बलात्कार की पाशविकता
Author: समयांतर डैस्क Edition : May 2013
मोहन आर्या
दिल्ली में हुए बलात्कार कांड के बाद पैदा हुआ जनाक्रोश, वर्मा कमेटी की प्रशंसनीय सिफारिशें, उनके क्रियान्वयन वाले अध्यादेश के बारे में हुई बहसें, बलात्कार के दोषियों को मृत्युदंड और उनके बधियाकरण की मांग आदि बातें बलात्कार और यौन उत्पीडऩ के विषय में जायज भावुक अतिरेक के इतर जाकर समस्या को और गहरे समझने की मांग करती है। कठोर कानून की मांग महिलाओं की समुचित सुरक्षा व्यवस्था की मांग आदि बेहदजरूरी मांगें जनसमूहों द्वारा उठाई जा रही हैं। कुछ समझदार व्यक्ति और समूह महिलाओं को लेकर समाज की संकीर्ण मानसिकता में बदलाव और एक जेंडर सेंसटिव समाज के निर्माण की आवश्यकता पर जोर दे रहे हैं। कठोर कानून, यौन उत्पीडऩ और बलात्कार के मामलों में त्वरित और समयबद्ध प्रक्रिया की व्यवस्था महिलाओं की समुचित सुरक्षा की व्यवस्था आदि उपाय अत्यावश्यक होते हुए भी फौरी कार्यवाहियां ही हैं।
समाज की मानसिकता में बदलाव और एक जेंडर सेंसटिव समाज का निर्माण ही मुख्य मुद्दा है। परंतु यह होगा कैसे? मानसिकता में बदलाव शून्य में नहीं हो सकता और न ही बलात्कार की घटनाओं से पैदा हुई भावुकतापूर्ण सहानुभूति ही समाज की मानसिकता में बदलाव की ठोस बुनियाद हो सकती है। क्योंकि यह सहानुभूति उस विस्तृत और शक्तिशाली पितृसत्तात्मक ढांचे और समाज के अन्य वर्चस्वशाली ढांचों को समाप्त करने के लिए पर्याप्त नहीं है, जिसके चलते पुरुष मानसिकता पैदा होती है। दरअसल यौन हिंसा और बलात्कार तो पितृसत्तात्मकता और अन्य वर्चस्वशाली ताकतवर व्यवस्थाओं के चलते पुरुषों द्वारा महिलाओं पर किए जाने वाले अनगिनत अत्याचारों में से केवल एक है।
बलात्कार को केवल कुछ सिरफिरे लोगों की अनियंत्रित यौनेच्छा का परिणाम मानना बेहद संकुचित विचार होगा साथ ही इसे केवल मनोविकृति और अपराधिक या असामाजिक कृत्य मानना भी इस कृत्य के कई पहलुओं की अनदेखी करना होगा। क्योंकि सामान्य यौनेच्छा और सामान्यतया मनोविकार रहित पुरुष भी बलात्कार में शामिल पाए गए हैं। परंतु इसका यह तात्पर्य भी नहीं है कि बलात्कार पुरुषों की प्राकृतिक प्रवृत्ति है। बलात्कार स्त्री के ऊपर पुरुष के सामाजिक वर्चस्वों के अनगिनत रूपों में से एक है।
अशांत क्षेत्रों में सशस्त्रबलों द्वारा किए जाने वाले बलात्कारों, दलित और आदिवासी महिलाओं के साथ दबंगों द्वारा किए जाने वाले बलात्कारों, में पित्रसत्तात्मकता के साथ वर्चस्व की अन्य श्रेणियां मसलन नस्लीय घृणा, जाति व्यवस्था, संप्रभु का राजनीतिक वर्चस्व आदि भी गुंथे हुए दिखाई देते हैं। उपर्युक्त किस्म के बलात्कारों के साथ ही सांप्रदायिक दंगों के समय बड़े पैमाने पर होने वाले बलात्कार, विरोधी समुदाय को सबक सिखाने के हथियार के रूप में प्रयोग किए जाते हैं। इसके अलावा यौन उत्पीडऩ और बलात्कार के कई मामलों में महिलाओं के परिचितों, मित्रों, रिश्तेदारों और पड़ोसियों का शामिल होना दिखाता है अन्यथा सामान्य पुरुषों द्वारा किया जाने वाला आचरण है। जो अपने संस्थागत वर्चस्व के चलते मौके का फायदा उठाने की कोशिश करते हैं। बलात्कार को उसके सही रूप में पितृसत्तात्मकता के साथ ही समाज के अन्य वर्चस्वशाली ढांचों से अलग करके नहीं समझा जा सकता है।
बलात्कार दोषपूर्ण सामाजिक संबंधों और संस्थाओं की पैदाइश है। यूं तो मानव समाज में पाए जाने वाले तमाम अपराध जैसे चोरी, हत्या, लूट, भ्रष्टाचार आदि व्यापक परिप्रेक्ष्य में गलत सामाजिक व्यवस्था और दोषपूर्ण सामाजिक संबंधों के ही परिणाम हैं परंतु यौन हिंसा या बलात्कार अन्य किसी भी अपराध या प्रवृत्ति से आधारभूत रूप में भिन्न है। जहां अन्य अपराध या प्रवृत्तियां प्रकृति में मनुष्येतर प्राणियों में प्रतिस्पर्धात्मक प्रक्रियाओं के रूप में बेहद स्वनियंत्रित स्वरूप में मौजूद रहते हैं और प्राणियों के अस्तित्व और जीवन संघर्ष के अनिवार्य अंग के रूप में दिखाई देते हैं वहीं बलात्कार सामान्यतया किसी भी मनुष्येत्तर प्राणिजाति में नहीं पाया जाता है। कुछ नगण्य अपवादों को छोड़ते हुए बहुत ही सामान्य प्रेक्षणों और प्रकृति विज्ञान की सामान्य समझ के आधार पर यह निष्कर्ष निकालने का जोखिम उठाया जा सकता है कि बलात्कार केवल मनुष्य समाज में पाया जाने वाला घोर अप्राकृतिक अपराध है और आत्महत्या (जिसे अपराध की श्रेणी से हटाया ही जाना चाहिए) के अलावा एक मात्र ऐसी प्रवृत्ति है जिसका कोई प्राकृतिक जस्टिफिकेशन नहीं हो सकता है।
