कोयला घोटाले से सबक,नेतृत्व बदलने से व्यवस्था बदलती नहीं!
संस्कारबद्ध धर्म के डिजिटल देश में भगदड़ और घोटालों का राज्यतंत्र ,जिसे बदले बिना कर्मफल सिद्धांत के शिकंजे में ही मरती खपती रहेगी जनता!
पलाश विश्वास
आज सुबह तक लिखता रहा था।मनसेन्टो के संघी विरोध के मध्य भाजपा शिवसेना का मनसेन्टो कारोबार का खुलासा पहले अंग्रेजी में किया तो फिर ठेठ पूर्वबंगीय लोकभाषा में लिखा मूतने की एकता तक न होने वाली मुक्तबाजारी अस्मिताबद्ध संस्कारी व्यवस्था के बारे में।कमसकम अपढ़ लोगों को मजा तो आयेगा।समझ गये तो पौ बारह।पढ़े लिखे समझते हैं हमसे बहुत बेहतर हैं,लेकिन उनके फैसले अपने ही दायरे में कैद जैसा उनका विवेक और मूल्यबोध।स्वर्गवासियों से क्या कहना,नरकवाले समझ लें तो बेहतर।
सुबह उठकर अभिषेक को फोन लगाया कि कोई जुगाड़ बने कि आर्थिक मुद्दों पर हम अपनी बोलियों में आम जनता को उनके मुहावरों से संबोधित करें, लेकिन वह किसी कार्यक्रम में था और दोबारा फोन नहीं किया।
बहरहाल कोलकाता आये रामकुमार कृषक जी से लंबे अरसे बाद लंबी बातें हुईं फोन पर अपने जनसत्ता संपादक कविवर शैलेंद्रे के सौजन्य से,जिनके घर वे आये।
हमने विधाओं और भाषा के स्तर पर मुद्दों को फोकस करने का विचार उनके समक्ष रखा और यह भी कहा कि अमेरिका से सावधान लिखने के बाद सृजनधर्मी लेखन के लिए संपादकों,आलोचकों और प्रकाशकों का मोहताज बने रहने का वक्त यह नहीं है,इसी लिए साहित्यिक दुनिया क दूर से ही सलाम।
थोड़ा सोकर उठे तो कोयला बम फट चुका था।इंटरनेट कनेक्शन था लेकिन गुगल खुला नहीं और बिना टूल के हम लिख नहीं सके।कोई अपडेट हो नहीं सका।
अनंत मूर्ति के अवसान की खबर जनसत्ता में लीड लगी तो आज पहले पेज पर कुमार प्रशांत का आलेख है।दुसाध जी का लिखा कल ही जारी कर दिया था।जनसत्ता में आज संपादकीय भी है।
अनंत मूर्ति के बारे में लिखना नहीं चाहता था।सत्ता से संपर्कित साहित्य संस्कृति कर्मी होने वाले महान लोगों के लिखे का व्यवहारिक पक्ष समझ में नहीं आता इसीलिए।
दरअसल पढ़े लिखे लोगों के सामाजिक सरोकार इतने प्रबल होते तो भारतीय जनता कयामत में दम नहीं तोड़ती पल छिन इस अनंत मृत्यु उपत्यका में।गैस चैंबर की दीवारें भी टूट हीं जातीं।
सत्ता तिलिस्म में आम लोग बेसहारा भटक रहे हैं इसलिए कि समझदार ज्ञानी लोग किसी जनजागरण के लिए कोशिश करने से परहेज करते रहे और इससे जानबूझकर अपनी खाल और चर्बी बचाने को बचते रहे। लेकिन खुद संसदीय राजनीति का हर लाभ,सम्मान, पुरस्कार लेते रहे और अपनी कुशाग्र बौद्धिकता का इस्तेमाल वेदर काक की तरह करते रहे।
उनकी भूमिका किसी रामविलास,अठावले या उदितराज से कम बमफोड़ू नहीं है।
अनंतमूर्ति बहुत बड़े कथाकार हैं।उनपर टनों लिखा जायेगा जैसा कि रिवाज है।
कोलकाता में अभी साठ दशक के एक हिंदी योद्धा श्मशानी पीढ़ी के निर्भय मल्लिक का निधन हो गया।वे राजकमल चौधरी और शलभ श्रीराम सिंह के साथ उसवक्त तूफान मचाये हुए थे जबकि बांगाल में सुनील,बुद्धदेव बसु,शक्ति,संदीपन जैसे लोगों का राज था।उस दौर का विशद विवरण मनमोहन ठाकौर के संस्मरण में है ,जिसमें राजेंद्र यादव और मन्नू भंडारी की प्रेमकथा भी है।
