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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Thursday, December 17, 2015

कन्नौज में गंध चुराने की कला उर्फ़ इत्र कैसे बनता है। Nilay Upadhyay

कन्नौज में गंध चुराने की कला उर्फ़ इत्र कैसे बनता है।


Nilay Upadhyay 


नूरजहां रोज पानी मे गुलाब डाल कर स्नान करती थी। एक दिन पानी में गुलाब के फ़ूल छूट गए और कुछ दिन बाद उपर तेल जैसा कुछ दिखा बस पता चल गया कि इसमें रूह होती है,खोज आरम्भ हो गई और बिकसित हो गई इत्र बनाने की कला।

यहां लोग गुलाब हिना मोतिया(बेला)गेंदा केवडा शमामा से इत्र निकालते है सबसे बडी बात कि ये मिट्टी से भी इत्र निकालते है। इसके लिए कुम्हार के आवे में पके मिट्टी के टूटे बर्तन का इस्तेमाल होता है।

आज शाम को इत्र बनाने के मुहम्मद अक्रम के कारखाने में कवि सुशील राकेश ,आशु और राजेन्द्र शुक्ला के साथ गया और जो देखा आप मित्रो को भी दिखाता हूं । वहां बडे बडे तांवे के गुलाब की पंखुडियो से भरे बर्तन (डेग) चुल्हे पर चढे थे और सरपोश से ढके थे, नीचे आग जल रही थी ।सरपोश में बांस के चोंगे लगे थे जिसे रूई और मिट्टी मिलाकर सील किया गया था और दूसरा चोगा लगभग ७० डिग्री के घुमाव पर गच्ची (हौज ) में स्रवण करते है और बेस (खास तरह का तेल) डाल हाथो से मल कर खुशबू को भभका में एकत्र करते है। फ़िर उसे फ़िल्टर कर उंट के चमडे से बने कुप्पे में रख धूप में सुखाते है। जब पानी धूप में सूख जाता है तो उसे स्टोर कर सप्लाई करते है।

जिसमे बेस नहीं डालते उसे रूह कहते है। बेस का इत्र सात आठ लाख रूपए किलो बिकता है और रूह बीस पच्चीस लाख रूपए किलो।

बोलिए कितना चाहिए ?


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