अछूत शरणार्थी और नवदलित आंदोलन का नजरिया
मुंबई से एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास
मानवाधिकार जननिगरानी समिति और उसके प्राइम पुरुष डा. लेनिन, उनकी टीम ने बुनकरों के आंदोलन को नवदिलत आंदोलन से विश्व वायापी आयाम दिया है, जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। जमीनी स्तर पर मानवाधिकार के लिए लगातार संघर्षरत लोग अंबेडकर विचारधारा के माध्यम से सत्ता की राजनीति करके दलित आंदोलन को जिस आत्मघाती परिणति की ओर ले जा रहे हैं, उसके मद्देनजर यह पहल उम्मीद की किरण है। डा. लेनिन चूंकि बुनकरों के बीच लंबे अरसे से काम करते रहे हैं और मानवाधिकार जननिगरानी समिति की उनकी कर्मठ टीम चूंकि इनपर होने वाले अत्याचारों और मानवाधिकार हनन के खिलाप लगातार सक्रिय हैं, इसलिए नवदलित आंदोलन में मुसलमानों को जोड़ने में उन्हें बेहतरीन कामयाबी मिल रही है। गौरतलब है कि बुनकरों में हिंदू और मुसलमान बुनकर दोनों हैं और सामाजिक हैसियत से वे सारे लोग दलित बहिष्कृत समाज के अस्पृश्य लोग है , इसलिए बुनकरों का आंदोलन स्वतः ही दलित मूलनिवासी आंदोलन है। ऐसा बंगाली शरणार्थियों के आंदोलन के बारे में भी कहा जा सकता है। देशभर में छितरा दिये गये तमाम बंगाली शरणार्थी अछूत हैं और उनके पुनर्वास और नागरिकता आंदोलन दलित आंदोलन है। पर दलित संगठनों ने उन्हें हमेशा अपने दायरे से बाहर रखा है। राजनीति की तरह अंबेडकर विचारधारा के झंडेवरदारों ने अछूत बंगाली शरणार्थियों का इस्तेमाल ही किया है। यही हाल बुनकरों का है। अब नव दलित आंदोलन से बुनकरों की लड़ाई को मानवाधिकार जननिगरानी समिति किस अंजाम तक पहुंचाती है, यह देखना बाकी है। बहरहाल डा. लेनिन और उनकी टीम का बंगाली शरणार्थियों के बीच कोई खास काम नहीं है। अगर नवदलित आंदोलन के मंच से वे बुनकरों, मुसलमानों और बंगाली अछूत शरणार्थियों की समस्याओं को उठा पाते हैं तो शायद यह भारतीय व्यवस्था को बदलने की एक बड़ी पहल साबित हो सकती है। भारत-पाकिस्तान के बंटवारे की त्रासदी के बाद अपने देश में मौलिक अधिकारों के लिए जूझ रहे बंगाली शरणार्थी परिवार दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं। उन्हें दोयम दर्जे का जीवन जीना पड़ रहा है। बंगाली अछूत शरणार्थियों के बारे में क्या नजरिया अपनाता है नवदलित आंदोलन। इसे देखने के बाद ही पता चलेगा कि हाशिये पर खड़ी सामाजिक ताकतों को गलोबंद करने में उसकी क्या भूमिका हो सकती है।
भारत में खेती के बाद असंगठित क्षेत्र में सबसे बड़ा रोजगार उपलब्ध करने वला क्षेत्र है बुनकरी| हिन्दुस्तान की कदीमी हथकरघा बुनाई विलुप्त होती जा रही है। जिसकी वजह से विश्व में अपनी ख़ास पहचान रखने वाली बनारसी साड़ी के वजूद पर ख़तरा मडराने लगा है। साथ में इस ताना-बाना के सहारे जिन्दगी गुज़र करने वाले बुनकर भी बदहाली, मुफलिसी और बेकारी भरी जिन्दगी गुज़ारने पर मजबूर हैं।पूर्वाचल की सबसे बड़ी पहचान यहां की बुनकरी है। बनारस की साड़ी, भदोही का कालीन, मऊ का हैंडलूम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त हैं। बिहार के भागलपुर ,यूपी में वाराणसी, भदोही ,आज़मगढ़, चंदौली, मऊ, टाडा, मऊरानीपुर, ललितपुर, इलाहाबाद और पिलखुआ , हरियाणा के सोनीपत और पानीपत , राजस्थान के कोटा , उत्तराखंड ,छातिसगढ़ ,असम ,पश्चिम बंगाल ,तमिलनाडु कर्णाटक और आध्रप्रदेश सहित देश भर में तक़रीबन 63 लाख बुनकर हैं | उत्तर प्रदेश की बात करें तो बुनकारी का काम यहां ग़रीब मुसलमानों व दलितों का मुख्य पेशा है। मार्च 2009 के हथकरघा निदेशालय की रिपोर्ट से पता चलता है कि उत्तर प्रदेश में 1978 कार्यरत हथकरघा समितियां एवं 665348 हथकरघा बुनकर पंजीकृत हैं। अब तायदाद शायद और ज्यादा हो सकती है। इस तरह व्यक्तिगत बुनकरों को शामिल कर के कहा जा सकता है कि प्रदेश में तक़रीबन दस लाख से ज्यादा लोग इस व्यवसाय से जुड़े हैं। तमाम चिल्ल-पों के बावजू़द बुनकरों की माली हालत जस की तस बनी हुई है। केन्द्र व राज्य सरकार की तरफ़ से जो भी योजनाएं या कार्यक्रम जारी की जाती है हक़ीक़तन वह बुनकर समुदाय के लम्बरदारों तक ही करघे पर बुनाई में लीन एक नौजवान कारीगर सिमट कर रह जाती है। जिसकी प्रमुख वजह है कि सरकारी पॉलिसी के हिसाब से उन्हीं बुनकरों को इमदाद मुहैया कराया जाता है जो किसी पंजीकृत संस्था या नोडल एजेंसी से जुड़े होते हैं। व्यक्तिगत बुनकरों को नाममात्र की सुविधायें उपलब्ध करायी जा रही है। इसी वजह से सरकारी लाभ संस्थाओं के अध्यक्ष हजम कर जाते हैं और डकार तक नहीं लेते।