व्यापक संयुक्त मोर्चे की जरूरत
Author: समयांतर डैस्क Edition : February 2013
प्रशांत राही
अनेक प्रकार के मतभेदों, सीमाओं, संकीर्णताओं और जड़ताओं के बावजूद मौजूदा वस्तुगत स्थितियां आने वाले दिनों में जन आंदोलन के मोर्चे पर व्यापक संयुक्त मोर्चे और संयुक्त संघर्षों की बुनियाद मजबूत करने की मांग कर रही है। इसीलिए आज वक्त जन आंदोलनों के मोर्चे पर वामपंथियों और जनवादियों की उपस्थिति के बारे में हाय-तौबा मचाने का तो कतई नहीं है। जरूरत है तो जन आंदोलनों के प्रति अपने नजरिए में स्पष्टता और पैनापन लाने की।
नई आर्थिक नीतियों' का पिटारा खुले पूरे 22 साल हो गए हैं। जैसा अपेक्षित था, अवाम के व्यापक हिस्से के सामने अस्तित्व का संकट गहराता गया है। लेकिन साथ ही साथ विभिन्न प्रकार के बिखरे-बिखरे जन आंदोलन भी आज की एक सकारात्मक विशेषता हैं। मौजूदा आंदोलनों की एक खास विशेषता यह है कि पारंपरिक वाम राजनीति इनके केंद्र में दिखाई नहीं दे रही है। बहुत से वामपंथी चिंतक इससे चिंतित हैं। उनकी चिंता है कि वाम दलों का दायरा सिकुड़ता जा रहा है। आज जब कॉरपोरेट लूट का नजारा आम है और शासक वर्गों के बीच होड़ और झगड़ों के चलते सत्ताधारियों के चेहरे लगातार बेनकाब होते जा रहे हैं, तब भी पारंपरिक वामपंथ खुद को सत्ता के हाशिए से दूर फेंका हुआ पा रहा है। इस बात ने प्रगतिशील और जनवादी दायरे के कुछ लोगों को संभवत: परेशान कर रखा है। विश्व पूंजीवाद के संकट के बरक्स मार्क्सवाद की चुनौतियों पर गौर करते हुए यह सवाल उठना लाजिमी है कि इस मसले पर क्या रुख अपनाया जाए।
पहले इस पर गौर करें कि 'नई आर्थिक नीतियों' के साथ ही 'नव-उदारवाद' का जो दौर चल रहा है, क्या वह हमारे देश के सत्ताधारियों का अपना कोई चुना हुआ रास्ता था? हमारे पूंजीवाद विरोधी वामपंथी मित्र सत्ताधारियों की ओर से कई कारण बताते हैं। पहला, जब सोवियत संघ और उसका पूरा तथाकथित समाजवादी खेमा ही टूटकर बिखर गया तो भारतीय सत्ता के शीर्ष पर बैठे तथाकथित नेहरूपंथी समाजवाद के अनुयायी भी खुल्लम-खुल्ला पूंजीवाद की विश्वव्यापी फिजा से कहां तक बचे रहते? दूसरा, भारतीय उद्योगपतियों को यहां की संकुचित मंडी में अपना माल बेच पाने की समस्या से उबरने के लिए विदेशी पूंजी और तकनीक को अपनाकर नए माल को बाजार में उतारकर अपनी मुनाफे की हवस पूरी करने के लिए 'नई आर्थिक नीतियों' की जरूरत थी। अर्थात, 'नई आर्थिक नीति' भारतीय पूंजीवाद के संकट का फौरी समाधान था। लेकिन 'भारतीय पूंजीवाद' और 'भारतीय उद्योग' को ही निर्णायक समझने वालों के सामने एक यथार्थ यह भी था कि इन 'नई आर्थिक नीतियों' की गाज यहां के छोटे-छोटे कारखानों और व्यापारियों पर भी पडऩे वाली थी। दूसरा यथार्थ यह भी था कि पूंजीपतियों का माल खरीदने वाला आबादी का बड़ा हिस्सा यानी आम आदमी अपनी क्रय क्षमता तेजी से खोते चले जाने वाला था। जिससे पूंजीपतियों का अपना घरेलू बाजार भी सिकुडऩे वाला था। जमीनी स्तर पर देखें, तो 'नई आर्थिक नीतियां' वि-औद्योगीकरण पैदा करने वाली थीं (जो औद्योगीकरण और बाजारीकरण होने जा रहा था वह बेहद विकृत और छिछला किस्म का ही होता … यही आज तक हुआ है और आगे भी होता दिखाई दे रहा है)। फिर सवाल पैदा होता है कि देश के सत्ताधारियों ने पूंजीवादी विकास के इस निषेध का रास्ता क्यों चुना?
