व्यावसायिकता और रचनात्मकता का द्वंद्व
Author: समयांतर डैस्क Edition : May 2013
भारतीय सिनेमा के सौ वर्ष पर विशेष
जवरीमल्ल पारख
भारत में सिनेमा की शुरुआत 1896 में हो गई थी, जब ल्यूमिए बंधुओं ने अपनी लघु फिल्मों का प्रदर्शन बंबई में किया था। इन प्रदर्शनों से प्रभावित होकर कुछ भारतीयों ने भी इस दिशा में काम करने का निर्णय लिया। दादा साहब फाल्के उनमें से एक थे, जिन्होंने एक विदेशी फिल्म द लाइफ ऑफ क्राइस्ट देखकर यह तय किया था कि उन्हें भी फिल्म बनानी चाहिए और इसके लिए उन्होंने हिंदू पौराणिक चरित्र राजा हरिश्चंद्र के जीवन को पेश करने का निर्णय लिया। फिल्म बनाने के जरूरी संसाधन के लिए वे खुद लंदन गए थे और वहां से कैमरा और दूसरे जरूरी उपकरण लेकर ही नहीं आए बल्कि फिल्म निर्माण का प्रशिक्षण भी प्राप्त किया। भारत आकर उन्होंने राजा हरिश्चंद्र फिल्म बनाई। उसका पहला सार्वजनिक प्रदर्शन 3 मई 1913 को कोरोनेशन थियेटर में हुआ। यानी इस वर्ष 3 मई को इस फिल्म के प्रदर्शन के पूरे सौ साल हो जाएंगे और यही वजह है कि 2013 को सिनेमा की सदी के रूप में मनाया जा रहा है। दादा साहब फाल्के ने अगले पंद्रह साल में 95 फीचर फिल्में और 26 लघु फिल्में बनाईं। लेकिन उनके द्वारा बनाई प्राय: सभी फीचर फिल्में पौराणिक कथाओं पर आधारित थीं। उस समय एक फिल्म बनाने पर दस हजार से पंद्रह हजार रुपए खर्च होते थे। लेकिन इन दस-पंद्रह हजार रुपए का इंतजाम करना आसान काम नहीं था। इसलिए फिल्म बनाने और उनके प्रदर्शन के लिए कई कंपनियां स्थापित की गईं। स्वयं दादा साहब फाल्के ने हिंदुस्तान फिल्म्स नाम से एक कंपनी की स्थापना की थी जिसमें उनके अलावा अन्य कई भागीदार थे।
इस दौर में स्थापपित ये कंपनियां फिल्मों का निर्माण उसी तरह से करती थीं जैसे अन्य कंपनीयां माल का उत्पादन करती हैं। अभिनेताओं से लेकर तकनीशियनों तक को नौकरी पर रखा जाता था। फिल्मों को उनके अभिनेताओं या निर्देशकों के आधार पर नहीं बल्कि कंपनी के नाम से ज्यादा जाना जाता था। पौराणिक और चमत्कारिक कहानियां चुनने की एक वजह यह भी थी कि उस समय पश्चिम से जो फिल्में आयातित की जाती थीं और जिन्हें भारतीय सिनेमाघरों में दिखाया जाता था, उनकी तुलना में भारतीय फिल्मों को सफल होने के लिए यह सबसे आसान रास्ता नजर आता था। भारत जैसे देश में जहां नाटक और फिल्में देखना अच्छा नहीं समझा जाता था, वहां धार्मिक और पौराणिक फिल्मों के माध्यम से दर्शकों को सिनेमाघरों तक आसानी से खींचा जा सकता था। इस तरह फिल्मों के प्रति बढ़ते आकर्षण ने ही कुछ फिल्मकारों को सामाजिक विषयों को आधार बनाकर फिल्में बनाने के लिए प्रेरित किया। इनमें बाबूराव पेंटर का नाम खास तौर पर उल्लेखनीय है जिन्होंने 1925 में सावकारी पाश नामक फिल्म बनाई थी जो किसानों की ऋण समस्या पर आधारित थी। फिल्में देखने के प्रति बढ़ती रुचि ने ही संभवत: ब्रिटिश सरकार को इसके लिए सजग किया कि फिल्मों के लिए सेंसर की व्यवस्था लागू हो। 1918 में फिल्मों के प्रदर्शन संबंधी कानून पारित किया गया जो 1920 से लागू हुआ। शायद यही वजह है कि 1947 से पहले आजादी के आंदोलन को आधार बनाकर कोई फिल्म नहीं बन सकी।
