पैसे के लोकतंत्र में पैसे की खबरें
Author: समयांतर डैस्क Edition : April 2013
केंद्र की यूपीए सरकार पेड न्यूज छापने वाले मीडिया संस्थानों के खिलाफ कोई कदम उठाने के मामले में तो पहले ही हाथ खड़े कर चुकी है, अब वह चुनावों के दौरान पैसा देकर खबर छपवाने वाले नेताओं को बचाने के लिए भी खुलकर सामने आ गई है। सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में पेश एक हलफनामे में कहा है कि चुनाव आयोग को किसी जन प्रतिनिधि को उसके चुनावी खर्चे के आधार पर अयोग्य घोषित करने का अधिकार नहीं है। वह चुनाव के दौरान खर्च के फर्जी कागजात पेश करने को भी इतना संगीन नहीं मानती कि इस आधार पर किसी नेता का पद छीन लिया जाए। सरकार ने महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेसी नेता अशोक चह्वाण के केस में एक ऐसा ही हलफनामा सुप्रीम कोर्ट को दिया है। अशोक चह्वाण 2009 में हुए महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के दौरान पेड न्यूज मामले में बुरी तरह फंसे हैं। बचाव का कोई रास्ता न देख उन्होंने सुप्रीम कोर्ट जाकर किसी जनप्रतिनिधि की सदस्यता को खारिज करने संबंधी चुनाव आयोग के अधिकार को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी। सरकारी हलफनामे से जाहिर होता है कि वह चह्वाण को बचाने के लिए अब तक प्रचलित न्यूनतम संवैधानिक व्यवस्था को भी पलटने की पूरी तैयारी में है। सरकार का कहना है कि चुनाव आयोग तभी किसी उम्मीदवार को अयोग्य घोषित कर सकता है जब वह अपने चुनाव खर्च के कागजात दिखाने में नाकाम हो, उन कागजात के सही या गलत होने पर आयोग कुछ नहीं कर सकता।
फिलहाल सुप्रीम कोर्ट की तरफ से इस मामले में कोई फैसला नहीं आया है लेकिन सरकार की तरफ से ऐसा हलफनामा देना इस बात की पोल खोल देता है कि वह पेड न्यूज मामले में कितनी गंभीर है। पेड न्यूज मामले में चुनाव आयोग उत्तर प्रदेश के बिसौली की विधायक उमलेश यादव को चुनाव खर्च के फर्जी दस्तावेज दिखाने और पेड न्यूज छापने के मामले में दोषी करार देकर तीन साल के लिए उनकी सदस्यता निरस्त कर चुका है। उनके अलावा झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा, मध्य प्रदेश में बीजेपी के मंत्री नरोत्तम मिश्रा और अशोक चह्वाण को भी आयोग की तरफ से पेड न्यूज के मामले में नोटिस दिया गया है और उनके खिलाफ कार्रवाई की प्रक्रिया जारी है। उमलेश यादव वाले मामले ने बाकी के आरोपी नेताओं को भी डरा रखा है इसलिए सत्ताधारी पार्टी ने अपने नेता अशोक चह्वाण को बचाने के लिए कमर कस ली है। अशोक चह्वाण पर पेड न्यूज के अलावा भी भ्रष्टाचार के कई मामले दर्ज हैं। मुंबई के कुख्यात आदर्श सोसायटी घोटाले में भी उनका नाम शामिल है, जिस वजह से 2010 में उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी गंवानी पड़ी थी। आदर्श सोसायटी को युद्ध में मारे गए सैनिकों की पत्नियों के लिए बनाया गया था लेकिन कई नेताओं और नौकरशाहों ने उन फ्लैट की आपस में ही बंदरबांट कर ली थी। अशोक चह्वाण ने भी अपने तीन रिश्तेदारों को उस बिल्डिंग में फ्लैट दिलवाए थे। इस मामले में पुख्ता सबूत होने की वजह से