1960 के दशक में जब पश्चिम के एग्रो-बिजनेस कॉरपोरेशनों (कृषि व्यापार निगमों) को अपने कृषि यंत्रों, कृषि तकनीक, ट्रैक्टर, हार्वेस्टर, कीटनाशकों, हायब्रिड बीज और खाद आदि के सिकुड़ते बाजार का विस्तार करने के लिए तीसरी दुनिया के बाजारों को खोलने की जरूरत थी, तो यहां अनाज उत्पादन में आत्मनिर्भरता का ख्वाब दिखाकर हरित क्रांति का ढिंढोरा पीटा गया था। 1970 के दशक में समूची साम्राज्यवादी दुनिया जैसे-जैसे अंतहीन आर्थिक संकट के भंवर में फंसती चली गई, एक के बाद एक तीसरी दुनिया के देशों की अर्थव्यवस्थाओं के दरवाजे खोलने के मकसद से 'नव-उदारवाद' का ढिंढोरा पीटा जाने लगा। विदेशी कंपनियों की गिद्ध दृष्टि से भारतीय बाजार भी बचा नहीं रह सकता था।
इसी दूरगामी योजना के ही तहत इंदिरा गांधी सरकार को 1981 में आसान शर्तों पर आईएमएफ (अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष)का कर्ज देकर भारत को कर्ज के जाल में फंसा दिया। दस साल बाद आईएमएफ और विश्व बैंक ने ढांचागत समायोजन की शर्तें थोपकर पिछले कर्ज का बकाया चुकाने के लिए नए कर्ज का वादा करने का सिलसिला शुरू कर दिया। 'नई आर्थिक नीतियां' भारत के सत्ताधारियों का कोई स्वतंत्र फैसला नहीं, बल्कि साम्राज्यवाद के दबाव के अनुसार काम कर रहे यहां के दलाल शासक वर्ग की अमली करतूत थी।
पुराने उद्योगों से बड़ी संख्या में मजदूरों की छंटनी, श्रम एवं पर्यावरण कानूनों की अवहेलना से लेकर भूमि सुधारों को तिलांजलि देने के साथ-साथ जल, जंगल तथा जमीन की बेदखली तक के इस सिलसिले के हम पिछले दो दशकों से गवाह रहे हैं। भारत की कोई एक सरकार या किसी एक नौकरशाह, नेता या थैलीशाह ने नहीं, बल्कि हमारे देश की पूरी की पूरी राज्य-व्यवस्था ने ही इन नीतियों को लागू करने के लिए हिटलरी स्वरूप अख्तियार कर जनता के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था।
लेकिन हमारे देश में 1991 से लेकर आज तक वामपंथी दल, पार्टी के बैनर तले हों या अपनी ट्रेड यूनियनों या अपने जन संगठनों के मार्फत, जब भी इन नीतियों का विरोध करते रहे हैं तो उनकी मुखालफत महज इस तरह की रही है कि मानो वे सत्ताधारियों को अपनी नई नीतियां वापस लेने को बाध्य करने के लिए जरासा राजनीतिक दबाव बना रहे हों। सामान्य रस्मी प्रदर्शनों और एक या दो दिन की प्रतीकात्मक हड़तालों से आगे वे पिछले 22 सालों से एक बार भी देश के किसी भी कोने में नहीं बढ़ पाए। इसी अंतराल में जब कभी उन्होंने सत्ता संभाली (जैसे कि गुजराल और देवगौड़ा के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकारों में) तो न सिर्फ उन्हीं नीतियों का पालन किया, बल्कि उस दौरान अपने मातहत संगठित मजदूरों-कर्मचारियों को सड़कों पर उतारने की जरूरत भी नहीं समझी। केरल और पश्चिम बंगाल में तो वाम मोर्चा की सरकारें उसी मुस्तैदी के साथ 'नई आर्थिक नीतियों' या 'नव उदारवाद' को लागू करती रहीं जैसे कांग्रेस या भाजपा की सरकारें करती हैं।