फिर भी, दो दशकों में ही कई ऐसे फिल्मकार सामने आने लगे थे जिनके लिए फिल्में महज मनोरंजन का माध्यम नहीं था। ये फिल्मकार मुख्य रूप से तीन फिल्म कंपनियों से जुड़े थे। 1929 में कोल्हापुर में प्रभात फिल्म कंपनी की स्थापना की गई थी। इसकी स्थापना करने वालों में वी. शांताराम, विष्णुपंत दामले, एस. फत्तेलाल, केशवराव ढेबर आदि शामिल थे। वी. शांताराम, दामले और फत्तेलाल ने मराठी और हिंदी में कई सामाजिक दृष्टि से उद्देश्यपूर्ण फिल्में बनाई थीं। कलकत्ता के न्यू थियेटर्स ने, जिसकी स्थापना 1930 में बी. एन. सरकार ने की थी, बांग्ला और हिंदी में कई महत्त्वपूर्ण फिल्में बनाईं और कई महान फिल्मकारों को काम करने का अवसर प्रदान किया। न्यू थियेटर्स से नितिन बोस, पी. सी. बरुआ, अमर मलिक, देबकी बोस, के. एल. सहगल, केदार शर्मा, बिमल रॉय, ऋषिकेश मुखर्जी जैसे महान फिल्मकार और कलाकार जुड़े रहे थे। हिमांशु रॉय द्वारा स्थापित बॉम्बे टॉकीज ने भी 1930 के दशक में कई बड़े फिल्मकार और कलाकार सिनेमा को दिए थे। इसी दौर में हिंदी सिनेमा से हिंदी और उर्दू के कई महत्त्वपूर्ण लेखक भी जुड़े और उन्होंने फिल्मों के लिए पटकथा, संवाद तथा गीत लिखे। 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना के बाद संस्कृति के क्षेत्र में जो आंदोलनात्मक स्थितियां पैदा हुईं, उसने भी फिल्मकारों को प्रगतिशील विषयवस्तु लेकर फिल्में बनाने के लिए प्रेरित किया।
1930 के दशक तक आते-आते राष्ट्रीय आंदोलन न सिर्फ व्यापक जन आंदोलन में बदल चुका था बल्कि इसमें किसान, मजदूर, दलित और स्त्रियों की भागीदारी भी बढ़ रही थी। यह एहसास भी बढ़ रहा था कि सिर्फ राजनीतिक मुक्ति ही पर्याप्त नहीं है बल्कि स्वतंत्र भारत कैसा होगा, यह भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। किसानों, मजदूरों, स्त्रियों और दलितों को उनके अधिकार मिल पाएंगे या नहीं? यह बड़ा प्रश्न उठने लगा था। फिल्मकार भले ही राजनीतिक फिल्म न बना पा रहे हों, लेकिन सामाजिक प्रश्न वे फिल्मों के माध्यम से उठा सकते थे और इसे हम उस दौर की फिल्मों में देख सकते हैं। 1932 में ही न्यू थियेटर्स ने देवकी बोस के निर्देशन में बांग्ला में चंडीदास फिल्म बनाई थी जिनमें भक्ति आंदोलन के महान कवि चंडीदास के जीवन को पेश किया गया था। इस फिल्म के माध्यम से जातिगत ऊंच-नीच का सवाल उठाया गया था। इस फिल्म को दो साल बाद ही न्यू थियेटर्स ने नितिन बोस के निर्देशन में हिंदी में भी बनाया था। देवकी बोस ने अगले साल ही बांग्ला और हिंदी में मीराबाई के जीवन पर फिल्म बनाई। हिंदी फिल्म राजरानी मीरा में के.