जाति की जड़ कहाँ है? वहीं,जहां वर्ण वर्चस्वी नस्ली अर्थव्यवस्था की नींव है
इस आत्मघाती,ब्राह्मणों से ज्यादा ब्राह्मणवादी, पूंजी गुलाम बहुजनसमाज को बाबासाहेब से रिश्ता जोड़ने का कोई अधिकार नहीं है।
पलाश विश्वास
"जाति-व्यवस्था बुरी हो सकती है. जाति के कारण व्यक्ति का व्यवहार इतना बुरा हो सकता है कि उसे अमानवीय कहा जा सकता है. परन्तु यह सब होने पर भी यह मानना पड़ेगा कि हिन्दू जाति को इसलिए स्वीकार करते हैं क्योंकि वे मानवता के भाव से अपरिचित हैं. वे जाति-धर्म पर इस लिए अमल करते हैं क्योंकि वे बहुत धार्मिक लोग हैं. सच तो यह है कि लोगों को जाति-धर्म मानने के लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता. मेरे विचार में अगर कुछ गलत या बुरा है तो वह उनका धर्म है जिसने जाति भाव को जन्म दिया है. अगर यह सही है तो स्पष्ट है कि सही दुश्मन जिस के खिलाफ लड़ने की ज़रुरत है वह व्यक्ति नहीं, जो जाति-व्यवस्था को मानते हैं, बल्कि वह शास्त्र हैं जो जाति-धर्म की शिक्षा देते हैं."- डॉ. आंबेडकर ( भगवान दास की पुस्तक "दलित राजनीति और संगठन" से साभार)
माननीय दारा पुरी जी ने बेहद प्रासंगिक यह उद्धरण दिया है,आज का रोजनामचा इसी के साथ।इस पर सिलसिलेवार बात करनी है।पहले सोचा था कि इस पर दूसरे मुद्दों पर चर्चा के बाद बात करेंगे,लेकिन आज सुबह जनसत्ता में संपादकीय पेज पर संजीव चंदन की टिप्पणी भाव अभाव पढ़ने के बाद लगता है कि पहले इसी मुद्दे पर चर्चा हो जाये तो दूसरी बातें भी कर लेंगे।
कल रात दफ्तर से लौटकर बांग्ला अपडेट में कुछ ज्यादा ही वक्त लग गया।आज बांग्लादेश में एक नरसंहार की वर्षी है।आर्थिक बदलाव के मद्देनजर वाम अनुकूलन पर बंगाल में नया विमर्श चल पड़ा है तो दीदी अब बंगाल को सिंगुर बनाने चली हैं।
बंगाल और अंग्रेजी अखबारं में देश के तमाम शहरों को ई स्मार्ट शहर बनाने का खुल्ला ऐलान हो रहा है।तो सीबीआई ने शारदा फर्जीवाड़े के सिलसिले में ईस्ट बंगाल क्लब के सर्वेसर्वा को गिरफ्तार कर लिया है।दूसरे फुटबाल क्लबों और तमाम लीग से जुड़े मंत्री सांसद भी कम नहीं है।
विकास का कामसूत्र बंगाल में क्लब कल्चर है। दुर्गा पूजा का काउंट डाउन और बंपर खरीददारी का मौसम है और इन आयोजनों के पीछे राजनीति और चिटफंड का हानीमून परिदृश्य है।
इन अपडेट्स को लगाने के बाद कहीं यह आलेख लिखना शुरु किया और छह बजे के करीब इसे अधूरा छोड़ना पड़ा वरना सविता घर से बाहर कर देती।
अब यह आलेख सिरे से पलटना मजबूरी है।इसी सिलसिले में लिंकडइन पर विजय शंकर पांडेय की पंक्तियां काफी दिलचस्प हैः
मुश्किलें केवल बहतरीन लोगों के हिस्से में ही आती हैं .!!!! क्यूंकि वो लोग ही उसे बेहतरीन तरीके से अंजाम देने की ताकत रखते हैं !! रख हौंसला वो मंज़र भी आयेगा; प्यासे के पास चलकर समंदर भी आयेगा; !! थक कर ना बैठ अए मंजिल के मुसाफ़िर;मंजिल भी मिलेगी और जीने का मजा भी आयेगा !!!