जनसत्ता जब तक कोलकाता में था यानी शहर से बाहर जब तक न हुए हम,तबतक निर्भय जी अक्सर आकर मिलते रहे।
वे लगातार लिख रहे थे।संग्रह भी भेंट कर रहे थे,लेकिन हमारे लिए मुश्किल यह थी कि वे तब भी साठ के दशक में जी रहे थे,भाषा और कथ्य के मामले में।शलभ की तरह उन्होंने रचनाकर्म में समसामयिक सामाजिक यथार्थ को जोड़ा नहीं।
मैं उनका अपराधी हूं कि जीते जागते उस सज्जन कथाकार के बारे में मैंने एक शब्द भी नहीं लिखा।फिर भी माफी नहीं मांगूगा।मरे हुए से माफी मांगने का बड़प्पन महाश्वेता दी में है,मुझ जैसे दो टके के पत्रकार को नहीं सुहाता।
यह हमारी मजबूरी है,इसे समझिये।
जो हमें पुस्तकें और पत्रिकाएं निःशुल्क भेजते रहते हैं,उनको बता दूं कि हमारे मुद्दे संबोधित न होंगे तो उनके महान रचनाकर्म को हम देखेंगे भी नहीं।बेहतर हो कि वे हम पर कृपा करना छोड़ दें।
हम मीडिया में विज्ञापनों के कार्निवालमध्ये फिलर बतौर प्रकाशित होने के लिए रचनाकर्म करते हैं और न किसी भी स्तर पर इसे बर्दाश्त करने की मानसिकता में जीते हैं।वैसे भी मैं कुख्यात बदतमीज हूं और मेरे सारे अंतरंग भी खासे बदमिजाज हैं।
अनंतमूर्ति के संस्कार की प्रासंगिकता मध्य प्रदेश में आज हुए ताजा भगदड़ से फिर साबित हो गयी।धर्मनिरपेक्षता से मैं उन्हें तौलता नहीं।लेकिन जो धार्मिक यह मुक्तबाजार है,उन्हें समझने के लिए हमें उन्हें अवश्य पढ़ना चाहिए।
वैसे समाजवादी लोगों से हमारी खासी एलर्जी रही है।वे सारे के सारे लिखते यकीनन लाजवाब हैं लेकिन मुद्दों को भटकाने में वे सारे के सारे बेजोड़ हैं।रघुवीर सहाय अलग गोत्र के थे जिनका संसदीय राजनीति से लेना देना नहीं था।सर्वेश्वर भी ऐस ही थे।
आप हमराे पुरातन लेखन को फिर दोबारा देखें तो पायेंगे कि हम बार बार लिखते रहे हैं कि विचारधारा की जुगाली और सत्ता परिवर्तन से व्यवस्था लेकिन बदलती नहीं है।
कर्मफल सिद्धांत मुताबिक जो अश्वमेधी नरसंहारी राजसूय है, उससे मुक्ति इस समूचे राज्यतंत्र को बदले बिना असंभव है और इसके लिए जाति उन्मूलन से लेकर अस्मिताओं को तोड़ना बेहद जरुरी है।वर्गों का ध्रूवीकरण जरुरी है,धर्मों,जातियों और भाषाओं का नहीं।नस्लों,लिंगो और पेशेवरों का भी नहीं।
नरेंद्र मोदी से हमारी कोई दुश्मनी नहीं है। वे पिछड़े वर्ग से हैं और इस मुकाम तक जैसे भी पहुंचे,उसके लिए उन्हें सलाम।
जो भी कुछ वे कर रहे हैं,अपनी आस्था और संकल्प के मुताबिक ईमानदारी से कर रहे होंगे।लेकिन नेतृत्व बदलने से व्यवस्था बदलती नहीं है तो जाहिर है कि मोदी के बदले दूसरा कोई प्रधानमंत्री होता तो उनके डिजिटल देश की परियोजनाएं और परिकल्पनाएं कतई भिन्न नहीं होती।
क्रयशक्ति संपन्न सत्तावर्ग में जब मेधा तबके का समूचा विसर्जन हो और जनता को बुनियादी सूचना तक न हो,उनका प्रतिनिधित्व किसी भी स्तर पर न हो,जनादेश कारपोरेट बनाता हो,संसद और संविधान बेमयाने हों,तब लोकतंत्र और एकनायकतंत्र में कोई खास फर्क नहीं रह जाता।