एल. सहगल और दुर्गा खोटे ने काम किया था। 1933 में ही न्यू थियेटर्स ने हिंदी में यहूदी की लड़की फिल्म बनाई, जो आगा हश्र कश्मीरी के नाटक पर आधारित थी और जिसमें सांप्रदायिकता के प्रश्न को उठाया गया था तथा सांप्रदायिक सद्भाव का संदेश दिया गया था। प्रभात फिल्म्स के बैनर तले 1934 में वी. शांताराम ने अमृतमंथन फिल्म बनाई जिसमें धर्म के नाम पर दी जाने वाली पशुओं की बलि का विरोध किया गया था। 1934 में मोहन भवनानी ने मजदूर फिल्म बनाई थी जिसमें मजदूरों के अधिकारों को विषय बनाया गया था। इस फिल्म की पटकथा प्रेमचंद ने लिखी थी। पूंजीपतियों और व्यापारियों के लोभ-लालच और मजदूरों के शोषण-उत्पीडऩ पर फिल्में बनने का सिलसिला शुरू हो चुका था। देवकी बोस की फिल्म इंकलाब (1935) में भूकंप का लाभ उठाने की व्यवसायी की कोशिशों को दिखाया गया है। बॉम्बे टॉकीज ने 1936 में अछूत कन्या फिल्म के माध्यम से एक ब्राह्मण लड़के और एक दलित लड़की की प्रेम कहानी दिखाई थी। 1936 में ही प्रभात फिल्म्स ने मराठी में संत तुकाराम फिल्म बनाई थी जिसमें ब्राह्मणवादी जाति व्यवस्था की आलोचना की गई थी। इन उदाहरणों से साफ है कि 1930 के बाद भारतीय सिनेमा में ऐसे फिल्मकारों का आगमन बड़ी संख्या में होने लगा था जिनके लिए फिल्म निर्माण उच्च सामाजिक मकसद से प्रेरित था। इन फिल्मकारों ने सिनेमा निर्माण की भारतीय परंपरा का अनुकरण करते हुए भी अपने मकसद को कभी भी आंखों से ओझल नहीं होने दिया।
फिल्म बनाने का यह मकसद 1930 के दशक में स्थापित फिल्म कंपनियों के बिखराव के बाद भी जारी रहा। न्यू थियेटर्स, प्रभात फिल्म्स, बॉम्बे टॉकीज और दूसरी कई कंपनियां या तो बंद हो गईं या उनकी वह सक्रियता नहीं रही जो 1930-40 की अवधि में रही थी। फिल्मकारों ने खुद अपनी छोटी-बड़ी कंपनियां स्थापित कर ली थीं। फिल्म उद्योग का अब काफी विस्तार हो गया था और यह करोड़ों के व्यवसाय में बदल गया था। साथ ही फिल्म बनाना भी काफी महंगा होता जा रहा था। दूसरे विश्वयुद्ध के कारण फिल्मों के लिए जरूरी कच्चा माल भी आसानी से नहीं मिल पा रहा था। इसके बावजूद फिल्मकार बेहतर फिल्में बना रहे थे। 1940-50 के दशक में कई महत्त्वपूर्ण फिल्मकार हिंदी सिनेमा के क्षेत्र में सक्रिय हुए जिनमें बिमल रॉय, केदार शर्मा, महबूब खान, सोहराब मोदी, ख्वाजा अहमद अब्बास, राजकपूर, चेतन आनंद, कमाल अमरोही, अमिय चक्रवर्ती, गुरुदत्त, बी.