आखिरकार कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटाना पड़ा था। वैसे अशोक चह्वाण कांग्रेस के दुलारे हैं, तमाम आरोपों के बावजूद अब भी वह पार्टी के वरिष्ठ नेता हैं। कांग्रेस की नेतागिरी से उनका पुराना नाता है, उनके पिता शंकरराव चह्वाण भी कभी महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री हुआ करते थे। इस लिहाज से देखा जाए तो परिवारवाद से घिरी कांग्रेस में इस खानदान की जड़ें काफी गहरी हैं।
अशोक चह्वाण दो हजार आठ में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बने थे। 13 अक्टूबर 2009 को हुआ महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव उन्हीं की अगुवाई में लड़ा गया। तब, चह्वाण महाराष्ट्र के नांदेड़ जिले की भोखर सीट से चुनाव जीते थे। उन्होंने अपने चुनाव अभियान में सिर्फ सात लाख रुपए का खर्च दिखाया। रिप्रेजेंटेशन ऑफ पीपुल एक्ट, 1951 के अनुसार एक प्रत्याशी प्रचार के दौरान दस लाख रुपए तक खर्च कर सकता है। चह्वाण ने चुनावों के दौरान पानी की तरह पैसा बहाया लेकिन चुनाव आयोग के सामने खर्च के फर्जी दस्तावेज पेश किए। द हिंदू के मशहूर पत्रकार पी साइनाथ ने अशोक चह्वाण के झूठ की पोल खोलते हुए उन्हें चुनाव अभियान के लिए निर्धारित राशि से कई गुना ज्यादा पैसा खर्च करने और अवैध पेड न्यूज छपवाने का जिम्मेदार ठहराया। दरअसल महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के दौरान वहां के प्रमुख अखबारों ने प्रत्याशियों की खबर छापने के लिए अपने रेट तय कर लिए थे। जो प्रत्याशी पैसा चुका रहा था उसी की खबरें छापी जा रही था बाकी की खबरों को अखबार कोई अहमियत नहीं दे रहे थे। उस दौरान सबसे बड़ी हलचल अशोक चह्वाण की एक खबर ने पैदा की थी। जिसके बाद पेड न्यूज के बारे में कोई शक बाकी नहीं रह गया। चह्वाण की महानता के बारे में महाराष्ट्र के तीन बड़े अखबारों-महाराष्ट्र टाइम्स (टाइम्स ग्रुप), लोकमत और पुढारी में एक खबर छपी। युवा गतिमान नेतृत्व नाम से छपी इस खबर की सभी पंक्तियां शब्दश: एक जैसी थी। पुढारी में यह खबर सात अक्टूबर 2009 को छपी तो बाकी दो अखबारों में 10 तारीख को। बाद में प्रेस परिषद की सब कमेटी की पेड न्यूज पर तैयार रिपोर्ट में परंजॉय गुहा ठकुरता और के श्रीनिवास रेड्डी की रिपोर्ट ने इसे सीधे-सीधे पेड न्यूज का मामला करार दिया। यह तो पेड न्यूज का एक छोटा सा उदाहरण था वरना ऐसी खबरों की उस दौरान महाराष्ट्र के अखबारों में भरमार थी। पेड न्यूज के इस मामले ने भारतीय समाचार माध्यमों की निष्पक्षता और पत्रकारीय उसूलों पर कई सवाल उठाए। मुनाफे की होड़ में जुटे मीडिया घरानों की असलियत भी इस घटना से सामने आई।