एक बुनकर परिवार की सालाना आमदनी लगभग 12 से 18 हज़ार रुपए के बीच हो पाती है। इसी आमदनी में बुनकरों के पूरे साल का ख़र्च, बच्चों की परवरिश, पढ़ाई व शादी-विवाह का भी बोझ उठाना पड़ता है।
यही वजह है कि बुनकरों के बच्चे अच्छी तालीम व तरबियत से महरूम रह जाते हैं। सिर्फ़ मजहबी शिक्षा या सरकारी पाठशालाओं में दोपहर का खाना खाकर इनके बच्चे साक्षरों की लिस्ट में अपना नाम दर्ज करवा लेते हैं। उच्च शिक्षा या अच्छे विद्यालयों में पढ़ने के लिए कम आमदनी बाधा बनती है। ज़रा विचार करें कि जिस समाज में शिक्षा का आभाव होगा वह कैसे विकास कर पायेगा। आज़ादी की बीते 63 सालों में देश के लाखों बुनकरों की समस्याएं और उनकी ग़रीबी दूर होने की बजाय बढ़ती ही चली जा रही है | सरकार की ओर से मिलता है तो बस आश्वासन | देश के जिन हिस्सों में बुनकरों की संख्या ज़्यादा है वहाँ आप जाएँ तो पाएंगे कि विकास की राह में यह इलाक़ा कितना पीछे छूट गया है |बहरहाल , बुनकरों का राष्ट्रीय सम्मलेन दिल्ली में आयोजित होने से उम्मीद की जा रही है कि बुनकरों की समस्याओं पर राजनितिक दलों के बीच साथ खड़े होने की होड शुरू होगी | इससे पहले भी यूपी चुनाव के दौरान मायावती और राहुल गाँधी के बीच बुनकरों की बदहाली को लेकर एक दूसरे पर आरोप लगाए गए थे |इस बीच,मानवाधिकार जननिगरानी समिति एवं यूरोपियन यूनियन के संयुक्त प्रयास से भारत में मुस्लिमों पर बढ़ते पुलिसियां उत्पीड़न को कम करने व जमीनी स्तर पर मानवाधिकार संगठनों में मजबूतीकरण के लिए यूरोपियन यूनियन (नई दिल्ली) की दो महिला प्रतिनिधि एवं राजनैतिक सामाजिक स्तर के वरिष्ठ प्रगतिशील बुद्धजीवियों के साथ मुस्लिमों की वर्तमान सामाजिक आर्थिक स्थिति, पुलिसिया अत्याचार और समाज में व्याप्त साम्प्रादायिकता में कम करने के विकल्पों के मुद्दे पर साझा बैठक मदरसा, उस्मानियां बजरडीहा में हुआ। बुनकरी व्यवसाय करने वाले मध्यप्रदेश एवं महाराष्ट्र के अंतर्गत सेन्ट्रल प्रोविनेन्स एवं बेरार के क्षेत्र में रहने वाले बुनकर (कोष्टा/कोष्टी) ये आदिवासी हलवा ही है । शताब्दियों पहले इनके पूर्वज वनों दुर्गम क्षेत्रों में निवास करते हुए 'हल' (बांगर) से खेती किसानी एवं खेतों में मजदूरी करते थे, इसलिये वे आदिवासी हलवा के रुप में पहचाने गये । कृषि कार्य के बाद आदिवासी हलवा ने उदर निर्वाह के लिये 'हल' के बजाय 'हाथ करघा' का सहारा लिया । और उन्होने कोसा बुनकरी को अपनाया जिससे आदिवासी हलवा को गलती से कोष्टा/कोष्टी समझे जाने लगा । वैसे तो छत्तीसगढ़ व पूरे म.प्र. में ब्रिटीश शासन स्थापना होने के पूर्व सिर्फ हलवा का ही उल्लेख मिलता है तथा श्री रसेल ने भी इसका स्पष्ट उल्लेख किया है ।
हथकरघा एवं वस्त्रोद्योग निदेशालय की स्थापना राम सहाय आयोग की संस्तुति के आधार पर 16.9.1972 को पृथक निदेशालय के रूप में हथकरघा बुनकरों की समग्र विकास के उद्देश्य के लिए की गई तथा इसका मुख्यालय कानपुर में है। कार्य को सुचारू रूप से चलाये जाने के लिए निम्नलिखित 1-कानपुर 2-लखनऊ 3-इलाहाबाद 4-इटावा 5-झांसी 6-मेरठ 7-अलीगढ 8-मुरादाबाद 9-मऊ 10-वाराणसी 11-बरेली 12-गोरखपुर 13-फैजाबाद कुल 13 परिक्षेत्रीय कार्यालय प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों में स्थित है। इसका कार्य एवं दायित्व बुनकरों के उत्थान के लिए उनको विभिन्न प्रकार की सहायतायें एवं सुविधायें राज्य सरकार एवं केन्द्र सरकार के समन्वित सहयोग से चलायी जाने वाली योजनाओं के माध्यम से उपलब्ध कराना है।