आर. चोपड़ा, यश चोपड़ा आदि का नाम खास तौर पर उल्लेखनीय हैं। इन सभी फिल्मकारों ने जो भी फिल्में उस दौर में बनाईं उनका कोई-न-कोई सामाजिक मकसद होता था। यह दौर 1960 तक कमोबेश जारी रहा। ये फिल्में भी मेलोड्रामाई शैली में ही बनाई गई थीं लेकिन इस शैली ने फिल्मों के यथार्थवादी कथ्य को कमजोर नहीं किया था बल्कि इसे अधिक संप्रेषणीय बना दिया था। इन फिल्मों में मध्यवर्ग के जीवन में आने वाले बदलावों और संघर्षों को ही नहीं बल्कि समाज के पददलित वर्गों के जीवन को भी विविधता के साथ पेश किया गया था। यह हिंदी सिनेमा का सर्वाधिक रचनात्मक युग था। इस दौर की फिल्में दो तरह के नजरिये को पेश कर रही थीं। एक में आजादी के बाद का आशावाद था ('दुख भरे दिन बीते रे भैया अब सुख आयो रे, रंग नवजीवन में नया लायो रे') और दूसरे में स्थितियों की भयावहता के कारण पैदा नैराश्य था ('जिन्हें नाज हैं हिंद पर वे कहां हैं' और 'ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है')। फिर भी, एक तरह की हल्की आशा की किरण बाकी थी: 'वो सुबह कभी तो आएगी'।
1940-60 के बीच के दौर में फिल्में उनके निर्देशकों द्वारा पहचानी जाती थीं। अभिनेताओं का भी महत्त्व था और धीरे-धीरे निर्देशक के बाद उनकी ही हस्ती बनती जा रही थी। इस दौर के अभिनेताओं ने पारसी थियेटर के दौर की अतिरंजित और अत्यंत लॉउड अभिनय से नाता तोड़कर यथार्थवादी अभिनय कला को अपनाया। यह परंपरा के. एल. सहगल शुरू कर चुके थे, लेकिन दिलीप कुमार ने इसे उत्कर्षता के शिखर पर पहुंचाया। नायिकाओं की जो नई पीढ़ी इस दौर में सामने आयी जिनमें नरगिस, मीना कुमारी, मधुबाला, नूतन, वहीदा रहमान आदि प्रमुख थीं। उन्होंने भी अभिनय की इसी शैली में अपनी क्षमता का परिचय दिया। लेकिन 1960 के बाद की फिल्मों में निर्देशक गौण होता चला गया। फिल्म में सामाजिक उद्देश्य हाशिए पर पहुंचने लगा और फिर वह लुप्त ही हो गया। उसकी जगह प्रेम त्रिकोण वाली कहानियों ने ले ली जिनमें खलनायक की मौजूदगी जरूरी हो गई थी। अधिकतर फिल्में नायक केंद्रित बनने लगीं और उनको जितना संभव ग्लैमराइज किया जा सकता था, किया जाने लगा। शम्मी कपूर, जॉय मुखर्जी, विश्वजीत, धर्मेंद्र, राजेश खन्ना, शशि कपूर, जितेंद्र इस दौर के नायक थे। 1950-60 के दौरान जो फिल्मकार सामाजिक मकसद वाली फिल्में बना रहे थे, उनमें से कुछ (बिमल रॉय, गुरुदत्त और महबूब) का देहांत हो चुका था। कुछ धीरे-धीरे व्यावसायिकता की ओर मुडऩे लगे थे। और कुछ ने फिल्मी दुनिया से किनारा कर लिया था। बढ़ती व्यावसायिकता ने फिल्मों की कीमतें बढ़ा दीं। अभिनेता मुहंमांगा पैसा मांगने लगे। अब वे फिल्मों में सवैतनिक काम नहीं करते थे बल्कि ज्यादातर कलाकार पूरी फिल्म के लिए निश्चित राशि लेते थे और यह राशि उनकी बाजार मांग से तय होती थी। वैसे तो शुरू से ही फिल्मों पर वितरकों का दबाव रहता था, लेकिन इस दौर में वे फिल्मकार को काफी हद तक 'डिक्टेट' करने लगे थे। उनकी इच्छा से फिल्म में गाने, अभिनेताओं का चयन, नृत्य और फाइटिंग के दृश्यों का समावेश होने लगा था। यह हिंदी सिनेमा के पतन का दौर था।