विपक्ष के नाते वाम दलों ने इन नीतियों के खिलाफ जितने भी विरोध प्रदर्शन किए उन सब में अपने सीमित जनाधार को कायम रखने की गरज से उठाई जाने वाली वेतनभोगी या सुविधाभोगी तबके विशेष की आंशिक और फौरी मांगें ही मुख्य होती थीं। अर्थात 'नई आर्थिक नीतियों' का रक्षात्मक नजरिए से राजनीतिक विरोध करते हुए उनका मुख्य जोर आर्थिक और आंशिक मुद्दों पर ही रहा। इस तरह उनकी भूमिका सत्ता का कोई नीतिगत विकल्प खड़ा करने के बजाय संगठित मेहनतकश जनता जो कुछ खो रही थी महज उसकी रक्षा की बात उठाने तक ही सीमित रही। उन्होंने एक भी सीधी कार्रवाई संचालित नहीं की जिससे यह भरोसा हो कि वे सचमुच इन बड़ी-बड़ी देशी या विदेशी कंपनियों के खिलाफ होंगे जिनके हक में देश के कानून तोड़े-मरोड़े जा रहे हैं या नए कानून बनाए जा रहे हैं। जिनकी योजनाओं की सफलता की गारंटी के तौर पर प्रशासन और पुलिस-पैरामिलिट्री को खुली छूट दी जा रही है। सत्ताधारी रह चुकी वामपंथी पार्टियों के अलावा मार्क्सवादी-लेनिनवादी कहलाने वाली अधिकतर पार्टियों और संगठनों की भी कमोबेश यही भूमिका रही है।
विरोध रक्षात्मक राजनीतिक नजरिए से हो तो ऐसा विरोध टिकाऊ और भरोसे लायक नहीं हो सकता। अवाम को यह बात सिद्धांत रूप में न सही, अनुभवसंगत रूप से तो रह-रह कर महसूस होती रही है। यही वजह है कि जिन प्रदेशों में वामपंथी दलों ने सत्ता का स्वाद अभी खुल कर नहीं चखा है, वहां भी विपक्ष के रूप में इनकी ताकत बढऩे के बजाय घटती दिखाई दे रही है।
यह इस बात का संकेत है कि जनता की निगाह में देश की राजनीति में पारंपरिक वामपंथी दलों की कोई विशेष सार्थकता नहीं रह गई है। वामपंथी ट्रेड यूनियन आंदोलन के नेतृत्व में भी कई दशकों से अर्थवाद से लेकर नौकरशाही, संकीर्णता और मौकापरस्ती हावी रही है। उपयोगिता की दौड़ में वामपंथी नेताओं का दक्षिणपंथियों से पिछडऩा उनके द्वारा संसद को ही देश की राजनीति का अखाड़ा मान लेने के ऐतिहासिक 'ब्लंडर' (महाभूल) का ही परिणाम नहीं, तो और क्या है? 1960 के दशक में साफ तौर पर 'वर्ग सहयोग' के रूप में चिह्नित हुए इस महाभूल की राह पर गत दशकों में जितने सारे मार्क्सवादी-लेनिनवादी दल दौड़ते या घिसटते चले गए और आज भी जा रहे हैं, उन सब को आज जनता के आंदोलनात्मक उभारों के केंद्र में बने रहने के लिए खूब खींचतान करनी पड़ रही है। कलाकारी का सहारा लेने के साथ-साथ समझौते करने पड़ रहे हैं। कभी अण्णा हजारे और अरंविद केजरीवाल जैसे वक्ती राजनीतिक बबूलों का पिछलग्गू बन कर, तो कभी किसी और स्वत:स्फूर्त जन उबाल की आग में अपनी राजनीतिक रोटी सेंककर।
हाशिये पर पहुंच चुके इन वाम दलों के 'सामाजिक-जनवाद' (जिसने तीन दशकों के लंबे शासन काल के दौरान पश्चिम बंगाल में, वहां के जनवादी बुद्धिजीवियों की मानें तो, दमनकारी 'सामाजिक-फासीवाद' तक का रूप ले लिया था) का जन आंदोलन के क्षेत्र में स्थान आज जगह-जगह तरह-तरह के एनजीओ (स्वयंसेवी संगठन) लेते दिखाई दे रहे हैं। ये अपने विकल्पों की तलाश स्पष्ट तौर पर इसी व्यवस्था के अंतर्गत करने तक सीमित रहते हैं। कभी कानूनी लड़ाई के नाम पर, तो कभी विकेंद्रीकरण के नाम पर। जाति और वर्ग पर आधारित सामाजिक ढांचे को कायम रखने वाले 'ग्राम स्वराज' के रूप में प्रस्तावित उनके शांतिपूर्ण सुधारवाद का भ्रम गांव स्तर पर जड़ जमाए हुए सामंतवाद और अद्र्ध सामंतवाद के साथ एक किस्म का समझौता हो सकता है। समझौता समाज की उन पुरातनपंथी संरचनाओं के साथ जिनको ध्वस्त किए बिना हम साम्राज्यवाद या साम्राज्यवाद परस्ती से मुक्त नहीं हो सकते।