यहां कई लोग तर्क दे सकते हैं कि बलात्कार पुरुषों की अनियंत्रित यौनेइच्छा का परिणाम है जो कि विशुद्ध नैसर्गिक और प्राकृतिक कारणों से है और इसी तर्क की बुनियाद पर बलात्कार को रोकने के लिए कुछ बेहद गैरजिम्मेदाराना सुझाव दिए जाते हैं, मसलन वेश्यावृत्ति को वैध व्यवसाय के रूप में मान्यता देना और किशोरावस्था के तुरंत बाद ही अथवा किशोरावस्था में ही विवाह करा के सामान्य सहवास के अवसर उपलब्ध कराना।
परंतु ऐसा कतई नहीं है जिन देशों में वेश्यावृत्ति वैध है वहां बलात्कार की घटनाएं नहीं होती हैं या फिर विवाहित पुरुष बलात्कार में शामिल नहीं होते हैं। विवाह या वेश्यावृत्ति द्वारा सामान्य सहवास के अवसर उपलब्ध होने पर भी पुरुष बलात्कारी होता है। देखा गया है कि बलात्कार और यौन उत्पीडऩ के अधिकांश मामले ऐसे हैं जिनमें लिप्त पुरुष विवाहित होते हैं। विवाह संस्था के भीतर होने वाले यौन शोषण को शामिल कर लें (जैसा कि वाजिब रूप में वर्मा समिति की सिफारिश है) तो विवाहित पुरुषों का बहुत बड़ा हिस्सा यौन हिंसा में लिप्त पाया जाएगा।
अत: वेश्यावृत्ति को वैधता प्रदान करना और जल्दी विवाह जैसे उपाय बलात्कार और यौन उत्पीडऩ को रोकने में असफल तो होंगे ही साथ ही ये उस वर्चस्वशाली व्यवस्था को और मजबूत बनाएंगे जिससे पुरुष को बलात्कार करने का औचित्य और साहस मिलता है। क्योंकि जल्दी विवाह और वेश्यावृत्ति दोनों से ही स्त्री की पुरुष पर निर्भरता अधिक स्थाई होती है।
पुन: लौटते हैं बलात्कार के कारण के रूप में पुरुषों की अनियंत्रित यौनेच्छा की ओर। यहां पर यह स्पष्ट करना समीचीन होगा कि यौनेच्छा तो प्रकृति के विस्तार का आधार है। जो कि अनियंत्रित रूप में मनुष्येतर प्राणियों में भी पाई जाती है। परंतु प्रकृति में यौनेच्छा नर और मादा की संयुक्त यौनेच्छा और सामान्य सहवास के रूप में दृष्टिगोचर होती है।
यदि नर या मादा में से किसी एक की यौनेच्छा नहीं है तो प्रकृति में सहवास या इस स्थिति में कहें तो बलात्कार हो ही नहीं सकता। साथ ही प्राकृतिक चयन और जैवविकास की स्वाभाविक प्रवृत्तियों के चलते प्रकृति में मादा को नर के चयन का विशेषाधिकार भी प्राप्त है। अर्थात प्रकृति में मादा के सहवास के लिए तैयार न होने पर सामान्य सहवास हो ही नहीं सकता। और मादा के सहवास के लिए तैयार होने पर भी अपने लिए उपयुक्त साथी के चयन का अंतिम अधिकार भी मादा के पास होता है। नर केवल शारीरिक बल के आधार पर ऐसी मादा से सहवास नहीं कर सकता जिसकी उस समय यौनेच्छा न हो और यौनेच्छा हो भी (जैसा कि मदकाल में होता है) तो नर को अन्य नरों के साथ प्रतिस्पर्धा करके मादा के वैयक्तिक चयन (जो कि वास्तव में प्रजाति की जैवविकासीय प्रवृत्ति ही है) के पैमानों पर खरा उतरना होता है। (ऐसा प्रकृति में शुक्राणुओं और अंडाणुओं की संख्या के बीच भारी अंतर के कारण होता है) इसके उपरांत ही यौनेच्छा अपने स्वाभाविक परिणाम अर्थात सहवास तदोपरांत संतानोत्पत्ति तक पहुंच पाती है।
अब यहां तर्क दिया जा सकता है कि मनुष्य ने अपने यौन व्यवहार को मनुष्येतर प्राणियों की तुलना में काफी विकसित किया है। और इसे संतानोत्पत्ति तक सीमित नहीं रखा है। साथ ही मनुष्य की मादाओं में मदकाल जैसी अवधारणा प्रकृति के अन्य प्राणियों के समतुल्य नहीं है। (हालांकि ऐसा कुछ अन्य प्राणी जातियों में भी होता है।) जहां तक यौनव्यवहार को संतानोत्पत्ति तक सीमित न रखने वाली बात है तो प्रकृति को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि यौन व्यवहार को उसके कर्ता या माध्यम द्वारा अपने लिए किस रूप में व्याख्यायित किया जा रहा है भले ही यौन व्यवहार मात्र यौन आनंद के लिए किया उसके मूलभूत उद्देश्य और परिणाम की प्राकृतिकता का जैव वैज्ञानिक स्वरूप अपरिवर्तित रहता है, तो यह एक सामाजिक परिघटना है कि बलात्कार में यौन व्यवहार वर्चस्व के एक औजार के रूप में प्रयोग में लाया जाता है। यह बात सत्य है कि मनुष्य की मादाओं में मदकाल जैसी अवधारणा अन्य प्राणियों के समतुल्य नहीं है और यौन परिपक्वता के बाद महिलाएं जैव-वैज्ञानिक तौर पर किसी भी समय सामान्य शारीरिक संबंधों के लिए तैयार रहती हैं परंतु एक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि मनुष्य का यौन व्यवहार हारमोनल के साथ ही मनोवैज्ञानिक भी है। और इसीलिए मनुष्य के शारीरिक विषय में जैववैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक तौर पर ही महिलाओं के साथी के चयन का विशेषाधिकार समाप्त नहीं हो जाता है। और जटिल मानव समाज में महिला की सहमति ही इस चयन के विशेषाधिकार का मानवोचित रूप है।