इसी दौर में पुणे में प्रभात स्टूडियो के प्रांगण में भारत सरकार ने फिल्म और टेलीविजन संस्थान की स्थापना की। इस संस्थान के माध्यम से फिल्म अभिनेता, निर्देशक, छायाकार, साउंड रिकॉर्डिस्ट और पटकथा लेखकों की एक नई युवा पीढ़ी सामने आयी। इस संस्थान के माध्यम से ये विश्व के उस बेहतरीन सिनेमा से परिचित हो चुके थे जो फ्रांस, इटली, जर्मनी, सोवियत संघ आदि देशों में बन रहा था। वे भारत की भी विभिन्न भाषाओं में बनने वाली उन फिल्मों से भी परिचित हो रहे थे जिनकी ओर व्यावसायिक सिनेमा के शोरगुल के कारण ध्यान नहीं जा रहा था। बांग्ला में सत्यजित रॉय, ऋत्विक घटक, मृणाल सेन; मलयालम में जी. अरविंदन, अडूर गोपालकृष्णन; और दूसरी कई भाषाओं में बनने वाली ऐसी फिल्मों को देखकर उन्हें एहसास हुआ कि फिल्म की रचनात्मकता और कलात्मकता को देखना और उनसे सीखना हो तो यही वे फिल्में हैं। इनमें से कुछ फिल्मकार प्रयोगशीलता पर अधिक बल देते नजर आते थे, लेकिन अधिकतर फिल्मकार किसी न किसी सामाजिक समस्या के इर्दगिर्द अपनी फिल्में बना रहे थे। यह वह दौर भी था जब कांग्रेस शासन के प्रति जनता में मोहभंग बढ़ रहा था। मजदूरों और मध्यवर्गीय पेशे वाले लोगों के आंदोलन बढ़ रहे थे। मध्यवर्गीय किसान पार्टियां और वामपंथी पार्टियां अपने को कांग्रेस के विकल्प के रूप में पेश कर रही थीं। नक्सलबाड़ी आंदोलन का प्रभाव फिल्मकारों पर दिखने लगा था। स्पष्ट ही पूरे माहौल में परिवर्तन की अनुगूंजें सुनाई दे रही थीं।
इस पर भी अधिकतर हिंदी फिल्मों का इस वास्तविकता से कोई लेना-देना नहीं था। इस दृष्टि से 1960 के बाद का हिंदी सिनेमा उन्हें बहुत छिछला, अश्लील और निरर्थक लगा। यही वजह है कि पहली बार व्यावसायिकता और रचनात्मकता का एक स्पष्ट भेद फिल्मों के माध्यम से स्थापित हुआ। वे फिल्मकार जो व्यावसायिक सिनेमा से अलग तरह का सिनेमा बनाना चाहते थे, उन्होंने अपनी फिल्मों को उनसे अलग रखने का स्पष्ट प्रयत्न किया और दर्शकों को भी इस बात का एहसास हुआ कि ये वे फिल्में नहीं हैं जिनको वे अब तक देखते रहे हैं। ये बिल्कुल नए तरह के आस्वाद वाली फिल्में हैं। व्यावसायिक फिल्मों से आम दर्शकों की रुचि काफी हद तक भ्रष्ट हो चुकी थी, इसलिए शहरी और शिक्षित मध्यवर्ग के एक छोटे से हिस्से को छोड़कर इस नए तरह के सिनेमा को प्राय: दर्शकों ने स्वीकार नहीं किया। लेकिन पहली बार हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में फिल्में स्पष्ट राजनीतिक परिप्रेक्ष्य और सामाजिक बदलाव के मकसद से बनाई जा रही थीं। वे फिल्मों की मेलोड्रामाई शैली की बजाए यथार्थवादी शैली में फिल्में बना रहे थे। फिल्मों से नाच-गाने और हास्य के अनावश्यक प्रसंग गायब हो गए थे। फिल्मों में रचनात्मक और अभिव्यक्ति के स्तर पर कई तरह के प्रयोग हुए और सबसे बड़ी बात यह है कि वे फिल्म को एक कला माध्यम