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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Wednesday, May 16, 2012

फिल्म हो या साहित्य, जनता से सीधे जुड़े बगैर अति बौद्धिकता आत्मघाती साबित होती है

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फिल्म हो या साहित्य, जनता से सीधे जुड़े बगैर अति बौद्धिकता आत्मघाती साबित होती है

फिल्म हो या साहित्य, जनता से सीधे जुड़े बगैर अति बौद्धिकता आत्मघाती साबित होती है

By  | May 16, 2012 at 6:00 pm | No comments | शब्द

मृणाल सेन से सीखें,मौजूदा व्यवस्था के मुकाबले उठ खड़ा होने के लिए कलेजा भी तो होना चाहिए!

पलाश विश्वास

मृणाल सेन

हमारे लिए यह कोई खबर नहीं कि अपनी 90 वीं वषर्गांठ मना चुके प्रसिद्ध फिल्म निर्माता मृणाल सेन अभी भी काम में लगे हुए हैं और इस उम्र में भी उनमें एक नयी फिल्म बनाने का जज्बा कायम है। भारतीय सिनेमा में सामाजिक यथार्थ को विशुद्ध सिनेमा और मेलोड्रामा की दोनों अति से बाहर अभिव्यक्ति देने में जो पहल उन्होंने की, वह हमारे लिए ज्यादा महत्वपूर्ण है। विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता भावनाओं में बह जाना नहीं है, वस्तुवादी दृष्टिकोण का मामला है, कड़ी आलोचनाओं के बावजूद उन्होंने सिनेमा और जीवन में इसे साबित किया है। लगातार चलते रहने को जिंदगी मानने वाले जाने-माने फिल्मकार मृणाल सेन किसी न किसी तरह से ताउम्र फिल्म जगत से जुड़े रहना चाहते हैं क्योंकि उनके अनुसार अंतिम कुछ नहीं होता, किसी पड़ाव पर कदमों का रूक जाना जिंदगी नहीं है। बेहतरीन फिल्में बना चुके इस वयोवृद्ध फिल्मकार ने मौजूदा दौर की फिल्मों के स्तर पर निराशा जताई। सेन ने कहा आजकल की फिल्में मुझे पसंद नहीं। मैंने कुछ चर्चित फिल्में देखीं लेकिन पसंद नहीं आईं। मैं उनके बारे में बात भी नहीं करना चाहता। हकीकत भी शायद यही है कि जो लोग फिल्में बना रहे हैं, वे इस लिहाज से कम ही सोच पाते हैं। वे अपना काम अच्छा जरूर कर रहे हैं, लेकिन विषय वस्तु के लिहाज से फिल्में बेहद कमजोर हैं। साहित्य हो या फिल्म, समकालीन यथाराथ की चुनौतियों का सामना करने का दुस्साहस तो मृणाल दा जैसे लोगों में होती है। मौजूदा व्यवस्था के मुकाबले उठ खड़ा होने के लिए कलेजा भी तो होना चाहिए। कला और माध्यम की दुहाई देकर या बाजार की बाध्यताओं के बहाने यथार्थ से कन्नी काटकर लोकप्रिय और कामयाब होने का रास्ता सबको भाता है।