पेड न्यूज के मामले में अखबारों और पैसे वाले प्रत्याशियों का गठजोड़ नजर आने के बाद, पी साइनाथ ने अशोक चह्वाण के चुनाव अभियान पर कड़ी नजर रखी और पाया कि उन्होंने पेड न्यूज के अलावा भी चुनाव के दौरान बेहिसाब पैसा खर्च किया। साइनाथ ने 29 नवंबर 2009 को अपने अखबार में इज द ईरा ऑफ अशोक अ न्यू ईरा ऑफ न्यूज (क्या अशोक चह्वाण का दौर खबरों का नया दौर है?) शीर्षक से एक लेख लिखा, जिसमें उन्होंने आंकड़ों के साथ बताया कि चह्वाण ने चुनाव आयोग को दिए अपने हिसाब में समाचार पत्रों में अपने विज्ञापन का खर्च सिर्फ पांच हजार तीन सौ उन्यासी रुपए दिखाया। लेकिन द हिंदू ने सैंतालीस पेज के रंगीन विज्ञापन इक_ा किए जिसमें अशोक चह्वाण के विज्ञापन छपे थे। यह सभी विज्ञापन महाराष्ट्र में सर्वाधिक प्रसार वाले दैनिकों में छपे थे। हिसाब लगाया जाए तो इनका खर्च ही करोड़ों रुपए में आएगा। इसके अलावा, चुनाव के दौरान फिल्मी दुनिया के फर्जी नायकों को वोट बटोरने के लिए इस्तेमाल करने का चलन भी अब काफी बढ़ चुका है। कई नायकों ने तो इसे धंधा बना लिया है और वे सीजन में करोड़ों रुपया वसूलते हैं। अशोक चह्वाण भी अपने प्रचार में ऐसे नायकों का इस्तेमाल करने से नहीं चूके। उन्होंने अपने चुनाव क्षेत्र में मुंबइया फिल्मों के सलमान खान जैसे सितारों को प्रचार में उतारा। यह बात जग जाहिर है कि इस तरह के किसी सेलिब्रिटी का शो आयोजित करने में लाखों-करोड़ों रुपए का खर्च आता है। लेकिन अशोक चह्वाण इस बात से साफ मुकर जाते हैं। पी साइनाथ ने 10 नवंबर 2010 को द हिंदू में 'लो कॉस्ट, हाई सेलिब्रिटी' (कम कीमत में मंहगे सितारे) नाम से एक और लेख लिखा। जिसमें अशोक चह्वाण के चुनावी खर्च पर कई सवाल उठाए गए। चह्वाण ने पूरे चुनाव के दौरान जो सात लाख रुपए का कुल खर्च दिखाया था, उसमें बाकी खर्चों के अलावा सलमान खान की दो रैलियां भी शामिल थीं। पहली रैली का खर्चा सिर्फ चार हजार चार सौ चालीस और दूसरी का चार हजार तीन सौ रुपया दिखाया गया। दोनों रैलियों में से प्रत्येक में डेढ़ हजार रुपया लाउड स्पीकर में खर्च दिखाया गया और रैली की जगह का किराया सिर्फ पांच सौ रुपया। पंडाल की कीमत दो सौ रुपया और मंच पर लगे सोफा के लिए भी दो सौ रुपए का खर्च दिखाया गया। इस सफेद झूठ पर चह्वाण अब तक कायम हैं। माना कि सलमान, चह्वाण से अपने संबंधों की वजह से उनके प्रचार में आए लेकिन क्या मुंबई से चह्वाण के चुनाव क्षेत्र तक भी वह अपने ही खर्च पर आए थे? क्या उनके रहने खाने-पीने में भी कोई खर्च नहीं हुआ? सबसे बड़ी बात कि एक मशहूर मुंबइया अभिनेता की एक रैली में सिर्फ चार-पांच हजार रुपए खर्च! सितारे की रैली के लिए प्रचार में क्या कोई पैसा खर्च नहीं हुआ? खैर, इस तरह के अनगिनत सवाल हो सकते हैं। जिसका जवाब कोई भी सामान्य बुद्धि वाला आदमी भी दे सकता है लेकिन लोकतंत्र की रक्षक सरकारों को यह नजर नहीं आता है।
उपरोक्त बातों से पता चलता है कि देश में संसद और विधानसभाओं में पहुंचने के लिए कितना पैसा खर्च होता है। इससे हमारे लोकतंत्र के फरेब की भी एक झलक मिलती है। कहने भर के लिए यहां देश का कोई भी नागरिक चुनाव लड़ सकता है और विधायक, सांसद, मंत्री राष्ट्रपति कुछ भी बन सकता है। लेकिन हकीकत देखी जाए तो साफ हो जाता है भारत में मुख्यधारा की संसदीय राजनीति सिर्फ पैसे वालों के लिए आरक्षित है। एक सरकारी रिपोर्ट (अर्जुनसेन गुप्ता कमेटी) के मुताबिक जिस देश के करीब पचहत्तर फीसदी लोग प्रतिदिन बीस रुपए से भी कम कमा रहे हों, क्या वे भी कभी चुनाव लडऩे के बारे में सोच सकते हैं? क्या उनके भी कोई लोकतांत्रिक अधिकार