ऊपर की सारी कवायद का मेरा उद्देश्य यही दिखाना है कि बलात्कार प्राकृतिक जगत में ना पाई जाने वाली प्रवृत्ति है। प्रकृति में बलात्कार नहीं हो सकता और सामूहिक बलात्कार तो बिल्कुल नहीं। इस तरह अपने अस्तित्व और पहचान के जटिल प्रश्नों से उलझने वाली प्राणीजगत की श्रेष्ठतम मानव जाति इस प्राकृतिक जगत की सबसे अप्राकृतिक प्रवृत्ति की शिकार है और इस प्रवृत्ति को पाशविक कहना पशुओं की प्राकृतिकता का अपमान होगा। इस तरह बलात्कार सभ्यता का संकट है। अब तर्क दिया जा सकता है कि बलात्कार तो कुछ ही पुरुषों द्वारा किए जाते हैं। इसके लिए क्यों संपूर्ण मानव समाज व्यवस्था को पशुओं से बदतर माना जाना चाहिए। दरअसल बलात्कार अपनी अप्राकृतिकता के कारण उतना घृणित नहीं है जितना कि सामाजिक उत्पत्ति और सामाजिक परिणामों के कारण। इस बात को और समझने के लिए हम अनियंत्रित यौनेच्छा के तर्क की ओर पुन: लौटते हैं। अनियंत्रित यौनेच्छा तो महिलाओं की भी हो सकती है। क्या होगा यदि अनियंत्रित यौनेच्छा के वशीभूत होकर कोई महिला किसी असहाय पुरुष के साथ जबरन यौन संबंध बनाए। इस कृत्य का कोई सामाजिक कारण नहीं होगा परंतु इसके सामाजिक परिणाम क्या होंगे और पुरुष पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा? हो सकता है पुरुष इसे अपने वैयक्तिक चयन के अधिकार का अतिक्रमण मानकर अप्रसन्नता प्रदर्शित करे और शारीरिक और मनोवैज्ञानिक रूप से आहत भी हो। परंतु इस कृत्य के सामाजिक परिणामों की ओर गौर कीजिए, पुरुष अधिक से अधिक कुछ छोटे अंतराल तक उपहास का पात्र बन सकता है। हो सकता है उसे खुशनसीब का दर्जा भी दिया जाए। इस घटना के कोई मनोवैज्ञानिक और शारीरिक दुष्परिणाम हों भी तो इसके दूरगामी सामाजिक परिणाम उस पुरुष के प्रतिकूल नहीं होंगे। परंतु जब बलात्कार महिला के साथ किया जाता है तो पुरुषों द्वारा महिला के सहमति के अधिकार का अतिक्रमण उन्हें शारीरिक या मनोवैज्ञानिक रूप से चोट पहुंचाने तक सीमित नहीं है, इसका वीभत्स रूप तो महिला के लिए बलात्कार के बाद सामने आता है और सारी उम्र उस महिला के जीवन पर छाया रहता है। शील भंग की दकियानूसी और घटिया सामाजिक अवधारणा महिला के सामाजिक जीवन को नष्ट कर देती है। बलात्कार की शिकार महिला के विवाह में कई दिक्कतें आती हैं अथवा विवाहित महिलाओं को कई बार उनके पतियों द्वारा त्याग दिया जाता है। वह महिला किसी भी सामाजिक संबंध में सहज नहीं हो पाती है। बलात्कार की शिकार स्वयं होने के बावजूद वह एक किस्म के अपराधबोध या हीनताबोध से ग्रस्त रहती है। और उसे हमेशा अपनी पहचान छिपाकर रखनी पड़ती है। उसके सामान्य सामाजिक जीवन जीने की संभावना न के बराबर है इसलिए सूर्यनेल्ली प्रकरण में यौन हिंसा की शिकार द्वारा यह कहा गया कि दिल्ली में वीभत्स बलात्कार कांड की शिकार छात्रा की मौत होना उस छात्रा के लिए अच्छा ही हुआ। इस सबके कारण मनोवैज्ञानिक और शारीरिक न होकर मूलरूप में सामाजिक हैं।
स्त्री के द्वारा पुरुष के बलात्कार और पुरुष के द्वारा स्त्री के बलात्कार के सामाजिक परिणाम एक दूसरे से बहुत ही अलग हैं। इस तरह लिंग निर्धारण के समय का प्राकृतिक संयोग महिला के लिए एक सामाजिक दुर्घटना बनकर रह जाता है। चूंकि प्राकृतिक जगत में किसी खास लिंग का होना किसी दुर्घटना का कारण नहीं होता है इसी रूप में मनुष्य सभ्यता पशुओं से बदतर है। साथ ही महिलाओं द्वारा पुरुषों पर बलात्कार के नगण्य मामले ही प्रकाश में आए हैं। तो अनियंत्रित यौनेच्छा का तर्क पुन: खारिज होता है। अब यदि कोई प्रवृत्ति प्रकृति में नहीं है और समाज में है तो इसके कारण प्राकृतिक से अधिक सामाजिक होने चाहिए। बलात्कार करते समय पुरुष की मर्दानगी ही निर्णायक कारक दिखती है। परंतु इस शारीरिक बल के पीछे निश्चित रूप से वह संस्थागत बल कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण हैं जो कि हमारे समय में पुरुषों को प्राप्त है।
हमारी सभ्यता, मूल्य, संस्कृति हर तरह से पुरुषों को छूट देते हैं कि वे महिलाओं की इच्छा और उनकी सहमति का अतिक्रमण कर सकते हैं। जब मैं हमारी सभ्यता मूल्य या संस्कृति का जिक्र करता हूं तो इसका तात्पर्य केवल भारतीय सभ्यता या संस्कृति से नहीं है यह सर्वलौकिक मानवीय सभ्यता का सामान्य अनुभव है। अब यह तर्क दिया जा सकता है कि लगभग सभी धर्मों, संस्कृतियों, समाजों और सभ्यताओं में बलात्कार को गलत माना गया है और इसके उपचार के लिए कई नैतिक नियम और सजाएं भी तय की गई हैं। परंतु जैसा कि पहले कहा गया है कि बलात्कार को पितृसत्ता और वर्चस्व की अन्य सामाजिक व्यवस्थाओं से अलग करके एक अकेली घटना के रूप में नहीं समझा जा सकता है।
