धर्मोन्माद के खिलाफ बांग्लादेश में जिहाद तो हम धर्मोन्मादियों की जमात में शामिल!
पलाश विश्वास
अब पेश हैं सीधे बांग्लादेश से अपडेट जो बांग्ला में है, कुछ अंग्रेजी में भी हैं, जिन्हें आप पढ़ सकते हैं या नहीं भी पढ़ सकते हैं, पर आप चाहें तो धर्मोन्माद के विरुद्ध इस अभूतपूर्व जिहाद की हलचलों को अपने दिलोदिमाग में जरुर दर्ज कर सकते हैं।
विडंबना है कि भारत की धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक ताकतें अब भी बांग्लादेश के लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष आंदोलन के समर्थन में जनमत बनाने की दिशा में कोई पहल करने में नाकाम है। भारतीय मीडिया दुनियाभर की रंग बिरंगी खबरें प्रमुखता से प्रकाशित प्रसारित करता है, लेकिन भारत पर सीधे असर करने वाली अड़ोस पड़ोस की घटनाओं पर फोकस नहीं करता।
बांग्लादेश में जो निर्णायक लड़ाई धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद की लड़ी जा रही है, बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम में निर्णायक भूमिका अदा करने के बावजूद मुक्ति युद्ध की चेतना से ओत प्रोत इस माहयुद्ध से हम पूरीतरह बेखबर है।
खासकर, भारत में जब पक्ष प्रतिपक्ष दोनों ही धर्म राष्ट्रवाद के उग्रतर प्रयोग के जरिये आम जनता के हक हकूक छीनते हुए जनसंहार की नीतियों को अंजाम दने में और सत्ता संघर्ष में वर्चस्व की लड़ाई में भी धर्म को ही निर्णायक कारक बनाये रखने के खेल में निष्णात हैं ,तब बांग्लादेश की ताजा घटनाएं साबित करती हैं कि राजनीति अंततः धर्म का इस्तेमाल ही करती है और धर्म से उसका कोई लेना देना नहीं है।धर्म की अवमानना के आरोप में भले ही ये लोग दूसरों के खिलाफ, खासकर नास्तिकों, लोकतांत्रिक व धर्मनिरपेक्ष लोगों के विरुद्ध फतवे जारी करते हों,उनपर निर्मम हमले करते हों, उन्हें निर्वासित करते हो, मृत्युदंड देते हों, पर अपने धर्मोन्मादी जिहाद में वे खुद अपने पवित्रतम धर्मग्रंथ को जलाने से भी बाज नहीं आते।
প্রজন্ম চত্বর থেকে।
'ফাঁসি চাই, ফাঁসি চাই' স্লোগানে প্রকম্পিত হচ্ছে শাহবাগ
ঘাতকের শাস্তির রায় শোনার অপেক্ষায় প্রজন্ম।
সেই সাথে পুড়ছে আমাদের ধর্মীয় অনুভূতি।।
ট্রাইব্যুনাল এলাকায় তিন স্তর বিশিষ্ট নিরাপত্তা ব্যবস্থার মধ্যে ক্লোজসার্কিট ক্যামেরার মাধ্যমে পুরো ট্রাইব্যুনাল এলাকা নিরাপত্তা ব্যাবস্থা নিয়ন্ত্রণ করবে আইনশৃঙ্খলা রক্ষাকারী বাহিনী।
বাংলানিউজ ২৪।।
'ফাঁসি চাই, ফাঁসি চাই' স্লোগানে প্রকম্পিত হচ্ছে শাহবাগ প্রজন্ম চত্বর।।
ঘাতকের শাস্তির রায় শোনার অপেক্ষায় প্রজন্ম।
ढाका में हिफाजते इस्लाम,, जमायत और बांग्लादेशी इस्लामी राष्ट्रवाद के जरिये में सत्ता में लौटने का प्रयत्न कर रही बीएनपी के समर्थक ऐसा ही कर रहे हैं।इसी बीच बांग्लादेश युद्ध अपराध न्यायाधिकरण ने जमाते इस्लामी पार्टी के एक नेता को 1971 के युद्ध अपराध का दोषी ठहराते हुए गुरुवार को फांसी की सजा सुनाई। न्यायाधिकरण के अधिकारियों और वकीलों ने बताया कि जमाते इस्लामी पार्टी के सहायक महासचिव 61 साल के मोहम्मद कमरुज्जमा को 1971 के युद्ध के दौरान जनसंहार और आम नागरिकों पर अत्याचार करने का दोषी पाया गया। इस फैसले के खिलाफ बांग्लादेश में विरोध प्रदर्शन बढ़ने की आशंका है।
