मेवाड़ के दलित अब पगड़ी सम्भाल रहे है .
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दलितों की पगड़ी उछालने वाले तत्त्व आजकल दलितों के सिर से पगड़ी छीनकर उसे जलती भट्टी में फैंककर दलित समुदाय के स्वाभिमान को ठोकरों तले रोंदने पर आमदा हो गये है। दक्षिणी राजस्थान का सामंती मेवाड़ इलाका अक्सर अपनी आन, बान और शान के लिये याद किया जाता है, यहां पर सदियों से मूंछे और सिर पर पगड़ी इज्जत और आत्मसम्मान की प्रतीक बनी हुई है, इस पगड़ी का विरासत से भी संबंध है, जब पिता की मृत्यु होती है तो पूरे समुदाय को इकट्ठा करके मृत पिता की पगड़ी ज्येष्ठ पुत्र के सिर पर बंधवाई जाती है, इस रस्म को इस क्षेत्र में ''पागबंधा'' कहा जाता है, इतना ही नहीं बल्कि दबंग कौमों में अधिकारों को कायम रखने के लिये जब आव्हा्न किया जाता है तो ''पगड़ी संभाल जट्टा'' जैसे जुमले भी प्रयुक्त होते है। मगर राजस्थान के राजसमंद जिले के दिवेर थाना इलाके की कुंवाथल पंचायत के गुणिया गांव के गरीब दलित बलाई जाति के लोग अपनी पगड़ी (इज्जत) नहीं बचा पाये है, इस क्षेत्र की एक दंबग कौम गुर्जर ने उनके वेशभूषा धारण करने पर कई प्रकार की बंदिशे लगा रखी है, यह वहीं गुर्जर कौम है जो अनुसूचित जनजाति का दर्जा पाने तथा आदिवासियों के हक का आरक्षण हड़पने के लिये कुछ सालों से आंदोलित है, मगर आंकड़े कहते है कि आदिवासी बनने को आतुर गुर्जरों को जब मौका मिलता है तो वे दलितों व वास्तविक आदिवासियों की जमीनें हड़पने, उन पर अत्याचार करने, उनके लिये ड्रेस कोड निर्धारित करने, दलित आदिवासी महिलाओं का यौन शोषण करने में सर्वाधिक आगे रहते है, भीलवाड़ा जिले में अजा/जजा (अत्याचार निवारण) अधिनियम 1989 के तहत दर्ज हुये मुकदमों के पांच वर्षों के विश्लेषण से यह चोकानें वाला तथ्य सामने आया कि भीलवाड़ा के भील आदिवासियों व बलाई दलितों पर सर्वाधिक अत्याचार गुर्जर समुदाय के लोग करते है।
गौरतलब है कि इस इलाके में कथित पिछ़ड़े गुर्जरों की दबंगई व जुल्मों सितम कई सदियों से मौजूद है, आजादी से पहले गुर्जर समुदाय के लोग दलित औरतों को किसी भी प्रकार का आभूषण नहीं पहनने देते थे, दलितों को अपने जूते हाथ में लेकर गांवों से गुजरना पड़ता था तथा उनकी छाया तक से परहेज किया जाता था, दलित पुरुषों को फटी पुरानी पगड़ी धारण करके ही संतोष करना पड़ता था, अगर कोई भी दलित या आदिवासी नये कपड़े पहन लेता था तो उसकी सरेआम पिटाई की जाती थी। लेकिन ये सब आजादी के पहले और उसके बाद के तीन दशकों तक सुदूर ग्रामीण इलाकों में चलता था, 70 के दशक के बाद व्यापक बदलाव हुआ, दलितों के पास जमीनें, शिक्षा और रोजगार आया तो वे पक्के मकान बनाने लगे, अच्छे कपड़े पहनने लगे, ज्यादातर पढ़े लिखे दलित तो शहरों में जाकर बस गये, पीछे रहे गये खेतीहर मजदूर अथवा पशुपालन से जीवन यापन करने वाले दलित परिवार, जिन्हें अब तक भी गुर्जर ही नहीं