भारत वर्ष मे कृषि के बाद बुनकरी हथकरघा पर वस्त्र बनाने के व्यवसाय पर सबसे ज्यादा व्यक्तियों को रोजगार के सुअवसर प्राप्त होते है, हथकरघा एवं वस्त्रोद्योग निदेशालय द्वारा असंगठित क्षेत्र के बुनकरों को सहकारिता क्षेत्र मे लाकर उनकी समितियां गठित करके उनके अन्दर सृजनशीलता उत्पन्न करने के कार्य को प्रोत्साहित किया जाता है। इसमें सहकारिता अनुभाग की विशेष भूमिका है, अभी तक प्रदेश में मात्र 17 प्रतिशत बुनकर सहकारिता क्षेत्र में समितयां गठित करके संगठित रूप से कार्य कर रहे है। अब भी प्रदेश में बुनकरी कार्य करने वाले 83 प्रतिशत बुनकर सहकारिता क्षेत्र में नही आ सके हैं। वर्तमान में प्रदेश में कुल 5,785 हथकरघा/पावरलूम बुनकर सहकारी समितयांपंजीकृत हो चुकी है। जिसमे से 2,886 समितयां परिसमापनाधीन चल रही है। कुल 1930 समितयां कार्यरत है तथा 969 समितयां को पुर्नगठित करने की योजना चल रही है।
रेशम के दाम में आई तेजी और बिचौलियों के बढ़ते दखल ने हथकरघा बुनकरों के मुंह से निवाला छीनने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है। हथकरघा बुनकरों के लिए कम दाम पर रेशम का धागा मुहैया कराने और बुनकर कार्ड जारी करने की सरकारी योजनाएं वाराणसी से मुबारकपुर पहुंचते पहुंचते दम तोड़ देती हैं।मुबारकपुर और उससे सटे गांवों के 1 लाख से भी अधिक बुनकर सट्टïई, गिरस्ता और महाजन के फेर फंस कर मजदूरी करने को मजबूर हैं। हाथ से बुनाई करने वाले बुनकरों को जारी होने वाला कार्ड वाराणसी की पीली कोठी और लोहता इलाके के पावरलूम बुनकरों की जेब की शोभा बढ़ा रहा है।किसी के पास बुनकर कार्ड नहीं है, न ही वो सस्ते दाम पर रेशम का धागा उपलब्ध कराने वाली किसी सरकारी योजना के बारे में जानते हैं। मुबारकपुर में बुनकरों को गिरस्ता कहे जाने वाले ठेकेदार से धागा मिलता है जो कि माल तैयार होने पर साड़ी की मजदूरी चुका देता है।
एक साड़ी बुनने के लिए 800 ग्राम धागा गिरस्ता देता है और तैयार माल की 500 रुपये मजदूरी देता है। गिरस्ता से आगे बिना किसी निवेश के मुनाफा कमाने वाले सट्टी मालिक का नंबर आता है जो ग्राहक लाने का काम करता है और माल बिकने पर दोनों पक्षों से कमीशन लेता है।गिरस्ता हथकरघा चलाने वालों को रेशम धागा खरीदने ही नहीं देता है और अगर कोई कोशिश करता है तो उसे ऊंचे दाम नकद चुकाने पड़ते हैं। खुद की साड़ी तैयार करने की हिम्मत जुटाने वाले बुनकरों को किसी सट्टी पर अच्छा भाव नही मिल पाता। मजदूरी पर काम करने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा है। हालात यह है कि 25-30 साल से साड़ी तैयार करने वाले बुनकरों ने आज तक असली ग्राहक की शक्ल तक नहीं देखी है।बातचीत में बुनकरों ने माना कि उनकी बनाई साड़ी बाजार में दोगुने तिगुने दाम पर बिकती है पर चुपचाप अपना शोषण कराने के सिवा उनके पास कोई चारा नहीं है। चीन से आयात होने वाला मलबरी रेशम धागा वाराणसी में 2700 रुपये किलो है जबकि मुबारकपुर में इसे 3,000 रुपये किलो के भाव पर बेचा जा रहा है। बुनकरों को धागा उपलब्ध कराने के लिए सरकारी स्तर पर कोई व्यवस्था नहीं है। वाराणसी में बने प्रदेश सरकार के सिल्क एक्सचेंज का नाम तो बुनकरों को उसी शहर में ही नहीं पता फिर मुबारकपुर और मऊ की बिसात ही क्या।
बनारस के साझा संस्कृति के इतिहास से निकला ''नवदलित आंदोलन'' को वाराणसी के गाँवों से लेकर दुनिया के दूसरे कोने पेरू तक लोगों ने रंगभेद विरोधी संयुक्त राष्ट्र संघ दिवस (21 मार्च, 2012) पर मोमबत्ती जलाकर नवदलित आंदोलन का समर्थन किया। सबसे पहले फिलीपीन्स की सुश्री दीवाई (Deewai Rodriguez) एवं जर्मनी के श्री इलियास स्मिथ (Mr. Elias Smidth) ने मोमबत्ती जलाई। नव दलित आंदोलन को विश्व बौद्ध संघ के कार्यकारी अध्यक्ष श्री राजबोध कौल, दलित राजनैतिक नेता उदितराज, आदिवासी नेता दयामनी बारला, फोटोग्राफर एलेसियो मेमो (Alessio Mammo), स्वतंत्र फिल्मकार जायगुहा सहित समाज के सभी तबकों ने समर्थन दिया हैं। लंदन के प्रवासी भारतीय श्री मरियन दास ने कहा है कि ''नवदलित आंदोलन धर्मनिरपेक्ष एवं सभी को जोड़ने वाला है।''भारत के करीब 70 स्थानों पर नवदलित आंदोलन के समर्थन में लोग इकठ्ठा हुए और वाराणसी के 5 ब्लाकों के तकरीबन 700 लोगों ने हिस्सा लिया एवं अभी तक दुनिया के तकरीबन दस देशों में समर्थन मिला।