धर्मोन्मादी अब क्या गुल खिलायेंगे और खासकर वहां अबतक रह गये हिंदुओं के खालाफ किताना तगड़ा हमला करेंगे, यह समझने वाली
बात है।
बांग्लादेश में यह आंदोलन अभूतपूर्व और ऐतिहासिक इसलिए भी है क्योंकि लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता का तमगा सीने पर टांगे हम लोग भारत में मानवता के विरुद्ध हुए तमाम अपराधों के खिलाफ अब भी खामोश हैं और अब भी मानवता केयुद्ध अपराधी सीना ठोंककर सत्ता और राष्ट्कर का नेता बने हुए हैं। हम भपाल गैस त्रासदी के पीड़ितों के हक में खड़े नहीं हो सकें, इस त्रासदी के नायक खलनायक बेकसूर खलास हो गये और फिर इससे भयावह दुर्घटनाओं को आमंत्रित करने वाले भारत अमेरिका परमाणु संधि के खिलाफ भी हम कोई प्रतिरोध खड़ा नहीं कर सके। हम १९८४ के दंगों में सिखों के नरसंहार के विरुद्ध राष्ट्रव्यापी आंदोलन करने से चूक गये। अपराधी खुल्ला घूम रहे हैं और हमने मान लिया कि यह सिर्फ सिखों का मामला है औरर विरोध करना है तो वे ही करें!
हम अपने देश में आदिवासियों की रोजाना विरकास के नाम पर बेदखली को सरकार और राजनीति के कहे मुताबिक अनिवार्य मानते हैं और उनके विरुद्ध जारी युद्ध के खिलाफ देशभर में कहीं भी प्रतिररोध खड़ा नहीं कर सकें।
इरोम शर्मिला बारह साल से आमरण अनशन कर रही हैं और भारतीय जनता उनके साथ मजबूती से खडी नही है। १९५८ से जारी विशेष सैन्य कानून के तहत पूर्वोत्तर और कश्मीर में सेना को कुछ भी करने का लाइसेंस है, हमें कोई तकलीफ नहीं होती।
हम राजधानी में किसी बलात्कारकांड के खिलाफ विरोध प्रदर्शन के जरिये कानून तो बदलवा लेते है, लेकिन पुलिस व सेना को बलात्कार करने के लाइसंस को खत्म नहीं कर पाते। आदिवासियों और दलियों की आबादी में रोज जो बलात्कार होते हैं , उनसे हमें कोई व्यथा नहीं होती। हमें सोनी सोरी से अमानवीय बर्ताव करने वाले पुलिस अफसर को राष्ट्रपति के हाथों वीरता पदक दिये जान पर गौरव का अहसास होता है।
हम बाबरी विध्वंस और गुजारात नरसंहार के अपराधियों के नेतृत्व में ही सत्तापक्ष का नया विकल्प सोचते हैं, इससे इतर कुछ नहीं।
हम १९९१ से आर्थिक सुधारों के नाम पर जो नस्ली जायनवादी कारपोरेट अश्वमेध यज्ञ जारी है, उनके पुरोहियों के चरणों में श्रद्धावनत एक गुलाम और मजबूर कौम हैं।
मशहूर वकील अब्दुर रज्जाक ने इस फैसले का विरोध करते हुए कहा कि उनके मुवक्किल कमरुज्जमा इसके खिलाफ अपील करेंगे। मौजूदा बंगलादेश भारत के 1947 में ब्रिटिश शासन से मुक्त होने के बाद विभाजित पाकिस्तान का एक हिस्सा था और इसे पूर्वी पाकिस्तान के नाम से जाना जाता था। दिसंबर 1971 में नौ महीने के युद्ध के बाद यह आजाद हो गया था और बांग्लादेश के नाम का एक अलग राष्ट्र का निर्माण हुआ था।
