मुनाफे का भारी बस्ता ढोता बचपन
जिज्ञासा, खोज और पहुँच पद्धति का गलाघोट देने वाली ये पुस्तकें अध्यापक और बच्चों में डर और उपेक्षा का संबन्ध बनाती हैं. कुकुरमुत्तों की तरह उग आये पब्लिक स्कूलों में बच्चे पुस्तकों के बोझ के नीचे डरे-सहमे जानवरों के रूप में विकसित हो रहे हैं...
व्यास मुनि
वैसे तो शिक्षा में लूट का बाज़ार सभी मौसमों में चौचक सजा रहता है, मगर देहाती और कस्बाई क्षेत्र के प्राथमिक और माध्यमिक स्तर के निजी स्कूलों में लूट का महीना मार्च और अप्रैल है. ये महीने शिक्षा माफियाओं के लिए सबसे मुफीद होते हैं. इन महीनों में हर साल इन क्षेत्रों में कुकुरमुत्ते की तरह कई सारे नये पब्लिक स्कूल उग जाते हैं, जिनके पास अभिभावकों की जेबें ढीली करने की तमाम तिकड़में हर वक्त तैयार होती हैं.
देहाती, कस्बाई और छोटे शहरों के इलाकों में स्कूल मलिक तिकड़मों का श्रीगणेश विद्यालय भवनों की तस्वीरें अख़बारों में छपवाकर करते हैं. इन विज्ञापनों की लच्छेदार भाषा से अभिभावक प्रभावित होते हैं और स्कूल पहुंचते हैं. फांसने की फ़िराक में बैठे मालिकों के कारिंदे भविष्य संवारने का अचूक रास्ता बताते हैं और अभिभावकों को विवरणिका (रजिस्ट्रेशन) फार्म पकड़ाकर 100-500 रू. तक की पहली बोहनी करते हैं. फिर प्रवेश शुल्क के नाम पर 500-3000 रू. तक लिए जाते हैं. इस प्रकार से फीस के मद में अनेक नामों से अलग-अलग धन उगाही शुरू होती है.
मसलन ट्यूशन फीस (मासिक) खेल , कम्प्युटर फीस, डिजिटल क्लास फीस, ताइकान्दो /जूड़ो/मार्शल आर्ट फीस, प्रयोगशाला फीस, विकास फीस, बिजली पंखा फीस, प्राथमिक चिकित्सा, परीक्षा शुल्क व वार्षिक आयोजन फीस आदि-आदि. विभिन्न प्रकार से ये शुल्क मासिक, त्रैमासिक, अर्धवार्षिक, वार्षिक और आकस्मिक तौर पर लिए जाते है. इसके बाद स्कूल यूनीफार्म (वर्दी ) और पुस्तकों पर भी खर्च करना पड़ता है.
वर्दी के लिए आपको स्कूलों द्वारा नामित दुकानदार से वर्दी खरीदनी पड़ती है . वहाँ भी मनमानी वसूली की जाती है. कपड़े के नाम पर जो बच्चे के लिए आरामदायक और सहज होना चाहिए उसकी बजाय उन्हें उबाऊ और असहज बनाने वाले कपडे पहनाये जाते हैं, जो व्यक्तित्व के विकास में बाधा ही पैदा करता है.
.......और भयभीत जानवर की तरह दौड़ता हुआ
पुस्तकें पढाई का एक आवश्यक हिस्सा बनती हैं, लेकिन वह इन विद्यालयों में आवश्यक बोझ के रूप में उठाना बच्चों की मजबूरी बनती जा रही है. जो प्रकाशक अधिक मूल्य की किताबें छापकर स्कुल प्रबंधन को 60 से 70 प्रतिशत कमीशन देने का वादा करता है, उसी की किताबें खरीदी जाती हैं. खरीदारी को स्कूल प्रबंधन तय करता है. जबकि तय शिक्षकों को करना चाहिए क्योंकि वे बच्चों से सीधे संवाद करते है .
लेकिन यहाँ होता उल्टा है. राय तो उन अध्यापको से औपचारिकता पूरी करने के लिए ली जाती है, मगर पुस्तकों के चयन में मालिकों के मुनाफे का दबाव होता है. उदाहरण के लिए नर्सरी कक्षा से प्रथम तक की पुस्तकों/कापियों का मूल्य 1000-1500 रूपये तक बैठता है. कारण की बेजा पुस्तकों की खरीदारी करायी जाती है. जैसे प्रथम कक्षा में नैतिक शिक्षा, विज्ञान,व्याकरण और सामान्य अध्ययन पुस्तकों की क्या आवश्यकता है, सिवाय इसके की मलिक के मुनाफे में इजाफा होता है.