दूसरों के तन ढंकने के लिए कपडा बुनने वाले बुनकर नंगे बदन काम करते हुए दो जून की रोटी को तरस रहे हैं | गंदगी और बिमारियों के साथ तालेमल बिठाते हुए काम कर रहे इन लोगों ने शायद यह मान लिया है कि उनके हिस्से में इससे ज़्यादा कुछ भी नहीं | ना तो न्यूनतम मज़दूरी मिलती है और ना ही लोककल्याणकारी राज्य की सुविधाएँ ; शिक्षा ,स्वास्थ्य , सड़क,बिजली और पानी आदि भी इनके हिस्से नहीं आता है | हर रोज रोटी की चिंता में हड़तोड़ परिश्रम करने सारा परिवार जुटा रहता है ऐसे में बच्चों को स्कुल भेजने की सोच नहीं पाते | बच्चे, बूढ़े, महिलाएं सब मिलकर काम करते हैं तो मुश्किल से गुजर हो पाता है। घर में किसी के बीमार होने या बेटी की शादी के बाद मकान बेचना पड़ रहा है |
पूर्वी से आए बंगाली शरणार्थियों को देश के कई प्रांतों में ज़मीन देकर भारत सरकार ने बसाया। बिहार में भी किशनगंज, पूर्णिया, कटिहार, अररिया एवं भागलपुर आदि क्षेत्रों में इन शरणार्थियों को बसाया गया। इसी क्रम में 1956 में चंपारण के कई हिस्सों में भारत सरकार ने उन्हें खेती के लिए चार एकड़ और घर बनाने के लिए तीन डिसमिल ज़मीन प्रदान की थी, लेकिन आज तक इन्हें पूर्ण मौलिक अधिकार नहीं मिल सके हैं। 54 वर्षों के बाद भी स्थिति जस की तस है। राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक पिछड़ेपन के कारण इनकी हालत काफी दयनीय है। ज़मीन का रैयाती हक आज तक नहीं मिला है। दोनों सरकारों को राजनीतिक, आर्थिक एवं सामाजिक पिछड़ेपन का ख्याल नहीं है। मातृभाषा की पढ़ाई से वंचित रखा गया है।परिवार में सदस्यों की संख्या बढ़ती चली गई। परिवार के सदस्य भूमिहीन होते चले गए. सरकार को ऐसे परिवारों को भूमिहीनों में जोड़ना चाहिए था। साठ प्रतिशत लोग भूमिहीन हैं। सरकार ने जाति प्रमाणपत्र देने का वादा किया था, वह भी आधा-अधूरा है। बिहार के बहुत सारे अंचल में जाति प्रमाणपत्र जारी नहीं किए जाते हैं। जैसे योगापटी, मैंनाटॉड़ आदि क्षेत्रों में. जबकि सरकार द्वारा सभी ज़िला पदाधिकारियों को निर्देशित किया गया था कि विस्थापित बंगाली शरणार्थियों को उत्तराधिकार एवं अभिलेख में उल्लिखित आधार अथवा अनुपलब्धता के आधार पर पूछताछ करके जाति प्रमाणपत्र जारी किए जाएं, लेकिन इसका पालन नहीं किया जा रहा है।इस संदर्भ में विभिन्न संगठनों ने पटना की सड़कों पर धरना-प्रदर्शन भी किया. इनमें नम: शूद्र समिति, पूर्वी बंगला शरणार्थी समिति एवं बिहार बंगाली शरणार्थी आदि प्रमुख रहे. 2009 में इन समितियों ने लोकसभा चुनाव के बहिष्कार का निर्णय लिया, लेकिन 27 मई, 2009 को बिहार सरकार ने एक समझौता करके लोकसभा चुनाव में वोट देने की अपील की, लेकिन उसके बाद सरकार फिर शिथिल पड़ गई. समस्या जस की तस बनी रही। बिहार में अगर यह स्थिति है तो उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, राजस्थान,महाराष्ट्र,ओड़ीशा, छत्तीसगढ़, झारखंड,मध्यप्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्र, त्रिपुरा, मणिपुर, मेगालय,असम व अन्यत्र बंगाली अछूत शरणार्थियों की जिनसे न बंगाली भद्रलोक सत्तावर्ग और न देश के दूसरे दलितों का कोई लेना देना है,की स्थिति बदतर है।
गौरतलब है कि गुवाहाटी में बंगाली शरणार्थियों का पहला खुला सम्मेलन पिछले दिनों संपन्न हो गया। खास बात यह है कि इस सम्मेलन में सत्तादल के कांग्रेसी मंत्री भी शामिल हुए।इन मंत्रियों ने हिंदू बंगाली शरणार्थियों की नागरिकता का मसला हल करने का वादा किया। नये नागरिकता कानून में हिंदुओं के लिए कोई अलग रियायत नहीं है। इसके अलावा इस कानून से शरणार्थियों के अलावा देश के अंदर विस्थापित दस्तावेज न रख पाने वालों, आदिवासियों,मुसलमानों, बस्ती वासियों और बंजारा खानाबदोश समूहों के लिए भी नागरिकता का संकट पैदा हो गया है। यह सिर्फ हिंदुओं या बंगाली रणार्थियों की समस्या तो कतई नहीं है, खासकर नागरिकता के लिए बायोमैट्रिक पहचान के लिए अनिवार्य बना दी गयी आधार कार्ड योजना के बाद।