हैं? कुल मिलाकर चुनाव की प्रक्रिया ही ऐसी है कि जिसमें गरीब लोगों के लिए कोई जगह नहीं है। जो भी व्यक्ति चुनाव लडऩा चाहता है उसे एक निश्चित धनराशि जमानत के नाम पर चुनाव अधिकारी के पास जमा करानी होती है। विधानसभाओं के लिए यह राशि दस हजार रुपए है और संसद के लिए पच्चीस हजार। क्या पचहत्तर फीसदी देश की गरीब आबादी चुनाव में इतना पैसा चुनाव लडऩे पर खर्च करना बर्दाश्त कर सकती है? माना वह किसी तरह यह रकम इक_ा कर भी ले, तो क्या अरबों-खरबों और अवैध धन वालों के सामने गरीब लोग चुनाव जीत सकते हैं? इन अर्थों में देखा जाए तो यह चुनावी खेल सिर्फ पैसे वालों का है और संसदीय मुख्यधारा की सभी पार्टियां इस झूठे खेल में गले-गले तक डूबी हैं। उनकी पार्टी के पास अरबों-खरबों रुपया कहां से आता है, इसका हिसाब देने के लिए वे तैयार नहीं। इतना बड़ा गोलमाल कर अगर कोई पार्टी नैतिकता, ईमानदारी या देशभक्ति की बात करे तो इससे बड़ा झूठ और क्या हो सकता है? ऐसे में अगर धन-पिपाशु और आपराधिक मुकदमों में फंसे लोग अवैध धन के बल पर विधानसभाओं और संसद में पहुंचते हैं तो वे बहुसंख्यक गरीब जनता के हित में खाक नीतियां बनाएंगे!
वैसे तो चुनाव आयोग की प्रक्रिया ही अपने आप में गरीबों को हाशिये पर ढकेलने वाली है। लेकिन इसने जितनी भी स्वतंत्रता और अधिकार हासिल किए थे उसे भी अब नए दौर का निजाम बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं है। जहां-जहां उसे लगता है कि पैसे वाले प्रभावशाली लोगों के अधिकारों पर चोट हो रही है वह पूरी बेशर्मी से गलत को सही ठहराने में जुट जाता है। चुनाव आयोग और प्रेस परिषद जैसी संस्थाओं की सीमाएं यहां अपने-आप साबित हो जाती हैं। चुनाव आयोग कुछ कहता रहे, प्रेस परिषद अध्यक्ष मार्कंडेय काटजू कितना ही निष्पक्ष दिखने की कोशिश करें, लोकसभा-राज्यसभा में पेड न्यूज पर चर्चा हो जाए, होगा वही जो पूंजी के गुलाम नेता चाहेंगे। पेड न्यूज पर बहस के दौरान कई बार कुछ बुद्धिजीवी मित्र इस तरह बात करते हैं, जैसे मीडिया राजनीतिक पार्टियों और नेताओं को ब्लैकमेल कर रहा है। जबकि बात इतनी सरल और आसान नहीं है। सरकार ने निजी कंपनियों के मीडिया यानी मुनाफाखोरों को इतनी छूट दी है कि उनके सारे हित पूंजीवादी आर्थिक नीतियों को सही साबित करने में ही जुड़े हैं। इन अर्थों में देखा जाए तो पैसे वाली पार्टियों और पैसे वाले मीडिया के हित एक हैं। पेड न्यूज के लिए निजी मीडिया मालिक और निजीकरण की वकालत करने वाली पार्टियां समान रूप से जिम्मेदार हैं और दोनों इसका इस्तेमाल कर फायदे में रहते हैं। सार्वजनिक तौर पर मुनाफाखोर मीडिया और कांग्रेस-बीजेपी जैसी पार्टियों से जुड़े लोग पेड न्यूज की कितनी ही आलोचना क्यों न करें, इस विकृति से तब तक बचना मुश्किल है जब तक मीडिया मालिकों को प्रेस की स्वतंत्रता के नाम पर मुनाफा कमाने की स्वतंत्रता मिलती रहेगी और पैसे वाले लोग लोकतंत्र के नाम पर विधानसभाओं और संसद में पहुंचते रहेंगे। अशोक चह्वाण वाले मामले में सरकार की बेशर्मी को भी इन्हीं संदर्भों में समझना जरूरी है।
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