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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Wednesday, February 29, 2012

मौन बौद्धिक मुखर सत्ता

मौन बौद्धिक मुखर सत्ता


Wednesday, 29 February 2012 10:23

रमेश दवे 
जनसत्ता 29 फरवरी, 2012: सत्ताएं बौद्धिकों का मौन चाहती हैं। ऐसे में अगर बौद्धिक स्वयं सत्ता से बंध जाएं तो सत्ताएं उन्हें बांध कर रखना भी चाहती हैं। सत्ताएं जन-प्रतिनिधियों और सामान्य जन से उतना नहीं डरतीं, जितना बौद्धिकों से डरती हैं। उनके लिए बौद्धिक सबसे बड़ा प्रतिपक्ष है। उसके शब्द का डर सत्ता के लिए सबसे बड़ा डर होता है। इस डर को सत्ताएं दो तरह से काबू करने की कोशिश करती हैं। एक तो डर के विरुद्ध बड़ा डर रच कर, धमका कर, आरोप लगा कर, फंसा कर और तरह-तरह की आचरण संहिताएं बना कर। दूसरे लालच के द्वारा वे बौद्धिकों की मुखरता का अपहरण करके, उन पर मौन का अनुशासन लाद देती हैं। पद, पैसा, विदेश यात्रा, सम्मान, पुरस्कार, समितियों की तथाकथित महत्त्वपूर्ण सदस्यता, ये सब सत्ताओं द्वारा बौद्धिकों की मुखरता को मौन में बदलने के लुभावने औजार हैं।
बुद्धिजीवी कितना भी बुद्धिमान हो, वह कई तरह के छलों का शिकार होता है। विचारधारा का छल उसमें कई पूर्वग्रह, जड़ताएं और प्रतिबद्धताएं या जातिगत, धर्मगत दुराग्रह पैदा करता है। यह छल ही उसकी बुद्धि बन जाता है और वह अपनी धूर्त भाषा से इस छल के असत्य को सत्य बना कर उन निरीह लोगों को छलता है जो बौद्धिकता को विश्वास करने योग्य मानते हैं। ऐसे छल वह अपनी पसंद की सरकारों के मंच पर बैठ कर सत्ता के पक्ष में करता है या विरोधी विचार की सरकार होने पर उस सरकार के विरुद्ध एक ऐसा मंच रचता है, जहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता वाले दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के मंच से कुछ घिसे-पिटे शब्दों में सत्ता को गालियां दी जा सकें और उसे नाकाम, नालायक बताया जा सके। 
इस प्रकार आमजन को दो-दो प्रकार के छलों, झूठों और भड़कावों में जीना होता है- एक सत्ता का छल और दूसरा बौद्धिकों का छल। अब निरीह नागरिक विश्वास करे तो किन पर? उन जन-प्रतिनिधियों पर जो वादा करके चुने जाते हैं और फिर मनमानी के अधिकार का दावा करते हैं, या उन पर जो बौद्धिक के रूप में लेखक, वकील, डॉक्टर, समाजकर्मी, पत्रकार, मीडियाकर्मी, एनजीओकर्मी आदि कहलाते हैं और जनता के पक्ष में खडेÞ होने का स्वांग करते रहते हैं?
