लिबरेटेड जोन नहीं सरकेगुडा
सीआरपीएफ का जवाब झूठ का पुलिंदा
पहले तो सरकार ने इन गाँव को जलाया फिर यहाँ के स्कूल, आंगनबाडी राशन दूकान , स्वास्थ्य केन्द्र बंद किये .लोगों को आंध्र प्रदेश या जंगलों में छिप कर अपनी जान बचानी पड़ी. जब गाँव वीरान हो गये तो आप कहने लगे कि ये तो एक लिबरेटेड ज़ोन है...
हिमांशु कुमार
आउटलुक पत्रिका में सारकेगुड़ा गाँव में आदिवासियों की हत्या के बारे में छापे गये लेख की प्रतिक्रिया में सीआरपीएफ के पीआरओ बीसी खंडूरी का जवाब छपा है. इस जवाब में अनेकों बातें लोगों को भ्रम में डालने वाली हैं और सत्य से परे हैं .इस जवाब में लिखा है कि "सब जानते हैं कि यह क्षेत्र एक माओवादी लिबरेटेड ज़ोन है " .यह तथ्य लोगों को भरमाने के लिये कहा गया है.
यह कोई लिबरेटेड ज़ोन नहीं है .इन गावों में आज भी सरकार के स्कूल चलते हैं , आंगन बाडी चलती हैं .सरकारी कर्मचारी और अधिकारी इन गावों में आराम से जाते हैं और काम करते हैं .मैं सबूत के लिये एक पेपर कटिंग साथ में लगा रहा हूँ .इस पेपर कटिंग में इसी गाँव से सटे हुए गाँव लिंगागिरी में 2009 में कलेक्टर और पुलिस अधीक्षक ( एस पी साहब ) खुद पैदल गये थे और गाँव वालों के बीच में बैठ कर मीटिंग की थी. क्या लिबरेटेड ज़ोन में एक एस पी और कलेक्टर जाकर मीटिंग कर सकते है ? और अगर किसी लिबरेटेड ज़ोन में एस पी और कलेक्टर पैदल जाकर मीटिंग ले सकते है तो उसे लिबरेटेड ज़ोन कहना बिलकुल असत्य बयानी है और शरारत पूर्ण बयान है.
असल में इस गाँव को सीआरपीएफ़ ने 2006 में पहले भी इस गाँव को जलाया था .मेरे पास इस बाबत गाँव वालो का अपने हाथ से लिखा गया एक कबूलनामा है इसे लोगों ने प्रेस को देने के लिये मुझे 2009 में दिया था .इस कबूलनामे में लोगों ने बताया है कि सीआरपीएफ़ ने सारकेगुड़ा के पड़ोसी गाँव के लोगों को जान से मारने का भय दिखाकर उन गाँव वालों को अपने साथ ले जाकर कर सारकेगुड़ा और आसपास के अनेकों गावों को जलाया था .पहले तो सरकार ने इन गाँव को जलाया फिर यहाँ के स्कूल, आंगनबाडी राशन दूकान , स्वास्थ्य केन्द्र बंद किये .लोगों को जान बचाने के लिये आंध्र प्रदेश या जंगलों में जकर छिप कर अपनी जान बचानी पड़ी और जब गाँव वीरान हो गये तो आप कहने लगे कि ये तो एक लिबरेटेड ज़ोन है .
सुप्रीम कोर्ट ने 2007 में नंदिनी सुंदर बनाम छत्तीसगढ़ शासन वाले मामले में, इन सभी गावों को दुबारा बसाने का आदेश दिया था .हमारी संस्था ने 2009 में इन गावों को दोबारा बसा दिया था .इस बारे में मेरे पास उस समय के सरकारी दस्तावेज़ और सरकार के साथ इस बाबत हुआ सारा पत्रव्यवहार मौजूद हैं .फिलहाल मैं इस बात की तस्दीक के लिये हमारी संस्था द्वारा गाँव बसाए जाने के बारे में 2009 में छपी एक खबर की पेपर कटिंग इस लेख के साथ संलग्न कर रहा हूं .
दूसरा एक और बिंदु जो इस जवाब में कहा गया है कि "आधी रात को ग्रामीण कौन सी मीटिंग कर रहे थे और यह कि उस रात सरपंच गाँव से बाहर था इसलिए सरपंच के बिना कोई भी फैसला कैसे लिया जाना सम्भव था ?" सीआरपीएफ़ का यह जवाब भी सच्चाई से कोसों दूर है .सच्चाई यह है कि गाँव वाले बीज पंदुम मना रहे थे .यह खेत में बीज बोने से पहले बीज की पूजा करने का एक त्यौहार होता है .इस पूजा में आदिवासी सारी रात पूजा स्थल पर ही सोते हैं .इसमें सरपंच के गाँव से बाहर होने से कोई फर्क नहीं पड़ता .इसमें गाँव के पुजारी का होना ही ज़रूरी होता है .सरपंच के गाँव से बाहर होने पर पूजा नहीं रोकी जा सकती .
सीआरपीएफ द्वारा पोस्ट मार्टम के बारे में भी असत्य तथ्य पेश किया गया है .जैसी ही लाशें गाँव से उठा कर बासागुडा थाने में ले जायी गयीं .वैसे ही इन मृतकों के परिवार जन भी थाने के सामने जाकर बैठ गये .ये लोग सारा दिन थाने के सामने बैठे रहे .लाशें थाने के सामने के मैदान में पडी रहीं .शाम को एक लाश छोड़ कर बाकी लाशें परिवार के सदस्यों को सौंप दी गयीं .दिन भर कोई डाक्टर वहाँ आया ही नहीं .इसलिये बिना डाक्टर के पोस्ट मार्टम कैसे संभव है ?
सीआरपीएफ़ द्वारा यह कहा जाना कि महिलाओं के साथ अभद्र व्यवहार नहीं किया गया और यह सी आर पी ऍफ़ के मनोबल को गिराने के लिये झूठा आरोप लगाया गया है भी भारत के क़ानून से भागने का प्रयास है .इस तरह तो भारत का हर बलात्कारी बलात्कार करने के बाद लडकी द्वारा उसकी शिकायत करने पर यही बयान देगा कि यह आरोप मेरा मनोबल तोड़ने के लिये लगाया गया है .इसलिए कानून के मुताबिक सभी आरोपों की जांच ज़रूरी है .
इस तरह स्पष्ट है कि सारकेगुड़ा नरसंहार पर सीआरपीएफ़ का यह जवाब सच्चाई से परे लीपापोती के अलावा और कुछ नहीं है .
आदवासियों के लिए हिमांशु कुमार का संघर्ष नयी पीढ़ी के लिए एक मिसाल है.
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