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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Friday, December 25, 2015

25 दिसंबर को हुए मनुस्मृति-दहन पर विशेष लेख भारतीय-संविधान बनाम मनुस्मृति -एच.एल.दुसाध



25 दिसंबर को हुए मनुस्मृति-दहन पर विशेष लेख 
भारतीय-संविधान बनाम मनुस्मृति 
-एच.एल.दुसाध 


1927 के दिसंबर का सर्द मौसम.क्षमा के अवतार क्राइस्ट के जन्मदिन के उपलक्ष में आनंदोत्सव के झिलमिलाते परिधानों से सज उठी थी धरती.विश्व धर्म के उत्सव का था वह विशेष दिन.मानवता की जय ध्वनि का बज रहा था मंगल घंटा,लाखों गिरजाघरों में.उसी बड़े दिन को अम्बा नामक जहाज़ से 12.30 पहुचे थे डॉ.आंबेडकर दसगांव, अपने अनुयायियों के साथ. दसगांव से मात्र 5 मील दूरी पर था महाद. 3250 सत्याग्रही पांच-पांच की कतारों में रास्ते से 'हर हर महादेव','महाद सत्याग्रह की जय','बाबासाहेब आंबेडकर की जय'जैसी गगनभेदी घोषणाएँ करते और समर गीत गाते हुए महाद को निकले.अग्रभाग में जुलूस के आगे पुलिस थी.दोपहर 2.30 वह जुलूस परिषद के स्थान पर पहुंचा.आंबेडकर जिलाधिकारी से मिले.वहां से वे परिषद के मंडप की ओर गए.मंडप के स्तंभों पर सुवचन,संतवचन,कहावतें और उद्घोष वचन के फलक झलक रहे थे.पूरे मंडप में एक ही फोटो था,वह था गाँधी का. 
सायंकाल 4.30 बजे परिषद का कामकाज शुरू हुआ .शुभसंदेश पढ़ा गया.बाद में तालियों की गड़गड़ाहट,घोषणाओं और जयघोष की गर्जनाओं के बीच आंबेडकर अपना अध्यक्षीय भाषण करने खड़े हुए. आठ दस हज़ार श्रोताओं में से बहुत से लोगों की पीठ नंगी थी.उनके दाढ़ी के केश बढे हुए थे.गरीब लेकिन होशियार दिखाई देनेवाली महिलाओं का समूह बड़ी उत्सुकता और अभिमान से आंबेडकर की ओर देख रहा था.सबके चेहरे उत्साह और आशा से खिल उठे थे.नेता के हाथ उठते ही मंडप में शांति छा गयी.आंबेडकर ने अपना भाषण शांति और गंभीरता से आरंभ किया.उन्होंने कहा,'महाद का तालाब सार्वजनिक है.महाद के स्पृश्य इतने समझदार हैं कि न सिर्फ वे खुद इसका पानी लेते हैं बल्कि किसी भी धर्म के व्यक्ति को इस इसका पानी भरने के लिए इज़ाज़त देते हैं.इसके अनुसार मुसलमान और विधर्मी लोग इस तालाब का पानी लेते हैं.मानव योनि से भी निम्न मानी गई पशु-पक्षियों की योनि के जीव-जंतु भी उस तालाब पर पानी पीते हैं तो वे शिकायत नहीं करते. किन्तु महाद के स्पृश्य लोग अस्पृश्यों को चवदार तालाब का पानी नहीं पीने देते,इसका कारण यह नहीं कि अस्पृश्यों के स्पर्श से वह गन्दा हो जायेगा या भाप बनकर उड़ जायेगा;बल्कि इसलिए अस्पृश्यों को पानी नहीं पीने देते कि शास्त्र ने जो असमान जातियां निर्धारित की है,उन्हें अपने तालाब का पानी पीने देकर उन जातियों को अपने समान स्वीकार करने की उनकी इच्छा नहीं है.ऐसी कोई बात नहीं है कि चवदार तालाब का पानी पीने से हम अमर हो जायेंगे.आज तक चवदार का पानी नहीं पिया था,तो भी तुम हम मरे नहीं हैं.यह साबित करने के लिए ही हमें उस तालाब पर जाना है कि अन्य लोगों की भांति हम भी मनुष्य हैं. 
