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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Monday, February 25, 2013

गुमशुदा बच्चों की फिक्र

गुमशुदा बच्चों की फिक्र

http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/39570-2013-02-25-06-53-30

Monday, 25 February 2013 12:22

अजय सेतिया 
जनसत्ता 25 फरवरी, 2013: आमतौर पर हम पिछले पैंसठ सालों से देखते आ रहे हैं कि सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की रहनुमाई में बने आयोग और जांच समितियां आसानी से रिपोर्ट देने का नाम नहीं लेतीं। ऐसे किसी आयोग या किसी समिति का नाम याद नहीं आता जिसने अपने पहले नियत कार्यकाल में ही रिपोर्ट दे दी हो। यह भी याद नहीं आता कि आम जनता को उद्वेलित करने वाले किसी मुद््दे पर इतने कम समय में रिपोर्ट आई हो। न्यायमूर्ति जेएस वर्मा बधाई के पात्र हैं, जिन्होंने एक माह के कार्यकाल में रिपोर्ट पेश कर दी। उन्हें तीस दिन का वक्त मिला था और उन्होंने उनतीसवें दिन रिपोर्ट दे दी।
न्यायमूर्ति जेएस वर्मा ने अपनी रिपोर्ट में गुस्से से भरी जनता की मांग के अनुरूप बलात्कारी को फांसी की सजा देने की सिफारिश नहीं की। हालांकि बलात्कारियों के लिए फांसी की सजा का प्रावधान करने की जोरदार मांग देश भर में उठी थी। अलबत्ता मानवाधिकारवादियों की फांसी-विरोधी अलग राय हमेशा से रही है। फांसी की मांग करने वाले महिला संगठनों ने अपनी मांग के अनुरूप सिफारिश न करने पर वर्मा समिति की आलोचना की। लेकिन खुशी की बात है कि केंद्र सरकार ने उसे रिपोर्ट सौंपे जाने के एक सप्ताह के भीतर अध्यादेश जारी करके वर्मा समिति की रिपोर्ट में दिए गए सुझाव से भी अधिक सख्त कानून बना दिया है। बलात्कार की घटना के बाद अगर पीड़ित की मौत हो जाती है या वह पूरी तरह अपंग हो जाती है, तो सजा-ए-मौत का प्रावधान कर दिया गया है। ऐसे मामलों में कम से कम बीस साल की सजा होगी।
अध्यादेश को लेकर महिला संगठनों को दो बातों पर आपत्ति है। पहली यह कि पत्नी के साथ बलात्कार को कानून में अपराध नहीं माना गया, और दूसरी बात यह कि, बलात्कार के आरोपी सैनिकों और अर्धसैनिक बलों के जवानों पर सामान्य अदालत में मुकदमा चलाने का प्रावधान नहीं किया गया। ऐेसे मामलों में महिला संगठन यह भी चाहते हैं कि मुकदमा चलाने से पहले सरकार की अनुमति की शर्त खत्म की जाए। जहां तक पहली आपत्ति का सवाल है, तो अध्यादेश में भारतीय दंड संहिता की धारा 376 में 376-बी जोड़ते हुए स्पष्ट कहा गया कि कानूनी तौर पर अलग रह रही पत्नी के साथ बलात्कार करने पर दो