हम लोग हतप्रभ थे कि सिंगूर और नंदीग्राम आंदोलनों के दौरान वे प्रतिरोध आंदोलन में शामिल क्यों नहीं हुए और अभिनेता सौमित्र चट्टोपाध्याय के साथ चरम दुर्दिन में भी उन्होंने वामपंथी शासन का साथ क्यों दिया। हमें लग रहा था कि मृणाल दा चूक गये हैं। पर बंगाल में कारपोरेट साम्राज्यवाद का,​​ वैश्विक पूंजी का मुख्य केंद्र बनते हुए देखकर अब समझ में आता है कि परिबोर्तन से उन्हें एलर्जी क्यों थी!मृणाल सेन ने वही किया जो उन्हें करना चाहिए था। मृगया और पदातिक के मृणाल सेन से आप और किसी चीज की उम्मीद नहीं कर सकते। मृणाल सेन नंदीग्राम में अत्याचार के खिलाफ कोलकाता के कॉलेज स्ट्रीट से निकले जुलूस में शामिल हुए। वही खादी का कुर्ता, अस्सी साल की काया और मजबूत कदम। लेकिन नंदीग्राम नरसंहार के विरोध को उन्होंने वामपंथ के बदले दक्षिण पंथ को अपनाने का सुविधाजनक हथियार बनाने से परहेज किया।
उन्हीं के समकालीन बांग्ला के महान​ ​ फिल्मकार ऋत्विक घटक ने सिनेमा में सामाजिक यथार्थ की अभिव्यक्ति के लिए मेघे ढाका तारा और कोमल गांधार जैसी क्लासिक फिल्मों में मेलोड्रामा का खुलकर इस्तेमाल करने से परहेज नहीं किया। पर मृणाल दा अपनी फिल्मों में कटु सत्य को वह जैसा है, उसी तरह कहने के अभ्यस्त रहे हैं जो कहीं कहीं वृत्तचित्र जैसा लगया है। आकालेर संधाने हो या महापृथ्वी या फिर बहुचर्चित कोलकाता ७१ , उनकी शैली फीचर फिल्मों की होते हुए भी कहीं न कहीं, वृत्तचित्र जैसी निर्ममता के साथ सच को एक्सपोज करती है, जैसे कि यथार्थ की दुनिया में वे स्टिंग आपरेशन करने निकले हों! यहां तक कि उनकी बहुचर्चित भुवन सोम का कठोर वास्तव कथा की रोमानियत के आर पार सूरज की तरह दमकता हुआ नजर आता है। उनकी फिल्में उस दौर का प्रतिनिधित्व करती हैं, जब देश नक्सलवादी आंदोलनों और बहुत बड़े राजनीतिक उथल-पुथल से जूझ रहा था, अपने सबसे कलात्मक दौर में मृणाल सेन अस्तित्ववादी, यथार्थवादी, मार्क्सवादी, जर्मन प्रभाववादी, फ्रेंच और इतावली नव यथार्थवादी दृष्टिïकोणों को फिल्मों में फलता-फूलता दिखाते हैं। उनकी फिल्मों में कलकत्ता किसी शहर नहीं चरित्र और प्रेरणा की तरह दिखता है। नक्सलवाद का केंद्र कलकत्ता, वहां के लोग, मूल्य-परंपरा, वर्ग-विभेद यहां तक की सडक़ें भी मृणाल की फिल्मों में नया जीवन पाती हैं। एक दिन प्रतिदिन जैसी पिल्मों के जरिये मृणालदा ने कोलकाता का रोजनामचा ही पेश किया है, जहां सारे परिदृश्य वास्तविक हैं और सारे​ ​चरित्र वास्तविक। मृणालदा ने कोलकाता के बीहड़ में ही अपना कोई चंबल खोज लिया था, जहां उनका अभियान आज भी जारी है।