अब प्रश्न यह है कि सत्ता आखिर बौद्धिकों का मौन क्यों चाहती है और खुद मुखर होकर कहना क्या चाहती है? शब्द की मार बड़ी तगड़ी होती है, दूर तक जाती है और बौद्धिक का सबसे बड़ा हथियार शब्द ही हैं। सत्ता हजार शब्दों में जिन उपलब्धियों का बिगुल बजाती है, बौद्धिक कुछ शब्दों में उन्हें निरर्थक साबित कर देता है। सूचना प्रौद्योगिकी के युग में कंप्यूटर अब सबसे बड़ा बौद्धिक बन गया है। वह बिना बोले ही गूगल, विकीलिक्स, याहू आदि से इतनी सूचनाएं पैदा कर देता है जितनी सरकार को स्वयं भी पता नहीं होतीं। 
बौद्धिक लोग भ्रष्टाचार पर कितने ही कहानी, उपन्यास या अखबारों में लेख लिख दें, कंप्यूटर का एक बटन सारी दुनिया के भ्रष्टाचारों की वेबसाइट खोल कर रख देगा और वह लेखकों के लेखों की तुलना में बड़ा सत्य होगा। इसका सबसे बड़ा उदाहरण विकीलीक्स है, जिसके खुलासों ने तमाम देशों की सरकारों को हिला कर रख दिया।  
अब तो सत्ता सूचना के अधिकार और चैनलों के प्रचार-तंत्र से भी डरी हुई है और हो सकता है कि वह दिन आ जाए जब सत्ता के क्रोध का शिकार कंप्यूटर या सेटेलाइट कैमरे हो जाएं। सत्ता जानती है कि किसी स्थान विशेष के बौद्धिकों की नाक में तो नकेल डाली जा सकती है, मगर बिना नाक वाले कंप्यूटर या सेटेलाइट पर कौन-सी लगाम लगाई जाए?
इंटरनेट की दुनिया में अभिव्यक्ति पर पाबंदी लगाना या अभिव्यक्ति के अधिकार को सीमित करना संभव नहीं रह गया है। इसलिए सत्ताएं अब ऐसी कोशिश में रहती हैं कि कानूनों की लगाम बनाई जाए और अगर यह लगाम कारगर न हो तो कानूनों को कचरापेटी में पटक कर अपने हुक्म की हथकड़ियां तैयार की जाएं। 
इसलिए लगने लगा है कि अब हुक्म की हथकड़ियां पैदा की जा रही हैं। सत्ता के लिए संसद, जनता के लिए जेल, सत्ता के लिए घोषणाओं के शंखनाद, जनता के लिए मौन चिपकाने वाले स्टिकर। ऐसे में बौद्धिक अगर बोले तो, कौन सुनेगा और कौन कुछ कहेगा! लोकतंत्र में तो जो कहता है, वह सत्ता या नेता कहता है, जनता कह भी नहीं पाती और कहे तो उसे सत्ता सुनती भी नहीं।
अधिकांश बौद्धिक मंचशूर या शब्दशूर तो होते हैं, लेकिन कर्मशूर कम होते हैं या कायर भी होते हैं। शौर्य अकेला गुण हो सकता है शक्तितंत्र के लिए, लेकिन बौद्धिकों का बुद्धि-शौर्य जब-जब आवश्यक हुआ, वे खरे नहीं उतरे। इस बात का प्रमाण 1962 के भारत-चीन युद्ध के समय और आपातकाल के समय उनकी भूमिका से मिलता है। जिन्हें सांप्रदायिक, समाजवादी या संपूर्ण क्रांति के नाम पर कोसा गया, वे जेलों में गए, यातनाएं सहीं, लेकिन जो सत्ता-पक्ष में बैठ कर फासिज्म की परिभाषा और भारतीय उदाहरण देते रहे, वे केवल सत्ता द्वारा प्रायोजित मंचों के प्रतिनिधि बने रहे। 