कलकत्ता में ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी का मुख्य कार्यालय था और अण्डेमान में ब्रिटिश अधिकार के समय कलकत्ता बन्दरगाह से प्राय: जलयान भेजे जाते थे। सन् 1858 ई। और उसके बाद के वर्षों में निर्वासित किए जाने वाले व्यक्ति भी मुख्य रूप से कलकत्ता से ही पोर्टब्लेयर लाए जाते थे। बंगाल के क्रान्तिकारी और अन्य अपराधी प्राय: अण्डेमान में निर्वासित कर दिये जाते थे। परन्तु बंगालियों की संख्या पूर्वी पाकिस्तान से विस्थापित शरणार्थियों को बसाने के कारण धीरे-धीरे बढ़ती गई। सन् 1949 ई। में पहली बार 202 बंगाली परिवारों को पोर्टब्लेयर से आठ दस मील के घेरे में बसाया गया। 1950 ई। में 119 बंगाली परिवार और सन् 1951 में 78 बंगाली परिवार बसाए गए। बाद में हर साल नए परिवार आते गए और दूर-दूर के इलाकों में फैलते गए। दक्षिण अण्डेमान के दूरवर्ती प्रदेशों के बाद उनको लांग आइलैण्ड, लिटिल अण्डेमान, ओरलकच्चा, मध्य अण्डेमान और उत्तरी अण्डेमान में बसाया गया। इन बंगाली शरणार्थियों को द्वतीय पंचवर्षीय योजना के अन्त तक दक्षिणी अण्डेमान में (५६५ परिवार), मध्य अण्डेमान में (931 परिवार) और उत्तरी अण्डेमान में (1148 परिवार) बसाया गया। 339 शरणार्थी परिवार मध्य अण्डेमान के बेटापुर क्षेत्र में बसाये गए। इन पूर्वी पाकिस्तान से आये हुए बंगालियों के लिये 2,050 एकड़ भूमि साफ की गई। इसी तरह के 100 बंगाली परिवारों को नील द्वीप में 1,190 एकड़ भूमि पर बसाया गया। इस तरह से ग्रेट अण्डेमान के तीनों क्षेत्रों अर्थात् उत्तरी अण्डेमान, मध्य अण्डेमान और दक्षिणी अण्डेमान में पूर्वी पाकिस्तान से आये हुए 2,887 बंगाली परिवार बसा दिये गये। इन बंगाली शरणार्थियों के अलावा केरल के 157 परिवार तमिलनाडु के 43 परिवार, बिहार के 184 परिवार, माही से आये 4 परिवार और बर्मा से आये 5 परिवारों को ग्रेट अण्डेमान में बसाया गया था।लिटिल अण्डेमान में भी पूर्वी पाकिस्तान से आये बंगाली शरणार्थियों और श्रीलंका से आये तमिल शरणार्थियों के लगभग दो हज़ार परिवारों को बसाने की योजना तैयार की गई थी। रामकृष्णापुरम आदि की बंगाली बस्तियों की तुलना में अब ओंगी जन-जाति अपने ही द्वीप लिटिन अण्डेमान में एक नगण्य समुदाय में संकुचित हो गई है। इसी तरह हैव लाक द्वीप में बंगाली शरणार्थियों को बसाया गया।आज बंगाली समुदाय के सदस्यों का इन द्वीपों में सबसे बड़ा समूह बन गया है। बंगाल की संस्कृति और सभ्यता अण्डेमान में मुखरित हो उठी है। दुर्गापूजा, "यात्रा", "तर्जा", "कवि गान", "बाउल", और `कीर्तन' के स्वर गूंजते सुनाई देते हैं। इन बस्तियों में दुर्गापूजा, सरस्वती पूजा, लक्ष्मी पूजा, मनसा पूजा, दोलोत्सव और झूलन जैसे उत्सव बड़ी धूमधाम से मनाये जाते हैं।
देश भर में बांगाली शरणार्थियों की क्या हालत है, उसके लिए एक उदाहरण काफी है। पिछले दिनों माना-कैंप में रह रहे शरणार्थी बांग्लादेशी नागरिकों के घरों की दीवालों में भड़काऊ नारा लिखने के चलते हंगामा खड़ा किया गया। गुस्साएं शरणार्थियों ने माना बस स्टैण्ड में नारे के विरोध में जमकर हंगामा किया और थाना घेरने की कोशिश की। मगर सुरक्षा बलों के मजबूत के घेरे के चलते शरणार्थी बस स्टैण्ड में प्रदर्शन कर लौट गए। बाद में माना नगर पंचायत उपाध्यक्ष श्यामा प्रसाद चक्रवर्ती की शिकायत पर पुलिस संपत्ति विरूपण अधिनियम की धारा 3 के तहत अपराध दर्ज कर जांच कर रही है।