अर्थव्यवस्था और वैश्विक इशारे जब संचालित नियंत्रित करते हों राजकाज तो प्रधानमंत्री का नाम बदलने सा कुछ बदलता नही है।
तानाशाही और सैन्यशासन से बदतर है यह दमघोंटू परिवेश,जहां अभिव्यक्ति पर भी चहारदीवारी चीन का प्राचीर लेकिन बाजार के आगे पिघल जाये हिमालय भी।ज्वालामुखी भी बन जाये शीतल पेय।
अभी हाल में मनमोहन सिंह और कोयलाघोटाले में औद्योगिक कारपोरेट घराने को बरी करने की बात हमने लिखी थी।अब उसका असली तात्पर्य खुलने लगा है,जैसे बंगाल में शारदा फर्जीवाड़े में समूची राजनीति का चरित्र उजागर हो रहा है,जैसे आर्थिक सुॆधारों की सांढ़ संस्कृति सर्वदलीय है,उसी तरह हर घोटाला लेकिन सर्वदलीय है।
मुक्त बाजार बंदोबस्त और सैन्य राष्ट्र के लोकतंत्र का असली विपर्यय यही है कि डालर ही सर्वेसर्वा है और डालर वर्चस्व में मूल्यबोध,नैतिकता और विचारधारा सब जनविरोधी है तो सांस्कृतिक तामझाम का सारा कारोबार क्रयशक्ति से सीधे जुड़ा है।
गणशत्रुओं के इस महागठबंधन समय में कोई प्रचंड वैप्लविक तूफान से ही हालात बदल सकते हैं जबकि हम सब खुद को शूतूरमुर्ग की औलाद साबित करने में लगे हैं।
कोयले की कोठरी में जब सारे लोग कागद कारे हैं तो तमाम उजली छवियों को बचाने का तकाजा यह होना ही चाहिए था कि सबसे बहवले नवउदारवाद के ईश्वर को दोषमुक्त कर दिया जाये।
अब 1992 से लेकर अब तक सारे कोयला आबंटन अवैध है,ऐसा सुप्रीम कोर्ट का फैसला आ गया तो परस्परविरोधी दोषारोपण से ही सभी पक्ष अपनी अपनी जमानत करा लेंगे और जनता वहीं ठगी की ठगी रहेगी।
प्रकृति,पर्यावरण और मनुष्य की चौतरफा दुर्गति के इस दुःसमय में क्या हर्ष,तो क्या विषाद।कबीर दास मुओं से कुछ मांगने को मना कर गये हैं।
मुआ यह पढ़ा लिखा समाज ही इस समाज का सबसे बड़ा शत्रु है जो हर हाल में सत्ता और राजनीति से चस्पां है।उनकी अर्थव्यवस्था सबसे मजबूत है जो सिरे से गिरगिट हैं।
खबरें तो आप अखबारों से पढ़ ही लेंगे ,इसलिए कतरनें नहीं जोड़ रहा हूं।सार संक्षेप में कुछ जरुरी बातें कर रहा हूं।
बुरी लगे तोफिर हमें मत पढ़ना।
समझ में आये तो कदम बढ़ाना साथ साथ हाथों में हाथ।
तभी बात बनेगी।
गालियों की बौछार और फतवों से हमे डर नहीं लगता।
सांपों के तो हम जनमजात हमसफर हैं,सर्पदंश से भी डर नहीं है।
विषदंत हीन जो भीरु विषैला अवसरवाद है,उसका तिलिस्म बहुत डरावना है।
उससे डरता हूं।आप भी डरें।
हो सकें तो गिरदा की तरह हुड़का लेकर लोक और बोलियों के सौंदर्यबोध और कार्यक्रम लेकर जनता के बीच जाना शुरु करें हाथी दात से बंधे बंधाये अपने अपने दायरे तोड़कर।भाषा ,विधा ,प्रतिष्ठान के तिलिस्म फोड़कर।
लिखना ही है तो नवारुण दा की तरह शब्द दर शब्द गुरिल्ला युद्ध रचें।
अब कल पीसी कैसे काम करेगी,नहीं जानता।
लेकिन वेताल जो हूं ,कंधे पर सवार जरुर रहूंगा।
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