मृणाल दा की प्रतिबद्ध सक्रियता का मायने इसलिए भी खास है कि समानांतर सिनेमा को प्रारंभिक दौर में काफी दर्शक मिले, मगर बाद में धीरे-धीरे इस तरह की फिल्मों के दर्शक कम होते चले गए। अस्सी और नब्बे के दशक के आखिर में सार्थक सिनेमा का आंदोलन धीमा पड़ गया। प्रकाश झा और सई परांजपे जैसे फिल्मकार व्यावसायिक सिनेमा की तरफ मुड गए। श्याम बेनेगल बीच में लंबे समय तक टेलीविजन के लिए धारावाहिक बनाते रहे। जाहिर है कि समानांतर सिनेमा की अंदरूनी कमियों के कारण भी यह आन्दोलन सुस्त पड़ने लगा। फिल्म माध्यम हो या साहित्य, जनता से सीधे जुड़े बगैर अति बौद्धिकता उसके लिए आत्मघाती साबित होती है। जनसरोकारों के बगैर गैर लोकप्रिय कथानक के लिए सरकारी संरक्षण अनिवार्य हो जाता है। जब संरक्षण का वह स्रोत बंद हो जाता है, तो चैनल बदलने के सिवाय वजूद कायम रखना​ ​मुश्किल होता है। मुक्तिबोध की कहानी सतह से उठता आदमी और दास्तावस्की की क्लासिक रचना अहमक बनाने वाले मणि कौल को ही लीजिए, जिनकी फिल्में देखने को नहीं मिलती। बतौर सहायक निर्देशक मणि के साथ काम करने वाले राजीव कुमार ने पिछले दिनों बताया कि उन्होंने खुद अहमक नहीं देखी, जिसके वे सहायक निर्देशक थे। कुमार साहनी की कथी भी यही है। फिर भी दोनों समांतर फिल्मों के ऐसे दिग्गज हैं, जिन्होंने बचाव के लिए कोई वाणिज्यिक रास्ता,शार्ट कट अख्तियार नहीं किया। ऋत्विक घटक की कहानी तो किंवदन्ती ही बन गयी कि किस किस पड़ाव से होकर उनको गुजरना पड़ा और कैसे वे टूटते चले गये। मृमाल दा की भुवन सोम से समांतर सिनेमा की कथा शुरू होती है, इसलिए उनकी कथा समांतर सिनेमा की नियति से अलग भी नहीं है। मृणाल सेन की 'भुवन शोम' और मणि कौल की 'उसकी रोटी' ने फिल्मों को एक नयी लीक दी। इस लीक को नाम दिया गया कला फिल्म या समांतर सिनेमा। इन फिल्मों ने फिल्म के सशक्त माध्यम के सही उपयोग का रास्ता खोल दिया। फिल्में सम-सामयिक समाज की जुबान बन गयीं। अब वह सिर्फ मनोरंजन तक ही सीमित नहीं रह गयीं। वे सामाजिक संदेश भी देने लगीं। इन फिल्मों में फंतासी के बजाय वास्तविकता पर ज्यादा जोर दिया जाने लगा। दर्शकों को लगने लगा कि फिल्म के रूप में वे अपने गिर्द घिरी समस्याओं, कुरीतियों और भ्रष्टाचार से साक्षात्कार कर रहे हैं। अब फिल्म उनके लिए महज मनोरंजन का जरिया भर नहीं, बल्कि उस समाज का आईना बन गयी जिसमें वे रहते हैं। इस आईने ने उन्हें श्याम बेनेगल की 'अंकुर', 'मंथन', गोविंद निहलानी की 'आक्रोश', 'अर्धसत्य' से समाज की कई ज्वलंत समस्याओं से रूबरू कराया। इस लिहाज से स्मिता पाटील अभिनीत 'चक्र' (निर्देशक-रवींद्र धर्मराज) भी मील का पत्थर साबित हुई। इस तरह के सिनेमा को समांतर सिनेमा का नाम दिया गया जहां वास्तविकता को ज्यादा महत्व दिया गया। जीवन के काफी करीब लगने वाली और समय से सही तादात्म्य स्थापित करने वाली इन फिल्मों का दौर लंबं समय तक नहीं चल पाया। तड़क-भड़क, नाच-गाने और ढिशुंग-ढिशंग से भरी फिल्मों के आगे ये असमय ही मृत्यु को प्राप्त हुईं। जीवंत सिनेमा कही जाने वाली इन फिल्मों की वित्तीय मदद के लिए राष्ट्रीय फिल्म वित्त निगम आगे आया, जो बाद में फिल्म विकास निगम बन गया। उम्मीद की जाती है कि हम समांतर सिनेमा बनायें, लेकिन समांतर सिनेमा को बढ़ावा नहीं मिलता। इनके लिए अच्छे पैसे नहीं मिलते और आम जनता से समर्थन भी नहीं मिलता।