साल से सात साल तक कैद होगी। जहां तक दूसरी आपत्ति का सवाल है तो हमें यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि पाकिस्तानी साजिशकर्ताओं की ओर से भारतीय सेना को बदनाम करने के लिए जम्मू-कश्मीर में किस-किस तरह के हथकंडे अपनाए जाते रहे हैं। झूठे आरोपों और मुकदमों का फैसला तो बरसों बाद होगा, लेकिन भारतीय सेना की बदनामी मिनटों में हो जाएगी।
वर्मा समिति की रिपोर्ट के कुछ पहलुओं की आलोचना हुई, तो अध्यादेश के भी कुछ पहलुओं की। लेकिन वर्मा-रिपोर्ट के अनुरूप जारी किए गए अध्यादेश के कुछ बेहतरीन पहलुओं पर भी ध्यान जाना चाहिए। डेढ़ वर्ष पहले सर्वोच्च न्यायालय के मौजूदा मुख्य न्यायधीश अल्तमस कबीर के हाथों 
से नई दिल्ली 
के कॉन्स्टीट्यूशन क्लब में एक पुस्तक का लोकार्पण हुआ था। इस पुस्तक का शीर्षक था 'मिसिंग चिल्ड्रन आॅफ इंडिया'। बच्चों के मामले में, विशेषकर बाल मजदूरी के खिलाफ पिछले चार दशक से सक्रिय 'बचपन बचाओ आंदोलन' की ओर से करीब डेढ़ वर्ष के अथक प्रयासों के बाद यह किताब तैयार की गई थी। आंकड़े सभी राज्यों से सूचनाधिकार कानून का इस्तेमाल कर हासिल किए गए।
यह संयोग ही है कि इस किताब का लोकार्पण करने वाले न्यायमूर्ति कबीर इस समय सर्वोच्च न्यायलय के मुख्य न्यायाधीश हैं। और उन्हीं के कार्यकाल में इसी महीने के शुरू में तीन राज्य सरकारों को मानव तस्करी पर हलफिया बयान प्रस्तुत न करने पर फटकार पड़ी है। इस किताब की प्रस्तावना में लिखा था- ''भारत में हर आठवें मिनट में एक बच्चा गायब हो रहा है। यानी हर घंटे सात बच्चे गायब हो रहे हैं। देश की राजधानी दिल्ली में हर साल पांच सौ से ज्यादा बच्चे गायब हो रहे हैं। देश में सबसे ज्यादा बच्चे गायब होने का कलंक महाराष्ट्र सरकार के सिर है, दूसरे नंबर पर बंगाल आता है, तीसरे नंबर पर दिल्ली।''
वर्मा समिति की रिपोर्ट का अति महत्त्वपूर्ण पहलू यह है कि इसमें मानव तस्करी पर भी तवज्जो दी गई है, जिसे केंद्र सरकार ने भी उतना ही महत्त्व दिया और अपने अध्यादेश में शामिल करते हुए मानव तस्करी, विशेषकर बच्चों की तस्करी पर कड़े कानूनी प्रावधान किए हैं। आइपीसी की धारा-370 में व्यापक फेरबदल करते हुए 370-ए भी जोड़ा गया है।
मोटे तौर पर यह धारा मानव तस्करी से ताल्लुक रखती है। धारा-370 (1) में कहा गया है कि शोषण-दोहन के इरादे से कोई भी व्यक्ति अगर डरा-धमका कर, बल से, अपहरण करके, धोखा देकर, ताकत का दुरूपयोग करके या किसी तरह का लालच देकर 'किसी को' नौकरी पर रखता है या एक जगह से दूसरी जगह ले जाता है या छिपा कर रखता है या दूसरे को सौंप देता


