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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Sunday, April 29, 2012

अपने रचे हुए को अपने भीतर जीते भी थे विद्यासागर नौटियाल

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अपने रचे हुए को अपने भीतर जीते भी थे विद्यासागर नौटियाल

अपने रचे हुए को अपने भीतर जीते भी थे विद्यासागर नौटियाल

By  | April 29, 2012 at 10:03 am | No comments | संस्मरण | Tags: ,

गोविंद पंत 'राजू'

विद्यासागर नौटियाल का जाना भारतीय साहित्य की एक बड़ी क्षति तो है ही, राजनीति में भी मूल्यों और सिद्धान्तों के एक बड़े स्तम्भ का ढह जाना है। उनका व्यक्तित्व बेहद सहज और प्रेमिल था और उनके न होने से देहरादून में अनेक महत्वपूर्ण गतिविधियों और आयोजनों में उनकी कमी सभी जागरूक लोगों को बहुत सालती रहेगी। उनके होने से बहुत सारे लोगों को ऊर्जा मिलती थी।

उनके व्यक्तित्व के अनेक पहलू थे। एक आक्रामक युवा क्रान्तिकारी, एक जनपक्षधर राजनेता, एक समर्पित कार्यकर्ता, लोगों के दिलों तक पहुँचने का प्रयास करने वाला विधायक, एक बेहद आत्मीय बुजुर्ग, एक अप्रतिम लेखक और एक विशिष्ट इतिहासकार।

एक दौर  में उनके विचारों से टिहरी की राजशाही काँपती थी तो एक लेखक के रूप में उनके विरोध के स्वर, असहमति की बेलाग लपेट अभिव्यक्ति उनके शब्दों के जरिए आज भी लोगों के दिलों को छू लेती है। छात्र जीवन से ही वे लिखने लगे थे। 1953 में लिखी गई और अक्टूबर 1954 में प्रकाशित हुई 'भैंस का कट्या' उनकी प्रारम्भिक रचनाओं में एक मानी जाती है। सोवियत संघ के प्राच्य विद्या संस्थान ने इसे 'दीती इंदी' (भारतीय बच्चे) के नाम से रूसी भाषा में अनुवाद करके प्रकाशित किया। 'सुच्ची डोर' उनकी एक प्रिय कहानी थी, जिसकी मूल प्रति गुम हो जाने का उन्हे बेहद अफसोस रहा। बाद में उनकी 10 प्रतिनिधि कहानियाँ' में इसका संशोधित स्वरूप प्रकाशित हुआ था और 'सुच्ची डोर' के नाम के ही एक अन्य संग्रह में भी इसे स्थान मिला।

vidya-sagar-nautiyal-uttar-bayan-haiउत्तर बायाँ है, झुण्ड से बिछुड़ा, भीम अकेला और यमुना के बागी बेटे उनके प्रमुख उपन्यास हैं। जिस टिहरी राजशाही के विरोध के कारण 14 वर्ष की उम्र में उन्हें जेल जाना पड़ा, उसके खिलाफ टिहरी की जनता के 1930 के आन्दोलन के सहारे 'यमुना के बागी बेटे' में उन्होने एक तरह से इतिहास के एक दौर की ही पुनर्रचना कर दी है। इस किताब की भूमिका में भी उन्होंने लिखा था कि, ''मेरा जन्म एक जंगलाती परिवार में हुआ था। यमुना घाटी का अन्न, जल व वायु मेरे बचपन की हिफाजत करते रहे। अपने जन्म से तीन साल पहले घटित तिलाड़ी कांड की दारुण कथाएँ मेरे दिल को एक भारी पत्थर के मानिन्द दबाती लगती थीं। उन स्वाभिमानी रवांल्टों की वीर गाथाएँ सुनकर मैं उस ऋण से उऋण होने की योजनाएँ बनाता रहता था'' और वाकई इस रचना के जरिए उन्होंने जन्मभूमि का यह कर्ज उतार ही दिया था।