फिल्मों के बारे में बेबाक राय देने में मृणाल दा ने कभी हिचकिचाहट नहीं दिखायी। मसलन  बहुचर्चित आठ आस्कर अवार्ड जीत चुकी फिल्म स्लमडाग मिलिनेयर को खराब फिल्म कहा। मृणाल सेन का मानना है कि ऑस्कर सिनेमाई श्रेष्ठता का पैमाना नहीं है और महान फिल्मकारों को कभी इन पुरस्कारों से नवाजा नहीं गया। उन्होंने कहा ऑस्कर के लिए फिल्मकार अपनी प्रविष्टियाँ भेजते हैं और महान फिल्मकारों ने कभी इसके लिए अपनी फिल्में नहीं भेजी होंगी। आठ ऑस्कर जीतने वाली भारतीय पृष्ठभूमि पर बनी स्लमडॉग मिलियनेयर के बारे में पूछने पर उन्होंने कहा मैंने फिल्म देखी नहीं है, लेकिन यह जरूर बहुत खराब फिल्म होगी। झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले लड़के के करोड़पति बनने की कहानी से पता नहीं वे क्या दिखाना चाहते हैं। इसकी थीम ही खराब है।
मृणालदा कि फिल्म भुवन सोम १९६९ में बनी थी, जिसे हमने ७४ -७५ में जीआईसी के जमाने में देख लिया। तब तक हमने सत्यजीत राय या ऋत्विक घटक का कोई फिल्म नहीं देखी थी। पर भुवन सोम के आगे पीछे अंकुर, निशांत, मंथन, दस्तक, आक्रोश जैसी फिल्में हम देख रहे थे। तब हमारे पास कोई टाइमलाइन नहीं थी। मैसूर श्रीनिवास सत्थ्यू भारतीय फिल्म उद्योग का एक प्रतिष्टत नाम है। 1973 में बनीं उनकी फिल्म गर्म हवा, न सिर्फ विभाजन पर देश  की पहली फिल्म है, बल्कि विभाजन से पैदा मानवीय त्रासदी को संवेदनशील तरीके से सामने लाने वाली फिल्म भी है। सत्थ्यू हिन्दी और कन्नड़ दोनों भाषाओं में फिल्में बनाते रहे हैं, उनकी बाकी फिल्मों के बारे में नहीं भी बात करें तो भी सिर्फ गरम हवा ही उन्हें भारत के समानांतर सिनेमा आंदोलन का सबसे बड़ा नायक साबित करती है। वामपंथ विचारधारा से प्रभावित सत्थ्यू ने  इप्टा के साथ बहुत काम किया। गर्म हवा को भी इप्टा के वैचारिक ट्रेंड वाली फिल्म कहा जा सकता है। जिसमें अल्पसंख्यकों के डर और चिंता को बहुत सलीके से उकेरा गया है साथ ही उनके लौटते आत्मविशवास और भरोसे को भी। चूंकि हम विभाजन पीड़ित परिवार से हैं तो इस फिल्म ने बरसों तक हमारे दिलोदिमाग पर राज किया और आज भी हम इसे विभाजन पर बनी किसी फिल्म से किसी मायने में कमजोर नहीं मानते। इन्हीं  मैसूर श्रीनिवास सत्थ्यू साहब का कहना है कि मृणाल सेन की खंडहर हर मायने में विशवस्तरीय फिल्म है। इसमें सिनेमा का हर पहलू चाहे वो कहानी हो, अभिनय हो या फोटोग्राफी सभी कुछ बहुत उंचा है।
