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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Thursday, May 17, 2012

नीतिगत लकवे का सच

नीतिगत लकवे का सच


Thursday, 17 May 2012 10:44

आनंद प्रधान 
जनसत्ता 17 मई, 2012: मार्च महीने में औद्योगिक उत्पादन के सूचकांक में साढ़े तीन फीसद की गिरावट की खबर आते ही इसके लिए यूपीए सरकार के 'नीतिगत लकवे' को जिम्मेदार ठहराते हुए सामूहिक रुदन और तेज हो गया है।

इसके साथ ही कथित रूप से रुके हुए आर्थिक सुधारों को तेजी से आगे बढ़ाने की मांग का कर्कश कोरस भी कान के परदे फाड़ने लगा है। हालांकि इन आरोपों में नया कुछ नहीं है। पिछले डेढ़-दो साल खासकर 2-जी समेत भ्रष्टाचार के बडेÞ-बडेÞ मामलों के सामने आने के बाद से आर्थिक सुधारों को तेजी से आगे बढ़ाने में नाकामी और कई नीतिगत मामलों में अनिर्णय या निर्णय को लागू कराने में हिचक या गतिरोध को लेकर यूपीए सरकार पर नीतिगत लकवे के आरोप लगते रहे हैं। 
कुछ अपवादों को छोड़ दें तो देशी-विदेशी पूंजी के प्रतिनिधि, उनके थिंक टैंक, समूचा कॉरपोरेट जगत, आर्थिक-राजनीतिक विश्लेषक, गुलाबी अखबार और विपक्ष- सभी सरकार पर उसके कथित नीतिगत लकवे के लिए चौतरफा हमला कर रहे हैं। हद तो यह हो गई कि खुद वित्तमंत्री के सलाहकार कौशिक बसु भी अमेरिका में विदेशी निवेशकों के सामने आर्थिक सुधारों के रुकने और सरकार के नीतिगत लकवे का शिकार होने का रोना रोते दिखाई पडेÞ। 
अर्थव्यवस्था की धीमी पड़ती रफ्तार से लेकर उसकी सभी समस्याओं का ठीकरा इसी नीतिगत लकवे पर फोड़ा जा रहा है। मजे की बात यह है कि खुद प्रधानमंत्री से लेकर वित्तमंत्री तक सार्वजनिक तौर पर भले ही इस आरोप को नकार रहे हों लेकिन वे भी आर्थिक सुधारों को तेजी से आगे बढ़ाने और कड़े फैसले लेने में आ रही कठिनाइयों को दबी जुबान में स्वीकार करते हैं। वे इसके लिए गठबंधन राजनीति की मजबूरियों को जिम्मेदार भी ठहरा रहे हैं। साफ  है कि यूपीए सरकार सार्वजनिक तौर पर चाहे जितना इनकार करे, खुद उसके अंदर नीतिगत लकवे के आरोपों को लेकर काफी हद तक सहमति है। इस धारणा को वित्त मंत्रालय के आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु के इस बयान ने और दृढ़ कर दिया कि अब आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने वाले कठिन फैसले 2014 के आम चुनावों के बाद ही संभव हो पाएंगे। 
क्या सचमुच यूपीए सरकार नीतिगत लकवे की शिकार है? सच यह है कि वह देशी-विदेशी बड़ी पूंजी और कॉरपोरेट समूहों की इच्छा के मुताबिक नवउदारवादी सुधारों को तेजी से आगे बढ़ाने में नाकाम रही है। 
खासकर बड़ी पूंजी के मनमाफिक खुदरा व्यापार में एफडीआई, श्रम कानूनों को और ढीला करने और उदार छंटनी नीति की इजाजत देने, बैंक-बीमा आदि क्षेत्रों में चौहत्तर फीसद से अधिक विदेशी पूंजी की अनुमति से लेकर बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों को जमीन, स्पेक्ट्रम से लेकर खदानों तक सार्वजनिक संसाधनों को आने-पौने दामों में मुहैया कराने और सबसिडी में कटौती और इस तरह आम लोगों पर अधिक से अधिक बोझ डालने जैसे फैसले करने या उन्हें लागू कराने में सरकार कामयाब नहीं हुई है।