'उत्तर बायां है' हिमाच्छादित बुग्यालों और ऊँचे विस्तृत चरागाहों में जीवन जीने वाले घुमन्तू गूजरों और पहाड़ी भेड़पालकों की जिन्दगी का यथार्थ है। नौटियाल जी ने इसकी भूमिका में लिखा था, ''अपने लोगों की यह कथा जिसे अनेक वर्षों तक मैंने अपने भीतर जिया है।'' उनके साहित्य का गहराई से विश्लेषण करने वाले भी मानते हैं कि वे वाकई अपने रचे हुए को अपने भीतर जीते भी थे। 'सूरज सबका है', 'स्वर्ग दिदा पाणि-पाणि', 'मोहन गाता जाए' हो या 'फट जा पंचधार' या 'देश भक्तों की कैद में', उनकी हर रचना हमें अतीत की स्मृतियों के साथ-साथ वर्तमान के कड़वे सच की भी याद दिलाती रहती है। उनकी कथाएँ हमें फट जा पंचधार, मेरी कथायात्रा, फुलियारी, कुदरत की गोद में और टिहरी की कहानियाँ जैसे संग्रहों में भी पढ़ने को मिलती हैं। 'सूरज का सन्निपात' उनका नाटक है तो 'बागी टिहरी गाए जा' में उनके निबन्ध हमें उनकी कलम का एक अलग रूप दिखाते हैं। 'देशभक्तों की कैद में' के जरिए तो एक तरह से उन्होंने अपनी आत्मकथा के बहाने एक युग का पूरा इतिहास ही लिख दिया है, जिसमें राजा-रानी भी हैं, आजादी के बाद का दौर भी और इस सबके बीच में टिहरी-उत्तरकाशी का पूरा समाज भी। मेरा मानना है कि उत्तराखण्ड में रुचि रखने वाले हर व्यक्ति को, उत्तराखण्ड को जानने समझने की कोशिश करने वाले हर व्यक्ति को और हर ऐसे व्यक्ति को, जो उत्तराखण्ड को बदलने का स्वप्न देखता है, विद्यासागर नौटियाल की इस किताब से जरूर पढ़ना चाहिए। यह उनकी जिन्दगी की कहानी भी है और उत्तराखण्ड के समाज के एक बड़े हिस्से की जिंदगी में आने वाले बदलावों का रोजनामचा भी। व्यक्तिगत रूप से मैं इस रचना को साहित्यिक रचना से अधिक एक ऐतिहासिक दस्तावेज मानता हूँ। जीवन भर कम्युनिस्ट रहने वाले नौटियाल जी व्यक्तिगत जीवन में कितने भावुक और संवेदनशील थे, उसकी बानगी भी इस किताब में मिलती है। अपनी बहन यानी सुन्दरलाल बहुगुणा की पत्नी विमला बहुगुणा से उनके बचपन के रिश्तों का जो सहज व मार्मिक वर्णन इस किताब में है, वह हिन्दी में अब दुर्लभ होता जा रहा है।

vidyasagar-nautiyal-pratinidhi-kahaniyanलेखक के रूप में नौटियाल जी के जीवन में दो दौर बहुत महत्वपूर्ण रहे हैं। एक दौर युवावस्था से लेकर सक्रिय राजनीति में व्यस्त हो जाने के बीच का तो दूसरा दौर सक्रिय राजनीति से विदाई के बाद का। उनके दूसरे दौर ने साहित्य को बहुत कुछ दिया। इसी दौर में उन्होंने यह साबित किया कि जन अधिकारों के लिए लड़ने वाले जननेता के रूप में वे जितने बड़े थे, कलम के योद्धा के रूप में भी उससे कहीं कम नहीं थे।

वकालत की डिग्री के बाद उन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से अंग्रेजी मे एम.ए. भी किया था। छात्र राजनीति में झण्डे गाड़ने के बाद वे टिहरी में वामपंथी आलोचना के सूत्रधार बने और सी.पी.आई. विधायक के तौर पर उत्तर प्रदेश विधानसभा में भी पहुँचे। इसी दौरान अपने विधानसभा क्षेत्र की दो दिवसीय पदयात्रा को उन्होंने 'भीम अकेला' के रूप में प्रस्तुत किया था और इसे वे अपनी लेखकीय सक्रियता के दूसरे दौर की शुरूआत मानते थे। वे कहते थे कि इस किताब को लिखने की प्रेरणा उन्हे नेत्रसिंह रावत के यात्रा वृतांत 'पत्थर और पानी' से मिली थी। इसे पाठकों के सामने लाने का श्रेय 'पहाड़' को है, क्योंकि सबसे पहले 'पहाड़' में ही इसका प्रकाशन हुआ था।