मानते हुए भी बदलाव के हथियार के रूप में इसे देख रहे थे। मुख्यधारा के सिनेमा से इतर यह एक नई धारा थी और इसी वजह से इसे न्यू वेव सिनेमा या समानांतर सिनेमा नाम दिया गया। इस दौर के प्रमुख फिल्मकारों में बासु भट्टाचार्य, श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, बासु चटर्जी, सईद अख्तर मिर्जा, गौतम घोष, प्रकाश झा, कुंदन शाह, मणि कौल, कुमार शहानी आदि कई नाम लिये जा सकते हैं जिन्होंने हिंदी सिनेमा को नई तरह की फिल्में बिल्कुल नए सिनेमाई भाषा में प्रदान कीं।
व्यावसायिक सिनेमा और समानांतर सिनेमा एक ही तरह के यथार्थ की उपज थे, फिर भी उनमें जमीन-आसमान का अंतर था। व्यावसायिक सिनेमा प्राय: यथास्थितिवादी था जबकि समानांतर सिनेमा में यथार्थ के प्रति तीक्ष्ण आलोचनात्मक दृष्टि नजर आती थी और उनमें से कुछ फिल्मों में सामाजिक बदलाव के संकेत देखे जा सकते थे। इस दौर में जन आक्रोश का इस्तेमाल व्यावसायिक सिनेमा ने भी किया जिसे अमिताभ बच्चन के नायकत्व वाली फिल्मों में देखा जा सकता था जो अपराध के विरुद्ध अकेले संघर्ष करता है और विजयी होता है। निजी प्रतिशोध पर आधारित इस तरह की फिल्मों का राजनीतिक परिप्रेक्ष्य प्राय: अलोकतांत्रिक होता था। व्यावसायिक सिनेमा बनाने वालों की रुचि जन भावनाओं का दोहन कर उन्हें मनोरंजन प्रदान करना था, इसलिए उनका बजट बहुत ज्यादा होता था। 1975 में बनी शोले फिल्म का बजट दो से तीन करोड़ माना जाता है और उसने 15 करोड़ का व्यवसाय किया था जबकि उसके दो साल बाद प्रदर्शित हुई शतरंज के खिलाड़ी फिल्म का बजट सिर्फ 20 लाख रुपए था जो ऐतिहासिक कथानक पर आधारित फिल्म थी। यह भी रंगीन फिल्म थी और उसमें अपने समय के बड़े-बड़े कलाकार थे। इसलिए इसका बजट अपेक्षाकृत ज्यादा था। उस दौर में चार-पांच लाख रुपए में अच्छी फिल्म आसानी से बनाई जा सकती थी। फिर भी, फिल्म निर्माण पर लाखों-करोड़ों रुपए खर्च किये जाते थे। इस दौर में अव्यावसायिक फिल्में बनाने वाले ज्यादातर फिल्मकारों को फिल्म वित्त निगम से या राज्य सरकारों से या किसी-न-किसी सरकारी संस्थान से अनुदान या ऋण मिलता था। इसलिए ऐसी फिल्में बनाना तो संभव हो जाता था लेकिन फिल्मों के प्रदर्शन की व्यवस्था जिन निजी वितरक कंपनियों के हाथ में थीं उनकी इन फिल्मों के प्रदर्शन में कोई रुचि नहीं होती थी। इसलिए ज्यादातर फिल्में देश-विदेश में फिल्म समारोहों में दिखाई जाकर डिब्बे में बंद हो जाती थीं। यही वजह है कि कुछ अपवादों को छोड़कर ये फिल्में मुख्यधारा पर न प्रभाव छोड़ पाईं और न ही अपने लिए जगह बना पाईं। धीरे-धीरे सरकारी सहायता के अभाव में बहुत से फिल्मकारों ने व्यावसायिकता से समझौता करना शुरू कर दिया। कुछ ही फिल्मकार पुराने रास्ते पर चलते रहे। लेकिन उन्हें फिल्में बनाने के अवसर यदा-कदा ही मिल पाते थे। व्यावसायिकता की मुख्यधारा निरंतर बलशाली होकर प्रवाहित होती रही।