खास बात यह है कि संजीव चंदन कोई मामूली टिप्पणीकार नहीं हैं और सवर्ण दृष्टि से वे एक नालायक भुईंहार हैं मध्य बिहार के जनसंहार प्रसिद्ध इलाके के जहां उन्हींकी जाति की निजी सेनाएं दलितों पर कयामत ढाती रहती है।
वे अपने बिरादरी केखिलाफ ग्राउंड जीरो से लिखते हैं और इसके लिए कलेजा चाहिए।
बाबासाहेब की तरह वे जाति व्यवस्ता की पहेली इतिहास दृष्टि से देख तो रहे हैं,लेकिन उनकी अभिज्ञता से बेपर्दा जाति व्यवस्था का लगातार मजबूत हो रहा शिकंजा उत्पादन प्रणाली के बदलते संबंधों और प्रभूवर्ग के अबाध पूंजी जमाने में एकाधिकारवादी तौर तरीके से संबद्ध है,जो मेरे प्रमेय का आधार सिद्धांत भी है।
दूसरी ओर दारापुरी जी,सीनियर आईपीएस अफसर होने के साथ साथ वैज्ञानिक दृष्टि के लिए मशहूर चंद बहुजन चेहरों में है,जो विरल प्रजाति की तरह एक वामदल आईपीएफ के शीर्ष नेतृत्व में शामिल हैं।
दारापुरी जी अस्मिता दुकानदारों की तरह अंबेडकर को जाहिर है कि कतई उद्धृत नहीं कर रहे हैं और फेसबुक वाल पर उनका यह कोट कुछ ज्यादा ही विचार विनिमय की मांग करता है।
संजीव चंदन के उल्लेख से जाहिर है कि बहुत लोगों को ऐतराज हो सकता है।लेकिन उनकी प्रतिबद्धता कोई आकस्मिक टिप्पणी नहीं है और न वे अपनी जमीन से कटे हुए हैं।वे मौके पर जाकर हालात का मुकाबला करने का जिगर भी रखते हैं,उन्हें गंभीरता से लेने की जरुरत है।
गौरतलब है कि एक डा.विनयन थे मध्य बिहार में कभी,जो जेपी आंदोलन बजरिये माओवादी राजनीति का केंद्रीय चरित्र बन गये थे।वैचारिक तीक्ष्णता और जमीनी जड़ों वाली प्रतिबद्धता के साथ सच यह है कि जाति से ब्राह्मण होने के बावजूद वे मृत्यु पर्यंत मध्य बिहार के दलितों के हक हकूक के लिए न सिर्फ लड़ते रहे बल्कि दलितों के इलाकों को नरसंहार के खिलाफ मोर्चाबंद करके समूचे मध्य बिहार को मुक्तांचल बना देने का करिश्मा भी उनका था।
सवाल यह है कि अंबेडकरी विचारधारा,आंदोलन और खासतौर पर जाति उन्मूलन के एजंडे में दूसरे तीसरे चरण के आर्थिक सुधारों के जरिये मुकम्मल कयामत में तब्दील अबाध लंपट पूंजी और निरंकुश सांढ़ संस्कृित के मध्य कब तक हम अस्मिता ठेकेदारों के अंध भक्त दृष्टि अंध संपादन की अबूझ बेला में दारापुरी,डा. विनयन या संजीव चंदन जैसे लोगों के महाप्रयत्नों की अनदेखी करके कांवरिया बनकर देवादिदेव के मत्थ जल चढ़ाते रहेंगे या धर्मस्थलों पर कारसेवा से लेकर भगदड़ और प्राकृतिक आपदाओं में कब तक मरता खपता रहेगा राजनीति,अर्थव्यवस्था और उत्पादन प्रणाली, साहित्य, संस्कृति, भाषा,बोली,लोक,जल जमीन जंगल नागरिकता नागरिक और मानवाधिकारों से बेदखल उत्तरआधुनिक मुक्तबाजारी मनुस्मृति की वैश्विक जायनी केसरिया कारपोरेट स्थाई बंदोबस्त में बहिस्कृत मूक बहुजन बहुसंख्य जनसमाज कृषि समाज।
गौर करने वाली बात तो यह है कि बाबासाहेब ने जातिव्यवस्था की जड़ें कर्मकांडी धर्म में बताया था।
जैसा कि महाभारत पुनरूत्थान के भारत अंत समय में कुरुक्षेत्र विनाशलीला में मृत शत पुत्रों की अभागन मां,जो दृष्टि होने के बावजूद अंध पति सम्राट की पतिव्रता बतौर अधी बनी रही आजीवन और सिर्फ एकबार आंखों की पट्टी खोलकर अपने पुत्र दुर्योधन की देह को वज्रसमान अभेद्य बाना देने की करिश्मा से नियतिबद्ध मृत्यु से उसे भी बचाने में श्रीकृष्ण की राजनय से नाकाम रहीं,और स्वयं गीतोपदेश के कर्मफल सिद्धांत मुताबिक जाति व्यवस्था को पाप पुण्य से जोड़कर समूची भारतीय उत्पादन संबंधों को वंशगत जनमजाट अमिट अटल बना गये,उनके बीच हुआ संवाद दोबारा पढ़ने की जरुरत है।
शोकग्रस्त माता गांधारी के अभिशाप के कारण ही द्वापर का अंत हुआ और कलियुग शुरु हुआ मूसलपर्व मध्ये जिसमें धर्मव्याध के वाण से श्रीकृष्ण का अवसान हुआ।
गांधारी ने कुरुक्षेत्र के लिए,उस महाभारतीय विनाश लीला के लिए,अपने शत पुत्रों की असमय मृत्यु के लिए श्रीकृष्ण को जिम्मेदार मानते हुए वह अमोघ अभिशाप दिया तो गौर करें कि राम कष्ण जो एकाकार हैं,जो विष्णु के अवतार हैं और त्रेता में मर्यादा पुरुषोत्तम बतौर जिनने एक ब्राह्मण पुत्र के असमय मृत्यु के कारण राजकाज बतौर मनुस्मृति अनुशासन,यानि जन्मजात जाति व्यवस्था का नस्ली वर्ण वर्चस्वी व्यवस्था बहाल करने के लिए मनुस्मृति मुताबिक शिक्षा के अधिकार से वंचित शूद्र शंबुक का वध किया क्योंकि वह अनधिकार तपस्या कर रहा था,जो ब्राह्मणों का विशेषाधिकार हुआ।