यह सांस्कृतिक ढांचा जो कि तथाकथित नैतिक नियमों और सजाओं/बहिष्कारों आदि के माध्यम से बलात्कार को नियंत्रित करने का प्रयास करता है उस भौतिक ढांचे की बिल्कुल अनदेखी करता है या यह कहें कि जानबूझकर उसे बनाए रखता है जिसपर स्त्री और पुरुष के संबंध और समाज में उनकी स्थिति निर्धारित होती है। समाज के भौतिक सामाजिक संबंधों में स्त्री के दोयम दर्जे की हैसियत को बनाए रखते हुए यदि उसकी सुरक्षा के तथाकथित नैतिक नियम बनाए जाएंगे तो ये नियम असफल ही हो जाएंगे भले ही कितनी भी कठिन सजाओं का प्रावधान किया जाय। और इस तरह के नियमों का खामियाजा स्त्रियों को ही अधिक भुगतना पड़ता है। सभी जानते हैं कि बलात्कार होने पर सबसे पहले महिलाओं को ही जिम्मेदार ठहराया जाता है। उन पर ही लक्ष्मण रेखाएं लांघने का आरोप लगाया जाता है। समाज में स्त्री पुरुष की स्थिति के विषय में हमारा सांस्कृतिक ढांचा गलत बुनियाद पर खड़ा है। और कुछ मातृसत्तात्मक और आदिम संस्कृतियों को छोड़कर ऐसा सभी संस्कृतियों में हुआ है। चूंकि वह भौतिक बुनियाद ही स्त्री विरोधी है जिस पर सांस्कृतिक ढांचा टिका है इसीलिए यह सांस्कृतिक ढांचा भी स्त्री विरोधी है।
अब समझने का प्रयास करते हैं कि वह भौतिक बुनियाद क्या है जिसमें दोषपूर्ण सामाजिक संबंध पैदा होते हैं। फ्रेडरिक एंगेल्स ने अपनी पुस्तक परिवार निजी संपत्ति और राज्य की उत्पत्ति में इस भौतिक बुनियाद का काफी विश्वसनीय विश्लेषण किया है। वे दिखाते हैं कि पहला वर्ग विभाजन स्त्री और पुरुष के बीच हुआ था। उनके अनुसार आदिम समाज में जब संपत्ति का प्रादुर्भाव हुआ और प्रारंभ में जब संपदा कम थी तो संपत्ति पर गोत्र का अधिकार माना जाता था। साथ ही मातृसत्तात्मक व्यवस्था कायम थी अर्थात वंश स्त्री परंपरा के अनुसार चलता था और उत्तराधिकार प्रथा के तहत किसी सदस्य की मृत्यु पर उसकी संपत्ति उसके गोत्र संबंधियों को मिलती थी ताकि संपत्ति गोत्र के भीतर ही रहे स्त्री वंश परंपरा के अनुसार संपत्ति मां की तरफ के रक्त संबंधियों को मिलती थी।
एंगेल्स लिखते हैं प्रारंभ में माता के दूसरे रक्त संबंधियों के साथ-साथ बच्चों को भी मां की संपत्ति का भाग मिलता था। संभवत: बाद में बच्चों का प्रथम अधिकार मान लिया गया। यह अधिकार मां की संपत्ति में था परंतु उन्हें अपने पिता की संपत्ति नहीं मिल सकती थी क्योंकि वे अपने पिता के गोत्र के सदस्य नहीं होते थे और संपत्ति का गोत्र के भीतर रहना आवश्यक था। किसी पुरुष रेवड़ पशुपालक की मृत्यु पर उसकी संपत्ति पहले उसके भाईयों और बहिनों को और बहनों के बच्चों को या मौसियों के वंशजों को मिलती थी। लेकिन उसके बच्चे उत्तराधिकार से वंचित थे। जैसे-जैसे भौतिक संपदा बढ़ी और परिवार के भीतर पुरुष का दर्जा महत्त्वपूर्ण हुआ पुरुष ने उत्तराधिकार की पुरानी मातृसत्ता को पलटने का काम किया। इसके लिए फैसला लिया गया कि गोत्र के पुरुष सदस्यों के वंशज गोत्र में ही रहेंगे और स्त्रियों के वंशज गोत्र से अलग करके अपने पिताओं के गोत्र में शामिल कर दिए जाएंगे। इस तरह पैतृक वंशानुक्रम और पैतृक उत्तराधिकार स्थापित हुआ। फ्रेडरिक ऐंगल्स ने इस घटना को मानव जाति द्वारा अनुभूत सबसे निर्णायक क्रांतियों में से एक कहा है। इस घटना के विषय में माक्र्स लिखते हैं, "मनुष्य की अंतर्जात वाकछल प्रवृत्ति जिसके द्वारा वह वस्तुओं के नाम बदलकर स्वयं उन वस्तुओं को बदलने का प्रयास करता है। जब भी कोई प्रत्यक्ष हित जबरदस्त रूप में प्रेरित करता है वह परंपरा को तोडऩे के लिए परंपरा में खोट निकालता है।"
एंगेल्स आगे लिखते हैं, मातृसत्ता का विनाश नारी जाति की विश्व ऐतिहासिक महत्त्व की पराजय थी। अब घर के अंदर भी पुरुष ने अपना आधिपत्य जमा लिया, नारी पदच्युत कर दी गई, जकड़ दी गई। वह पुरुष की वासना की दासी, संतान उत्पन्न करने का एक यंत्र बनकर रह गई। वीरगाथा काल के और उससे भी अधिक क्लासिकीय यूनानियों में नारी की गिरी हुई हैसियत खास तौर पर देखी गई। बाद में धीरे-धीरे तरह तरह के आवरणों में ढककर और सजाकर तथा आंशिक रूप से थोड़ी नर्म शक्ल देकर उसे पेश किया जाने लगा। पर वह दूर नहीं हुई।"