जन आंदोलन के क्षेत्र में देश के भीतर कई तरह के प्रयोग हो रहे हैं, जो पारंपरिक मार्क्सवाद (जिसे कुछ लोग संशोधनवाद या नव संशोधनवाद करार देते हैं) के दायरे के बाहर के हैं। कहीं-कहीं स्वतंत्र और स्वत:स्फूर्त रूप से स्थानीय नेतृत्व उभर रहा है। वहीं मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओवाद को अपनी मार्गदर्शक विचारधारा मान कर दूरस्थ इलाकों, खासकर आदिवासी बहुल इलाकों में सशस्त्र सत्ता दखल के जरिए 'जनता की लोकशाही' या 'लोक जनवाद' कायम करने के मॉडल से प्रेरित या प्रभावित होने वाला दायरा है। इस प्रकार के प्रयोगों की स्थिरता अभी स्थापित नहीं हो पाई है। पिछले पांच वर्षों के दौरान काले कानून लागू करके उनके तहत की जाने वाली गिरफ्तारियों और आपरेशन ग्रीनहंट के तहत तरह-तरह की मुठभेड़ों के साथ जो राजकीय दमन का सिलसिला चल रहा है, उससे शासक वर्गों ने खासतौर पर इसी प्रकार के जन आंदोलन को काबू में रखने का प्रयास किया है। कहीं-कहीं आंदोलनकारी ताकतों की कमजोरियों, गलतियों और भटकावों का लाभ उठाकर सत्ताधारी इस मामले में कामयाब भी हुए हैं। फिर भी जन आंदोलन जारी हैं। पश्चिम बंगाल का नागरिक एवं जनवादी अधिकार आंदोलन ममता बनर्जी के फासिस्ट चेहरे को पहचानते हुए संघर्ष जारी रखे हुए है। झारखंड और छत्तीसगढ़ में आज तरह-तरह के जन आंदोलन और मजदूर आंदोलन आशा की किरण बन कर युद्धोन्मादी शासक वर्गों को कड़ी टक्कर दे रहे हैं। आंध्र प्रदेश में अब तेलंगाना सहित जनता के तमाम मुद्दों पर चल रहे आंदोलनों की फिजा स्वतंत्र स्थानीय नेतृत्व और वामपंथियों के रैडिकल हिस्से के लिए नए अवसर लाई है। यही बात ओड़ीशा में चल रहे विस्थापन विरोधी आंदोलनों के साथ है। तामिलनाडु में कानून के सहारे हर लोकतांत्रिक प्रतिरोध के दमन के बावजूद कुडनकुलम की आग अभी शांत नहीं हुई है। जन आंदोलनों के विकास के स्तर के मामले में प्रदेशों के बीच असमानता होना स्वाभाविक है। मगर महानगरीय दिल्ली जैसे अपेक्षाकृत असंपृक्त लोकतांत्रिक समाज को भी मजदूर आंदोलन का बढ़ता जुझारूपन बार-बार झकझोरता रहा है। अनेक प्रकार के मतभेदों, सीमाओं, संकीर्णताओं और जड़ताओं के बावजूद मौजूदा वस्तुगत स्थितियां आने वाले दिनों में जन आंदोलन के मोर्चे पर व्यापक संयुक्त मोर्चे और संयुक्त संघर्षों की बुनियाद मजबूत करने की मांग कर रही हैं।
इसीलिए आज वक्त जन आंदोलनों के मोर्चे पर वामपंथियों और जनवादियों की उपस्थिति के बारे में हाय-तौबा मचाने का तो कतई नहीं है। जरूरत है तो जन आंदोलनों के प्रति अपने नजरिए में स्पष्टता और पैनापन लाने की।