हमारी यह सभा अभूतपूर्व है .यह सभा समता की नीव डालने के लिए बुलाई गई है.आज की अपनी सभा और फ़्रांस के वर्साय की 5 मई,1759 में आयोजित फ्रेंच लोगों की क्रन्तिकारी राष्ट्रीय सभा में भारी समानता है.फ्रेंच लोगों की वह सभा फ्रेंच समाज का संगठन करने के लिए बुलाई गई थी.हमारी यह सभा हिंदू समाज का संगठन करने के लिए बुलाई गई है.फ्रेंच राष्ट्रीय महासभा ने जो जाहिरनामा निकाला,उसने केवल फ़्रांस में ही क्रांति नहीं की ,बल्कि सारे विश्व में की.राजनीति का अंतिम उद्देश्य यही है कि ये जन्मसिद्ध मानवीय अधिकार कायम रहे कि सभी लोग जन्मतः समान स्तर के हैं और मरने तक समान स्तर के रहते हैं..हिंदू लोग हमें अस्पृश्य मानते और नीच समझते हैं इसलिए सरकार अपनी नौकरी में हमें प्रवेश नहीं दे सकती.साथ अस्पृश्यता की वजह से अपने हाथ की बनी हुई चीजें कोई नहीं लेगा,इसलिए खुले आम हम धंधा नहीं कर पाते .इसलिए यदि हिंदू समाज को शक्तिशाली बनाना है तो चातुर्वर्ण्य और असमानता का उच्चाटन कर हिंदू समाज की रचना एक वर्ण और समता –इन दो तत्वों की नीव पर करनी चाहिए.अस्पृश्यता के निवारण का मार्ग हिंदू समाज को मजबूत करने से अलग नहीं है.इसलिए मैं कहता हूँ अब हमारा कार्य जितना स्वहित का है,उतना ही राष्ट्र हित का,इसमें कोई संदेह नहीं.' 
बाद में परिषद में अलग-अलग कई प्रस्ताव पास किये गए जिनमें एक प्रस्ताव 'मनुस्मृति' के दहन का था.यह प्रस्ताव पास होने के बाद क्रिसमस की रात नौ बजे शूद्रातिशुद्रों और महिलाओं का अपमान करनेवाली,उनकी प्रगति में अवरोध डालने वाली,उनका आत्मबल नष्ट करने वाली तथा उन्हें शक्ति के तमाम स्रोतों- आर्थिक,राजनैतिक,शैक्षिक,धार्मिक-सांस्कृतिक-से वंचित व वहिष्कृत करने वाली मनुस्मृति को जला दिया गया.धार्मिक ग्रन्थ पर हुआ यह भयंकर हमला भले ही अभिनव भारत में हुआ पहला हमला न हो;फिर भी यह कहना चाहिए कि वह अपूर्व था.1926 में मद्रास प्रान्त में ब्राह्मणेतर पक्ष ने मनुस्मृति जला दी थी.परन्तु अस्पृश्य भी उसे जला दें,यह उस युग की दृष्टि से बड़ा वैशिष्ट्य ही कहना चाहिए.मनुस्मृति के दहन से भारत के तथाकथित पंडित,आचार्य और शंकराचार्यों को सदमा पहुंचा.कुछ लोग डर गए और कुछ खामोश हो गए.इस घटना का वर्णन करते हुए 'डॉ.बाबा साहब आंबेडकर:जीवन चरित्र' के लेखक धनंजय कीर ने यह भी लिखा है -'मार्टिन लूथर के समय के बाद इतना बड़ा मूर्तिभंजक हमला अहंकारी परम्परावादियों पर किसी ने नहीं किया था.इसलिए भारत के इतिहास में 25 दिसंबर, 1927 का दिन एक अत्यंत संस्मरणीय दिन कहा जायेगा.उस दिन आंबेडकर ने पुरानी स्मृति जलाकर हिंदुओं की सामाजिक पुनर्रचना के लिए उपयुक्त नई स्मृति की मांग की.इस तरह महाद हिंदू मार्टिन लूथर का विटेनबर्ग सिद्ध हुआ.' 
यह भारत के इतिहास का विचित्र संयोग कहा जायेगा कि जिस शख्स ने 1927 के 25 दिसंबर को हिन्दुओं का सदियों पुराना संविधान,मनुस्मृति को जला कर भष्म कर दिया था, वही शख्स लगभग बीस वर्ष बाद न सिर्फ स्वाधीन भारत का पहला विधि-मंत्री बना बल्कि नए भारत ने उसी के हाथों में थमा दिया था कलम,काला कानून मनुस्मृति का शून्य स्थान भरने के लिए.इस विचित्र संयोग का वर्णन करते हुए धनंजय कीर ने कहा है-'क्या संयोग है,देखिये!आंबेडकर को विद्यार्थी-अवस्था में स्पृश्य हिन्दुओं ने गाड़ी से नीचे धकेल दिया था.पाठशाला में उन्हें कोने में बिठाया था .प्रोफ़ेसर बनने पर उनका अपमान किया था .निवासस्थानों ,उपहारगृहों,केशकर्तनालयों और देवालयों से उन्हें भगा दिया तथा तिरस्कृत महार के रूप में उन्हें जलील किया था.ब्रिटिशों के पिट्ठू के रूप में उनकी मानहानि की थी.महात्मा गांधी के निंदक के रूप में उनका धिक्कार किया था.वही डॉ.बाबासाहेब आंबेडकर स्वतंत्र भारत के पहले विधिमंत्री बने इतना ही नहीं ,भारत की नयी मनुस्मृति के निर्माता,आधुनिक मनु के रूप में वे कीर्तिशिखर पर आरुढ़ हुए.भारता की इच्छाओं ,आकांक्षाओं और उद्देश्यों को साकार करने के लिए उन्हें स्मृतिकार महामुनि मनु की जगह प्रतिष्ठित किया गया.यह घटना भारत के इतिहास का महान चमत्कार है.सचमुच यह विधिघटना तर्कातीत है कि भारत ने अनेक युगों से अपनी अस्पृश्यता के पाप का कलंक धोने के लिए अपना नया मनु,नया स्मृतिकार ,अनेक शतकों से इंसानियत से वंचित ,सत्वहीन किये हुए समाज से चुना.यह कहना पड़ता है कि जिसने बीस साल पहले मनुस्मृति को जलाया था,उसी विद्रोही को अपनी नयी स्मृति रचने के लिए आवाहन किया जाना ,स्पृश्य हिन्दुओं का नियति द्वारा लिया गया प्रतिशोध ही है.शायद यह भी होगा कि कालक्रम का फेरा पूरा होने वाला था.' 