कौन सी फिल्म पहले बनी और कौन सी बाद में, इसकी सूचना नहीं थी और उम्र के हिसाब से तब हम इंटरमीडिएड के छात्र थे। पर भुवनसोम में यथार्थ का जो मानवीय सरल चित्रण मृणाल दा ने पेश किया, वह सबसे अलहदा था। उत्पल दत्त को हमने करह तरह की भूमिकाओं में अभिनय करते हुए देखा है, पर भुवन सोम के रुप में उत्पल दत्त की किसी से तुलना ही नहीं की जा सकती।
मृणाल दा की जिन दो फिल्मों की उन दिनों हम छात्रों में सबसे ज्यादा चर्चा थी, वे हैं कोलकाता ७१ और इंटरव्यू , जिन्हें देखने के लिए हमें वर्षों इंतजार करना पड़ा। बहरहाल जो बाद में हमें मालूम पड़ा कि बंगाली फिल्मों की तरह ही सेन हिंदी फिल्मों में भी समान रूप से सक्रिय दिखते हैं। इनकी पहली हिंदी फिल्म 1969 की कम बजट वाली फिल्म 'भुवन सोम' थी। फिल्म एक अडिय़ल रईसजादे की पिछड़ी हुई ग्रामीण महिला द्वारा सुधार की हास्य-कथा है। साथ ही, यह फिल्म वर्ग-संघर्ष और सामाजिक बाधाओं की कहानी भी प्रस्तुत करती है। फिल्म की संकीर्णता से परे नये स्टाइल का दृश्य चयन और संपादन भारत में समानांतर सिनेमा के उद्भव पर गहरा प्रभाव छोड़ता है।जब हमने भुवन सोम देखी तब हमें मालूम ही नहीं था कि जिस श्याम बेनेगल की पिल्मों से हम लोग उन दिनों अभिभूत थे, उनकी वह ​​समांतरफिल्मों की धारा की गंगोत्री भूवन सोम में ही है।
हाल में २०१० में मृणाल सेन की फिल्म 'खंडहर' कान फिल्म महोत्सव में 'क्लासिक' श्रेणी में जब दिखाई गई तो वह उतनी ही ताजी फिल्म लगी जितनी 1984 में लगी थी। उसी साल वह रिलीज हुई थी और इस फिल्मोत्सव में प्रदर्शित भी हुई थी।पुणे के राष्ट्रीय फिल्म लेखागार में अपने नाम के अनुरूप खंडहर धूल खा रही थी। बेहतरीन सिनेमा को सहेजने के उद्देश्य से बने इस लेखागार ने पुरानी क्लासिक सिनेमा को सहेजने का नया कार्यक्रम शुरू किया है।'खंडहर' की रिलायंस मीडियावर्क्‍स ने नए सिरे से रिकॉर्डिंग की है। कल रात थिएटर में मौजूद सेन के प्रशंसकों के लिए 'खंडहर' ताजे फिल्म की तरह थी। 87 साल के सेन इस मौके पर मौजूद थे।
हिंदी सिनेमा के समांतर आंदोलन के दिग्गजों श्याम बेनेगल, गोविंद निल्हानी, मैसूर श्रीनिवास सत्थ्यू, मणि कौल, गुलजार और बांग्ला के फिल्मकार गौतम घोष, उत्पेलेंदु, बुद्धदेव दासगुप्त जैसे तमाम लोग माध्यम बतौर सिनेमा के प्रयोग और उसके व्याकरण के सचेत इस्तेमाल के लिए मृणाल सेन से कई कई कदम आगे नजर आयेंगे, सत्यजीत रे की बात छोड़ दीजिये! इस मामले में वे कहीं न कहीं ऋत्विक घटक के नजदीक हैं, जिन्हें बाकी दुनिया की उतनी परवाह नहीं थी जितनी कि अपनी माटी और जड़ों की। ऋत्वक की फिल्मों में कर्णप्रिय लोकधुनों