आज स्वत:स्फूर्त रूप से फूट पडऩे वाले जन आंदोलनों का भी जमाना है। सोशल नेटवर्किंग के जरिए खड़े होने वाले आंदोलन भी इसी स्वत:स्फूर्तता का एक रूप हैं। यहां आंदोलनों का नाम लिए बिना हम कह सकते हैं कि गत एक-दो दशकों में ही नहीं, एक-दो सालों में भी वामपंथी जनवादियों के सामने ऐसे मौके कई बार आए। ऐसे आंदोलन हर बार कोई न कोई बहस लेकर आते हैं। पहला सवाल आंदोलन विशेष के जातीय और वर्गीय चरित्र का होता है। इसके लिए उसके प्रमुख नारे, मांगें और भागीदारी के साथ ही जिस पार्टी या तबके को उससे फौरी लाभ मिल रहा है और कौन-सी राजनीतिक शक्तियां उसमें किस तरह सक्रिय हैं (खुले तरीके से हो या छिपे), इन सारे पहलुओं के त्वरित अध्ययन के आधार पर फौरन विश्लेषण करना जरूरी हो जाता है। फिर आंदोलन पूर्णत: या आंशिक रूप से प्रतिक्रियावादी या प्रगतिशील, जनविरोधी या जनपक्षधर चरित्र का हो और उसका नेतृत्व या मौजूदा दिशा प्रतिक्रियावादी या प्रगतिशील, जनविरोधी या जनपक्षधर हो, तो इन तमाम दृष्टिकोणों से आंदोलन पर सतत निगरानी रखते हुए जनता के बीच के संघर्षशील और विकसित तत्त्वों को सामने लाने की गुंजाइश, जनता के अन्य बुनियादी, राज्य-विरोधी संघर्षों के बरक्स इसकी भूमिका (कि आंदोलन बुनियादी संघर्षों को भटका रहा है या बुनियादी संघर्षों को कुचलने वाले राज्य को कमजोर कर सकता है या कर रहा है) और अन्य रणनीतिगत प्रश्नों पर विचार करने के साथ-साथ अपनी खुद की शक्ति और सामथ्र्य को तौलकर हम अपनी योजना बनाते हैं। हर जनवादी संगठन या समूह कुछ इसी प्रकार से आए दिन फूट पडऩे वाले स्वत:स्फूर्त जन आंदोलनों के प्रति अपनी भूमिका और योजना तय करता है या कर सकता है। स्वत:स्फूर्त जन आंदोलनों के पीछे-पीछे भागने की प्रवृत्ति जनवाद की शक्तियों को बर्बाद कर सकती है और जनविरोधी या प्रतिक्रियावादी शक्तियों को लाभ पहुंचा सकती है, जबकि स्वत:स्फूर्त जन आंदोलनों के प्रति संकीर्णता बरतना न केवल जनवादी खेमे को फैलाने, मजबूत और सुदृढ़ बनाने के अवसर गंवा सकता है, बल्कि दूसरे प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक समूहों, खास कर प्रतिक्रियावादी शक्तियों को उन्हीं अवसरों का लाभ उठाकर शासक वर्गों का पलड़ा भारी करने में भी मदद कर सकता है।
जन आंदोलनों के प्रति नजरिए का सवाल क्रांतिकारी जनवादी राजनीति के दायरे में जन दिशा का सवाल है। अगर कोई क्रांतिकारी जनवादी शक्ति सिर्फ अपने वैचारिक-राजनीतिक दल और राजनीतिक-सैनिक दस्ते को ही सुगठित और संचालित करने में लगी रहती है और जन आंदोलन के मोर्चे की पूर्णत: या अपेक्षाकृत उपेक्षा करती है तो वह जन दिशा पर नहीं चल रही होगी। वह इस मूल समझदारी से किसी न किसी हद तक भटक रही होगी कि इतिहास का निर्माण मूलत: जनता करती है, कोई एक दल, समूह विशेष या चंद व्यक्ति नहीं। अतीत में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर 'समाजवाद' और खुद हमारे देश और महाद्वीप में 'नए जनवाद' के प्रयोगों के समाहार के बाद, चाहे वे सफल रहे हों या असफल, जन आंदोलनों और विभिन्न प्रकार के जन संगठनों की अहमियत से इनकार करना या उसे कम करके देखना किसी भी समझदार क्रांतिकारी जनवादी के लिए संभव नहीं है। इसीलिए यह सिर्फ एक भ्रांति ही है कि हथियारबंद संघर्ष का रास्ता अपनाने वालों के