पुलिस सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार माना कैम्प में रह रहे शरणार्थी बांग्लादेशी नागरिकों की घरों की दीवाल में अवैध बांग्लादेशियों को भगाओ के नारे लिखे है। नारे के नीचे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का नाम अंकित है। इससे माहौल तनावपूर्ण हो गया था। जहां काफी संख्या में बंगाली समुदाय के नागरिक बस स्टैण्ड चौक में जमा होकर हंगामा शुरू कर दिया। हालांकि अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के प्रांतीय संयोजक सुधांशू ने नारे के लिखने में किसी तरह से हाथ होने से इंकार किया है। उनका कहना है कि नारे से उनका कोई संबंध नहीं है। इधर बस स्टैण्ड चौक में बंगाली समुदाय के लोगों के आक्रोश के चलते फोर्स को बुला लिया गया था। जहां दो घंटै से अधिक प्रदर्शन के बाद गुस्साएं नागरिक सुरक्षा अधिकारियों के आश्वासन पर शांतु हुए। बताया गया है कि प्रदर्शन के दौरान क्षेत्र के विधायक नंदे साहू भी वहां पहुंचे और प्रदर्शनकारियों को समझाईश दी। जबकि अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने जारी एक विज्ञप्ति के माध्यम से नारे की आलोचना की है। साथ में असामाजिक तत्वों की शरारत करार दिया है। संगठन ने माना सीएसपी, जीएस बामरा, अति पुलिस अधीक्षक शहर डॉ. लाल उमेंद सिंह को एक ज्ञापन सौंपकर उपरोक्त हरकत के लिए जिम्मेदार शरारती तत्वों की तलाश कर कड़ी कार्रवाई की मांग की है। संगठन में प्रांतीय सह मंत्री राकेश मिश्रा ने कहा कि संगठन उपरोक्त घटना की निंदा करता है।
दैनिक देशबंधु के मुताबिक नारे लिखे जाने को लेकर माना कैम्प सहित माना बस्ती इलाके में भी अफरा-तफरी मची रही और शरणार्थी बंगाली समुदाय के लोग काफी आक्रोशित थे। इन लोगों ने सुरक्षा अधिकारियों से कहा है कि यह एक सोची-समझी साजिश है ताकि बंगाली समुदाय के लोगों को परेशान किया जा सके। क्योंकि इससे पहले भी कुछ प्रयास हुए है। उनका कहना था कि इतने वर्ष रहने के बावजूद इस तरह की हरकते समझ से परे है। लेकिन इन घटनाओं को किसी भी सुरत में स्वीकार नहीं किया जाएगा। आने वाले दिनों में समुदाय के लोगों ने कड़ा विरोध करने के संकेत दिए है। प्रदर्शन में बंगाली के समुदाय के पुरूष एवं महिलाएं सहित बच्चे भी शामिल थे। इससे माना बस स्टैण्ड चौक में काफी समय तक वैधान पहुंचा। सिटी बस सहित ऑटो रिक्शा को भी प्रदर्शनकारियों ने चलने नहीं दिया। लेकिन विधायक नंदे साहू और टीआई माना, सीएसपी माना की समझाईश पर उग्र लोग शांत हुए तब कहीं जाकर तनावपूर्ण माहौल शांत हुआ।
जाहिर है कि नवदलित आंदोलन के लिए शायद यह बहुत महत्वपूर्ण है कि सत्ता के खेल में अछूत बंगाली शरणार्थियों और उनके मतुआ धर्म और आंदोलन की पिछले कुछ समय से च्ररचा जरूर हो रही है क्योंकि चुनावों से ऐन पहले ममता बनर्जी ने खुद को मतुआ बता दिया। बंगाल में ब्राह्ममवादी वर्चस्व के खिलाफ हिंदू मुसलिम किसान आंदोलन के जरिए मतुआ धर्म की स्थापना हुई थी। जिसके अनुआयी सभी धर्मों की किसान जातियां थीं। इसके संस्थापक हरिचांद ठाकुर ने नील विद्रोह का नेतृत्व किया था।जल जंगल जमीन के अधिकारों के लिए हुए मुंडा विद्रोह में भी आदिवासी धर्म की बात थी।आंदोलन को धर्म बताना सामान्य जनसमुदायों को जोड़ने की एक ऱणनीति के सिवाय कुछ नहीं है।पर आंदोलन को हाशिये पर रखकर महज धर्म की बात करना विरासत को खारिज करना है।. बंकिम के विख्यात उपन्यास को जिस सन्यासी विद्रोह की पृष्ठभूमि में रचा गया, वह भी वास्तव में एक किसान आंदालन था, जिसमें हिंदू और मुसलमान दोनों शामिल थे।इस समूचे आंदोलन को जिसे पश्चिम बंगाल में दमन के बाद पूर्वी बंगाल और बिहार के मुसलमान किसान नेताओं ने करीब सौ साल तक जारी रखा, एक वंदे मातरम के जरिये मुसलमान विरोध का औजार बना दिया गया। मतुआ आंदोलन भारत में अस्पृश्यता मोचन को दिशा देने का कारक बना। हरिचांद ठाकुर अस्पृश्य चंडाल जाति के किसान परिवार में जनमे।उन्होंने किसान आंदोलन और समाज सुधार के जो कार्यक्रम शुरू किये, वे महाराष्ट्र में ज्योतिबा फूले के आंदोलन से पहले की बात है।