हिंदू शास्त्रों की अन्यतम पहेली यह भी है कि तपस्या के लिए शंबुक की तो हत्या कर दी गयी,लेकिन क्षत्रिय होकर बजरिये तपस्या मनुस्मृति अनुशासन तोड़कर मेनका को शंकुतला उपहार देने के बावजूद क्षत्रिय राजा विश्वमित्र के ब्रह्मर्षि बन जाने पर उन्ही विश्वमित्र के अनुगामी बने रहे श्री रामचंद्र मर्यादा पुरुषोत्तम।
अंबेडकर विचारधारा और उनके जाति उन्मूलन के एजंडे के मुताबिक धर्म में ही जाति व्यवस्था की जड़े हैं और इस धर्म का विरोध होना चाहिए।
बल्कि बागी लेखिका तसलिमा नसरीन इस हिसाब से बाबासाहेब की सबसे प्रबल समर्थक साबित होती हैं जो धर्मनिरपेक्षता के पाखंड को भी तार तार करके सीधे धर्मनिषेध की प्रवक्ता होने के कारण युग बीता मातृभूमि से निर्वासित हैं तो मोदी अनुकंपा से सनातन धर्म उपनिवेश भारत में पर्यटक बतौर रह रही हैं और धार्मिक और धर्मनिरपेक्ष दोनों तबकों को उनसे प्रचंड घृणा है।
तसलिमा जो कहती हैं कि धर्म के रहते न नागरिक अधिकार संभव है और न मानवाधिकार और न स्त्री मुक्ति की कोई संभावना है।
तसलिमा जो कहती हैं कि धर्म रहा तो न समता संभव है और न सामाजिक न्याय।
दारापुरी जी के उद्धरण का असली तात्पर्य भी वहीं है। बाबासाहेब का जाति उन्मूलन का प्रस्थान बिंदू वहीं धर्मनिषेध है।
वर्गविशेष,जन्मजात जाति व्यवस्था में सवर्ण खासतौर पर ब्राह्मण के खिलाफ नहीं है बाबासाहेब का जाति उन्मूलन का एजंडा।
इसे बहुजन समाज को जितना समझना चाहिए,ब्राह्मण और सवर्णों की समझ भी उतनी ही जरुरी है।
दोनों पक्ष जब जाति का बहिस्कार करें और जब उत्पादन प्रणाली में वंश और जाति की जन्मजात व्यवस्था खत्म हो, तभी जाति उन्मूलन संभव है।
बाबासाहेब ने ब्राह्मणवाद पर हमला बोला।हिंदुत्व और खासतौर पर हिंदू राष्ट्रवाद के खिलाफ धर्मांतरण करके भारत को फिर बौद्धमय बनाने का संकल्प लिया,इसका मतलब यह नहीं है कि बाबा साहेब कोई धार्मिक प्राणी हो गये और उनके वक्तव्य और कृत्तित्व में कोई अंतर्विरोध है,जिसे साबित करके बाबासाहेब का खंडन मंडन करते रहे हैं दृष्टि अंध इतिहासविरोधी लोग।
समता और सामाजिक न्याय की वर्गविहीन जाति विहीन नस्ली बेदभाव विहीन समाज की परिकल्पना ही नहीं है बौद्धमत,बल्कि भारतीय और वैश्विक संदर्भ में उसका इतिहास भी है गौतम बुद्ध का पंचशील जो कर्मकांडी वर्ण वर्चस्वी धर्म और खासतौर पर धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद का निषेध करता है।
इसके विपरीत बाबासाहेब के अनुयायियों ने ब्राह्मणवाद को गले लगाकर नवब्राह्मण बने जाने का विकल्प अपनाया।
बिना द्विजत्व के वे अजनेऊ ब्राहमण हो गये ब्राह्ममों के मुकाबले लाख गुणा ज्यादा कट्टर,धर्मांध भी और दृष्टि अंध भी।
आरक्षण मध्ये आर्थिक सशक्तीकरण बजरिये वे सारे एमपावर्ड लोग ब्राह्मणों के घर जमाई हो गये और इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए ब्राह्मणों को गरियाते हुए बाबासाहेब की विचारधारा,आंदोलन,उनके संविधान ,उनके आर्थिक मतामत,उनकी विरासत और खास तौर पर उनके जाति उन्मूलन के एजंडे को तिलांजलि दे दी।
ब्राह्मणवाद के खिलाफ लड़ाई शुरु ही नहीं हो सकी है इस देश में।
न पूंजी के खिलाफ कोई लड़ाई शुरु हुई इस देश में।
जो अंबेडकरी आंदोलन के द्वैत प्रस्थानबिंदू हैं।
ब्राह्मणों को गरियाते हुे कंटिन्युयस ब्राह्मणवाद के पक्ष में सवर्णों से लेकर शूद्रों तक का धर्मोन्मादी ध्रूवीकरण का आत्मघाती आंदोलन करते रहे हैं बहुजन।
इसीलिए बहुजन हिताय सर्वजनहिताय नारे की गूंज मध्ये सत्ताहिताय में तब्दील है।
माफ करें,मुझे कहना ही होगा कि दृष्टि अंध बहुजन समाज से ज्यादा कोई जिम्मेदार नहीं है इस मुक्त बाजारी अश्वमेध के लिए।
बहुजन समाज नें सूद्रों को एकमुश्त ब्राह्मणवादी बना दिया,आदिवासियों,नस्ली भूगोल में वर्ण वैषम्य और नस्ली भेदभाव के शिकार जनसमूहों,धार्मिक अल्पसंख्यकों और खासतौर पर मुसलमानों को हिंदुत्व के सुरक्षाजनित असहायता के ताबूत में बंद होकर धर्मोन्मादी हिंदुत्व का शरणागत बना दिया है।
जो लोग अरुंधति के जाति उन्मूलन मुखबंध लिखने पर उनके ब्राहणत्व पर सवाल उठाते हैं,क्या वे अंबेडकर को उनसे बेहतर समझते हैं,सवाल यह है।
सवाल यह है कि बहुजन समाज ने रामचंद्र गुहा और एडमिरल भागवत का अंबेडकर पर लिखा कभी गंभीरता से पढ़ा है या नहीं।
जो लोग कहते हैं कि आनंद तेलतुंबड़े कम्युनिस्ट हैं,आनंद पटवर्धने ब्राह्मण हैं, शीतल साठे नक्सलाइट हैं और उनका लेखन, उनकी फिल्में ,उनका सांस्कृतिक आंदोलन ब्राह्मणवादी है,क्या उन तमाम लोगों ने कभी बाबासाहेब का लिखा गंभीरता पूर्वक पढ़ा है,सवाल यह भी है।