अल्पसंख्यकों पर निर्मम हमला करने, महिलाओं के खिलाफ अत्याचार करने, धर्मस्थलों को ध्वस्त करने और कानून व्यवस्था को ठप करने में ही उनकी गतिविधियां सीमित नहीं रह गयी है। शहबाग आंदोलन में उमड़ रहे जनसैलाब को थामने के लिए उनके तांडव में उनके ही धर्मस्थल और पवित्र ग्रंथ भी जलाये जा रहे हैं।
यह कतई बांग्लादेश का अंदरुनी मामला नहीं है।
अगर है तो बांग्लादेश में भारतीय सैन्य हस्तक्षेप के इतिहास की हमें निंदा करनी चाहिए।
तब हमारा तर्क था कि भारत पर शरणार्थियों का बोझ लादने वाली घटनाओं, मानवाधिकार के हनन और जनसंहार की घटनाओं की ओर हम आंखें बंद नहीं रह सकते।
आज फिर वहीं परिस्थितियां हैं और खतरा है कि बांग्लादेश में एक करोड़ हिंदुओं के लिए भारत पलायन करने के सिवाय कोई दूसरा विकल्प है ही नहीं।
धर्मांध राष्ट्रवाद के खिलाफ इस क्रांतिकारी जिहाद को सिरे से नजरअंदाज करके भारत में धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद का ही हम समर्थन कर रहे हैं, जिनका लक्ष्य है धार्मिक और सांप्रदायिक ध्रूवीकरण।
इसके विपरीत बांग्लादेश में इस वक्त न सांप्रदायिक और न राजनीतिक ध्रूवीकरण की कोई स्थिति है।
ध्रूवीकरण है तो लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष और धर्मोन्मादी राष्ट्रवादियों के बीच।
कट्टरपंथी संगठन जमाते इस्लामी के दिग्गज नेता मुहम्मद कमरूजमा को 'मानवता के खिलाफ अपराध' के लिए मौत की सजा सुनाई जो उन्होंने वर्ष 1971 में पाकिस्तान के साथ मुक्तियुद्ध के दौरान किए थे।
अंतरराष्ट्रीय अपराध न्यायालय-2 के तीन न्यायाधीशों की पीठ के न्यायमूर्ति ओबैदुल हसन ने कहा, 'उसे मौत होने तक फांसी पर लटकाया जाए।' दोषी को भीड़ भरे अदालत कक्ष में कड़ी सुरक्षा के बीच कटघरे में लाया गया। कमरूजमा जमात का सहायक सचिव है। पाकिस्तानी सैनिकों का पक्ष लेने के लिए वर्ष 1971 के युद्धापराध मामले में वह ऐसा चौथा आरोपी है, जिसे दोषी ठहराया गया है। जमाते इस्लामी ने बांग्लादेश की स्वतंत्रता का विरोध किया था।
बहुप्रशिक्षित त्वरित कार्रवाई बटालियन और पुलिस ने पुराने हाईकोर्ट परिसर में स्थित विशेष न्यायाधीकरण परिसर के चारों ओर कड़ी निगरानी रखी और जब फैसला आया तो विपक्ष ने लगातार दूसरे दिन हड़ताल रखी। कमरूजमा को ढाका केंद्रीय कारागार से एक सुरक्षा दस्ते के बीच लाया गया। 265 पन्ने के फैसले में कहा गया है कि सुनवाई के दौरान सामूहिक हत्या के पांच आरोप साबित हुए।
यह एक आदर्श स्थिति है, जो भारत में असंभव है और यहां तो हम सभी लोग धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद की पैदल सेना में तब्दील है। एक सांप्रदायिक ताकत को हटाने के लिए दूसरी सांप्रदायिक ताकत को चुनने को मजबूर असहाय लोग हैं हम, जिनका बांग्लादेश की मातृभाषा के लिए, लोकतंत्र और धर्म निरपेक्षता के लिये कुर्बानी देने का कोई अतीत नहीं है। वर्तमान नहीं है। भविष्य भी नहीं!
हम तो वर्चस्ववादी, जायनवादी , नस्ली कारपोरेट वर्चस्व के धर्मोन्मादी मुक्त बाजार के उपभोक्ता मात्र हैं!