है या किसी दूसरे से हासिल करता है तो उसे मानव तस्करी माना जाएगा। यहां 'किसी को' का अर्थ है वह व्यक्ति, जिसकी तस्करी की गई है। 
कानून की भाषा में शोषण में देह व्यापार या यौन शोषण के अन्य तरीके, बंधुआ मजदूरी, बंधुआ नौकरी, दासता या अंग-भंग को भी शामिल किया गया है। इसका अर्थ यह हुआ कि पहली बार बाल मजदूरी-बंधुआ मजदूरी, बाल तस्करी जैसे अपराधों को आइपीसी में जगह दी गई है। आमतौर पर जांच में पाया जाता है कि बच्चे को उसकी मर्जी या उसके माता-पिता की सहमति से लाया गया है, लेकिन अध्यादेश के स्पष्टीकरण में साफ किया गया है कि तस्करी के मामले में बच्चे की सहमति या उसके अभिभावकों की सहमति का कानूनी तौर पर कोई मतलब नहीं है। तस्करी करने वाले या तस्करी के बाद यहां बच्चे का कार्यों में इस्तेमाल करने वाले अपराधी को कम से कम सात वर्ष और अधिकतम दस वर्ष तक की सजा का प्रावधान कर दिया गया है। अगर तस्करी एक से ज्यादा की गई हो तो कम से कम सजा दस वर्ष और अधिकतम उम्रकैद का प्रावधान किया गया है। 
अध्यादेश में स्पष्ट कहा गया है कि अगर तस्करी का शिकार अठारह वर्ष से कम आयु का अवयस्क है तो तस्करी करने वाले को कम से कम दस वर्ष की सजा होगी और अधिकतम सजा उम्रकैद हो सकती है। अगर एक से ज्यादा बच्चे की तस्करी की गई हो तो न्यूनतम सजा चौदह वर्ष की कैद होगी। बाल तस्करी के मामले में अगर कोई सरकारी कर्मचारी या पुलिस वाला शामिल पाया गया तो उसे कम से कम सजा उम्रकैद होगी। यहां उम्रकैद का मतलब भी अब बीस वर्ष नहीं है, अलबत्ता पूरी जिंदगी है। बच्चों की तस्करी कर उन्हें बाल मजदूरी में झोंकने वाला माफिया इस अध्यादेश से भयभीत है। माफिया ने गृह मंत्रालय की स्थायी समिति के माध्यम से कानून की धार कमजोर करने की लॉबिंग शुरू कर दी है। माफिया के नापाक इरादों को समझने और नेस्तनाबूद करने की जरूरत है।
आमतौर पर देखा गया है कि गरीबी से जूझ रहे इलाकों से विकासशील शहरों-कस्बों में मां-बाप को छोटा-मोटा लालच देकर बच्चों को खरीद कर लाया जाता है। लेकिन पुलिस उसे न तो तस्करी किया हुआ मानती है न ही खरीद कर लाया हुआ। ज्यादातर मामलों में तो यह देखने को मिलता है कि पुलिस और श्रम विभाग बाल-श्रम को गंभीरता से नहीं लेते, मामले को रफा-दफा करने का ही प्रयास होता है। नया अध्यादेश पुलिस और श्रम विभाग के लिए चेतावनी देने वाला है। अध्यादेश में बच्चों से जुड़े पहलुओं को प्रभावी ढंग से समझने और समझाने की जरूरत है। अध्यादेश में जोड़ी गई धारा 370-ए में कहा गया है कि तस्करी किए गए बच्चे को श्रम पर लगाने वाले को कम से कम पांच साल और अधिकतम सात साल की सजा होगी। यानी बाल श्रम कानून के इतर अब आइपीसी धारा 370-ए में एफआइआर दर्ज की जाएगी। 
महत्त्वपूर्ण बात यह भी है कि किशोर न्याय अधिनियम-2000 की भांति नए अध्यादेश में भी बच्चे की अधिकतम आयु अठारह वर्ष निर्धारित की गई है। यह संतोष की बात है कि सरकार इस बात पर सहमत है कि किशोर न्याय अधिनियम में तय बालक की आयु ही उचित है।
अध्यादेश में आइपीसी की धारा 376 में भी कुछ नए पहलू जोड़े गए हैं, जो बाल अधिकारों के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। वैसे तो यौन अपराधों से बच्चों को संरक्षण अधिनियम-2012 में बच्चों के साथ यौन अपराध करने वालों के लिए तीन वर्ष से दस वर्ष तक की सजा का प्रावधान है। पुलिस और अदालतों के लिए भी स्पष्ट प्रावधान है कि वे किस तरह व्यवहार करेंगे, जैसे बच्चे का बयान उसके घर या उसकी ओर से तय जगह पर लिया जाएगा। बयान रिकॉर्डिंग की जगह पुलिस वर्दी में नहीं होगी। बच्चों को किसी भी हालत में पुलिस स्टेशन में नहीं रखा जाएगा, आदि। 
लेकिन पिछले दिनों छत्तीसगढ़ के एक बाल आश्रम में जिस प्रकार बच्चों के साथ यौन शोषण का मामला सामने आया, उसे ध्यान में रखते हुए वर्मा समिति की सिफारिशों के अनुरूप अध्यादेश की धारा 376 (2) में कहा गया है कि अगर नियंत्रण में बच्चे के साथ यौन अपराध किया जाता है तो कम से कम सजा दस वर्ष और अधिकतम उम्रकैद होगी। यौन शोषण के बाद बच्चे की मौत हो जाती है तो कम से कम सजा बीस वर्ष और अधिकतम उम्रकैद का प्रावधान रखा गया है।
सोलह दिसंबर को दिल्ली में हुए सामूहिक बलात्कार कांड में एक किशोर के शामिल होने पर नाबालिग की कानूनी आयु अठारह वर्ष से घटा कर सोलह वर्ष करने की मांग उठी है। सरकार अपने अध्यादेश में इसका भी समाधान कर देती तो अच्छा होता। किशोर न्याय अधिनियम में छोटा-सा संशोधन किया जा सकता है कि सोलह वर्ष या उससे ऊपर आयु का किशोर बलात्कार या हत्या का आरोपी होगा तो उस पर सामान्य कानून के अंतर्गत मुकदमा चलेगा।
 

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