गांधारी का अभिशाप स्वीकार करते हुए श्रीकृष्ण ने कहा था कि कुरुक्षेत्र में कोई नहीं मरा।
मारने वाले निमित्त थे और मरने वाले भी निमित्त।मारने वाला भी मैं हूं और मरने वाला भी मैं हूं।
यदुवंश का भारी विस्तार हुआ है और समूचा भारतीय कृषि समाज और बहुजन समाज,किसान,कामगार,सफेदपोश कर्मचारी,स्त्रियां इसी यदुवंश के मूसलपर्व के कुशी लव हैं।मरने वाले भी वे और मारने वाले भी वे।जैसा मध्य भारत का सलवाजुड़ुम।
क्योंकि हमने वर्मवर्चस्वी धर्म को सिरफ गले लगाया नहीं है ,बल्कि हम तो धर्मोन्मादी मुक्तबाजारी राष्ट्रवाद की पैदल सेनाएं हैं।
इस आत्मघाती,ब्राह्मणों से ज्यादा ब्राह्मणवादी, पूंजी गुलाम बहुजनसमाज को बाबासाहेब से रिश्ता जोड़ने का कोई अधिकार नहीं है।
कल देर रात जो लिखा,वह इसप्रकार है,उसे शायद बदलने की जरुरत है नहीं।आप अपने हिसाब से पढ़ लें।
मित्रों हिंदी में एक दिन के अंतराल के बाद लिख रहा हूं।हालात इतनी तेजी से बदल रहे हैं और हमारे पास पेशेवर साधन संसाधन संपन्न विद्वतजनों का प्रतिबद्ध हुजूम भी नहीं है।हम कुछ नहीं कर सकते,हां सूचना वंचित वंचितों को मौजीदा हालात बता सकते हैं,बाकी उनकी मर्जी।
मुश्किल यह है कि अपनी अटल हिंदी प्रेम के बावजूद हम हिंदी में पूरे राष्ट्र को संबोधित नहीं कर सकते।दूसरी भारतीय भाषाओं के साथ साथ अंगेजी में भी यह बहस चलानी है।
जिस तेजी से अभिव्यक्ति पर चहारदीवारी बनायी जा रही है और रोबोटिक तरीके से सबकुछ नियंत्रित किया जा रहा है,दूसरों को संप्रेषित करने,दूसरों से संवाद की स्थिति बनाने से पहले लिखना शब्द दर शब्द शब्दशः मुश्किल ही नहीं, असंभव होता जा रहा है।
टीआरपी मनोरंजन के लिए सारी खिड़कियां खुली हैं,हमारे लिए कहीं कोई रोशनदान भी नहीं है।हम जिसतरह कयामत की जद में हैं हवा पानी के भी मोहताज हो जायें शायद,दो गज जमीन तो अब इस दुनिया में चैन के साथ सोने को मिलने वाली नहीं है।
तालाबंद जुबान के साथ जीकर भी क्या करना है और ययाति की तरह हम यौवन का प्रत्यारोपण भी नहीं कर सकते कि देश दुनिया को भूलकर सांढ़ संस्कृति में निष्णात हो जायें।
मैं हिंदी के अलावा अंग्रेजी और बांग्ला में थोड़ा बहुत लिख लेता हूं।इसलिए अब रोज हिंदी में लिखना नहीं हो सकेगा।मुद्दों के भूगोल के हिसाब से भाषा बदलती रहेगी।
जरुरत हुई और साथी आगे नहीं बढ़ें तो अजनबी भाषाओं में भी लिखने की नौबत आ सकती है।मेरे जो थोड़े से हिंदी पाठक हैं शायद,उनसे माफी चाहूंगा।
पूर्वोत्तर और कश्मीर के कारण कल अंग्रेजी में लिखना पड़ा।हिंदी में तो सोशल मीडिया में छप जाता है,लेकिन अंग्रेजी के लिए अपने ब्लाग ही भरोसा है।
दरअसल हमारी सबसे प्रिय महिला इरोम शर्मिला की लड़ाई में पल छिन हम सारे भारतीय चाहे अनचाहे शामिल हैं।अदालत से फिलहाल उनकी रिहाई हुई है।लेकिन मणिपुर की सरकार केंद्र के इशारे से उच्चतर अदालत में जा सकती है।
सशस्त्र सैन्य बल विशेषाधिकार कानून से हिंदी पट्टी के हिंदुओं का वास्ता नहीं पड़ता।लेकिन दंगाग्रस्त इलाकों के सेना के हवाले कर देने के बाद मलियाना और हाशिमपुरा जैसे कांड देश भर में मुसलमानों के खिलाफ दोहराये जाते हैं तो कारपोरेट घरानों के हितों की सुरक्षा और आदिवासियों की बेदखली के खिलाफ जो सैन्य अभियान जारी है, वह अब बाकी भारत में शुरु होने जा रहा है,उससे देर सवेर इसे राष्ट्रहित का पर्याय मानने वाले लोग भी समझ जायेंगे कि आखिर सैन्यीकरण का मकसद और मामला दरअसल क्या है।
अभी तो अमाजेन, वालमार्ट,फ्लिपकार्ट और दूसरी रिटेल कंपनियों को ड्रोनमाध्यमे जो होम डेलिवरी दी जा रही है,वह दरअसल भारतीय खुदरा बाजार में एकाधिकारवादी अमेरिकी हमला है जो दरकार के मुताबिक किसी भी वक्त कोई भी शक्ल अख्तियार कर सकता है क्योंकि हम सभी डिजिटल बायोमैट्रिक नागरिक हैं और हमारी कोई गोपनीयता नहीं है।
हमारी सारी कुंडली,हमारे सारे कवच कुंडल बेदखल हो गये हैं और आर्थिक सुधारों के दूसरे तीसरे चरण में इस देश का हाल इराक अफगानिस्तान जैसा होने लगा तो कोई अचरज है नहीं।
गाजा पट्टी का नजारा तो यूपी में शाहज्यू महाराज दिखा ही रहे हैं,जिसपर विशेषज्ञों का मानना है कि यूपी में भारी बहुमत के साथ भाजपा के सत्ता में आते ही भयमुक्त प्रदेश बन जायेगा उत्तर प्रदेश और यरुशलम के मंदिर दखल से पहले राममंदिर अवश्य बन जायेगा।
अबकी दफा असुरक्षित मुसलमान थोक भाव से देश भर में गुजरात की तर्ज पर केसरिया होने लगे जान माल की हिफाजत के लिए तो कोई ताज्जुब की बात नहीं है।
