कथकै उतरैणी
लेखक : नैनीताल समाचार :: अंक: 12 || 01 फरवरी से 14 फरवरी 2012:: वर्ष :: 35 :February 16, 2012 पर प्रकाशित
घनश्याम विद्रोही
इस साल बागेश्वर की उत्तरायणी में जो हुआ, उसकी शायद किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी।
रामलीला मंच से वह फूड़हता निकली कि अगले दिन प्रत्येक बुजुर्ग तथा समझदार व्यक्ति की जुबान पर उसी की चर्चा थी कि यह क्या हो गया है उत्तरायणी मेले को ? जिलाधिकारी ऐसे हतप्रभ हुए कि अधिक समय तक प्रोग्राम नहीं देख सके।
अब तो कुमाऊँ के कई स्थानों के साथ ही बरेली में तक उत्तरायणी मनाई जाने लगी है। मगर 14 जनवरी से 18 जनवरी तक लगने वाले बागेश्वर के उत्तरायणी मेले की पहचान अलग है। पौराणिक दृष्टि के साथ-साथ कुली बेगार आन्दोलन के साथ जुड़े होने के कारण इसका ऐतिहासिक महत्व भी है। धार्मिक पुण्य लाभ के लिये तीन दिनों तक सरयू में स्नान करने की परंपरा है, जिसे स्थानीय भाषा में तिरमाई कहा जाता है। 1962 के चीनी आक्रमण तक इसका महत्व भारत-तिब्बत व्यापार के लिये भी था। मगर यह व्यापार बंद होने से यहाँ सिर्फ तिब्बती गाय की पूँछ ही जैसे-तैसे आ रही है। इसे हिंदू धर्म के लोग मंदिरों में चढ़ाते हैं। यह असली होती है या नकली, पता नहीं। अलबत्ता मेले में लोहाघाट के भदेलों, दानपुर-मुनस्यारी में बनी रिंगाल की वस्तुओं और भोटिया कुत्तों की जमकर खरीददारी होती रही है। आधुनिकता के प्रसार के साथ विगत कुछ सालों से मुरादाबाद, दिल्ली, मुंबई आदि महानगरों से भी यहाँ नए फैशन के कपड़े लेकर व्यापारी आने लगे हैं। अब तक बागेश्वर की उत्तरायणी मीडिया के लिये भी महत्वपूर्ण होती थी। हमेशा मुखपृष्ठ पर उत्तरायणी को जगह मिलती थी, लेकिन इस बार मीडिया ने भी इसे बहुत कम अहमियत दी।
जागरण की रात ग्रामीण पुरुष तथा स्त्रियाँ रात भर भगनौल, चांचरी तथा झोड़े आदि गाते-नाचते। गाँधी चौक पर अलाव जलते। गीतों में एक-दूसरे से सवाल-जवाब होते। अब फिल्मी गीतों पर लटके-झटके लगाने का दौर है। इक्का-दुक्का हुड़के वाले ग्रामीण दिखते भी हैं तो उन्हें मंच नहीं मिलता। ब्रिटिश काल से ही, कुली बेगार के रजिस्टर बहाने के बाद सरयू बगड़ में हर उत्तरायणी में कांग्रेस की सभाएँ शुरू हुईं। अब सभी राजनैतिक दल भी यहाँ सभायें करते हैं। ये सभाएँ अब सिर्फ एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने के लिये रह गई हैं।
विधानसभा चुनावों के चलते आचार संहिता के कारण इस साल की उत्तरायणी पूरी तरह जिला प्रशासन के हाथ में थी। सरकार से मेले के लिये धन नहीं मिला तो खडि़या खनन वालों से लिया गया। स्थानीय सांस्कृतिक दलों को मंच नहीं मिला। सरयू बगड़ में आए व्यापारी भी परेशान रहे, क्योंकि उनसे 1,500 से लेकर 4,000 रुपये तक वसूले गये। मौसम भी उनसे रूठा रहा। सांस्कृतिक कार्यक्रम घिसे-पिटे रहे। समापन की रात मंच पर जो कुछ हुआ, उससे मेले के भविष्य के बारे में चिन्ता पैदा हो गई है। घटना से आहत पीयूसीएल के प्रदेश उपाध्यक्ष नंदा बल्लभ भट्ट, जिलाध्यक्ष रमेश कृषक तथा सामाजिक कार्यकर्ता हेम पंत आदि का कहना है कि उत्तरायणी मेले के लिये बुद्धिजीवियों तथा बुजुर्गां से राय लेना अनिवार्य किया जाना चाहिये। अब मेला संपन्न हो गया है तो सांस्कृतिक दलों को भुगतान नहीं हो रहा है। पालिका तथा प्रशासन के बीच इस मसले को लेकर विवाद पैदा हो गया है। प्रशासन पालिका से कह रहा है कि मेले के दौरान जो कमाई हुई है, उसे सांस्कृतिक दलों में बाँटा जाए, लेकिन चैक पर नगरपालिका अध्यक्ष के हस्ताक्षर भी होने हैं। चुनाव आचार संहिता के कारण अध्यक्ष किसी झंझट में पड़ना नहीं चाहते। यह सारा खर्च फिलहाल ईओ के सिर पर है।
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