अब बारी आती है विद्यालयों द्वारा उपलब्ध कराये जाने वाले साधनों (ट्रांसपोर्टेशन) की, जिसके जरिये वे बच्चों को उनके घर से विद्यालय तक आने-जाने की सुविधा सुरक्षित रूप से मुहैया कराने का दावा करते हैं. यह वही सुरक्षित साधन हैं जिनके पलटने,छा़त्र/छात्रा को कुचलने की खरें प्रकश में आती रहती हैं. आवश्यकता से अधिक (उपलब्ध सीट के कई गुना) बच्चों को बैठाना तो अब कोई सवाल ही नहीं रहा.
रही बात विद्यालय में पढाई के स्तर की तो जहाँ पुस्तकों का चयन बच्चों को ध्यान में रखकर नहीं मुनाफे को केन्द्रित कर किया जाता हो तो उसमें बच्चों की रूचि कैसे हो सकती है. आप कल्पना कर सकते है कि जिज्ञासा, खोज और पहुँच पद्धति का गलाघोट देने वाली यह पुस्तकें अध्यापक और बच्चों में डर और उपेक्षा की संबन्ध बनाती है. आपकी जमीन अपनी भाषा से काटकर विदेशी भाषा की गुलामी को स्वीकार कराने वाला पाठ्य विषय क्या विकास करा पायेगा ? पुस्तकों के बोझ के नीचे दबा बचपन डरे सहमे जानवर के रूप में विकसित हो रहा है .
केवल 'सुनना और चुप रहना' वाले जुमले विद्यालयो में सर्वमान्य है. अध्यापक ही एक तरफा संवाद करता है, बच्चे सिर्फ सुनते है. अध्यापकों द्वारा दिया जाने वाला गृह कार्य बच्चों को खेलने से रोकता है. साथ- साथ मानसिक दबाव बनाये रखता है. ऐसा करके स्कूल और अध्यापक अपनी पीठ खुद ही ठोकते हैं. रटते रहने वाले सिद्धांत पर पढ़ाई कराने वाले ये विद्यालय बाल मनोविज्ञान का मजाक बनाते हैं और संस्कृति के नाम पर बच्चों के दिमाग में कूड़ा-कचरा भरते हैं.
अलग अलग घरों से आने वाले बच्चे अलग-अलग मानसिक रूचि के होते है और वे भिन्न हरकते करते रहते हैं. उनकी हरकतों को विद्यालय उनके घरेलू आधार से न देखकर उनका सतही निर्णय लेता है तथा उसे डाँटकर या डंडे की भाषा से उसका हल खोजता है . यही वजह है कि आज की शिक्षा व्यवस्था स्वयं पर ही सवालिया निशान खडी करती है और बच्चों की पढ़ाई से बढ़ती उदासीनता को लेकर शिक्षाविदों को सोचने पर बाध्य कर रही है .
देहाती-कस्बाई इलाकों में प्रबंधक या मालिक वर्ग जब विद्यालय निर्माण करता है तो अध्यापक उसे शिक्षित और अनुभवी चाहिए, लेकिन प्रबंधक के लिए पढ़ा-लिखा जरूरीहोना नहीं है. मालिक होने के लिए पैसा होना जरूरी है साथ-साथ दबंग और माफिया भी. अब आप अनुमान लगा सकते है पब्लिक स्कुलों के प्रबन्धक जब केन्द्र में मुनाफे को रखकर स्कूल चलायेगें तो अध्यापक से लेकर पूरा स्टाफ दबाव में रहेगा. अध्यापक फिर बच्चों को कैसे पढ़ा पायेगा.
शिक्षक, शिक्षित होते हुए भी पैसे के डंडे से हांका जायेगा तो वह बराबर कुंठा का शिकार बना रहेगा और वह कुण्ठित व्यक्तित्व ही पैदा करेगा. निजी स्कूलों में स्टाफ-शिक्षक सबसे उपेक्षित है.एक तरफ जहां सरकार अध्यापकों को भरपूर पैसा देकर प्राथमिक चिद्यालयों में भेज रही है लेकिन वहां बच्चे ही नहीं जा रहे है. खुद उन विद्यालयों के शिक्षक अपने बच्चों को नही पढा रहे है.
वहीं दूसरी ओर पब्लिक स्कूलों में कम वेतन, प्रबन्धक का दबाव और पारिवारिक खर्चो की चिंता को लेकर शिक्षक लगातार तनाव में रहता है. किसी-किसी विद्यालय में तो अध्यापकों को जून माह का अति अल्प मजदूरी जिन्हें वे (विद्यालय वर्ग) वेतन कहते हैं नहीं दी जाती हैं, जबकि बच्चों से फीस वसूल की जाती है. आज शिक्षित अध्यापक सरकारी तंत्र में 30 हज़ार के करीबी वेतन पाता है जिसको पढ़ाने में रुचि नहीं है, जबकि निजी स्कूलों के शिक्षक 800-3000 रुपये में पूरी निष्ठा से पढ़ा रहे हैं.
व्यास मुनि पेशे से डॉक्टर हैं और सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियों में सक्रिय हैं.
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