जैसा कि प्रधानमंत्री ने ऐलान कर दिया है कि अब चीन का रास्ता ही हमारा रास्ता है।जी नहीं,यह न माओ का रास्ता है और न चारु मजुमदार का रास्ता है।यह चीन की प्राचीरों को मुक्तबाजार के लिए खोल देने का रास्ता है।
अब मुक्तबाजारी चीन में रोजगार और श्रम की दशा दिश क्या है,वह छुपा नहीं है।विकासदर की छलांग के साथ कृषि प्रधान चीन में कृषि और कृषि जीवी संस्कृति का जो अवसान हो रहा है,वह भी विश्वप्रसिद्ध है।गांवो से शहरों को घेरने का मामला है नहीं यह,बल्कि इसके उलट शहरीकरण के जरिये गांवों के सफाये का मामला है यह,जो आर्थिक सुधारों से साफ जाहिर है।
हम जो बार बार चीन क खिलाफ बेमतलब छायायुद्ध की बात करते हैं और अपने शंगी मित्रों को गरियाने का मौका देते हैं,उसका सच तो अपने सेनाध्यक्ष ने ही उगल दिया है।
मीडिया में लगातार स्क्रालिंग और ब्रेकिंग न्यूज,प्रिंट में युद्ध विशेषज्ञों के चीनी खतरे पर टनों कागद कारे का सच भी सामने आ गया है।
सेनाध्यक्ष के मुताबिक कहीं कोई चीनी घुसपैठ नहीं है।बाकी आधिकारिक सूचना है कि सीमा की व्याख्या में फर्क हो जाने की वजह से घुसपैठ का हल्ला हो रहा है।
अंग्रेजों की बनायी मैकमोहन लाइन जो 1962 के भारत चीन युद्ध की वजह बनी,आज भी भारत चीन सीमा पर तनाव की मुख्य वजह बनी हुई है।बाकी कोई तनाव नहीं है।
हथियारों के सौदों का औचित्य साबित करने के लिए यह छायायुद्ध जारी है।
इसके बावजूद रक्षा मंत्री अरुण जेटली ने बुधवार को कहा कि चीनी सैनिक भारतीय सीमा के अंदर आए थे, लेकिन उन्हें भारतीय भूमि के अतिक्रमण से रोकने के लिए भारतीय सेना का दृष्टिकोण पर्याप्त है।
लद्दाख में भारतीय सीमा में चीनी सैनिकों की घुसपैठ की रपट पर सवाल पूछे जाने पर मंत्री ने कहा, "सेना प्रमुख इस बारे में विस्तृत तौर पर स्पष्टीकरण दे चुके हैं कि यह रपट एकदम सही नहीं है।" तो इसका भी तात्पर्य समझ लें।
उन्होंने हालांकि कहा कि चीनी सैनिक उस सीमा के अंदर दाखिल हुए थे, जो भारतीय मानी जाती है।
गौरतलब है कि कारपोरेट वकील एकमुश्त रक्षा और आर्थिक मंत्री जो कह रहे हैं,वह भारतीय सेनाध्यक्ष के बयान और इस पर भारत सरकार के आधिकारिक अवस्थान के विरुद्ध है और जाहिर है कि उनके खिलाफ विशेषाधिकार भंग का नोटिस देने वाला कोई नहीं है।
फिलहाल संजोग से रक्षा सौदों को अंतिम रुप देने वाले तंत्र के सर्वेसर्वा हैं ये कारपोरेट वकील तो मौद्रिक और वित्तीय कवायद भी उनकी जेबों से शुरु होती है और वहीं खत्म होती है।
उधर प्रधानमंत्री फिर राजीव गांधी की तकनीकी क्रांति के मोड में हैं और भारत को सुपरपावर तकनीकी क्रांति मार्फत बनाना चाहते हैं एक तरफ ,तो दूसरी तरफ भारतीय युवासमाज और देश के भविष्य को एकमुश्त थ्री फोरफाइव एक्स में निष्णात करने की तैयारी है उनकी समूची उत्पादन प्रणाली को पीपीपी अनंत गंगा अविरल विशुद्ध पूंजी धारा में तब्दील करके।
इसका नमूना यह कि दूरसंचार कंपनी एयरसेल ने तमिलनाडु व जम्मू-कश्मीर में 4जी सेवा शुरू कर दी है। इस तरह यह निजी क्षेत्र की एकमात्र दूरसंचार कंपनी हो गई है जो तीनों मौजूदा प्रौद्योगिकियों 2जी, 3जी व 4जी के तहत इन बाजारों में सेवाएं उपलब्ध करा रही है।
एयरसेल के मुख्य परिचालन अधिकारी अनुपम वासुदेव ने कहा, हम तमिलनाडु व जम्मू-कश्मीर में 4जी सेवा शुरू कर काफी खुश हैं। इससे पहले हम आंध्र प्रदेश, असम, बिहार व ओड़िशा में 4जी सेवा शुरू कर चुके हैं।
एयरसेल के पास 2,300 मेगाहट्र्ज बैंड (ब्रॉडबैंड वायरलेस एक्सेस) में आठ सर्किलों आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, बिहार, ओड़िशा, असम, पूर्वोत्तर और जम्मू-कश्मीर में 20 मेगाहट्र्ज स्पेक्ट्रम है। इस स्पेक्ट्रम का इस्तेमाल 4जी सेवाओं के लिए होता है। एयरटेल के बाद एयरसेल दूसरी कंपनी है जो एलटीई प्रौद्योगिकी के जरिये 4जी सेवाओं की पेशकश कर रही है।
सूत्रों के अनुसार गूगल का अगला एंड्रॉयड वर्जन मोबाइल में खास तरह से डिजाइन किए गए डेस्कटॉप की तरह होगा। खबर है कि गूगल लंबे समय से एक ऐसा प्रयोग कर रहा है जिससे मोबाइल उपभोक्ताओं को अपने एंड्रॉयड डिवाइस पर एक साथ तमाम एप्लीकेशन, गूगल क्रोम, गूगल सर्च इंजन इस्तेमाल करने की सुविधा प्राप्त हो सके। इस डिवाइस में इंटीग्रेटेड एचटीएमएल5 सॉफ्टवेयर हो सकता है।
यह अगला एंड्रॉयड ओएस वर्जन 64बिट प्रोसेसर को और ग्रॉफिक चिपसेट को सपोर्ट कर सकता है। यह डिवाइस अधिक आसान और अधिक सुरक्षित होगा। ऐसा माना जा रहा है कि गूगल इस बहुप्रतीक्षित डिवाइस की आधिकारिक घोषणा आगामी 25 जून को आई/ओ डेवलपर्स की कांफ्रेंस में कर सकता है।