हम तमाम घटनाओं पर मनोरंजन के मिजाज से मजा ले सकते हैं, पर उनके विरुद्ध प्रतिवाद में उठ खड़ा होने के लायक खून हमारी रगों में बहता नहीं है।
सुरक्षित मोमबत्ती जुलूस में महानगर के वातानुकूलित परिवेश में धरना प्रदर्शन से हमारे सामाजिक सरोकार के प्रमाण दर्ज हो जाते हैं और हम इस या उस धर्मोन्मादी राजनीतिक खेमे के हक में माहौल बनाने में लग जाते हैं।
नस्ली धर्मोन्मादी राज खत्म करने या बदलाव के लिए किसी भी हरकत की औकात हमारी नहीं है।
सत्तापक्ष की राजनीति और राजनय दोनों इस यथास्थिति को बनाये रखने के लिए हरसंभव ऐहतियाती काम कर रही है।
आपकी जानकारी के लिए निवेदन है कि पुलिस द्वारा शहबाग परिसर में गणजागरण मंच का मंच तोड़ दिये जाने के बावजूद वहा जनसैलाब नहीं थमा है।
ढाका पर बार बार धर्मोन्मादियों के आक्रामक हमले के खिलाफ लोग अब भी सड़कों पर उतर रहे हैं।
प्रतिरोद में एकजुट होकर धर्मोन्मादियों को खदेड़ रहे हैं।ढाका और सारा बांग्लादेश के कोने कोने में धर्मोन्मादियों के खिलाफ लोकांत्रिक धर्मनिरपेक्ष ताकतों की मोर्चाबंदी हैं और वे कहीं मैदान छोड़ नहीं रहे हैं।
यह भी बांग्लादेश के खाते में है कि इतनी बड़ी संख्या में किसी और देश में पत्रकारों, लेखकों और बुद्धिजीवियों ने लोकतांत्रिक, नागरिक हकहकूक, मानवाधिकारों, धर्मनिरपेक्षता के लिए बलिदान नहीं दिये हैं, जितने कि बांग्लादेश में।
हमारे यहां तो हर प्रतितिष्ठत सत्ता के खांच में किसी भी तरह फिट होने के लिये पूरे जीवन का किया धरा तिलांजलि देने में तनिक देर नहीं लगाता।
अब यह रपट भी देखेंः
प्रधानमंत्री शेख हसीना की सरकार के खिलाफ हो रहे प्रदर्शनों के पीछे अब तक शायद ही खुलकर सामने आया इस्लामी संगठन हिफाजत ए इस्लाम है. इसका नेतृत्व मुस्लिम विचारक शाह अहमद शफी कर रहे हैं. उनका कहना है कि हिफाजत गैर राजनीतिक संगठन है. वह सिर्फ यह चाहता है कि इस्लाम को कमतर न किया जाए. यह संगठन हिंसक प्रदर्शनों के जरिए कट्टरपंथी मांगों वाला 13 सूत्री कार्यक्रम मनवाना चाहता है. उनमें ऐसी बातें भी शामिल हैं जिन्हें बांग्लादेश में जर्मन राजदूत अलब्रेष्ट कोंत्से "चरमपंथी" मानते हैं. हिफाजत ईशनिंदा के लिए कठोर कानून बनाने, तथाकथित नास्तिक ब्लॉगरों के लिए मौत की सजा और महिलाओं और पुरुषों को अलग अलग रखने की मांग कर रहा है. संगठन इस्लाम के लिए खास सुरक्षा और संविधान में अल्लाह का उल्लेख फिर से करने पर जोर दे रहा है. हिफाजत का कहना है कि औरतों को अपने घर से बाहर कोई काम करने की इजाजत नहीं होनी चाहिए.
अफगान कनेक्शन
बांग्लादेश के इस्लाम फाउंडेशन के डायरेक्टर शमीम मोहम्मद अफजाल कहते हैं कि इस तरह की मांगें देश के उदारवादी संविधान के अनुरूप नहीं हैं, "13 मांगों में कुछ ऐसी हैं जो इस्लामी शिक्षा पर आधारित हैं, लेकिन जिस तरह से उसकी व्याख्या की गई है, वह गलत है. इसके अलावा इस्लाम हिंसा के इस्तेमाल का समर्थन नहीं करता." महिला परिषद की प्रवक्ता और एक्टिविस्ट सुफिया अख्तर हिफाजत की मांगों का विरोध करते हुए कहती हैं, "हम कभी इस बात की इजाजत नहीं देंगे कि मुल्लाह यहां बांग्लादेश में तालिबान शासन स्थापित करें. हम क्यों स्वीकार करें कि बांग्लादेश अफगानिस्तान में बदल दिया जाए?"
इस चिंता को समझा जा सकता है. हिफाजत के एक नेता एक मदरसे के प्रमुख मौलाना हबीबुर रहमान हैं. वे अफगानिस्तान में 80 के दशक में तथाकथित जिहाद के अनुभवों और अल कायदा सरगना ओसाना बिन लादेन को समर्थन देने का डंका पीटते हैं. उनके विचारों को हिफाजत के समर्थकों का समर्थन मिल रहा है, जिनमें से ज्यादातर मदरसों के छात्र और टीचर हैं. हिफाजत पहली बार 2010 में शेख हसीना की सरकार की धर्मनिरपेक्ष शिक्षा नीति का विरोध करने वाले संगठनों के संघ के रूप में सुर्खियों में आया. शुरू से ही उसके समर्थक हिंसक रवैया अपना रहे थे. 2011 में उन्होंने सरकार की समानता नीति के खिलाफ हिंसक प्रदर्शन किया.