का कोलाहल और माटी की सोंधी महक अगर खासियत है तो मृणालदा की फिल्में यथार्थ की चिकित्सकीय दक्षता वाली निर्मम चीरफाड़ के लिए विलक्षण हैं। उनकी सक्रियता को यह मतलब हुआ कि खुले बाजार की अर्थव्यवस्था और स्वतःस्फूर्त गुलामी में जीने को अभ्यस्त देहात की जड़ों से कटकर बाजार में जीने को उदग्रीव आज के नागरिक जीवन की अंध भावनाओं का सामना करने का साहस अभी किसी न  किसी में है।
बंगाल की साहित्यिक और सामाजिक विरासत में मेलोडरामा का प्राधान्य है । शायद बाकी भारत में भी कमोबेश एसा ही है। हम व्यक्ति पूजा,​​ अति नायकीयता और पाखण्ड के बारमूडा त्रिभुज में जीते मरते हैं। यथार्थ को वस्तुवादी ढंग से विश्लेषित करना बंगाली चरित्र में है ही नहीं, ​​इसीलिए चौतीस साल के वामपंथी शासन में जीने के बावजूद बंगाल के श्रेणी विन्यास, जनसंख्या संतुलन, वर्ग चरित्र और बहिष्कृत समाज की हैसियत में कोई फर्क नहीं आया। जैसे साल भर पहले तक वामपंथी आंदोलन का केंद्र बना हुआ था बंगाल वैसे ही आज बंगाल धुर दक्षिणपंथी अमेरिकापरस्त उपभोक्तावादी निहायत स्वार्थी समाज है, जहां किसी को किसी की परवाह नहीं और व्यक्तिपूजा की ऐसी धूम कि बाजार में मां काली और बाबा भोलानाथ के हजारों ्वतार प्रचलन में है और हर शख्स की आंखों में भक्तिबाव का आध्यात्म गदगद।
यह कोई नयी बात नहीं है। नेताजी, रामकृष्ण, विवेकानंद और टैगोर जैसे आइकनों में ही बंगाल अपना परिचय खोजता है। विपन्न जन समूह और​  सामाजिक यथार्थ से उसका कोई लेना देना नहीं है। जिस बंकिम चट्टोपाध्याय को साहित्य सम्राट कहते अघाता नहीं बंगाली और बाकी भारत भी जिसके वंदे मातरम पर न्यौच्छावर है, उन्होने समकालीन सामाजिक यथार्थ को कभी स्पर्श ही नहीं किया। दुर्गेश नंदिनी हो या फिर आनंदमठ या राजसिंह, सुदूर अतीत और तीव्र जातीय गृणा ही उनकी साहित्यिक संपदा रही है। रजनी, विषवृक्ष और कृष्णकांतेर विल में उन्होंने बाकायदा यथार्थ से पलायन करते हुए थोंपे हुए यथार्थ से चमत्कार किये हैं। समूचे बांग्ला साहित्य में रवींन्द्रनाथ से पहले सामाजिक यथार्थ अनुपस्थित है। पर मजे की बात तो यह ह कि दो बीघा जमीन पर चर्चा ज्यादा होती है और चंडालिका या ऱूस की चिट्ठी पर चर्चा कम। ताराशंकर बंदोपाध्याय का कथा साहित्य फिल्मकारों में काफी लोकप्रिय रहा ​है। स्वयं सत्यजीत राय ने उनकी कहानी पर जलसाघर जैसी अद्भुत फिल्म बनायी। पर इसी फिल्म में साफ जाहिर है कि पतनशील सामंतवाद के पूर्वग्रह से वे कितने घिरे हुए थे। वे बहिष्कृत समुदायों की कथा फोटोग्राफर की दक्षता से कहते जरूर रहे और उन पर तमाम फिल्में भी बनती रहीं, पर इस पूरे वृतांत में वंचितों, उत्पीड़ितों और अस्पृश्यों के प्रति अनिवार्य गृणा भावना उसीतरह मुखर है , जैसे कि शरत साहित्य में।
