकल्प हमें दुहराना होगा। साथियों, आईये मिल बैठकर इस पर विचार करें कि एक नई पहल कैसे की जाये। बिल्कुल शुरू से और एकदम ताजा।

क्रान्तिकारी अभिवादन के साथ,

श्रमजीवी पहल

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