धर्मांतरण के बदले ब्राह्माणवाद को खारिज करके मूलनिवासी अस्मिता का आंदोलन था यह, जिसमें शिक्षा के प्रसार और स्वाभिमान के अलावा जमीन पर किसानों के हक और स्त्री के अधिकारों की बातें प्रमुख थीं। हरिचांद ठाकुर के पुत्र गुरुचांद ठाकुर ने प्रसिद्ध चंडाल आंदोलन का नेतृत्व किया, जिसके फलस्वरूप बाबा साहेब के अस्पृश्यता विरोधी आंदोलन से पहले बंगाल में अस्पृस्यतामोचन कानून बन गया और चंडालों को नमोशूद्र कहा जाने लगा। इसी मतुआ धर्म के दो प्रमुख अनुयायी मुकुंद बिहारी मल्लिक और जोगेंद्र नाथ मंडल ने दलित मुसलिम एकता के माध्यम से भारत में सबसे पहले न सिर्फ ब्राहमणवादी वर्चस्व को खत्म किया बल्कि जब बाबा साहब डा. अंबेडकर महाराष्ट्र से चुनाव हार गये, तब उन्हें बंगाल से जितवाकर संविधान सभा में भिजवाया. भारत विभाजन से पहले बंगाल की तानों सरकारे मुसलमानों और अछूतों की साझा सरकारें थीं।लेकिन भारत में अंबेडकर के नाम पर राजनीति करने वालों ने न मतुआ आंदोलन और चंडाल आंदोलन को अंबेडकर फूले विचारधारा के साथ अपनाया, और न अंबेडकर को संविधान रचने के काबिल बनाने की सजा भोग रहे अछूत बंगाली शरणार्थियों की सुधि ली। नवदलित आंदोलन क्या करता है, यह देखना अब बाकी है।
दूसरी ओर देश में लाखों बुनकर परिवार क़र्ज़ और ग़रीबी के चलते इस धंधे को छोड़ चुके हैं और जो बचे हुए हैं वे अब आत्महत्या करने पर मजबूर है | चुनाव आते ही हजारों करोड की ऋण माफ़ी और अन्य योजनाओं की घोषणा कर डी जाती है लेकिन राहत के नाम पर ग़रीब बुनकरों को एक फूटी कौड़ी भी नसीब नहीं हुई | वर्तमान में अधिकांश बुनकर पावरलूम चला कर कपड़ा तैयार करते हैं | उनकी समस्याएं भी हस्तकरघा बुनकरों से कम नहीं हैं | बावजूद इसके विद्युत करघा (पावरलूम) चलानेवाले बुनकरों को बुनकर क्रेडिट कार्ड का लाभ नहीं मिल रहा है | पूछने पर अधिकारी कहते है कि बुनकर क्रेडिट कार्ड हस्तकरघा बुनकरों के लिए हैं | कागजों पर तो हर साल केन्द्र की ओर से मह्त्वकंशी बताए जाने वाली योजनाएं बनाई जाती है | पिछले वर्ष भारत सरकार के वस्त्र मंत्रालय द्वारा पावरलूम सर्विस सेंटर के माध्यम से देश भर में ' एकीकृत कौशल विकास योजना' का हल्ला मचाया गया था |इस योजना के तहत बेसिक वीविंग, शटललेस वीविंग, जॉबर व फिटर, फैब्रिक प्रोडेक्शन एवं एडवांस ट्रेनिंग इन फैशन एण्ड डिजाइन टेक्नोलॉजी समेत पांच विधाओं में बुनकरों को प्रशिक्षित कर व्यापार की मुख्यधारा से जोड़ने की बात कही गयी थी | लेकिन महीने बीते जाने पर भी वह योजना कहीं धरातल पर दिखाई नहीं पड़ती है |सवाल उठता है कि आबादी के हिसाब से सबल बुनकर समुदाय की समस्याएं कभी राष्ट्रीय बहस का हिस्सा क्यों नहीं बन पाती है ? क्यों नहीं कोई राजनितिक दल इनके पक्ष में खड़ा दिखाई पड़ता है ? इन सवालों के जबाव में बुनकरों की समस्या पर सालों से काम कर रहे भाजपा बुनकर प्रकोष्ठ के राष्ट्रीय संयोजक बसंतजी कहते हैं कि देश में इतने सालों में बुनकरों की हकमारी होती आ रही है | अब देश भर के बुनकर अपने अधिकारों की मांग को लेकर सजग और संगठित हो रहे हैं | हमारी मांग है कि | प्रत्येक जिले में दिल्लीहाट जैसा उपक्रम स्थापित हो जहां बुनकर अपना तैयार वस्त्र की प्रदर्शनी व बिक्री कर सके | बुनकरों के सारे कर्जे अविलम्ब माफ कर उनको कच्चे माल की उपलब्धता और आधुनिक तकनीक मुहैया कराए जाएँ | वर्ष भर में बुनकरों को अधिकतम 100 दिन का ही काम मिल पाटा है , उनको वर्ष भर काम मिले इसकी व्यवस्था केन्द्र सरकार करे | इनके लिए भी नरेगा जैसी योजना और विशेष स्वास्थ्य बिमा योजना चलाई जाए | किसान केबिनेट की तराह बुनकर और कारीगर केबिनेट बने | बुनकर-कारीगर कमीशन ,बुनकरों के लिए यूनिवर्सिटी , अलग से बैंक और अलग से मंत्रालय बनाया जाए | ऐसे ही मांगों को लेकर हम आगामी 8 जून को नई दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में हजारों बुनकरों का राष्ट्रीय सम्मलेन कर रहे हैं |
बहरहाल , बुनकरों का राष्ट्रीय सम्मलेन दिल्ली में आयोजित होने से उम्मीद की जा रही है कि बुनकरों की समस्याओं पर राजनितिक दलों के बीच साथ खड़े होने की होड शुरू होगी | इससे पहले भी यूपी चुनाव के दौरान मायावती और राहुल गाँधी के बीच बुनकरों की बदहाली को लेकर एक दूसरे पर आरोप लगाए गए थे |
