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Memories of Another day

Memories of Another day
While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Monday, April 30, 2012

सब तो ठीक है, पर आप खुद क्‍या कर रहे हैं चेनॉय सेठ?

http://mohallalive.com/2012/04/30/vishnu-khare-react-on-om-thanvi-s-sunday-column-anantar/

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सब तो ठीक है, पर आप खुद क्‍या कर रहे हैं चेनॉय सेठ?

30 APRIL 2012 8 COMMENTS

"आपका मुझपर दक्षिण-मध्यमार्गी हमला…


♦ विष्‍णु खरे

पिछले दिनों गुंटर ग्रास की इजराइल विरोधी कविता के बरक्‍स हिंदी लेखकों पर लगे आरोपों और नये लेखकों की भाषा के संदर्भ में विष्‍णु खरे की टिप्‍पणियों-प्रतिटिप्‍पणियों और दक्षिणपंथी मंच पर वाम कवि मंगलेश डबराल की उपस्थिति से इंटरनेट में काफी हलचल रही। जनसत्ता के कार्यकारी संपादक ओम थानवी ने इस बारे में अपने रविवारी स्‍तंभ अनंतर (आवाजाही के हक में) में विस्‍तार से चर्चा की और एक तरह से यह सवाल भी किया कि लेखकों के लिए विचार महत्‍वपूर्ण है या मंच। हमने यह लेख मोहल्‍ला में शेयर भी किया। अब विष्‍णु जी ने उनके लेख में अपने जिक्र के संदर्भ में अपनी प्रतिक्रिया दी है। प्रतिक्रिया इस नोट के साथ हमें भेजी गयी…

चूंकि ओम थानवी जी का यह लेख आपके यहां आ गया है और एकपक्षीय टिप्पणियां आकर्षित कर रहा है इसलिए आपसे अनुरोध है कि उन्हें लिखे गये मेरे इस पत्र को कृपया स्वतंत्र प्रति-टिप्पणी के रूप में प्रकाशित करने पर विचार करें। कृपया ध्यान दें कि मैं इसे पत्र के रूप में प्रकाशित नहीं देखना चाहता। विषय "आपका मुझपर दक्षिण-मध्यमार्गी हमला" में परिहास है, गांभीर्य नहीं। उम्मीद है ओमजी ने भी इसे वैसा ही समझा होगा। विष्णु खरे


जाहिर है विष्‍णु जी की बात का वजन कमेंट बॉक्‍स जैसी नाबदानी बर्दाश्‍त नहीं कर सकता, जिसमें आये छिछले कमेंट को लेकर वो हमें आगाह भी करते हैं। बहुत सम्‍मान के साथ हम उनका पत्र मोहल्‍ला लाइव में बैनर बना रहे हैं : मॉडरेटर

प्रिय ओमजी,

पूरा मुक़द्दमा बाद में लड़ूंगा, अभी सिर्फ यह कैविएट (caveat – वारणी)।

आप लिखते हैं : "विष्णु खरे … बताएं, हिंदी के कतिपय विचारवादी जैनेंद्र कुमार, अमृतलाल नागर, इलाचंद्र जोशी, विजयदेव नारायण साही, भवानी प्रसाद मिश्र, नरेश मेहता, मनोहर श्याम जोशी, कृष्ण सोबती और कृष्ण बलदेव वैद की लगभग अनदेखी क्यों करते हैं? निर्मल वर्मा और अज्ञेय के नाम से वे जैसे छड़क ही खाते हैं।"

