जसम फिर अज्ञेय-भक्तों के हवाले!
Author: समयांतर डैस्क Edition : February 2013
महमूद अंसारी
अज्ञेय को चाहे कितना भी दक्षिणपंथी, वामपंथ-विरोधी और व्यक्तिपरक चिंतन का पुरोधा साहित्यकार क्यों न कहा जाए, वह वामपंथी कहे जाने वाले सांस्कृतिक संगठन जन संस्कृति मंच (जसम) के लिए प्रकाश पुंज बने हुए हैं। तभी तो जसम को फिर अज्ञेय-भक्तों के हवाले कर दिया गया है, जबकि उम्मीद जतायी जा रही थी कि इस बार इन्हें हटा दिया जाएगा। जसम के तेरहवें राष्ट्रीय सम्मेलन (गोरखपुर, 3-4 नवंबर 2012) का सारतत्व यही है।
उत्साहहीनता, विचारहीनता और दृष्टिहीनता से भरपूर इस सम्मेलन में किसी भी तरह की वैचारिक व सांगठनिक बहस और असहमति की आवाज को सामने नहीं आने दिया गया। यहां तक कि जसम की दिल्ली इकाई की सचिव भाषा सिंह ने सम्मेलन से कुछ पहले संगठन के केंद्रीय नेतृत्व पर गंभीर आरोप लगाते हुए जो पत्र जसम के अध्यक्ष व महासचिव को लिखा था—जिसमें परस्पर स्वार्थ-आधारित चौकड़ी बना कर काम करने, लैंगिक संवेदनहीनता और यौन भेदभावमूलक व्यवहार के आरोप शामिल हैं—उस पर भी इस सम्मेलन में बहस नहीं होने दी गई।
सम्मेलन में पदाधिकारियों का चुनाव रस्म अदायगी से ज्यादा कुछ न था। सारी चीजें पहले से चलाए गए जोड़-तोड़ के आधार पर तय कर ली गई थीं। अज्ञेय के पुराने चेले प्रणयकृष्ण को जसम का महासचिव फिर चुन लिया गया। उन्हें इस पद पर बने हुए छह साल हो गए हैं। अज्ञेय के अपेक्षाकृत नए चेले मैनेजर पांडेय को—उन्होंने मार्च 2011 में अज्ञेय-पंथ का बपतिस्मा लिया—भी जसम का अध्यक्ष पुन: चुन लिया गया। वह बारह साल से इस पद पर काबिज हैं। जसम का जो मौजूदा हाल-हवाल है, उसमें जैसे एक ही अध्यक्ष काफी न था, इसलिए इस बार दो कार्यवाहक अध्यक्ष भी बनाए गए हैं—रविभूषण और राजेंद्र कुमार। कायदे से जसम के अब तीन अध्यक्ष हैं और वह एक साथ तीन घोड़ों पर सवार है! प्रगतिशील सांस्कृतिक आंदोलन के इतिहास में ऐसा शायद पहली बार हुआ है, जब किसी संगठन के तीन अध्यक्ष बनाए गए हैं। रविभूषण की खासियत यह है कि वह आलोचक रामविलास शर्मा से आगे नहीं देख पाते—वह जड़ता की हद तक रामविलास शर्मा के अंधभक्त हैं। और राजेंद्र कुमार इसी बात से खुश हैं कि उन्हें प्रणयकृष्ण की बदौलत जसम की (कार्यवाहक) अध्यक्षी मिली—क्योंकि राजेंद्र कुमार ने अज्ञेय के मूल्यांकन को लेकर कभी सवाल नहीं उठाया।
ध्यान देने की बात है कि जसम में दोनों महत्त्वपूर्ण पदों—अध्यक्ष और महासचिव—पर हिंदी आलोचकों और अध्यापकों का कब्जा है। आलोचक प्रणयकृष्ण, जो जसम के महासचिव हैं, इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हिंदी पढ़ाते हैं। यह बात और है कि अक्सर दिल्ली में नजर आते हैं। आलोचक मैनेजर पांडेय, आलोचक रविभूषण और आलोचक राजेंद्र कुमारक्रमश: जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (दिल्ली), रांची विश्वविद्यालय और इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हिंदी पढ़ा-पढ़ा कर रिटायर हो चुके हैं। आलोचकों की यह चौकड़ी साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में सृजनशीलता और कल्पनाशीलता को कितना बढ़ावा देगी, यह सवाल बना हुआ है।
वैसे भी, किसी जमाने में गतिशील व जीवंत रहे जसम में अब किसी भी क्षेत्र में नया सृजन व बहस लगभग बंद है। लेखकों, कवियों व अन्य रचनाकारों को एक किनारे कर दिया गया है। वे सिर्फ तालियां बजाने के लिए हैं। नई व कल्पनाशील रचनाशीलता के लिए न तो बढ़ावा है, न माहौल। एक सांस्कृतिक और साहित्यिक संगठन के अंदर जो जीवंतता, उन्मुक्तता, जिंदादिली, दोस्ताना व स्नेहिल माहौल, कुछ नया रचने-करने की स्वतंत्रता और आजादी का अहसास होना चाहिए, वह जसम में सिरे से नदारद है। संगठन के अंदर लोकतंत्र का इस कदर अभाव है कि लोग फुसफुसाहटों और संकेतों में बात करते हैं। खुलकर बोलने पर भौंहे चढ़ जाती हैं। इस पर नेतृत्वकारी निकाय में न तो चिंता नजर आती है, न इस स्थिति को बदलने की कोशिश दिखाई देती है। जैसे मठ या आश्रम पर कब्जा जमा लिया जाता है, कुछ वही हालत जसम की हो गई है। अगर कुछ है, तो वह है, लंबा-लंबा एकालाप (मोनोलॉग)। रिटायर हुआ टीचर कुछ ज्यादा ही बोलता रहता है—जो लोग मैनेजर पांडेय को संगठन की बैठकों व आयोजनों में झेल चुके होंगे, वे इस बात की तस्दीक कर सकते हैं। वही-वही उबाऊ, लंबे, निरर्थक, घिसे-पिटे भाषण। वही तुलसीदास और रामचंद्र शुक्ल की हाय-हाय! वही मौके को ताड़कर, हवा का रूख पहचान कर, बोलने की कला!