इस तरह वह भौतिक आधार जिस पर स्त्री का सामाजिक अस्तित्व टिका हुआ है पितृसत्तात्मक आधार है और यही आधार तमाम धर्मों संस्कृतियों और सभ्यताओं में स्त्री के दोयम दर्जे के लिए जिम्मेदार है। इसी भौतिक आधार पर वह मूल्य प्रणाली पैदा होती है जिसके कारण पुरुष स्त्री के शरीर पर अपना स्वाभाविक अधिकार मानता है और स्त्री से बिना शर्त समर्पण की उम्मीद करता है। इसने स्त्री को असहाय बनाकर रख दिया है। यह पितृसत्तात्मक वर्चस्व अकेले या अन्य वर्चस्वशाली संस्थाओं के साथ मिलकर स्त्री के यौन संबंधों में सहमति के अधिकार को समाप्त करता है।
धर्म, व्यक्तिगत नैतिकता, पूंजीवादी राज्य और कानून की नाकामी यद्यपि हम धर्म एवं सांस्कृतिक ढांचे की बलात्कार को रोकने के संबंध में नाकामी की चर्चा कर चुके हैं। परंतु समाज में धर्म के व्यापक प्रभाव और मूल्य प्रणाली के निर्माण में इसकी भूमिका को देखते हुए यह विस्तृत जांच की मांग करता है। धर्म अपने दार्शनिक और आध्यात्मिक स्वरूप में जहां विश्व की समस्याओं का समाधान उन समस्याओं के भौतिक मूल की अनदेखी करके प्रस्तुत करता है वहीं अपने सामाजिक स्वरूप में धर्म न केवल यथास्थितिवाद का पोषक है बल्कि स्वयं भी एक शोषक वर्चस्वशाली ढांचा तैयार करता है। धर्म एक तरफ तो अनुयायियों को व्यक्तिगत नैतिकता की सतही अवधारणा देता है जिसे वह बलात्कार जैसी घटनाओं को रोकने का माध्यम मानता है। वहीं दूसरी ओर व्यापक संहिताएं तैयार कर स्त्रियों की परतंत्रता को सुनिश्चित करता है। और इन संहिताओं का प्रभाव निश्चित तौर पर धर्म की नैतिकता की अव्यवहारिक मांग से अधिक पड़ता है।
साथ ही धर्म कई बार स्त्रियों की अधीनता का इस्तेमाल समाज में वर्चस्व के अन्य ढांचों को बनाए रखने के लिए करता है। धर्म की स्त्रियों के विषय में दी गई व्यवस्थाओं और उनके कार्यात्मक अनुभवों से स्पष्ट है कि धर्म हमेशा से स्त्री विरोधी रहा है। यहां पर आदिम तथा मातृसत्तात्मक समाजों की धार्मिक रीति रिवाज, टोटमवाद इत्यादि की बात नहीं की जा रही है वरन धर्म के बहुराष्ट्रीय व्यापक स्वरूप की चर्चा की जा रही है। हिंदू धर्म को ही लें तो इसकी तमाम सामाजिक संहिताएं स्त्री विरोधी हैं। मनुस्मृति शूद्रों की गुलामी के साथ साथ स्त्रियों की गुलामी का दस्तावेज भी है। चूंकि ब्राह्मणवाद की तथाकथित श्रेष्ठता को बनाए रखने के लिए आवश्यक था कि जातियों के बीच रक्त संबंध स्थापित न हो पाएं। इसके लिए स्त्रियों को गुलाम बनाए रखना आवश्यक था।
आंबेडकर अपने शोध में दिखाते हैं कि किस तरह विधवा के पुनर्विवाह पर रोक लगाकर अंतर्जातीय विवाह की संभावनाओं को रोका गया। मनुस्मृति के श्लोक 5-157 और 5-161 में पति की मृत्यु के बाद दूसरे पुरुष का नाम लेने पर भी स्त्री को निंदा का पात्र बताया गया है। साथ ही मनु ने विधुर पुरुष के पुनर्विवाह पर रोक नहीं लगाई। परंतु यहां पर भी अंतर्जातीय विवाह की संभावनाओं को रोकने के लिए यह नियम बनाया गया कि 30 वर्ष की आयु का पुरुष 12 वर्ष की कुमारी से विवाह करे और 24 वर्ष की आयु का पुरुष 8 वर्ष की कन्या से विवाह करे (देखिए मनुस्मृति 9-24) ताकि यदि कोई पुरुष 24 या 30 की आयु में विदुर हो जाए तो अपने ही वर्ण की वयस्क स्त्री न मिलने पर बच्चियों से विवाह कर सके। साथ ही धर्म की संहिताओं में स्त्रियों को स्वभाव से ही चंचल और चारित्रिक गुणों से ही रहित बताया गया है। कहा गया है कि पुरुषों को दूषित करना ही स्त्री का स्वभाव होता है (मनुस्मृति 2-213)। स्त्री की गुलामी के प्रबंध के लिए कहा गया है कि बाल्यकाल में स्त्री पिता के अधीन रहे यौवनावस्था में पति के अधीन रहे, पति की मृत्यु पर पुत्रों के अधीन रहे। स्त्री कभी स्वतंत्र न रहे। (मनुस्मृति श्लोक 5-149) कुछ जगहों पर तो हद ही कर दी गई है- न तो वे (स्त्रियां) रूप ही देखती हैं और न उम्र ही, सुंदर हो या असुंदर पुरुष होने से ही वे उनके साथ भोग करती हैं (मनुस्मृति श्लोक 9-14)। इस तरह के अनगिनत उदाहरण और दिए जा सकते हैं।