मेरा उनसे परिचय एक कम्युनिस्ट नेता के रूप में हुआ था। छात्र जीवन में मैंने टिहरी में उनके घर पर एक बार उनका लम्बा साक्षात्कार किया था। उत्तराखण्ड के सामाजिक आन्दोलनों में टिहरी का जो अपना रंग था, उस रंग से मेरा पहला करीबी परिचय विद्यासागर जी ने ही कराया था। टिहरी शहर मुझे हमेशा बहुत अजीब लगता था। हमेशा बहुत उदास और उतना ही ऊर्जावान। नौटियाल जी से पहली मुलाकात के बाद से ही उनसे एक आत्मीय रिश्ता बन गया। मैं उन्हें पत्र लिखता था तो यदा-कदा वे भी जवाब देते रहते थे। टिहरी में ही उनसे तीन-चार मुलाकातें हुईं। हर बार उनकी सज्जनता और विनम्रता मुझे पहले से ज्यादा भिगोती रही और हर बार मैं अपने मन में कुछ और नये अनुभव तथा नए अहसास अपने साथ लेकर वापस लौटता रहा। एक बार उत्तरकाशी में एक विचार गोष्ठी में जब अध्यक्षीय भाषण में उन्होने मेरे विचारों पर अपनी टिप्पणी दी थी तो उससे मुझे बहुत ताकत मिली थी। उत्तरकाशी छूटने के बाद उनसे मिलने का सिलसिला अपनी पीएचडी के काम के दौरान एक बार फिर जुड़ा। टिहरी की आजादी की लड़ाई और सामाजिक बदलाव की यात्रा के कई अहम पड़ावों की जानकारी मुझे उनके साक्षात्कारों के दौरान ही हुई। वे टिहरी की जनता को बहुत बहादुर, संघर्षषील और नई जमीन तोड़ने वाली मानते थे। राजनीति में अपनी सीमाओं का भी उन्हें अहसास था और इस बात का अफसोस भी कि प्रगतिशील ताकतों के बीच बड़ी एकजुटता नहीं बन पाई है।

इसके बाद कुछ वर्ष तक उनसे सम्पर्क टूटा रहा। फिर तीन चार साल पहले देहरादून जाने का सिलसिला शुरू हुआ तो फिर उनसे मिलने के एक-दो अवसर मिले। इस बीच उनकी रचनाएँ मैं लगातार पढ़ता रहा था और जब देहरादून में पहली मुलाकात में मैने उनसे पूछा कि इतना सब आपने अब तक कहाँ दबा रखा था तो वे जवाब में थोड़ा मुस्कुराए और बोले, ''राजू भाई सब पुरानी यादें हैं, जब जब जोर मारती हैं, कलम चल पड़ती है।'' उनके पुत्र के विवाह में उनसे मेरी अंतिम मुलाकात हुई थी। कार्ड भेजने के साथ उन्होंने मुझे फोन भी किया था। पता नहीं क्यों मुझ पर उनका इतना स्नेह था, लेकिन मेरे लिए उनका स्नेह जीवन की अन्यतम अनुभूतियों में एक था। उस समारोह में मेरे साथ उन्होंने एक अलग तस्वीर भी खिंचवाई थी। बस फिर उनसे मिलना कभी नहीं हुआ। अब तो बस उनकी रचनाओं में ही उनसे मुलाकात होनी है। लोग उन्हे हेमिंग्वे का शिष्य और प्रेमचन्द की परम्परा का लेखक मानते हैं। मगर मुझे लगता है कि वे सही मायनों मंे पहाड़ के बेटे थे। पहाड़ के बहादुर पुत्र, जिन्होंने शब्दों के जरिए पहाड़ के तमाम रंगों को जीवन्त कर दिया है। वे समूची मानवता की धरोहर थे, इंसानियत की बेहतरी की लड़ाई के लड़ाके। मगर मैं उन्हंे पहाड़ के निष्कलुष, निरीह और कोमल भावनाओं से भरे हुए एक दृढ़ इच्छाशक्ति वाले व्यक्ति की तरह याद रखना चाहता हूँ, जो अब भी पहाड़ों की सुन्दर वादियों में, पहाड़ के तमाम संघर्षो और दुःख-दर्दों के बीच उन्मुक्त भाव से कुलाँचे भरता हुआ पर्वत-पर्वत विचर रहा है।

साभार-  नैनीताल समाचार

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