जसम पिछले कुछ समय से सिर्फ तीन कामों को अंजाम दे रहा है: शव साधना, नाच-गाना-बाजा, और घुमंतू सिनेमा (टूरिंग टाकीज)। ये ऐसे काम हैं, जहां प्रतिभा और मेहनत और कुछ नया करने-रचने का जज्बा व कल्पनाशीलता की जरूरत नहीं है। पहले से बनी-बनाई चीजें हैं, उन्हें बस कुछ तरतीब से सजा कर पेश कर देना है। खासकर नाच-गाना-बाजा और घूमंतू सिनेमा का शोर इतना ज्यादा है कि वही जैसे जसम के पर्याय बन गए हैं। जसम का मतलब: सिनेमा देखो! जसम का मतलब: नाच-गाना-बाजा देखो-सुनो! जो वे पेश करें, उसे सराहो! (एक काम जसम ने जरूर अच्छा किया है: हिंदी के कुछ जरूरतमंद/बीमार लेखकों की आर्थिक मदद करना। लेकिन यह किसी साहित्यिक संगठन का मुख्य काम नहीं हो सकता।)
शव साधना का हाल देखना हो, तो जुलाई 2012 में जसम ने दिल्ली में आलोचक रामविलास शर्मा की जो जन्म शताब्दी मनाई थी, उसे याद करिए। सारे प्रमुख वक्ता आलोचक-अध्यापक थे—सब-के-सब सवर्ण हिंदू!—एक भी मुसलमान नहीं, एक भी दलित नहीं, एक भी औरत नहीं! मैनेजर पांडेय व रविभूषण-समेत सभी प्रमुख वक्ता रामविलास शर्मा के गंभीर वैचारिक अंतर्विरोधों, मार्क्सवाद के बारे में उनकी समझ, इतिहास के बारे में उनके गलत (और कई बार हिंदुत्ववादी) दृष्टिकोण, और प्रगतिशील साहित्यिक आंदोलन में उनकी विध्वंसकारी भूमिका को नजरअंदाज करते हुए सामंती अंधश्रद्धा के साथ उनकी लाश पर आंसू बहा रहे थे और फूलमाला चढ़ा रहे थे। मैनेजर पांडेय जब रामविलास शर्मा का महिमामंडन कर रहे थे, तब क्या उन्हें 26 साल पहले लिखे अपने लेख 'प्रगतिवाद का इतिहास या कोई इतिहास कैसे न लिखें' की याद आई, जो आलोचना (सं.: नामवर सिंह) के अप्रैल-जून 1986 अंक में छपा था? इस लेख में, जिसे उन्होंने अपने किसी लेख संग्रह में शामिल नहीं किया है, मैनेजर पांडेय ने रामविलास शर्मा की जमकर लानत-मलामत की है और उनकी राजनीतिक-वैचारिक-साहित्यिक समझ को अवसरवाद, संकीर्णतावाद, विसर्जनवाद व आत्मप्रशंसावाद से जोड़ा है। इस लेख में मैनेजर पांडेय ने रामविलास शर्मा पर वैचारिक पाला बदलने का गंभीर आरोप लगाया है। लेकिन पाला बदलने में मैनेजर पांडेय भी माहिर हैं—पहले उन्होंने अज्ञेय के बारे में पाला बदला, अब रामविलास शर्मा के बारे में। और यह गुर उन्होंने अपने गुरु से सीखा लगता है।

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