मैं फिलहाल सिर्फ अपनी बात आपके सामने रखूंगा।

जैनेंद्रजी का मैंने आजीवन अकुंठ आदर किया है। मेरा मानना है 'अज्ञेय' और निर्मल वर्मा दोनों उनकी साहित्यिक संतान हैं और दोनों को सृजन और विचार के स्तर पर सम्मिलित भी कर दिया जाए तो जैनेंद्र से कमतर हैं। 'टाइम्स' का जैन-घराना तब जैनेंद्र से नफरत करता था – देखिए कि उन सरीखे महान लेखक-चिंतक को ज्ञानपीठ पुरस्कार नहीं दिया गया जबकि आपके वात्स्यायनजी और (बाद में) निर्मलजी भी उसे ले उड़े, और यह अलग बात है कि अब धंधे की दृष्टि से भारतीय ज्ञानपीठ ने एक निहायत अयोग्य संपादन में उनका समग्र छाप डाला है – लेकिन जब जैनेंद्र की मृत्यु हुई, तब मैंने 'नवभारत टाइम्स' में ही उन पर एक पूरे दो कालमों का संपादकीय लिखा था और फिर अगले रविवार के आधे ओपेड पृष्ठ पर एक लेख। विचित्र यह है कि तब मालिकों के अत्यंत विश्वसनीय समझे जाने वाले वरिष्ठ पत्रकार पारसदास जैन ने भी आकर मुझे उसके लिए बधाई दी थी।

( यह नया जोड़ है : मैंने जैनेंद्र की स्त्री-पुरुष संबंधों पर लिखी कहानियों पर भी एक लेख लिखा है और स्वयं जैनेंद्र-परिवार ने, भले ही गलत ही सही, किंतु मुझे इस योग्य समझा कि मैं उनके एक कहानी-संकलन की भूमिका लिखूं, जिसे नैशनल बुक ट्रस्ट ने प्रकाशित किया है। )

जब मैं 'नवभारत टाइम्स' लखनऊ का संपादक था, तो हमारी टीम ने शायद नागरजी की सत्तरवीं वर्षगांठ पर एक पूरा पृष्ठ निकाला था। उसमें उनके कुछ दुर्लभ फोटो भी थे। उनके देहावसान पर शायद मैं दिल्ली में स्थानीय संपादक था और मैंने उन पर वही पूरे दो कालमों का संपादकीय लिखा था। जहां तक मेरी जानकारी है, "विचारवादी" उनकी बहुत कद्र करते हैं।

साहीजी से मेरे बहुत अच्छे संबंध रहे। तब आप 'जनसत्ता' में नहीं थे लेकिन शायद 1984 में आपके इस गुलाम की लिखी उनके संग्रह "साखी" की एक लंबी समीक्षा मंगलेश डबराल ने 'जनसत्ता' में ही छापी थी। मैं उन्हें 'अज्ञेय' से बड़ा कवि और साहित्यिक चिंतक मानता हूं। शमशेर को लेकर उनसे मेरी एक बहस अब भी खत्म नहीं हुई है।

भवानीप्रसाद मिश्र के लिए मेरे मन में बहुत आदर और स्नेह है और शायद वह भी मुझे चाहते थे। जब वे और 'अज्ञेय' दोनों जीवित थे, तब 'आलोचना' में मैंने उनकी "अंधेरी कविताएं" की समीक्षा की थी और 'अज्ञेय' को उनसे कुछ सीखने की सलाह दी थी जो, स्वाभाविक है, व्यर्थ गयी। मिश्रजी 'अज्ञेय' से बहुत बेहतर कवि हैं। उनकी कालजयी राजनीतिक व्यंग्‍य-कविता "बहुत नहीं थे सिर्फ चार कौए थे काले" को मैं नागार्जुन की कविता "बहुत दिनों तक चूल्हा रोया" की टक्कर की मानता हूं। मिश्रजी की मृत्यु के बाद भी मैंने उन पर मधुसूदन आनंद के कहने पर एक टिप्पणी 'नवभारत टाइम्स' में लिखी थी।

नरेश मेहता के कुछ उपन्यासों को मैं बहुत महत्वपूर्ण मानता हूं और ऐसा कहता भी रहा हूं। कवि वे असफल हैं, तब भी "समय देवता" जैसी उनकी कुछ कविताएं 'अज्ञेय' से बेहतर हैं।