हिंदू धर्म में स्त्रियों की जो सामाजिक स्थिति है उसका आधार मनुस्मृति के नियम ही हैं। जब धार्मिक कानून में ही स्त्रियों का दोयम दर्जा स्वीकार कर लिया जाए तो आचरण में समानता का प्रश्न ही नहीं उठता। हिंदू धर्म का सामाजिक आदर्श पूर्ण रूप से पितृसत्तात्मक और स्त्रीविरोधी है। अन्य धर्मों की स्थिति भी इस संदर्भ में अच्छी नहीं है। इस्लाम में स्त्री को स्वाभाविक तौर पर ही पुरुष के संरक्षण में रहने योग्य माना गया है- 'पुरुष महिलाओं के पोषक और संरक्षक हैं उन विशिष्टताओं के आधार पर जो ईश्वर ने एक व्यक्ति को दूसरे पर दी हैं।' (कुरान 4/34 संदर्भ इस्लाम सिद्वांत और स्वरूप, जफर रजा) ईसाई धर्म की प्रोटेस्टेंट शाखा में पूंजीवादी प्रभाव के तौर पर स्त्रियों के संदर्भ में कुछ खुलापन अवश्य नजर आता है। परंतु इसकी वही सीमाएं हैं जो पूंजीवादी समाज की सीमाएं हैं। इस पर अलग से चर्चा की जाएगी। ईसाई धर्म की कैथोलिक शाखा में कौमार्य की अवधारणा पर विशेष जोर दिया गया है। इतिहास है कि कैथोलिक शाखा के मठाधीशों द्वारा बड़े पैमाने पर स्वतंत्र विचार वाली स्त्रियों को मृत्युदंड समेत कठोर सजाएं दी गई। बौद्ध धर्म पर अवश्य ही सिद्धांत के तौर पर स्त्री और पुरुष के भेद का निषेध किया गया है। कई स्थानों पर बुद्ध ने स्वयं कहा है कि निर्वाण प्राप्ति के लिए स्त्री और पुरुष का कोई भेद नहीं है और वे स्त्रियों की अपेक्षा किसी भी तरह से पुरुषों को विशेष नहीं मानते (अंगुत्तर निकाय 8:2:2:1)। एक स्थान पर बुद्ध कहते हैं पुत्री, पुत्र से अधिक योग्य हो सकती है (संयुत्त निकाय)। परंतु साथ ही बुद्ध स्त्री और पुरुष की सामाजिक हैसियत के भौतिक आधार को परिवर्तित करने के प्रति सचेत नहीं दिखाई देते हैं। इसलिए वे कन्याओं को यह उपदेश देते हैं कि उन्हें पति से पहले सोकर उठने वाली और पति के बाद में सोने वाली होना चाहिए और काम करने वाली और चीजों को व्यवस्थित करने वाली होना चाहिए। (उगह सुतंत अंगुत्तर निकाय) इस तरह चूंकि सभी धर्म (बौद्ध धर्म कुछ सीमा तक) स्त्री को पुरुषों से निम्न और प्राकृतिक तौर पर निर्भर मानते हैं अत: धर्म और उसके नैतिक नियमों का सांस्कृतिक ढांचा कभी भी पुरुष वर्चस्व के खिलाफ नहीं जाएगा। इसलिए धर्म बलात्कार को रोकने के लिए तो कुछ नहीं कर सकता साथ ही यौन नैतिकता के इसके नियम किस तरह स्त्रियों के ही खिलाफ जाते हैं इसकी चर्चा हम कर चुके हैं।
पूंजीवादी राज्य और कानून की असफलता: स्त्री बनाम आधुनिकता राज्य कानून के माध्यम से बलात्कार को नियंत्रित करने का प्रयास करता है परंतु इसमें सफलता नहीं मिली है। इसका कारण है राज्य कम से कम पूंजीवादी राज्य पितृसत्तात्मकता और समाज के अन्य वर्चस्वशाली ढांचों को समाप्त करने की इच्छाशक्ति नहीं रखता है। परंतु हां पूंजीवादी समाज व्यवस्था में सामंती जकड़ के ढीले होने से स्त्रियों के प्रति नजरिए में कुछ हद तक बदलाव जरूर आता है। पूंजीवादी राज्य और कानून पुरुष वर्चस्व को समाप्त नहीं कर पाता तो इसका एक महत्त्वपूर्ण कारण यह है कि पूंजीवादी राज्य को अपने कृत्य काफी सीमित रखने होते हैं। सामाजिक व्यवस्थाओं तक पूंजीवादी राज्य की पहुंच उसके अपने अंतर्निहित चरित्र के कारण गलत सामाजिक संबंधों के उन्मूलन की हद तक होती ही नहीं है। साथ ही यदि कुछ सुधारात्मक कानून लाए भी जाएं तो उनका व्यापक विरोध भी होता है। याद करें हिंदू समाज में स्त्री पुरुष समानता के लिए आंबेडकर द्वारा किए गए हिंदू कोड बिल का क्या हश्र हुआ था। और किसी तरह कानून ले भी आया जाए जैसा कि हिंदू कोड बिल के प्रावधानों को अलग-अलग अधिनियमों के रूप में लाकर किया गया तो उसे लागू करने के क्या औजार राज्य के पास हैं।
राज्य अपने आप को कानून बनाने तक सीमित रखता है। कानूनों से जुड़ा कोई वाद न्यायालय के समक्ष आने पर ही कानून लागू होता है। स्त्री को उत्तराधिकार दिलाने के लिए राज्य कोई व्यापक सामाजिक आंदोलन नहीं चलाता क्योंकि यह राज्य की प्राथमिकता में ही नहीं है। साथ ही समाज और उसकी व्यवस्थाएं राज्य से कई मायनों में अधिक ताकतवर हैं। अत: कानून बनाने की कवायद औपचारिकता मात्र रह जाती है। दूसरा महत्त्वपूर्ण कारण है। पूंजीवादी राज्य विधि के स्रोत के रूप में परंपरा को स्वीकार करता है। इसी आधार पर कई समुदायों के पर्सनल लॉ, विवाह व्यवस्था, तलाक आदि के प्रावधानों को राज्य स्वीकारता है। इन व्यवस्थाओं में स्त्री की स्थिति प्रथम दृष्टया ही दोयम दर्जे की होती है। उस समुदाय विशेष की स्त्री के उन व्यवस्थाओं से शोषण को रोकने के लिए राज्य कुछ नहीं करता है। राज्य की एजेंट अर्थात सरकार किसी बड़े समुदाय की नाराजगी झेलने के लिए राजनैतिक कारणों से तैयार नहीं रहती है और सामान्यतया उदासीन और कभी कभी तो प्रतिक्रियावादी भूमिका में नजर आती है। शाहबानो प्रकरण में राजीव गांधी की सरकार ने जो कृत्य किया उसे आजादी के बाद मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों पर राज्य द्वारा किया गया सबसे बड़ा कुठाराघात माना जाना चाहिए।