व्यावसायिकता और रचनात्मकता का यह द्वंद्व आज भी कायम है। पिछले एक दशक में एकबार फिर से कई नए फिल्मकार आए हैं जो व्यावसायिक सिनेमा से कुछ भिन्न करना चाहते हैं। विशाल भारद्वाज, आमिर खान, आशुतोष गोवरीकर, राकेश मेहरा, अनुराग कश्यप, सुजॉय घोष, दिवाकर बनर्जी, तिंग्मांशु धुलिया, राजकुमार गुप्ता, नीरज पांडेय, निशीकांत कामत, अमोल गुप्ते, राहुल ढोलकिया, नंदिता दास, शूजित सरकार आदि कई नाम पेश किये जा सकते हैं लेकिन ज्यादातर फिल्मकार एक दो फिल्मों के बाद ही व्यावसायिकता की ओर मुडऩे लगते हैं और व्यावसायिकता से समझौते करने लगते हैं। जो सबसे बड़ा फर्क इन फिल्मकारों और समानांतर सिनेमा के फिल्मकारों में नजर आता है, वह यह कि उनमें से अधिकतर के पास प्रगतिशील राजनीतिक-सामाजिक दृष्टिकोण का अभाव दिखाई देता है। समाज की सच्चाइयों और अंतर्विरोधों को तीखेपन के साथ पेश करने की इच्छा तो नजर आती है लेकिन वैचारिकता के अभाव में कई बार फिल्में दिशाहीन बन जाती हैं।
इसका अर्थ यह नहीं है कि सोद्देश्यपूर्ण और रचनात्मक फिल्में बिल्कुल नहीं बन रही हैं। पिछले कुछ सालों में बनी कुछ फिल्मों के उदाहरण से ही इसे आसानी से समझा जा सकता है। विशाल भारद्वाज की ब्लू अंब्रेला, अनवर जमाल की स्वराज: ए लिटिल रिपब्लिक, भावना तलवार की धर्म, ओनीर की आइ एम, राहुल ढोलकिया की परजानिया, नंदिता दास की फिराक, अनुशा रिजवी की पीपली लाइव, बेदब्रत पैन की चट्टगांव, मंगेश हडवाले की देख इंडियन सर्कस, नितिन कक्कड़ की फिल्मिस्तान और इनके अलावा अन्य भारतीय भाषाओं में बनी बहुत-सी फिल्मों की सूची यहां पेश की जा सकती हैं जो कम बजट की सौद्देश्यपूर्ण फिल्में कही जा सकती हैं।
यह सही है कि आज व्यावसायिक फिल्मों का बजट 50-60 करोड़ तक पहुंच गया है और एक फिल्म से 100 करोड़ से ज्यादा का व्यवसाय होने लगा है लेकिन यह भी सही है कि आज फिल्म प्रौद्योगिकी में बहुत से ऐसे बदलाव हुए हैं जिनके कारण अच्छी फिल्में बहुत कम बजट में बनाई जा सकती हैं। इस नई प्रौद्योगिकी के कारण ही अत्यंत महत्त्वपूर्ण वृत्तचित्रों और लघु फिल्मों का बड़ी संख्या में निर्माण होने लगा है, जो कुछ दशक पहले तक बिल्कुल संभव नहीं था। दरअसल, फिल्म बनाना उतना मुश्किल नहीं है जितना कि उनका सार्वजनिक प्रदर्शन। हालांकि इंटरनेट, डीवीडी आदि ने फिल्मों की उपलब्धता को अब पहले की तुलना में आसान बना दिया है। फिर भी, रचनात्मक और परिवर्तनकामी सिनेमा को व्यापक जन समुदाय तक पहुंचाना और व्यावसायिक सिनेमा से भ्रष्ट हुई रुचियों के बावजूद दर्शकों में ऐसी फिल्मों के प्रति रुचि पैदा करना एक जरूरी मकसद है। सिनेमा के सौ साल के सफर के बाद भी यह चुनौती अभी भी बनी हुई है।
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