मनोहर श्याम जोशी का मुझ पर स्नेह रहा। उनसे मेरी अनेक बातें-मुलाकातें हैं। वे हिंदी के बेहतर उपन्यासकारों में हैं और उनका दूसरा गद्य भी अद्भुत है। 2002 में वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित डच उपन्यासकार सेस नोटेबोम के एक उपन्यास के हिंदी अनुवाद "अगली कहानी" को "अनुवादक (विष्णु खरे) की ओर से हिंदी के अप्रतिम गल्पकार-द्वय निर्मल वर्मा तथा मनोहर श्याम जोशी को समर्पित" किया गया है।तब दोनों जीवित थे।

धर्मवीर भारती की "गुनाहों-का-देवता" छाप आत्मरत्यात्मक रूमानियत का मैं तब भी विरोधी था और अब भी हूं लेकिन "अंधा युग" उनकी एक अमर कृति है। "सूरज का सातवां घोड़ा" भी। "देशांतर" के अनुवाद स्वाभाविक है अब पुराने पड़ गये हैं लेकिन विदेशी कविताओं का वह संकलन आज भी अद्भुत है। उनके देहावसान पर 'कथादेश' में छपा मेरा अपेक्षाकृत लंबा लेख देखा जा सकता है।

कवि 'अज्ञेय' को लेकर मेरे विचार न छिपे हैं न बदले हैं। लेकिन उनकी पूरी छवि को लेकर मेरा सुदीर्घ संपादकीय फिर 'नवभारत टाइम्स' में ही छपा था।

इलाचंद्रजी मुझसे मेरे छुटपन से ही कभी पढ़े नहीं गये। रही बात कृष्णा सोबती की तो मैं उनके लेखन को नकली, हिस्टीरियाई और ओवर-रेटेड मानता हूं। "उसका बचपन" को छोड़कर, जो 'फ्लैश इन दि पैन' का दर्जा रखता है, मैं कृष्ण बलदेव वैद के शेष लेखन को अपाठ्य समझता हूं। हिंदी कविता के उनके अंग्रेजी अनुवाद तो टूरिस्ट होटलों में वेल्कम ड्रिंक (स्वागत-रसरंजन – कितना जलील और बाजारू शब्द है यह 'रसरंजन', 'बॉलीवुड' जैसा) की तर्ज पर थाने में प्राथमिक कंबल-परेड के बाद अदालत में भारतीय दंड संहिता की कई सश्रम सजाओं को आकृष्ट करते हैं।

आपने मुझे कुछ बताने का रेटोरिकल सवाल किया है। उपरोक्त के बाद, यदि वह उदाहरण नहीं बन सके, तो बताने के लिए बचता क्या है? लेकिन क्या आप भी बताएंगे कि वर्तमान में 'जनसत्ता' के संपादक और कुछ वर्ष पूर्व साथ-साथ 'एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया' के प्रमुख रहते हुए भी आपने भारतीय पत्रकारिता, हिंदी पत्रकारिता और, सबसे मत्वपूर्ण, स्वयं 'जनसत्ता' की असली, साहित्येतर पत्रकारिता को सुधारने के लिए क्या किया है, चेनॉय सेठ?

आपका (वर्ना हम छेड़ेंगे तुम को)
विष्णु खरे

Vishnu Khare Image(विष्‍णु खरे। हिंदी कविता के एक बेहद संजीदा नाम। अब तक पांच कविता संग्रह। सिनेमा के गंभीर अध्‍येता-आलोचक। हिंदी के पाठकों को टिन ड्रम के लेखक गुंटर ग्रास से परिचय कराने का श्रेय। उनसे vishnukhare@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)

8 Comments »

  • नीरेंद्र शांडिल्य said:

    सुना ही था कि हिंदी में विष्णु खरे जैसा अवसरवादी कोई नहीं. पूंजीपति मारवाड़ी सेठ का "परिवार पुरुस्कार" का ले लिया, निंदा हुई तो लम्बी सफाई दे दी रूपया रख लिया और आर एस एस और शिवसेना के समर्थक लेखक की पुस्तक लोकार्पित की तो कहे कि कवि वह महान है. खरे जी, वह अवश्य महान पर आप बेईमान हैं. ओम थानवी जी का लेख मैंने दो बार पढ़ा. उन्होंने तो खरे जी की तारीफ की है और (खरे जी अपनी इस टिपण्णी में दिया हुआ उद्धरण ही दुबारा पढ़े) जनसत्ता में लिखा है कि "कतिपय विचारवादी" क्यों बड़े बड़े गैर-मार्क्सवादी लेखकों जोशी, नागर आदि की "लगभग अनदेखी" करते है. थानवी जी दूसरों की बात कर रहे हैं और इस बात को स्वयं पर ले कर खरे जी खुद स्पष्टीकरण देने बैठ गए हैं. या तो उनकी उम्र हो गयी है या दिमाग चल गया है.

  • प्रमिला राग said:

    चोर की दाढ़ी में तिनका|

  • raaj kumar said:

    मुझे लगा ही था यह थानवी खरे का नया शिकार होगा.

  • Dasprakash said:

    परिवार पुरस्कार ने विष्णु जी को इतना डिफेंसिव पर ला दिया है कि लोगों को चिठियाँ लिखने और उन्हें छपवाने का शौक चर्रा गया है ……ओम थानवी से गिला है तो जनसत्ता को लिखो कुछ जवाब भी मिलेगा, यहाँ क्या मिलेगा? क्षणिक पब्लिसिटी?

  • राकेश रंजन said:

    शिकार करने को आए, शिकार हो के चले!

  • Sahil said:

    मैं नीरेंद्र की बात से सर्वथा सहमत हूँ. खरे ने मूल मुद्दा जबरन अपनी तरफ मोड़ने की असफल कोशिश की है. वे अपने को केंद्र में इस क्यों लाना चाहते हैं? मंगलेश या खरे मूल मुद्दे पर आयें कि संघ वालों के साथ क्यों गए? अगर गए तो जाने वाले उन अन्य लेखकों की तरफदारी क्यों नहीं करते हैं जिनके नाम थानवी ने गिनाये हैं!

  • Vikramjit said:

    Jealousy is simply and clearly the fear that you do not have value. Jealousy scans for evidence to prove the point – that others will be preferred and rewarded more than you. There is only one alternative – self-value. If you cannot love yourself, you will not believe that you are loved. You will always think it's a mistake or luck. Take your eyes off others and turn the scanner within. Find the seeds of your jealousy, clear the old voices and experiences. Put all the energy into building your personal and emotional security. Then you will be the one others envy, and you can remember the pain and reach out to them……
    Respected Khare jee,
    I have known Om Thanvi since 1988/89 or maybe earlier, Prabhash jee, had taken over as the editor of Indian Express starting publication from Chandigarh, we as a family ran a sweet shop, a tea stop for all writers, and journalist, and since then have been an avid reader of Jansatta, Om jee was a guide and friend who inculcated in me the habit of reading Agya, as a young man surrounded by modern day ideas, Agya opened new windows to understand and live life, to be more caring, towards the simple and little things that we ignore or just fail to see, Agyas other great quality was that he never imposed on you, nor exposed you to wonder, but like a true revolutionary that he was, realistically stating the present captured in words that one understood in colour, many a summer evenings were spent on Thanvijees verandah, in understanding and reading from Agya, till the first fresh edition of Jansatta came in for final checks, I can still remember the smell of the printing ink. Not only to me but Thanvee jee was a friend and guide to a young lot of journalists, who over the years carrying forward his legacy, have graduated to greater positions in print and media. Thanvee jee has a simple method of training and implementing, ideas, while running the news paper, he always gave credit to others, and never tried to hog the lime light, firm, fare, and fun loving his style was direct and compact in delivering the written Hindi word to a reader only used to voyeuristic publications that printed Hindi on the side, I know hundreds of families, who till day read the jansatta to keep alive the language in our homes. If as an editor you can achieve that, it is not only commendable but revolutionary. Sir are we all, not trying to save the dying grace of Hindi? that it does not become the vituperative of the pimp of the prostitute shooing away unwanted customers.Hoping you will visualise the larger picture, like young men we did in Thanvee jees company……. like Agya did while writing these words………..

