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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Saturday, February 23, 2013

खामोश होतीं भारत की भाषाएं

खामोश होतीं भारत की भाषाएं


अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस पर विशेष 

ऑनलाइन माध्यमों पर भी भारतीय भाषाओं में उपलब्ध सामग्री को खूब देखा और डाउनलोड किया जा रहा है। जरुरत इस बात की है कि सामान्य लोग खुद भी भारतीय भाषाओं में सामग्री को अपलोड कर सकें। इसके लिए जागरूकता बढाने और तकनीकी दिक्कतें दूर करने की जरूरत है...


http://www.janjwar.com/society/1-society/3710-khomosh-hotin-bhartiya-bhashayen-by-ankush-sharma


अंकुश शर्मा

यूनेस्को के एक अनुमान के मुताबिक, अगर सरंक्षण के प्रयास नहीं किए गए तो, इस सदी के अंत तक विश्व में 6000 से ज्यादा बोली जाने वाली भाषाओं में से आधी के करीब खत्म हो जाएंगी. इन भाषाओं के मिटने के साथ न केवल विचारों-भावनाओं के आदान-प्रदान के कई माध्यम हमेशा के लिए मिट जाएंगे, बल्कि इसके साथ कई संस्कृतियां भी मात्र अतीत बन कर रह जाएंगी। 21 फरवरी, जोकि उर्दू को जबरन थोपे जाने के खिलाफ बंगाली आंदोलन के उदय की स्मृति में अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के रूप में मनाया जाता है, पर यह मंथन के लिए बेहद महत्वपूर्ण मुद्दा है.

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भाषायी विविधता आज पूरी दुनिया में विचार-विमर्श का विषय है, क्योंकि सभी जीवित भाषाओं में से एक बड़ा हिस्सा अस्तित्व के संकट का सामना कर रहा है. भारत के लिए इस मुद्दे का विशेष महत्व है. क्योंकि सांस्कृतिक बहुलता और भाषायी विविधता भारत की पहचान और गौरव है. यहां अंग्रेजी (सहयोगी आधिकारिक भाषा) के साथ साथ संवैधानिक रूप से मान्यता प्राप्त 22 आधिकारिक भाषाएं हैं. 1652 (1961 की जनगणना के अनुसार) बोलियों और भाषाओं/उपभाषाओं के साथ भारत भाषायी विविधता की महत्वपूर्ण शरणस्थली है.

हालांकि भारत भी इस मोर्चे पर कई चुनौतियों का सामना कर रहा है. युनेस्को के अनुसार भारत की 190 भाषाएं/बोलियां लुप्त होने की कगार पर हैं और पांच तो लुप्त हो ही चुकी हैं। भारत में भाषाओं और बोलियों की बड़ी संख्या के मद्देनजर अगर यह स्थिति भयावह नहीं है, तो संतोषजनक भी नहीं है. वस्तुतः भारत की लोकभाषाएं और बोलियां ही नहीं, संवैधानिक रूप से मान्यता प्राप्त भाषाएं भी अंग्रेजी और तकनीकी बदलावों के आगे दम तोड़ती प्रतीत हो रही हैं.

किसी भी भाषा के अस्तित्व और विकास के संदर्भ में तीन महत्वपूर्ण निर्णायक हैं, सरकारी कामकाज में प्रयोग, आर्थिक-शैक्षणिक क्षेत्र में संबंधित भाषा का महत्व और मीडिया. इन तीनों ही क्षेत्रों में भारतीय भाषाओं को अंग्रेजी की ताकत और तकनीकी प्रगति के साथ सामंजस्य बैठाने में विफलता के चलते गंभीर चुनौती का सामना करना पड़ रहा है. आज भारत में, अंग्रेजी सत्ता की भाषा है. आजादी के बाद भी सरकारी कामकाज में इसके प्रयोग में कोई कमी नहीं आई है. भारतीय भाषाएं केवल अनुवाद तक ही सिमटी हैं, मूल कार्य की भाषा अंग्रेजी ही है.

जो थोड़ी बहुत जगह स्वदेशी भाषाओं के विकास के लिए बची थी, वह भी संकीर्ण राजनीतिक हितों, क्षेत्रीयता एवं भारतीय भाषाओं के आपसी झगड़ों की भेंट चढ गई है. देश में एक ऐसी स्थिति बन गई है, जहां भारतीय मूल की भाषाएं परस्पर विकसित होने तथा एक-दूसरे को समृद्ध करने के बजाय एक-दूसरे के खिलाफ खड़ी हैं. ज्यादातर दक्षिणी राज्य हिन्दी को दूर रखने के लिए अंग्रेजी को सरकारी और शैक्षिक भाषा के रूप में अपने-अपने राज्यों में लागू कर रहे हैं. इस तरह भारतीय मूल की भाषाओं के आपसी झगड़े भी उन्हें रसातल की तरफ ले जा रहे हैं.

भाषा का अर्थशास्त्र भी भारतीय भाषाओं को नुकसान की स्थिति में डाल रहा है. आजादी से पहले, अंग्रेजी शासकों की भाषा थी. अंग्रेजी का ज्ञान आर्थिक समृद्धि का एक जरिया था. आजादी के बाद भी, तस्वीर ज्यादा नहीं बदली. अंग्रेजी अभिजात्य वर्ग और जो लोग नव स्वतंत्र देश के संरक्षक थे, उनकी भाषा बनी रही. वैश्विक अर्थव्यवस्था के युग ने अंग्रेजी का ज्ञान रखने वालों को और भी व्यवहारिक और परिस्थितक बढ़त दे दी. नौकरी चाहे सरकारी हो या निजी, अंग्रेजी का ज्ञान जरूरी है, भारत की भाषाओं में चाहे उम्मीदवार निरा कोरा हो. शिक्षा के क्षेत्र में भी बोलबाला विदेशियों की भाषा का ही है. उच्च शिक्षा, शोध और शैक्षणिक प्रकाशनों के मामले में देशी भाषाओं की उपस्थिति तो जिक्र करने के लायक भी नहीं है. हालात यह हैं कि अंग्रजी का वर्चस्व प्रमुख भारतीय भाषाओं को जहां नेपथ्य पर धकेल रहा है, वहीं लोकबोलियों पर तो अस्तित्व का संकट ही बन गया है.