बल्कि अगड़ों व कथित पिछड़ो ने गुलाम बना कर रखा हुआ है, अब भी वे सवर्णों की मर्जी के बगैर न तो चुनाव लड़ सकते है और न ही सरकारी स्कूलों में पढ़ सकते है, अपने सार्वजनिक आयोजन में सुस्वादिष्ट भोज भी नहीं बना सकते है, ऐसा करने पर उनकी मिठाईयों में रेत डालदिया जाता है, बिन्दौली में दलित दुल्हों को घोड़ों से गिरा दिया जाता है, अब भी इस इलाके में हजारों मंदिर ऐसे है जिनमें दलित घुस नहीं सकते है और अब राजसमंद जिले में तो दलित समुदाय के ग्रामीण चितकबरी पगड़ी भी नहीं बांध सकते है, क्योंकि गुर्जर समुदाय का कहना है कि ऐसी पगड़ी तो सिर्फ उन्हीं का समाज बांधेगा, इस रंगरूप की पगड़ी दलितों को बांधने का कोई हक नहीं है (जैसे गुर्जरों ने चितकबरी पगड़ी का पेटेन्ट करवा रखा हो!) इसके पीछे गुर्जरों का तर्क है कि कौन गुर्जर है और कौन दलित ? इस गलतफहमी में कई गुर्जर दलितों के घर चले जाते है और उनका खाना पानी खा पी लेते है, इससे उनका धर्मभ्रष्ट हो जाता है। इसलिए गुर्जर समुदाय चाहता है कि दलितों की पगड़ी अलग रंग की हो और उनकी पगड़ी अलग रंग की। गुर्जरों को तो यहां तक कहना है कि दलित औरतें भी गुर्जर औरतों जैसे घाघरे लूगड़ी नहीं पहने। इस अनावश्यक किस्म के मुद्दे पर दशकों से इस इलाके में विवाद जारी है। वर्ष 2007 में भीलवाड़ा जिले के सगरेव गांव के 60 दलित परिवारों को महज इसीलिये 5-5 किलोमीटर तक दौड़ा-दौड़ा कर मारा गया कि उन्होंने गुर्जरों जैसे कपड़े क्यों पहन लिये थे ? बाद में वहां 10 हजार दलितों ने 5 सितम्बर 2007 को ''दलित मानवाधिकार सम्मेलन'' का आयोजन किया, पुलिस कार्यवाही हुई और दोषियों को सजा मिली, दलितों के हक बहाल हुये, इस सम्मेलन से दलितों में आत्मविश्वास जगा तथा वे अत्याचारों के विरुद्ध खड़े होने लगे, दूसरी ओर गुर्जर भी राजनीतिक व सामाजिक रुप से और अधिक एकजुट हुये, उनके पास संसाधनों की अधिकता के चलते समृद्धि भी आई तथा जनजाति में शामिल किये जाने की मांग ने उन्हें संगठित भी किया।
गुर्जरों के पुर्नजागरण का सबसे बुरा असर दक्षिणी राजस्थान के अजमेर, भीलवाड़ा, राजसमंद आदि जिलों में बसने वाले दलितों पर पड़ा, वे सर्वाधिक शोषण व दमन के शिकार हुये। गुर्जरों ने अपनी एकजुटता व ताकत का बेजा इस्तेमाल भी दलितों व आदिवासियों को दबाये रखने में किया, अब भी गुर्जरों को यह लगता है कि चूंकि वे उपरोक्त जिलों में बड़ी संख्या में है इसलिये जो मर्जी आये कर सकते है, चाहे जिन्हें दबा सकते है, यहां तक कि मार भी सकते है, यह अत्यन्त चोकानें वाला तथ्य है कि उपरोक्त जिलों में अब तक जितने दलितों की हत्याएं हुई उनमें से 80 प्रतिशत के मुख्य आरोपी गुर्जर समुदाय से आते है, तो इस प्रकार का दमन और शोषण तथा अन्याय व अत्याचार का माहौल आज भी इस इलाके में साक्षात देखा जा सकता है।