ऐसा नहीं है कि सरकार ये फैसले नहीं करना चाहती है। इसके उलट तथ्य यह है कि उसने अपने तर्इं हर कोशिश की है, कई फैसले किए भी, लेकिन कुछ यूपीए गठबंधन के राजनीतिक अंतर्विरोधों और कुछ आम लोगों के खुले विरोध के कारण लागू नहीं कर पाई। पिछले दो-तीन वर्षों में देश भर में जिस तरह से बड़ी कंपनियों की परियोजनाओं के लिए जमीन अधिग्रहण से लेकर खनिजों के दोहन के लिए जंगल और पहाड़ सौंपने का आम गरीबों, आदिवासियों, किसानों ने खुला और संगठित प्रतिरोध किया है, उसके कारण नब्बे फीसद परियोजनाओं में काम रुका हुआ है। 
यही नहीं, आर्थिक सुधारों के नाम पर सबसिडी में कटौती और लोगों पर बोझ डालने के खिलाफ भी जनमत मुखर हुआ है। पार्टियों को इन कथित कड़े फैसलों की कीमत चुकानी पड़ रही है। इस कारण न चाहते हुए भी राजनीतिक दलों को पैर पीछे खींचने पडेÞ हैं। उन्हें समझ में नहीं आ रहा है कि गरीबों-किसानों-आदिवासियों की इस खुली बगावत से कैसे निपटें? हालांकि सरकारों ने अपने तर्इं कुछ भी उठा नहीं रखा है। 
दमन से लेकर जन आंदोलनों को तोड़ने, बदनाम करने और खरीदने के हथियार आजमाए जा रहे हैं। ओड़िशा से लेकर छत्तीसगढ़ तक कई जगहों पर सार्वजनिक संसाधनों की खुली लूट के खिलाफ खडेÞ गरीबों और उनके जनतांत्रिक आंदोलनों को नक्सली और माओवादी बता कर कुचलने और उन्हें देश की 'आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा' घोषित करके दमन करने की कोशिशें बडेÞ पैमाने पर जारी हैं।  
दूसरी ओर, जैतापुर से लेकर कुडनकुलम तक शांतिपूर्ण आंदोलनों को 'विकास विरोधी' और 'विदेशी धन समर्थित' आंदोलन बता कर बदनाम करने, उन्हें तोड़ने और उनका दमन करने का सुनियोजित अभियान चल रहा है। यही नहीं, हरियाणा से लेकर तमिलनाडु तक बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों और उनकी फैक्टरियों में मजदूरों का खुलेआम शोषण हो रहा है, श्रम कानूनों को सरेआम ठेंगा दिखाते हुए उन्हें यूनियन बनाने और अपनी मांगें उठाने तक का अधिकार नहीं दिया जा रहा है और हड़ताल के साथ तो आतंकवादी घटना की तरह व्यवहार किया जा रहा है। 
सच यह है कि कॉरपोरेट जगत की मनमर्जी के मुताबिक श्रम सुधार अभी भले न हुए हों लेकिन व्यवहार में श्रम कानूनों को बेमानी बना दिया गया है। 
सरकार की मंशा का अंदाजा हाल में घोषित राष्ट्रीय मैन्युफैक्चरिंग नीति से भी लगाया जा सकता है, जिसके तहत बनने वाले राष्ट्रीय   मैन्युफैक्चरिंग जोन में श्रम कानून लागू नहीं होंगे। 
इससे पहले सेज के तहत भी ऐसे ही प्रावधान किए गए थे। साफ  है कि यूपीए सरकार ने बड़ी पूंजी और कॉरपोरेट-हितों को आगे बढ़ाने के लिए कोई कसर नहीं उठा रखी है। यह और बात है कि खुदरा व्यापार में एफडीआई के मुद्दे पर तृणमूल सरीखे सहयोगी दलों और देशव्यापी विरोध के कारण उसे कदम पीछे खींचने पडेÞ। लेकिन उसके साथ यह भी सच है कि एकल ब्रांड में सौ फीसद एफडीआई की इजाजत मिल गई है। 