समाज और उसकी व्यवस्थाएं राज्य से कितनी ताकतवर हैं इसका उदाहरण हरियाणा सरकार की खाप पंचायतों की असंवैधानिक अधिकारिता के सामने घुटने टेकने से जाहिर होता है। यदि सरकार में इच्छाशक्ति की कमी होगी जैसा कि उपर्युक्त मामले में दिखाई देता है तो राज्य भी पंगु हो जाता है। पूंजीवादी राज्य और कानून की असफलता का सबसे बड़ा कारण है स्त्री पुरुष संबंधों की उस भौतिक बुनियाद को नष्ट करने के प्रति उसकी अंतर्निहित अनिच्छा जिसके विषय में फ्रेडरिक एंगेल्स के विचारों की हम चर्चा कर चुके हैं। पूंजीवादी कानून उत्तराधिकार की पितृसत्तात्मकता को नष्ट नहीं करता बल्कि उसमें स्त्रियों को भी विधि के माध्यम से हिस्सा दिलाने का प्रयास करता है। (यह स्थिति भी केवल वास्तविक पूंजीवादी देशों में ही है।) चूंकि पुरुषों का सामाजिक वर्चस्व कायम रहता है इसलिए यह कवायद कभी अंजाम तक नहीं पहुंच पाती।
अक्सर कहा जाता है कि जैसे जैसे आधुनिकता शिक्षा और तकनीक का प्रसार होगा स्त्री की स्वतंत्रता भी बढ़ती जाएगी। परंतु इस आधुनिकता की वही अंतर्निहित सीमाएं हैं जो कि पूंजीवादी समाज की हैं। आधुनिकता की एक अन्य समस्या स्त्रियों के विषय में इसका विकृत दृष्टिकोण भी है। सामंती समाज यदि स्त्री को ढकी हुई उपभोग की चीज मानता है तो आधुनिक पूंजीवादी समाज उसे उपभोग की खुली हुई चीज मानता है। यह सही है कि स्त्रियां सार्वजनिक जीवन के सभी क्षेत्रों में प्रवेश कर रही हैं। आधुनिकता ने स्त्रियों को अवसर प्रदान किए हैं परंतु इसने पुरुषों का स्त्रियों के प्रति दृष्टिकोण बदल दिया है ऐसा कतई नहीं है। आधुनिकता और स्त्री आजादी के विषय में लिव इन रिलेशन का जिक्र करना समीचीन होगा। यह सामान्य समझदारी पर आधारित संबंध है परंतु इसके नतीजों के अंतिम नुकसान यदि कोई हों तो स्त्रियों को ही उठाने पड़ते हैं। और कभी कभी तो यह संबंध पुरुष स्त्रियों को धोखे में रखकर मात्र शारीरिक आवश्यकताओं के लिए ही बनाते हैं। इस आधुनिकता में कितने अंतर्विरोध हैं इसका प्रमाण पश्चिमी समाजों में हाईमैनोप्लास्टी का बढ़ता चलन है। क्या आधुनिकता के पास पुरुषों के कौमार्य की पुनस्र्थापना का आग्रह है? क्या है रास्ता?
हमने बलात्कार और यौन उत्पीड़न से बात शुरू की थी परंतु ये घटनाएं स्त्री-पुरुष की सामाजिक स्थितियों के साथ इस तरह गुंथी हैं कि पितृसत्तात्मकता के नष्ट हुए बगैर ये बने ही रहेंगे।
1. पितृसत्ता की समाप्ति आवश्यक है
एंगेल्स ने स्त्री पुरुष के बीच के वर्ग विभाजन के आधार के रूप में पितृसत्ता की महत्त्वपूर्ण भूमिका स्थापित की है। उत्तराधिकार के रूप में मिलने वाली संपत्ति के पितृसत्तात्मक स्वरूप को नष्ट करना आवश्यक है। परंतु पितृसत्ता का विकल्प क्या हो सकता है। मातृसत्तात्मक व्यवस्था इसकी जगह ले सकती है? असल में मातृसत्तात्मक समाज व्यवस्था के अपने अंतर्विरोधों के कारण ही पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था का जन्म हुआ था।
अत: मातृसत्ता पितृसत्ता का विकल्प नहीं हो सकती। सही कदम तो होगा कि उत्तराधिकार के रूप में मिलने वाली संपत्ति का स्वरूप ही न रहे। अत: संपत्ति का स्वरूप निजी न होकर सामाजिक हो। जब संपत्ति का स्वरूप निजी न होकर सामाजिक होता है तो स्त्री-पुरुष के संबंध बेहद स्वाभाविक एवं वर्चस्व रहित होते हैं। इसका उदाहरण प्रकृति से तादात्म्य के साथ रहने वाली वे जनजातियां हैं जिनके समाज में संपत्ति का स्वरूप सामुदायिक होता है। इन समाजों में स्त्रियां उत्पादन प्रणाली में अपने योगदान के अनुरूप और समाज के पुरुष सदस्य के समान ही अधिकार और स्वतंत्रता का आनंद उठाती हैं। इस तरह की आदिम और घुमंतू जनजातियों में स्त्री पुरुष भेद बेहद कम और बलात्कार जैसी घटनाएं भी नगण्य होती हैं। संपत्ति के निजी स्वरूप और उत्तराधिकार प्रणाली से ही स्त्री की गुलामी की शुरुआत हुई थी। अत: इस भौतिक बुनियाद को नष्ट करने के साथ ही यह गुलामी भी वास्तविक रूप से नष्ट होगी। कई लोग संपत्ति के सामाजिक स्वरूप वाली प्रणाली में परिवार और एकनिष्ट विवाह जैसी संस्थाओं के उन्मूलन हो जाने के खतरे की बात करते हैं। निजी संपत्ति के उन्मूलन से परिवार और एकनिष्ठ विवाह का उन्मूलन नही। होगा वरन् इनका शोषक और वर्चस्वशाली स्वरूप समाप्त होगा। जैसा कि एंगेल्स दिखाते हैं कि एकनिष्ठ विवाह निजी संपत्ति के उन्मूलन पर अधिक मजबूत होगा क्योंकि यह प्रेम और रुचियों की समानता पर आधारित होगा। यहां पर यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि निजी संपत्ति के उन्मूलन के साथ ही बलात्कार और यौन शोषण पूरी तरह से समाप्त नहीं हो जाएंगे। कुछ घटनाएं तब भी हो सकती हैं। परंतु तब पुरुष वर्चस्व की समाप्ति होगी और बलात्कार के सामाजिक परिणाम बदल जाएंगे। क्योंकि भौतिक आधार नष्ट होने से मूल्य प्रणाली भी बदल जाएगी।