हाल ही में राजसमंद जिले के गुणिया गांव के निवासी 45 वर्षीय दलित गोरधन बलाई को भी गुर्जर समुदाय के किशन लाल ने अपने 5-6 साथियों के साथ मिलकर सरेराह, सरेआम, भरी दोपहरी में 11 मार्च 2012 को बियाना गांव में रोक लिया तथा एक घर में ले गये जहां पर भारी संख्या में गुर्जर जमा थे, क्योंकि वहां पर उसी दिन कोई भोज होने वाला था, भट्टियां जल रही थी, गरमा गरम पुडि़या तली जा रही थी। किशन लाल गुर्जर ने गोरधन बलाई को कहा – ''साले नीच, तूने यह काबरिया पगड़ी कैसे बांध ली ? यह तो गुर्जरों की है, तुम बलाईटों को इसे बांधने का क्या हक है ?'' यह कहकर किशन लाल गुर्जर ने दलित गोरधन बलाई के सिर की पगड़ी छीन ली और उसे जलती हुई भट्टी में फैंक दिया और धमकाया कि आज के बाद फिर से गुर्जरों जैसी पगड़ी बांधी तो तुझे भी भट्टी में डालकर जला देंगे और जान से खत्म कर देंगे।
इस इलाके में पगड़ी इज्जत का प्रतीक है, पहले दलितों को पगड़ी नहीं बांधने दी जाती थी, लम्बे संघर्ष से उन्होंने यह हक प्राप्त् किया और सुख चैन से जीने लगे, मगर गुणियां के गोरधन बलाई के साथ घटी इस घटना ने दलितों में जबरदस्त आक्रोश पैदा कर दिया है।
घटना का शिकार गोरधन बलाई बेहद सीधा सादा इंसान है, खेतीहर मजदूर, बियाना गांव के सुथार परिवार की जमीन बंटाई पर लेकर खेती करता है और परिवार का पालन पोषण करता है, वह तो अचानक हुये इस हादसे से सदमें की स्थिति में पहुंच गया तथा मानसिक रुप से भयभीत होकर रिश्तेदारों के यहां छिपने हेतु चला गया, संयोग से उसे वहां डालुराम बलाई नाम का जागरूक दलित साथी मिल गया, जिसे गोरधन बलाई ने अपनी व्यथा सुनाई, बाद में बात फैली, दलित समाज के लोगों ने हिम्मत दिखाई और अन्ततः घटना के तीसरे दिन 13 मार्च को दिवेर थाने में दलित अत्याचार निवारण कानून के तहत मामला दर्ज किया गया है, पुलिस जांच कर रही है, ऐसा बताया जा रहा है। मगर इस पगड़ी को जलाने के अमानवीय कुकृत्य के विरुद्ध राजसमंद ही नहीं बल्कि पूरे मेवाड़ का दलित समाज आक्रोशित है क्योंकि इसी राजसमंद जिले में वर्ष 2011-12 में कई दलितों की हत्याएं की जा चुकी है, कई दलित महिलाओं को डायन घोषित किया गया, दलित बच्चों को मिड डे मिल में जहर मिलाकार खत्म कर दिया गया, दलित युवतियों का बलात्कार किया गया, दलित युवाओं को अपमानित किया गया, इसी एक समुदाय द्वारा। समस्या यह है कि इस प्रकार के अमानवीय अत्याचार करने वाले समुदाय के ही लोग यहां सत्तारूढ़ पार्टी के संगठन के कर्ताधर्ता है तथा पंचायतराज से लेकर उपर तक छाये हुये है, ऐसे में मेवाड़ के दलितों ने इस बार अपनी पगड़ी को संभालने के लिये, अपने स्वाभिमान को बचाने के लिये, खुद ही खड़े होने का संकल्प लिया है, जल्द ही गुणियां में बहुत बड़ा आंदोलन होगा, ऐसी तैयारियां की जा रही है, क्योंकि मेवाड़ के दलितों ने अपनी खोई हुई पगड़ी संभाल ली है और अब वे हक की लड़ाई लड़ने पर उतारू है। शुभास्ते पंथान संतु।
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