माणिक बंद्योपाध्याय से लेकर ​महाश्वेता देवी तक सामाजिक यथार्थ के चितेरे बंगाल में कभी लोकप्रिय नहीं रहे। मृणाल दा भी सत्यजीत राय या ऋत्विक घटक के मुकाबले कम लोकप्रिय रहे हैं हमेशा। पर लोकप्रिय सिनेमा बनाना उनका मकसद कभी नहीं रहा। ऋत्विक दा, सआदत हसन मंटो या बांग्लादेश के अख्तरुज्जमान इलियस की तरह मृणालदा न बागी हैं और न उनमें वह रचनात्मक जुनून दिखता है, पर सामाजिक यथार्थ के निर्मम चीरफाड़ में उन्हें आखिरकार इसी श्रेणी में रखना होगा जो कि सचमुच खुले बाजार के इस उपभोक्तावादी स्वार्थी भिखमंगे दुष्ट समय में एक विलुप्त प्रजाति है। इसीलिए मृणालदा की सक्रियता का मतलब यह भी हुआ कि सबने बाजार के आगे आत्मसमर्पण किया नहीं है अभी तक। यह भारतीय सिनेमा के लिए एक बड़ी खुशखबरी है।
मृणाल सेन भारतीय फ़िल्मों के प्रसिद्ध निर्माता व निर्देशक हैं। इनकी अधिकतर फ़िल्में बांग्ला भाषा में हैं। उनका जन्म फरीदपुर नामक शहर में ( जो अब बंगला देश में है ) में १४ मई १९२३ में हुआ था। हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण करने बाद उन्होंने शहर छोड़ दिया और कोलकाता में पढ़ने के लिये आ गये। वह भौतिक शास्त्र के विद्यार्थी थे और उन्होंने अपनी शिक्षा स्कोटिश चर्च कॉलेज़ एवं कलकत्ता यूनिवर्सिटी से पूरी की। अपने विद्यार्थी जीवन में ही वे वह कम्युनिस्ट पार्टी के सांस्कृतिक विभाग से जुड़ गये। यद्यपि वे कभी इस पार्टी के सदस्य नहीं रहे पर इप्टा से जुड़े होने के कारण वे अनेक समान विचारों वाले सांस्कृतिक रुचि के लोगों के परिचय में आ गए |संयोग से एक दिन फिल्म के सौंदर्यशास्त्र पर आधारित एक पुस्तक उनके हाथ लग गई। जिसके कारण उनकी रुचि फिल्मों की ओर बढ़ी। इसके बावजूद उनका रुझान बुद्धिजीवी रहा और मेडिकल रिप्रेजन्टेटिव की नौकरी के कारण कलकत्ता से दूर होना पड़ा। यह बहुत ज्यादा समय तक नहीं चला। वे वापस आए और कलकत्ता फिल्म स्टूडियो में ध्वनि टेक्नीशीयन के पद पर कार्य करने लगे जो आगे चलकर फिल्म जगत में उनके प्रवेश का कारण बना।फिल्मों में जीवन के यथार्थ को रचने से जुड़े और पढऩे के शौकीन मृणाल सेन ने फिल्मों के बारे में गहराई से अध्ययन किया और सिनेमा पर कई पुस्तकें भी प्रकाशित कीं, जिनमें शामिल हैं- 'न्यूज ऑन सिनेमा'(1977) तथा 'सिनेमा, आधुनिकता' (1992) ।
