Wednesday, 16 May 2012 11:10 |
लाल्टू एक कार्टून वहीं तक सीमित होता है, जो दृश्य वह प्रस्तुत करता है। वह प्रेमचंद की कहानी नहीं होता, जिसे पूरी पढ़ कर ही हम सामान्य निष्कर्षों तक पहुंच सकते हैं। कुछ लोगों को लगता है कि दलित बुद्धिजीवी आलोचना झेल नहीं सकते। उन्हें लगता है कि आंबेडकर को खुदा बनाने की कोशिश चल रही है। वे कहते हैं कि आखिर कार्टून तो गांधी, नेहरू पर भी बनते रहे हैं। प्रताड़ित जन की प्रतिक्रिया कैसी होती है, विश्व-इतिहास में इसके बेशुमार उदाहरण हैं। साठ के दशक में, जब अमेरिका में काले लोगों को बराबरी का नागरिक अधिकार देने का आंदोलन शिखर पर था, जिसमें कई गोरे लोग भी शामिल थे, प्रसिद्ध अफ्रो-अमेरिकी कवि इमामु अमीरी बराका (मूल ईसाई नाम: लीरॉय जोन्स) ने लिखा: ''ब्लैक डाडा निहिलिसमुस। रेप द वाइट गर्ल्स। रेप देयर फादर्स। कट द मदर्स थ्रोट्स।'' कोई भी इस हिंसक अभिव्यक्ति को सभ्य नहीं कहेगा। आर्थिक वर्ग आधारित निपीड़न भी हिंसक प्रतिक्रिया पैदा करता है। हाल तक कोलकाता शहर में दीवारों पर सुकांतो भट्टाचार्य की ये पंक्तियां पढ़ी जा सकती थीं- ''आदिम हिंस्र मानव से यदि मेरा कोई नाता है, स्वजन खोए श्मशानों में तुम्हारी चिता मैं जला कर रहूंगा।'' बराका की कविता आज भी यू-ट्यूब पर संगीत के साथ सुनी जा सकती है। गोरों ने इसका विरोध किया या नहीं, इसका कोई दस्तावेज नहीं है, पर अफ्रो-अमेरिकी स्त्रियों ने प्रतिवाद किया, यह इतिहास है। गोरों से आया विरोध निरर्थक है, पर अफ्रो-अमेरिकी समुदाय के अंदर से आया विरोध सार्थक हो गया। क्या भारतीय समाज में गैर-दलितों को भी ऐसे ही धीरज रखना नहीं चाहिए? दलित चिंतकों में यह समझ क्या हमसे कम है कि आंबेडकर को खुदा नहीं बनाना है? ऐसी कोई वजह तो है नहीं कि वे हमसे कम समझदार हों। यह तो उन्हें भी पता है कि गांधी, नेहरू पर भी कार्टून बनते रहे हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि हम निजी अनुभवों से आहत होकर यह मानने लगे हों कि दलित चिंतक सही निर्णय ले ही नहीं सकते? उनके लिए सही निर्णय सिर्फ हम ले सकते हैं? निश्चित ही ऐसे संकीर्ण सोच के शिकार योगेंद्र या सुहास नहीं हैं। तो फिर हमें इन प्रक्रियाओं के मनोविज्ञान को सहानुभूति और संवेदना के साथ समझने की जरूरत है। गांधी, नेहरू को खुदा मानने वाले लोग भी हमारे समाज में हैं, पर आंबेडकर उन लोगों का खुदा है जिनके लिए और किसी मान्य खुदा के पास जाना हजारों वर्षों तक वर्जित था। 1949 में ही अफ्रो-अमेरिकी कवि लैंग्स्टन ह्यूज ने लिखा- दरकिनार किए गए सपने का क्या हश्र होता है? / क्या वह किसमिस के दाने की तरह धूप में सूख जाता है? / या वह घाव बन पकता रहता है? / क्या उसमें सड़े मांस जैसी बदबू आ जाती है?/ या वह मीठा कुरकुरा बन जाता है...? शायद उसमें गीलापन आ जाता है और वह भारी होता जाता है / या फिर वह विस्फोट बन फूटता है?'' इतना तो कहा ही जा सकता है कि निपीड़ितों का मनोविज्ञान जटिल है। इस जटिलता में हमारी भागीदारी कितनी है, हम यह समझ लें तो गैर-बराबरी की इस दुनिया में हम अपनी मुक्ति की ओर बढ़ सकते हैं। और दूसरी ओर जो विस्फोट हैं, उनको झेलने की ताकत हममें हो, इसकी कोशिश हम कर सकते हैं। अपनी मुक्ति के बिना किसी और की मुक्ति का सपना कोई अर्थ नहीं रखता। जहां तक संसद की बहस का सवाल है, वहां शोरगुल होता रहता है। उससे परेशान होकर योगेंद्र और सुहास समिति से निकल गए हैं, यह दुखदायी है। उनके खिलाफ जो हिंसक बयान आए हैं और पुणे में हुई घटना की निंदा हर सचेत व्यक्ति कर रहा है। उनसे यही अपेक्षा है कि वे वापस अपना काम संभालें और गंभीरता से हमारे बच्चों को सही पाठ सिखाने का काम करते रहें। |
This Blog is all about Black Untouchables,Indigenous, Aboriginal People worldwide, Refugees, Persecuted nationalities, Minorities and golbal RESISTANCE. The style is autobiographical full of Experiences with Academic Indepth Investigation. It is all against Brahminical Zionist White Postmodern Galaxy MANUSMRITI APARTEID order, ILLUMINITY worldwide and HEGEMONIES Worldwide to ensure LIBERATION of our Peoeple Enslaved and Persecuted, Displaced and Kiled.
Wednesday, May 16, 2012
विवाद के बीच एक संवाद
http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/19461-2012-05-16-05-41-41
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