बहरहाल नए भारत ने जिस आधुनिक मनु को नयी स्मृति रचने का जिम्मा सौंपा था उसका निर्वहन उन्होंने नायकोचित अंदाज में किया .महामुनि मनु ने अपनी सदियों पुरानी स्मृति के जरिये भारतवर्ष को जिस न्याय,स्वाधनीता,समानता और भ्रातृत्व से शून्य रखा था,आधुनिक मनु आंबेडकर ने संविधान के जरिये उसे भरने का प्रयास किया.उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 14,15(4),16(4),17,24,25(2),29(1),38(1),38(2),39,46,164(1),244,257(1),320(4),330,332,334,335,338,340,341,342,350,371इत्यादि के प्रावधानों के जरिये मनुस्मृति सृष्ट विषमताओं को दूर कर एक समतामूलक आदर्श समाज निर्माण का सबल प्रयास किया.किन्तु कतिपय कारणों से आधुनिक मनु का संविधान अपने लक्ष्य को पाने में सफल नहीं हो पाया है.इस विषय में 'भारतीय-संविधान बनाम मनुस्मृति'के लेखक के.एम.संत की निम्न टिपण्णी विचारणीय है. 
'स्वतंत्रता प्राप्ति के समय भारतीय समाज में पूर्णतः मनुवादी एवं सामंतवादी व्यवस्थाओं का प्रभाव था.इसलिए संविधान निर्माताओं ने संविधान में अवधारित विचारधाराओं माध्यम से इन व्यवस्थाओं को मानवीय व्यवस्थाओं में बदलने का सपना संजोया था परन्तु यह सपना पूरा नहीं हो पाया है.आज हमारे देश की सामाजिक स्थिति एक ऐसे मोड़ पर आ पहुंची है जिस स्थान पर मनुस्मृति में वर्णित नियतिवादी व्यवस्थाएं अपने पैर जमाये हुए हैं,उस स्थान से भारतीय संविधान की गतिवादी व्यवस्थाएं उनके पैर उखाड़ने एवं उस स्थान पर अपने पैर जमाने का प्रयास कर रही हैं.ऐसी स्थिति में व्यवस्थाओं के टकराव की समस्याएं पैदा हो गयी हैं.यदि भारतीय समाज में स्थापित नियतिवादी व्यवस्थाओं के स्थान पर संवैधानिक व्यवस्थायें स्थापित होने में और अधिक देरी हुई तो देश की लोकतान्त्रिक व्यवस्था को ही खतरा पैदा नहीं होगा अपितु देश की अखंडता भी प्रभावित हो सकती है,जिसके लिए मुख्य रूप से भारतीय समाज के कुछ साधन एवं सुविधासंपन्न व्यक्ति ही उत्तरदायी होंगे.इस वर्ग के कुछ लोग नहीं चाहते कि समाज में भारतीय संविधान की व्यवस्थाएं स्थापित हों.क्योंकि ऐसा होने पर ऐसे लोगों को मनुस्मृति की विचारधाराओं द्वारा प्रदत्त सुवुधाओं एवं अधिकारों से वंचित होना पड़ेगा.आज अधिकारविहीन समाज अपने संवैधानिक अधिकार प्राप्त करना चाहता है जिसे कुछ सुविधा सम्पन्न लोग देने को तैयार नहीं हैं और यही हमारे समाज के टकराव का मुख्य कारण है तथा इसी स्थिति की सफलता एवं असफलता हमारी लोकतान्त्रिक व्यवस्था की कसौटी है.समाज में व्याप्त यह असमंजस की स्थिति तभी दूर हो सकती है जबकि मनुस्मृति द्वारा स्थापित अमानवीय व्यवस्थाओं के स्थान पर भारतीय संविधान में वर्णित व्यवस्थाएं स्थापित हो.इसलिए उन सुविधासंपन्न लोगों को जो संवैधानिक व्यवस्थाओं को लागू करने बाधा उत्पन्न करते हैं और देश के उन प्रबुद्ध लोगों लोगों को जिन्हें देश के भविष्य की चिंता है,इस समस्या पर गंभीरतापूर्वक विचार कर संवैधानिक व्यवस्थाओं को स्थापित करने में उल्लेखनीय योगदान देना चाहिए.

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