भारतीय मूल की भाषाओं के लिए चुनौती मीडिया में भी है. इन भाषाओं की अखवारों, पत्र-पत्रिकाओं और प्रकाशनों की संख्या निश्चय ही संतोषजनक है, दिक्कत इंटरनेट और कंप्यूटर के क्षेत्र में है. संचार के आधुनिक युग में कंप्यूटर और इंटरनेट संचार, ज्ञान संग्रह और ज्ञान के आदान-प्रदान के प्रमुख साधन बन गए हैं, लेकिन यहां पर भारतीय भाषाओं की उपस्थिति नगण्य है. कुछ प्रमुख भारतीय भाषाओं को छोड़कर अधिकांश भारतीय भाषाओं का कम्प्यूटर एवं इंटरनेट पर इस्तेमाल करने पर हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर संबंधी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है.

यहां तक ​​कि हिन्दी, तामिल तथा बांग्ला जैसी प्रमुख भारतीय भाषाओं के मामले में भी, जिनके लिए कंप्यूटर से संबंधित समस्याओं का समाधान काफी हद तक किया गया है, एक नई दिक्कत फिर से सामने आ गई है जब हम मोबाइल फोन, टेबलेट और स्मार्ट फोन का संचार एवं इंटरनेट के लिए बढते इस्तेमाल पर विचार करते हैं. ज्यादातर युवा इंटरनेट के लिए मोबाइल फोन का उपयोग करते हैं. कंप्यूटर के विपरीत मोबाइल फोन उपयोगकर्ताओं अपने फोन पर भारतीय भाषाओं के उपयोग के लिए सॉफ्टवेयर या हार्डवेयर इंस्टालेशन खुद नहीं कर सकते हैं.

यह सिर्फ मोबाइल फोन की निर्माता कंपनियां ही कर सकती हैं. इस संचार माध्यम में भारतीय मूल भाषाओं का न होने का मतलब उस सामाजिक वर्ग से दूर रहना है जो भविष्य में भाषा की विरासत का सबसे महत्वपूर्ण वाहक है. फेसबुक और टविटर के युग में, इसका मतलब भारतीय भाषाओं के लिए खतरे की घंटी है. 

बहरहाल समस्या का रेखांकन करना हमेशा एक आसान काम होता है, असली चुनौती समाधान ढूंढने में निहित है. यदि भारतीय भाषाओं को अंग्रेजी और तकनीकी चुनौतियों से पार पाना है तो सरकार, भाषा विशेषज्ञों, प्रकाशकों और अन्य हितधारकों को इस तरफ लक्षित प्रयत्न करने होंगे. जो देश साफ्टवेयर निर्यात में विश्व में अग्रणी स्थान रखता हो वहां स्थानीय भाषाओं के कम्प्युटर और मोबाइल पर इस्तेमाल की दिक्कतों को दूर करना बड़ी चुनौती नहीं है। जहां तक भारतीय भाषाओं के आपसी वैमनस्य का सवाल है, इसे सांस्कृतिक आदान-प्रदान और भाषायी मामलों में संबंधित राज्यों को स्वतंत्रता देकर हल किया जा सकता है.

अगर विभिन्न राज्यों को यह विश्वास दिला दिया जाए कि केंद्र का किसी भी राज्य पर न तो कोई विशेष भाषा थोपने का इरादा है, न ही यह किसी भाषा से इसका विरोध है, तो स्थिति में सुधार आ सकता है. भारतीय मूल की विभिन्न भाषाओं के रचनाकार एवं लेखक भी एक-दूसरी भाषाओं से शब्द लेकर अपनी भाषाओं का शब्दकोश स्मृद्द करने के साथ-साथ इन भाषाओं को भावनात्मक तौर पर करीब ला सकते हैं। जहां तक अंग्रेजी का सरकारी, आर्थिक और शैक्षणिक क्षेत्र में वर्चस्व का सवाल है, उसे सरकारी नीतियों में सकारात्मक परिवर्तन लाकर ही हल किया जा सकता है।

अखबारों के पाठकों पर हाल ही में हुए एक सर्वेक्षण से पता चला है कि भारतीय भाषाओं में छपने वाले समाचार पत्र प्रसार में अंग्रेजी के अखवारों से कहीं आगे हैं. प्रमुख समाचार पत्रों और प्रमुख प्रकाशकों की साइबर दुनिया में प्रभावी उपस्थिति है. ऑनलाइन माध्यमों पर भी भारतीय भाषाओं में उपलब्ध सामग्री को खूब देखा और डाउनलोड किया जा रहा है। जरुरत इस बात की है कि सामान्य लोग खुद भी भारतीय भाषाओं में सामग्री को अपलोड कर सकें। इसके लिए जागरूकता बढाने और तकनीकी दिक्कतें दूर करने की जरूरत है। यदि ऐसा किया जाता है तो फेसबुक-ट्विटर आदि पर भी स्थानीय भाषाओं की सशक्त उपस्थिति सुनिश्चित की जा सकती है.

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