एजेंडे में जन आंदोलन और जन संगठन नहीं हो सकते और अगर होंगे तो दोयम स्थान पर। जन आंदोलन की ढाल के बिना जन युद्ध की तलवार चलाने के प्रयास पिट जाने के कुछ उदाहरण हमारे सामने हैं। दूसरी तरफ स्वयं आंध्र प्रदेश ही एक ऐसा ज्वलंत उदाहरण है जहां 1940-50 के तेलंगाना सशस्त्र संघर्ष और 1970-72 में नक्सलबाड़ी से प्रेरित सशस्त्र संघर्षों के बाद भी 1977-85 के जन आंदोलनों की नई शुरुआत ने ग्रामीण क्षेत्रों में जन युद्ध की तैयारी के लिए आवश्यक भूमिका निभाई। आज छत्तीसगढ़ और झारखंड इस बात के उदाहरण हैं कि यदि विभिन्न किस्म के जन आंदोलनों और जन संगठनों पर अधिक ध्यान दिया जाए, तो शोषण-दमनकारी राज्य का पलड़ा कमजोर हो सकता है। क्रांतिकारी जनवादियों के लिए नाना प्रकार के जन आंदोलन महत्त्वपूर्ण हो सकते हैं। इसी वजह से जन संगठन के भी नाना प्रकार के रूप अपनी-अपनी अहमियत रखते हैं। कठोर से कठोर और ढीले से ढीले सांगठनिक रूपों तक की जरूरत है। मुख्य बात यह है कि कोई जन आंदोलन या जन संगठन महज आंदोलन भर के लिए या किसी वर्ग या तबके को अपने आर्थिक/आंशिक मामले पर संगठित करने के लिए ही खड़ा किया जा रहा है या व्यवस्था परिवर्तन की किसी सोची-समझी दीर्घकालिक रणनीति और फौरी योजना के तहत?
यह सोच या ऐसा व्यवहार कि किसी खास प्रकार के ही जन संगठन बनाए जाएं या समर्थन के योग्य हैं, अन्य प्रकार के नहीं, क्रांतिकारी जनवाद की जरूरत और उसूल से मेल नहीं खाता। यही बात साझे संघर्षों पर भी लागू होती है। यह सोच या ऐसा व्यवहार कि हम तभी किसी संयुक्त संघर्ष मोर्चे या साझी गतिविधि में भाग लेंगे जब अपना नेतृत्व या अपनी बात मानी जाएगी, क्रांतिकारी जनवाद की जरूरत और उसूल से मेल नहीं खाता। ऐसा मानने वालों को व्लादिमीर इल्यिच लेनिन और माओ त्से-तुंग के संयुक्त मोर्चे के संदर्भ में लेखों और उद्धरणों का गंभीरता से अध्ययन करना चाहिए। लेनिन की समझदारी यहां तक थी कि क्रांति का कोई संभावित दोस्त अगर भरोसा करने लायक न हो तो भी उसे जहां तक हो सके अपने साथ रखने का प्रयास जारी रखना चाहिए। साझा मोर्चे के संदर्भ में माओ का यह आग्रह कि संयुक्त मोर्चे में नेतृत्व किसी का भी हो, उस मोर्चे की सीमाओं के दायरे में रहते हुए अपनी स्वतंत्रता और पहलकदमी नहीं खोनी चाहिए, साझे मोर्चों के चुनाव और संचालन की दृष्टि से मार्ग दर्शक है।
(प्रशांत राही वरिष्ठ पत्रकार और एक्टिविस्ट हैं।)

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जगातील काही भाग इंटरनेट frauds uda शासनाने
प्रमाणित केले गेले आहे आणि नवीन अद्ययावत
आम्ही आता कर्ज अटी सह कर्ज विमा उतरवणारे आहेत
आता तेथे आहेत जरी Uda समुदाय miscalculaton
किंवा नाही, अर्थात 2003 पासून कमी विशेषाधिकार
करण्यासाठी कर्ज विमा उतरवणारे गेले फसवणूक करणारा. अनेक ग्राहक आम्हाला विश्वास ठेवू शकत
नाही जरी आम्ही खिडकीच्या चौकटीचा खालचा आडवा
त्यांना त्यांच्या disire द्या. कर्ज गरज? alexpetrov660@
gmai.com वर अनुसरण करा किंवा आपण benuluda@
gmail.com.thank
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