उपर्युक्त विश्लेषण की एक सीमा यह है कि इसमें सभी महिलाओं को एक ही समुदाय के रूप में प्रदशित किया गया है। महिलाएं वर्ग, जाति, रंग आदि कई वर्चस्व वाली श्रेणियों में बंटी हुई हैं अत: निजी संपत्ति के उन्मूलन का रास्ता इतना आसान नहीं। जैसा कि इस लेख की शुरुआत में ही स्पष्ट किया गया कि पितृसत्ता के साथ ही समाज के अन्य वर्चस्वशाली ढांचों के कारण महिलाएं अधिक असुरक्षित होती हैं। अत: महिला मुक्ति का प्रश्न मानव मुक्ति के अन्य प्रश्नों के साथ गहराई से जुड़ा हुआ है।
निजी संपत्ति के उन्मूलन का एजेंडा राजनीतिक अर्थशास्त्र के क्षेत्र में माक्र्सवादियों का प्रमुख एजेंडा है और माक्र्सवादियों ने ही सही रूप में स्त्री की गुलामी की भौतिक बुनियाद को समझा है। परंतु राजनैतिक कार्यवाहियों में जेंडर के प्रश्न को माक्र्सवादियों ने उपेक्षित ही छोड़ा है। यह शुरुआत कम्युनिष्ट घोषणापत्र से ही हुई है जब माक्र्स और एंगेल्स घोषणा करते हैं कि कम्युनिष्टों पर ज्यादा से ज्यादा यह आरोप ही लगाया जा सकता है कि वे पुराने काल से चली आ रही स्त्री की सर्वोपभोग्यता के गोपनीय रूप को समाप्त कर खुला कानूनी रूप देना चाहते हैं। यहां पर माक्र्स और एंगेल्स के मंतव्य पर कोई संदेह नहीं कि वे स्त्री की स्वतंत्रता की बात कर रहे हैं परंतु 'स्त्री की सर्वोपभोग्यता का कानूनी रूप' शब्द कम्युनिष्ट घोषणा पत्र जैसी महान कालजयी कृति में न होता तो अच्छा था। यह बुर्जुआ नैतिकता का आग्रह नहीं परंतु स्त्री की ही सर्वोपभोग्यता क्यों पुरुष की क्यों नहीं? यह जायज प्रश्न माक्र्स से पूछा ही जाना चाहिए था। यही जेंडर का नाजुक प्रश्न है जिस पर निजी संपत्ति का उन्मूलन करने के लिए प्रतिबद्ध राजनैतिक कौम से अधिक समझदारी और गंभीरता की अपेक्षा है। इसे मात्र अस्मिता का प्रश्न मानने से समस्याएं हल नहीं होंगी।
2. सेक्सिज्म का विरोध करना होगा यह पूंजीवादी समाज की देन है कि यौन आवश्यकताओं को उनकी प्राकृतिकताओं से कहीं अधिक महत्त्व दिया जा रहा है। यह कुत्सित प्रचार किया जा रहा है कि भोजन की तरह ही यौन संबंध भी जीवन के लिए अत्यावश्यक है। यह सोच प्राकृतिकता के बजाय कृत्रिम मनोविज्ञान पर आधारित है। क्योंकि भोजन के बगैर जीवन संभव नहीं है परंतु यौन संबंधों के बगैर निश्चित संभव है। क्योंकि भोजन जीवन के लिए आवश्यक है तो यौन संबंध जीवन की निरंतरता के लिए। यहां पर यह स्पष्ट करना जरूरी है कि मेरे द्वारा ब्रह्मचर्य जैसी अव्यावहारिक अवधारणा का समर्थन नहीं किया जा रहा है। परंतु वर्तमान मुनाफा केंद्रित व्यवस्था जिस रूप में यौनवाद को बढ़ावा दे रही है उसका विरोध होना ही चाहिए क्योंकि यौनवाद अपने आधारभूत स्वरूप में ही स्त्री विरोधी है। यह यौनवाद का ही परिणाम है कि बाजार पुरुषों की उत्तेजना बढ़ाने वाले अनगिनत उत्पादों से भरा पड़ा है और इसका बाजार बढ़ता ही जा रहा है। ब्रह्मचर्य अव्यावहारिक है तो यौनवाद भी बेहद खतरनाक प्रवृत्ति है। बलात्कार की घटनाओं को रोकने के लिए इसका विरोध आवश्यक है साथ ही इसके पीछे बाजार की शक्तियों को बेनकाब करना भी।
3. धर्म की सत्ता का विनाश करना होगा चूंकि धर्म आधारभूत रूप से स्त्री विरोधी है। अत: स्त्री मुक्ति के लिए धर्म की सत्ता का विनाश आवश्यक है। हमें धर्म का स्थान लेने में सक्षम ऐसे नैतिक ढांचे का आविष्कार करना होगा जो मनुष्यों के संतुलित भौतिक संबंधों पर आधारित हो।
4. कानून/सुरक्षा/न्यायिक व्यवस्था में सुधार किसी बड़े सामाजिक आंदोलन के अभाव में तदर्थ उपाय तो करने ही होंगे। इसके लिए कठोर कानून और उसका समयबद्ध क्रियान्वयन आवश्यक है। परंतु बलात्कार के लिए मृत्युदंड एक गलत विचार है क्योंकि ऐसा होने पर बलात्कारी पीडि़त महिला की सुबूत मिटाने के लिए हत्या कर देगा। अभी हमारे पास कानूनी पहलुओं के विषय में वर्मा समिति की प्रशंसनीय और विस्तृत सिफारिशें हैं उन्हें पूरी तरह लागू करना होगा।
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