अगर हमारे नारेबाज बौद्धिक अवसर-आह्लाद के इतने प्रेमी हैं, तो उन्हें कह देना चाहिए कि कुछ पार्टी विशेष का सत्ता-पक्ष ही उनकी बौद्धिक मरुभूमि है। कट्टरता और सांप्रदायिकता के निहायत इकतरफा इल्जामों के साथ वे जो वाणी का दुरुपयोग  करते हैं, उस पर उन्हें आत्मचिंतन भी करना होगा। वे गरीब के पक्ष में बोलते हैं, लेकिन गरीबों के पक्ष में किसी सत्ता से कोई सार्थक लड़ाई लड़ी हो, इसके प्रमाण कुछ   राज्यों में अपवाद के रूप में दिखाई देते हैं। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि बुद्धिजीवी कहलाने वाले अधिकतर लोगों का आचरण छद्म या दोहरा है। कहने को वे कट्टरता का विरोध करते हैं, पर एक तरह की असहिष्णुता और कट्टरता को वे स्वयं पाले रहते हैं।
साहित्यकारों को बुद्धिजीवी कहलाने का बड़ा शौक है। साहित्य अगर हित का सहगामी है, तो उसमें सर्वहित की उदारता और सहिष्णुता आवश्यक है। ऐसा कैसे हो सकता है कि आप जन या प्रगति के पक्ष की तो बात करें, मगर वह जन आपकी प्रगति के खाने में सर्वजन नहीं होता। आपने अपने जन का भी बंटवारा कर लिया है। साहित्य का लोकतंत्र तो सर्वाधिक उदार और उदात्त लोकतंत्र होना चाहिए, लेकिन यहां एक खेमा दूसरे के मंच या आयोजन में नहीं जाता और उस मंच को गाली देता है। 
अगर विचार के आधार पर असहमति है, तो उस मंच पर जाकर असहमति का साहस दिखाना आवश्यक है, लेकिन जो विशेष विचार से बंधे बुद्धिजीवी हैं, उन्हें अपने और अपने कुछ चुने हुए अल्पसंख्यकों, दलितों के अलावा बाकी पूरा देश सांप्रदायिक लगता है। जिस आरएसएस या ऐसे अन्य संगठनों को वे देशद्रोही बताने की हद तक जाकर कोसते हैं, क्या वे स्वयं उनसे कम कट्टर हैं? 
आप जिस बौद्धिक जीवन को जीते हैं वह कितना देशज है, स्वदेशी है, लोक-संवेदी है, यह भी तो सोचें? आप जिस कट्टरता के साथ अन्य का बहिष्कार, तिरस्कार या विचार के नाम पर दुष्प्रचार करते हैं, वैसी कट्टरता तो संभवतया न मार्क्स के घोषणापत्र में है, न किसी भी ऐसे राजनीतिक संगठन में जो लोकतंत्र में अपना हस्तक्षेप करने के लिए स्वतंत्र है।
अब समय आ गया है जब आंख मूंद कर विरोध करने की प्रणाली को आंख खोल कर जायज और निष्पक्ष या निरपेक्ष विरोध करने की प्रणाली अपनानी होगी। पुरानी तरह की प्रतिबद्धताओं का जमाना लद गया है, अब उनकी कोई प्रासंगिकता नहीं रह गई है। नई निष्ठाएं और नए मूल्य विकसित करने होंगे। इतिहास की गति और घटनाओं को समझने के कुछ नए वैचारिक औजार भी गढ़ने होंगे। बौद्धिक की नई भूमिका में एक तरफ जन-सरोकारों का महत्त्व होगा तो दूसरी तरफ व्यक्ति की स्वतंत्रता का भी।
सत्ताएं तो स्वभाव से ही निरंकुश होती हैं जिसके उदाहरण ब्रिटिश राज से लेकर छियासठ वर्ष के लोकतंत्र में हम देख चुके  हैं। इसलिए लोकतंत्र की जनप्रतिनिधि आधारित सत्ता भी असहिष्णु और निरंकुश हो तो आश्चर्य ही क्या? अगर यूनान की घाटियों में दुनिया के पहले गणतंत्र बने थे, तो वहां भी निरंकुश सत्ता ने सुकरात की हत्या की थी। जब-जब जहां-जहां बौद्धिक शक्ति सत्ता-शक्ति से टकराई है, वहां सत्ता ही जीती है। 
ईसा को सूली पर लटकाने वाले, मोहम्मद साहब पर पत्थर फेंकने वाले, गांधी को गोली मारने वाले, मार्टिन लूथर किंग और पेट्रिस कुसुंबा की हत्या करने वाले, नेल्सन मंडेला को छब्बीस साल तक जेल में रखने वाले, बर्मा (म्यांमा) की नेता सू की को आधी उम्र तक फौजी तानाशाही की कैद में रखने वाले, जुल्फिकार अली भुट्टो को फांसी पर चढ़ाने वाले या तो सत्ता की शक्ति से जुड़े थे या विचार की कट्टरता से। सत्ता का चरित्र अगर लोकतंत्र में भी इतना हिंसक है तो फिर जनता भी अगर अपराध का चरित्र अपनाने लगे तो उसमें आश्चर्य क्या?
भारत के पास आधी इक्कीसवीं सदी तक पचास प्रतिशत से अधिक युवा शक्ति होगी। अगर जनप्रतिनिधि ही अपराध तंत्र में लिप्त होंगे, शासक-प्रशासक भ्रष्ट, निरंकुश और दमनकारी होंगे तो लोकतंत्र का सर्वाधिक निरपराध निरीह लोक और सच्चा बौद्धिक जिएगा किसके भरोसे? अगर सत्ता की नीतियों या आचरण के विरुद्ध कोई जन आंदोलन करेगा और उसके विरुद्ध आप फौजदारी कानून की धाराओं के धारदार हथियार लेकर दौड़ेंगे तो लोकतंत्र में असहमति जताने के अधिकार का क्या होगा। 
बुद्धिजीवी ऐसे आंदोलनों से असहमत क्यों होता है, जो सरकार का जायज विरोध करते हैं। जयप्रकाश आंदोलनों से लेकर आज तक कई आंदोलनों में बौद्धिकों का आचरण संदेहप्रद रहा है, यहां तक कि सत्ता समर्थक रहा है। क्या आम जन को देश की सत्ता की सही जानकारी देना, बौद्धिक अपराध है? सोचना होगा उनको, जो बुद्धि का अपव्यय कर रहे हैं, केवल अपने स्वार्थों की रक्षा और स्वयं की सुरक्षा के लिए!


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