इसी बिजनेस फ्रेंडली तकनीक ब्लिट्ज चमत्कार वैज्ञानिक चकाचौंंध मध्ये दैनिक टेलीग्राफ कोलकाता में वरिष्ठतम पत्रकार केपी नैयर ने जो लिखा है ,वह तो कान खड़े करने के लायक है।कश्मीर के अगाववादियो से पाकिस्तान की बातचीत के लिए जो भारत पाक वार्ता बंद करने का फैसला है,उसका मकसद दरअसल धारा 370 खत्म करके कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म करने के प्राचीन संघी मास्टर प्लान को अंजाम देना है।
खास बात यह है कि कश्मीर में भी पूर्वोत्तर की तरह सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून लागू है।जाहिर है कि इरोम शर्मिला की लड़ाई जितनी मणिपुर के लिए है,उससे कम कश्मीर के लिए नहीं है।बाकी देश के लिए भी यह लड़ाई कितनी जरुरी है,इसका कुलासा अभी होना बाकी है हालांकि।
कोयला घोटाले के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री को चोर कहने से भी परहेज नहीं किया था भाजपाइयों संघियों ने।उनसे बार बार इस्तीफा मांगा गया और संसद चलने नहीं दी गयी।
जैसे परमाणु संधि के मद्देनजर सत्ता में आते ही केसरिया नजरिया कारपोरेट हो गया,उसी तरह कोयला घोटाला भी डिसमिस।
बाकी सारे स्कैम जिसके खिलाफ मैदान में अन्ना अरविंद उतारे गये कांग्रेस की खटिया खड़ी करने के लिए,वे तमाम घोटाला भी रफा दफा मान लीजिये।
कोयला घोटाला के सिलसिले में मनमोहन सिंह से कोई पूछताछ अब नहीं होगी और न इस मामले में फंसे कारपोरेट घरानों से।
संजोग देखिये और भारत अमेरिकी युगलबंदी देखिये कि अमेरिका ने भी सिख नरसंहार मामले में मुकदाम न चले सके,इसके लिए मनमोहन को इम्मयुन घोषित कर दिया है।
Real target: Kashmir special status'Mission 44' sinks talks | ||
K.P. NAYAR | ||
New Delhi, Aug. 19: The decision to call off foreign secretary-level talks with Pakistan has more to do with the BJP's domestic agenda and less to do with the Narendra Modi government's foreign policy. At the BJP headquarters on Ashoka Road in New Delhi, Amit Shah, the new party president, is fine-tuning "Mission 44+", which cannot realistically co-exist with any breakthroughs in relations with Islamabad. "Mission 44+" is the codename for Shah's strategy to repeat the BJP's good showing in the recent Lok Sabha elections in Jammu and Kashmir when Assembly elections are held later this year. The BJP hopes to capture power in the state and, in tandem with its majority government at the Centre, make a daring effort to achieve the party's long-cherished dream of abrogating Article 370 of the Constitution. The party mobilised its core across the country during the campaign for the Lok Sabha polls on a plank of abolishing the special status for Jammu and Kashmir, among other issues. Its 2014 manifesto unambiguously stated: "BJP reiterates its stand on the Article 370… and remains committed to the abrogation of this article." Detailed analysis of the Lok Sabha results, when the BJP won three of Jammu and Kashmir's six parliamentary seats, suggests that if that performance is repeated or improved upon, the party could hypothetically come out of the Assembly elections with 37 seats from the Jammu region and four from Ladakh. The Jammu, Ladakh and Udhampur Lok Sabha seats, which the BJP won this year, make up a total of 41 Assembly segments. If the party bags these seats, it will only need three more to form a government in the state. Shah's strategy has been codenamed "Mission 44+" because the Jammu and Kashmir Assembly has 87 seats and 44 constitutes a simple majority. Conversations across the board and reading between the lines imply that the BJP's specialised cells, which function like think tanks, have concluded that if relations with Islamabad improve before the Assembly elections in Jammu and Kashmir, any attempt to tamper with Article 370 under BJP governments in Srinagar and New Delhi will leave Prime Minister Narendra Modi vulnerable to charges of damaging