विपक्ष का समर्थन
राजनीतिक प्रेक्षकों का कहना है कि हिफाजत का प्रभाव इतना इसलिए बढ़ गया है कि छोटी लेकिन कट्टरपंथी इस्लामी पार्टी जमात ए इस्लामी युद्ध अपराध मुकदमों के कारण पंगु हो गई है. उसके कुछ नेताओं के खिलाफ मुकदमा चल रहा है और कुछ भूमिगत हो गए हैं. अभियुक्तों में देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी बांग्लादेश नेशनल पार्टी के सदस्य भी हैं. उन पर 40 साल पहले पाकिस्तान के खिलाफ स्वतंत्रता संग्राम के दौरान नरसंहार और बलात्कार करने के आरोप हैं. आरोपों के मुताबिक उन्होंने उस समय आजादी के लिए लड़ रहे विद्रोहियों पर क्रूर अत्याचार किए गए. मिलिशिया ने 2,00,000 से ज्यादा महिलाओं से बलात्कार किया. जनवरी में पहले अभियुक्तों को मौत की सजा सुनाई गई.
प्रेक्षकों का कहना है कि प्रमुख विपक्षी पार्टी बीएनपी सरकार के खिलाफ प्रदर्शनों का समर्थन कर रही है. पूर्व प्रधानमंत्री खालिदा जिया की पार्टी युद्ध अपराध मुकदमे को सरकार का राजनीतिक हथकंडा मानती है. वह इस्लामी विरोध प्रदर्शनों का इस्तेमाल सरकार पर दबाव डालने के लिए करने की इच्छुक है क्योंकि प्रधानमंत्री शेख हसीना मुकदमे को रोकने से मना कर रही है. वे इस साल के अंत में होने वाले संसदीय चुनावों से पहले अंतरिम सरकार को जिम्मेदारी सौंपने के लिए भी तैयार नहीं हैं. मई महीने के पहले रविवार को इस्लामी कट्टरपंथियों ने राजधानी ढाका को ठप कर दिया. रैली में आए 2,00,000 से ज्यादा लोगों ने शहर को जाम कर दिया और नास्तिकों के लिए सजा ए मौत की मांग की. प्रदर्शनों में अब तक 15 लोगों की जानें गई हैं. बीएनपी नेता खांडकर मोशर्रफ हुसैन इस संख्या को बहुत कम बताते हैं और इन मौतों के लिए सरकार को जिम्मेदार ठहराते हैं. वह कहते हैं, "मैं हिफाजत की सभी मांगों का समर्थन नहीं कर सकता, लेकिन मैं यह भी नहीं कहूंगा कि मैं उनका समर्थन नहीं करता."
मदरसों पर आरोप
जब सत्ताधारी पार्टी के समर्थक और उदारवादी छात्रों ने आजादी की लड़ाई में अत्याचार करने वालों के खिलाफ प्रदर्शन किए और वे अभियुक्तों को मौत की सजा देने की मांग कर रहे थे तो हिफाजत समर्थकों ने उन पर हिंसक हमले किए. कई ब्लॉगरों को मार दिया गया. इस्लामी कट्टरपंथियों ने उन्हें नास्तिक करार दिया और ब्लॉगरों को मौत की सजा देने की मांग की. हालात को बिगड़ने से रोकने के लिए सरकार ने कई ब्लॉगरों को गिरफ्तार कर लिया.
शेख हसीना की अवामी लीग के महासचिव महबूबुल आलम हनीफ इस्लामी कट्टरपंथियों को दी गई रियायत को स्वीकार करते हैं, "हमने कुछेक मांगे मान लीं, लेकिन कुछ और नहीं मान सकते. यदि हम सारी मांगें मान लें तो हमारे देश का नाम अफगानिस्तान होगा. अब हम हिफाजत की सारी गतिविधियों को सख्ती से रोकेंगे." पुलिस ने इस बीच हिफाजत के 200 सदस्यों पर मुकदमे दायर किए हैं. सूचना मंत्री हसनुल हक ने मदरसों के प्रमुखों पर छात्रों को आतंकवादी गतिविधियों के लिए तैयार करने और उन्हें सरकार के खिलाफ सड़कों पर भेजने का आरोप लगाया है.
अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठनों और मीडिया प्रतिनिधियों ने इस बीच बांग्लादेश की सरकार से अभिव्यक्ति की आजादी का सम्मान करने की मांग की है और ब्लॉगरों को रिहा करने की अपील की है. लेकिन हिंसा बढ़ती जा रही है. आने वाले दिनों में और प्रदर्शनों की योजना है.
रिपोर्ट: ग्रैहम लुकस/एमजे
संपादन: ओंकार सिंह जनौटी






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