इस बीच,मानवाधिकार जननिगरानी समिति एवं यूरोपियन यूनियन के संयुक्त प्रयास से भारत में मुस्लिमों पर बढ़ते पुलिसियां उत्पीड़न को कम करने व जमीनी स्तर पर मानवाधिकार संगठनों में मजबूतीकरण के लिए यूरोपियन यूनियन (नई दिल्ली) की दो महिला प्रतिनिधि एवं राजनैतिक सामाजिक स्तर के वरिष्ठ प्रगतिशील बुद्धजीवियों के साथ मुस्लिमों की वर्तमान सामाजिक आर्थिक स्थिति, पुलिसिया अत्याचार और समाज में व्याप्त साम्प्रादायिकता में कम करने के विकल्पों के मुद्दे पर साझा बैठक मदरसा, उस्मानियां बजरडीहा में हुआ।
कार्यक्रम की शुरुआत में आये हुये प्रतिनिधियों का स्वागत मानवाधिकार जननिगरानी समिति के महासचिव डा. लेनिन करते हुये मुस्लिमों की सामाजिक व आर्थिक स्थिति को साझा किये तथा मानवाधिकार मार्गदर्शिका पुस्तिका का विमोचन अतिथियों द्वारा किया गया।
BHU के भूतपूर्व आइसा नेता सुनील यादव ने कहा कि उदारवाद के नाम पर जो बाजारवाद चल रहा हैं, उसके खिलाफ लड़ाई जारी रखते हुए इसकी दिशा तय करनी होगी। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि जब देश में कोई आतंकवादी घटना होती है तो उत्पीड़न मुस्लिमों के साथ ही होता हैं और राजनैतिक पार्टीयां लगातार तुष्टिकरण की बात करती हैं लेकिन सच्चर कमेटी ने इन सभी दावों की पोल खोल कर रख दी हैं। जिसमें साफ-साफ कहा गया हैं कि भारत में सबसे अधिक हाशिये पर रही अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों से भी अधिक बुरी एवं बदतर स्थिति आज मुस्लिमों की हैं।
आगे की कड़ी में कौमी एकता दल के अतहर जमाल लारी ने कहा हम होली मिलन, ईद मिलन कार्यक्रम करते है, लेकिन कभी आत्ममीयता के स्तर पर ये सब नही करते, सरकार व प्रशासन के साथ समाज को भी समझने की आवश्यकता है कि सामाजिक सेवा व सौहार्द के नाम पर सभी कार्यक्रम केवल रस्म अदायगी के लिए न किया जाय बल्कि ईमानदारी व दिली ज़ज्बे के साथ किया जाये। शिक्षा के मुद्दे पर उन्होने कहा कि मुस्लिमों के बच्चें इस लिए पढ़ने नही जा पाते हैं, क्योंकि उनके माता-पिता फीस देने में असमर्थ है। इस लिए वह कुछ पैसे कमाने के लिए बचपन से ही दस्तकारी व बुनकारी में लग जाते है, साथ ही उन्होंने कहा जुवान से धर्म निरपेक्ष न हो बल्कि दिल से बने एवं ऐसे समाज का निर्माण करें।
काग्रेस के अनील श्रीवास्तव ने कहा कि मैं छात्र जीवन से ही राजनीति से जुडा रहा हूँ लेकिन उस समय में वहा न तो इस तरह की साम्प्रादायिक बातें होती थी और न ही जाति धर्म का बहुत मतलब होता था। आज समाज में पहले के मुकाबले लोग जागरुक हो रहे है। बुनकर केवल मुस्लिम ही नही बल्कि बुनकारी का काम हिन्दू भी करते है।
बजरडीहा के मुख्तार अंसारी ने कहा कि बजरडीहा के गोली काण्ड में मेरे बेटे का इन्तकाल हो गया। पुलिस ने फाइनल रिर्पोट लगाकर फाईल बन्द कर दिया था, लेकिन मानवाधिकार जननिगरानी समिति ने इस लड़ाई में मेरा साथ दिया और इन्साफ मिला। कार्यक्रम के इसी कडी में शहर-ए-मुफ्ती जनाब मौलाना अब्दुल बातीन साहब ने यूरोपियन यूनियन के प्रतिनिधियों से मुलाकात की। उन्होंने कहा कि बेशक आज के इस माहौल में भाईचारे व यकजहती के लिए सभी लोगों को साथ मिलकर कोशिश करनी होगी ताकि लोगों के बिच में मोहब्बत भाईचारा व अम्नो-अमान बना रहे और फिरकावाना ताकतो को शिकस्त मिले।
अन्त में समाज के सभी लोगों से मिलकर आहवान करते हुये डा. लेनिन ने कहा कि किसी भी लड़ाई या दगें में टूटे हुये लोगों को संगठीत होकर लड़ाई लड़ने की जरुरत हैं, जिससे उन दोषियों पर कार्यवाही हो तथा कानून का राज स्थापित हो। आगे इस कार्यक्रम के अन्तर्गत मुस्लिमों को जानने हेतु प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाया जायेगा तथा साथ में यह भी कहा कि आगे के कार्यक्रम में डी.आई.जी. व पुलिस के अन्य अधिकारियों को बुलाकर उनके सामने पीडितों का समस्याओं पर वार्ता करायेगी जायेगी। कार्यक्रम में इद्रीश अंसारी, सिद्दीक हसन, मो.असलम अंसारी, मासूम रहमानी, मदरसा उस्मानियां के सदर, मेहताब अहमद, इरसाद अहमद, कादिर, उपेन्द्र, जयकुमार मिश्रा, कात्यायनी आदि उपस्थिति रहे। कार्यक्रम का धन्यवाद ज्ञापन श्रुति नागवंशी ने किया
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