India-Pakistan relations. However, if relations are frozen in the run up to the formation of a new government in Srinagar and Article 370 is tampered with in an atmosphere where India and Pakistan are already in a bitter but subdued state of hostility, the fallout is likely to be much less severe. If the status quo is bad relations, the conventional wisdom in the RSS also appears to be that the ground will be more fertile for ending the special status for Jammu and Kashmir. As if on such cue, Modi last week shed the velvet gloves with which Nawaz Sharif was received in New Delhi in May and spoke harshly about Pakistan's cross-border policy. In the capital's familiar circles where foreign policy is a staple of analysis and discussions, nobody is taking seriously the government's claim that the August 25 bilateral talks in Islamabad were called off because Pakistan's high commissioner met Kashmiri separatists as a prelude to the talks between foreign secretaries. It is not just that Islamabad's envoys have been meeting Hurriyat leaders and others during NDA and UPA dispensations: the signals and atmospherics during such meetings tell their own tales by way of gauging the temperature of bilateral ties. In 1994, when relations were particularly bad, the then high commissioner, Riaz Khokhar, received separatist leaders with great fanfare at the Pakistan Day reception at the mission. But he also snubbed the chief guest sent by the Indian government, the minister of state for external affairs, R.L. Bhatia, by leaving him unattended. By all indications, the latest meeting with separatists was civil and devoid of drama, suggesting that Pakistan assumed it was business as usual. What the Pakistanis did not take into account was the mood in the ruling party. With the euphoria of victory in Udhampur — to cite one example — where a little known medical doctor, Jitendra Singh of the BJP, defeated the long-serving state leader and former chief minister Ghulam Nabi Azad by 60,000 votes, adrenalin is running high in the party. Singh, now a key player because of his position as a minister of state in the Prime Minister's Office, said within minutes of his taking charge of the new office that the process of abrogating Article 370 had already begun. Those who dismissed his remark on May 27 as off-the-cuff are having second thoughts with yesterday's announcement that Sujatha Singh will not go to Islamabad to meet her counterpart and resume talks between the foreign secretaries. Singh's assertion about Article 370, the eviction of the UN Monitoring Group for India and Pakistan from their decades-old government property, Modi's Leh speech and the precipitation of a situation where bilateral talks are in suspense clearly have a pattern which has to be seen in conjunction with the BJP manifesto. In 1998, no one took the portion of the BJP manifesto about the nuclear option seriously until Atal Bihari Vajpayee tested the bomb and took everyone by surprise. The developments on Pakistan may turn out to be another such surprise on Article 370. If the BJP's game plan is followed through, it will be as much of a diplomatic challenge as the Pokhran II nuclear tests. Since Kashmir is still on the files of the UN, the Security Council is certain to become seized of any changes to Jammu and Kashmir's special status. There is no guarantee that the US will swing in support of India since its critical interests in Afghanistan can only be protected by Pakistan. There is speculation that the latest incidence of Chinese border incursions may be a message to India not to rile Beijing's all-weather friends in Islamabad. Pages 3 and 4 संजीव चंदन जनसत्ता 21 अगस्त, 2014 : उन्नीसवीं सदी में बंगाली भद्रलोक ने