    चुप-चाप चुप-चाप
    झरने का स्वर.
    हम में भर जाए.
    चुप-चाप चुप-चाप
    शरद की चांदनी.
    झील की लहरों पर तिर आए,
    चुप-चाप चुप चाप.
    जीवन का रहस्य.
    जो कहा न जाए, हमारी.
    ठहरी आँख में गहराए,
    चुप-चाप चुप-चाप
    हम पुलकित विराट में डूबें.
    पर विराट हम में मिल जाए–

    चुप-चाप चुप-चाऽऽप…

  • शशिभूषण said:

    मैंने कल ओम थानवी जी का लेख पढ़ा था आज विष्णु खरे जी को पढ़ गया। जाहिर है जिस तरह का वातावरण बन रहा है और प्रतिक्रिया स्वरूप लेख पढ़ने में आयेंगे।

    एक बात मेरे मन में साफ़ हो चली है कि समझना कोई किसी को नहीं चाहता। कोई ऐसी बात बची नहीं जिस पर ईमानदारी से कोई चलना चाहे। सबके पास अपने अनुभव और लेखन कौशल तथा पेशेवर दवाब इतने हैं कि लिखने की गुंज़ाइश निकाल लेना ही मुख्य। अन्यथा ओम थानवी जी ने जो कहा उसमें कुछ ग़लत नहीं था। विष्णु जी उसकी पुष्टि अपने तेवर और तर्कों से कर रहे हैं। मसलन वे कृष्णा सोबती के बारे में जो कह रहे हैं हो सकता है कल यह ध्यान दिलाये जाने पर वे अपने किसी संपादकीय या लेख के हवाले से कहें कि मैं कृष्णा सोबती का पक्षधर भी रहा हूँ।

    मूल मुद्दा यह है कि जब कथित बड़े से बड़े लेखकों में इतना संयम, अनुशासन और स्वावलंबन नहीं है कि वे जो आरोप दूसरों पर लगाते हैं जो अपेक्षाएँ औरों से करते हैं उनमें स्वयं खरे उतर सकें तो वे लड़ाई करते ही क्यों हैं? जब उनकी ललकार या ईमानदारी, पक्षधरता की माँग अगर अपने लिए भी उतनी ही नहीं है तो गाल बजाना किसलिए? किसका उदाहरण देकर कहें बड़ा अजीब लगता है कि आज मुद्दा बनाने वाला आगे चलकर खुद अभियुक्त नज़र आता है।

    सबको देख लिया जिसका सबसे ज्यादा विरोध करते हैं उसी में लिप्त पाये जाते हैं लेखक। यही सोचकर कल थोड़ी तसल्ली हुई थी कि चलो थानवी जी ने कम से कम कहा तो यह।

    कल मेरे मन में एक सतही सलाह आयी थी कि हम अपने लेखकों से कहें कि आप अपने कपड़े खुद धोया करें, अपने कमरे में झाड़ू लगाया करें। अपने बिल आप जमा करें, अपने टिकट खुद कराया करें। एकदम शुरू से ऐसे न जियें कि आगे आपकी देखभाल का जिम्मा जनता और सरकार का है, वे आपके लिए चंदे और सहायता की तरकीब अभी से शुरू कर दें तो संभव है कि ऐसे विवादों से निजात मिले। वरना हमारी यह सज़ा कम न होगी कि हमारा लेखक जिसका विरोध करता है कल वही करते पकड़ा जाये।

    मैं सभी महत्वपूर्ण लेखकों से माफ़ी माँगते हुए यह कह रहा हूँ कि आपके विरोधों में स्वयं आचरण की गरिमा नहीं होती इसलिए उनका कोई मतलब नहीं है। बेहतर हो कि आप जितने समय में ऐसे चेतावनी भरे लेख, संपादकीय लिखते हैं उतने समय में अपनी चाय खुद बना लें। किसी राहगीर से एक लोटा पानी को पूछ लें।

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