नीतिगत लकवे की छवि को तोड़ने के लिए सरकार की बेचैनी का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि टैक्स-कानूनों में छिद्रों का फायदा उठा कर टैक्स देने से बचने वाली कंपनियों से निपटने के लिए वित्तमंत्री ने बजट में जिस जीएएआर (गार) का प्रस्ताव किया था, उसे देशी-विदेशी बड़ी पूंजी और कॉरपोरेट के दबाव में अगले साल के लिए टालने का एलान कर दिया है। इसके बावजूद कॉरपोरेट जगत खुश नहीं है। यूपीए सरकार पर उनकी ओर से भांति-भांति की रियायतों के लिए और कई मामलों में परस्पर विरोधी दबाव हैं। हाल के महीनों में ये दबाव इतने अधिक बढ़ गए हैं कि सरकार कोई फैसला नहीं ले पा रही है या फैसलों को लागू नहीं करा पा रही है। लेकिन गुलाबी मीडिया इसे 'नीतिगत लकवा' नहीं मानता है!  उदाहरण के लिए, दूरसंचार क्षेत्र को ही लीजिए। 
टू-जी मामले में 122 लाइसेंसों के रद्द होने के बाद जिस तरह से देशी और खासकर विदेशी कंपनियों ने सरकार पर दबाव बनाना शुरू किया और सरकार को इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका डालने पर मजबूर किया, उससे पता चलता है कि कथित नीतिगत अपंगता का स्रोत क्या है? इसी तरह दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) ने 2-जी स्पेक्ट्रम की नीलामी के लिए आधार-मूल्य तय करते हुए जो सिफारिशें दी हैं, उनके खिलाफ देश की सभी बड़ी टेलीकॉम कंपनियों ने युद्ध-सा छेड़ दिया है। 
उनकी लॉबिंग की ताकत के कारण सरकार की घिग्घी बंध गई है। वह फैसला नहीं कर पा रही है। वोडाफोन के मामले में टैक्स लगाने को लेकर सरकार डटी हुई जरूर है लेकिन जिस तरह से उसे वापस लेने के लिए उस पर देश के अंदर और बाहर दबाव पड़ रहा है, उससे साफ  है कि सरकार के लिए बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को नियंत्रित करना कितना मुश्किल होता जा रहा है।
एक और उदाहरण देखिए। कृष्णा-गोदावरी घाटी से गैस उत्पादन के मामले में रिलायंस न सिर्फ सरकार पर गैस की कीमत बढ़ाने के लिए जबर्दस्त दबाव डाल रही है बल्कि भयादोहन के लिए उसने जान-बूझ कर गैस का उत्पादन गिरा दिया है। शुरुआती दृढ़ता दिखाने के बाद अब सरकार रिलायंस की अनुचित मांगों के आगे झुकती हुई दिख रही है। ऐसे दर्जनों उदाहरण हैं जिनमें कंपनियों के दबाव के आगे सरकार या तो समर्पण कर दे रही है, उनके हितों के मुताबिक नीतियां बना रही है या फिर कंपनियों के आपसी टकराव में कोई फैसला नहीं कर पा रही है। सच यह है कि अर्थव्यवस्था का ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है जिसके बारे में नीतियां स्वतंत्र और जनहित में बन रही हों। इसके उलट मंत्रालयों से लेकर योजना आयोग और नियामक संस्थाओं तक हर समिति में या तो कॉरपोरेट प्रतिनिधि खुद मौजूद हैं या लॉबिंग के जरिए नीतियां बनाई या बदली जा रही हैं। 
लेकिन इसके साथ ही यह भी सच है कि पिछले डेढ़-दो वर्षों में स्पेक्ट्रम से लेकर कोयला-लौह अयस्क जैसे सार्वजनिक संसाधनों को औने-पौने दामों पर देशी-विदेशी कॉरपोरेट क्षेत्र के हवाले करने के घोटालों का पर्दाफाश होने और बढ़ते जन-प्रतिरोध के कारण यूपीए सरकार के लिए आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने के नाम पर इस कॉरपोरेट लूट को खुली छूट देने वाले फैसले लेने में बहुत मुश्किल हो रही है। कारपोरेट जगत और उसके प्रवक्ता इसे ही नीतिगत लकवा बता रहे हैं। 
असल में, यह एक बहुत सुनियोजित प्रचार अभियान है जिसका मकसद नवउदारवादी आर्थिक सुधारों के पक्ष में माहौल बनाना, उसके विरोधियों को खलनायक घोषित करना, सरकार और उसके आर्थिक नीतिकारों पर कॉरपोरेट समर्थित सुधारों को तेजी से आगे बढ़ाने का दबाव बनाना है। इस मुहिम के कारण सरकार इतना अधिक दबाव में है कि वह देशी-विदेशी कॉरपोरेट समूहों को खुश करने के लिए बिना सोचे-समझे, हड़बड़ी में फैसले कर रही है। इसी अभियान का दबाव है कि सरकार जहां पेट्रोल-डीजल और उर्वरकों की कीमतों में वृद्धि की तैयारी कर रही है वहीं खाद्य सुरक्षा विधेयक को लटकाए हुए है। सच पूछिए तो असली नीतिगत लकवा यह है कि सरकार रिकार्ड (छह करोड़ टन) अनाज भंडार के बावजूद उसे गरीबों और भूखे लोगों तक पहुंचाने के लिए तैयार नहीं है क्योंकि इससे वित्तीय घाटा बढ़ जाएगा और आवारा पूंजी नाराज हो जाएगी।
इसी तरह कॉरपोरेट की ओर से भूमि अधिग्रहण और पुनर्वास विधेयक को और हल्का करने का दबाव है और इसी कारण विधेयक लटका हुआ है। असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के लिए सामाजिक सुरक्षा का मुद्दा हो या सभी नागरिकों के लिए पेंशन का या फिर सबके लिए स्वास्थ्य के अधिकार का- सरकार इन वायदों को पूरा करने और नीतिगत फैसले करने से बचने के लिए संसाधनों की कमी का रोना रो रही है, लेकिन कॉरपोरेट क्षेत्र और अमीरों को ताजा बजट में भी 5.40 लाख करोड़ रुपए की टैक्स छूट और रियायतें देते हुए उसे संसाधनों की कमी का खयाल नहीं आता है। क्या यह नीतिगत लकवा नहीं है?

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