अपनी महिलाओं के 'भदेस महिलाओं', यानी निम्नवर्गीय-जातीय महिलाओं से संपर्क खत्म या सीमित करने के कदम उठाए। ऐसा उन्होंने अपनी महिलाओं को अंग्रेज महाप्रभुओं की महिलाओं की तरह 'सुसंस्कृत' करने के प्रयास स्वरूप किया। इस क्रम में कथित निम्न जाति की महिलाओं के गीत, नाच चिह्नित कर उनसे परहेज का अभियान निर्दिष्ट हुआ। यह महिलाओं के आपसी सख्य पर प्रहार था। जाति संकीर्णता से जकड़ी महिलाएं भी 'यजमानी' से जुड़ी महिलाओं के संपर्क में होती थीं, उनके घर मालिनों, नाइनों, धोबनों, चुल्हारण (चूड़ी, बिंदी टिकली बेचने वाली) और अन्य पिछड़ी जाति की हिंदू या पसमांदा मुसलमान महिलाओं का आना-जाना होता था। यह सांस्कृतिक आदान-प्रदान का एक जरिया भी था। मगध के गांवों में बीते बचपन के दिनों में अनुभूत यह सख्य आज स्मृति का हिस्सा है। अब कभी-कभी गांव जाने पर विच्छिन्न संबंध का आभास होता है। यह आवाजाही, आपसी सख्य अगर पूरी तरह खत्म नहीं हुए हैं, तो सीमित जरूर हो गए हैं। शहरों में तो दोस्ती और संबंध के व्यावसायिक और वर्गीय दायरे शहर की विशेषता हैं। नानी के घर एक मुसलमान महिला आती थीं, चूड़ी, टिकली, बिंदी, और महिलाओं के अन्य उपयोगी सामान लेकर। मां और मौसियां उन्हें बुआ कहती थीं। मेरी वे नानी थीं। उनके आने पर आसपास से अलग-अलग जातियों की मेरी कई नानियां, मामियां और मौसियां भी इकट्ठा हो जाती थीं, उनसे कुछ न कुछ खरीदने। रोजे के दिनों में भी वे आती थीं। तब सारी महिलाओं का उनके प्रति आदर भाव बढ़ जाता था और भूखी-प्यासी सामान बेचने की उनकी मजबूरी के प्रति के करुणा भी। नानी के घर पर ठाकुरवाड़ी था, जिसके लिए मालिन महिलाएं नियमित घर आती थीं। उनके बगीचे में कार्तिक में नवमी के दिन खाने-पीने के आयोजन स्मृति के हिस्से हैं। उससे ज्यादा मां और मौसियों के साथ मालिन स्त्रियों का सखी भाव दर्ज है। वहां दूध-दही, मट्ठा, सब्जी या फल बेचने आती स्त्रियों का मैं प्रिय नाती था, जिसे वे अपनी ओर से दूध-दही खिलाना नहीं भूलतीं थीं। थोड़ी सब्जी मेरे नाम की भी मिल जाती थी। अगर घर के किसी सदस्य के साथ उनके घर जाना हो जाता, तो मेरे प्रति उनका लाड़ और उमड़ता था। नानी का इनसे सखियापा देखते बनता था। उनकी कोशिश होती कि नियमित अंतराल पर आने वाली इन महिलाओं को कुछ खिला-पिला कर ही भेजें या कुछ विशेष दें। अनाज, आम के मौसम में आम या गुड़ के मौसम में गुड़, खासकर उन्हें, जिनके घर ये सब नहीं होते थे। यानी जिनके पास खेत नहीं थे। दस सालों तक अपनी नानी के घर में उनका इकलौता नाती होने के कारण मेरा दुलार कुछ ज्यादा ही था। पड़ोस की गीता मौसी हो या माधो मामी, सबका स्नेह मुझे उतना ही मिलता था, जितना कि ब्राह्मण और अपनी रिश्तेदार महिलाओं का। कुछ दूरी भी थी, अघोषित दूरी, जो तब मुझे समझ में नहीं आती थी। लेकिन अब यह दूरी चुभती है। मसलन, अनुकूलन की शिकार वे महिलाएं खुशी-खुशी अपना बर्तन खुद धोती थीं, अगर कभी खाना खाया तब। या पूजा करतीं, खाना खातीं ब्राह्मण स्त्रियों को छूने से वे बचतीं। धीरे-धीरे बड़ा होने और शहर में रहने लगा था तो गांव आने पर, जब उन महिलाओं से मैं मिलता तो उन्हें 'प्रणाम' कहता। उनके चेहरे पर खुशी तो होती, लेकिन वे प्रणाम करने से मुझे मना करतीं। कुछ तो हंसते हुए कहतीं- 'धर्म का बिगाड़ देव बाबू!' इस चुभने वाले जाति दंश से वे इतना अनुकूलित हो चुकी होतीं कि उन्हें यह सब सहज लगता। यहां अनुकूलन दोतरफा था, जिससे सवर्ण स्त्रियां भी बंधी थीं। इसके साथ उनका सख्य सामाजिक-सांस्कृतिक सख्य भी बनाता था। सवर्ण घरों में विवाह के अवसर पर गाया जाने वाला झूमर या खेला जाने वाला डोमकच इस आपसी सख्य का ही प्रतिफल है। अब तो बंगाल की तरह गांवों में भद्र-भदेस का यह बंटवारा बढ़ता जा रहा है। उससे ज्यादा दुखद है, गांवों में उन महिलाओं के ऊपर भी भद्रता का थोपा जाना, जो सवर्ण महिलाओं की तरह घरों में कैद नहीं थीं। जिन घरों में पैसे की आमद हुई है, उनमें पुरुषों की भद्रता के अभियान के क्रम में महिलाओं की परदादारी सुनिश्चित की जा रही है। यह स्त्री अध्ययन या समाजशास्त्र के विभागों के लिए शोध का विषय है। फिलहाल हमारे लिए खत्म होता सख्य टीस पैदा करता है। फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए क्लिक करें- https://www.facebook.com/Jansatta ट्विटर पेज पर फॉलो करने के लिए क्लिक करें- https://twitter.com/Jansatta |
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