१९५५ में मृणाल सेन ने अपनी पहली फीचर फिल्म 'रातभोर' बनाई। उनकी अगली फिल्म 'नील आकाशेर नीचे' ने उनको स्थानीय पहचान दी और उनकी तीसरी फिल्म 'बाइशे श्रावण' ने उनको अन्तर्राष्ट्रीय प्रसिद्धि दिलाई।पांच और फिल्में बनाने के बाद मृणाल सेन ने भारत सरकार की छोटी सी सहायता राशि से 'भुवन शोम' बनाई, जिसने उनको बड़े फिल्मकारों की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया और उनको राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्रदान की। 'भुवन शोम' ने भारतीय फिल्म जगत में क्रांति ला दी और कम बजय की यथार्थपरक फ़िल्मों का 'नया सिनेमा' या 'समांतर सिनेमा' नाम से एक नया युग शुरू हुआ।
इसके उपरान्त उन्होंने जो भी फिल्में बनायीं वह राजनीति से प्रेरित थीं जिसके कारण वे मार्क्सवादी कलाकार के रूप में जाने गए। वह समय पूरे भारत में राजनीतिक उतार चढ़ाव का समय था। विशेषकर कलकत्ता और उसके आसपास के क्षेत्र इससे ज्यादा प्रभावित थे, जिसने नक्सलवादी विचारधारा को जन्म दिया। उस समय लगातार कई ऐसी फिल्में आयीं जिसमें उन्होंने मध्यमवर्गीय समाज में पनपते असंतोष को आवाज़ दी। यह निर्विवाद रूप से उनका सबसे रचनात्मक समय था।
1960 की उनकी फिल्म 'बाइशे श्रवण,' जो कि 1943 में बंगाल में आये भयंकर अकाल पर आधृत थी और 'आकाश कुसुम' (1965) ने एक महान निर्देशक के रूप में मृणाल सेन की छवि को विस्तार दिया। मृणाल की अन्य सफल बंगाली फिल्में रहीं- 'इंटरव्यू' (1970), 'कलकत्ता '71' (1972) और 'पदातिक' (1973), जिन्हें 'कोलकाता ट्रायोलॉजी' कहा जाता है।
मृणाल सेन की अगली हिंदी फिल्म 'एक अधूरी कहानी' (1971) वर्ग-संघर्ष (क्लास वार) के अन्यतम प्रारूप को चित्रित करती है जिसमें फैक्ट्री-मजदूरों और उनके मध्य तथा उच्च वर्गीय मालिकों के बीच का संघर्ष फिल्माया गया है। 1976 की सेन की फिल्म 'मृगया' उनकी दूरदर्शिता और अपार निर्देशकीय गुणों को परिलक्षित करती है। भारत की स्वतंत्रता के पूर्व के धरातल को दर्शाती यह फिल्म संथाल समुदायों की दुनिया और उपनिवेशवादी शासन के बीच के संपर्क की अलग तरह की गाथा है।
1980 के दशक में मृणाल की फिल्में राजनीतिक परिदृश्यों से मुडक़र मध्य-वर्गीय जीवन की यथार्थवादी थीमों की ओर अग्रसर होती हैं। 'एक दिन अचानक' (1988) में भी तथापि तथा कथित स्टेटस का प्रश्न एक गहरे असंतोष के साथ प्रकट होता है।
मृणाल सेन को भारत सरकार द्वारा १९८१ में कला के क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था। भारत सरकार ने उनको 'पद्म विभूषण' पुरस्कार एवं २००५ में 'दादा साहब फाल्के' पुरस्कार प्रदान किया। उनको १९९८ से २०० तक मानक संसद सदस्यता भी मिली। फ्रांस सरकार ने उनको "कमान्डर ऑफ द ऑर्ट ऑफ ऑर्ट एंडलेटर्स" उपाधि से एवं रशियन सरकार ने "ऑर्डर ऑफ फ्रेंडशिप" सम्मान प्रदान किये।
सत्यजीत रे और रित्विक घटक के साथ ही दुनिया की नजरों में भारतीय सिनेमा की छवि बदलने वाले सेन ने कहा कि हर रोज मैं एक नई फिल्म बनाने के बारे में सोचता हूं। देखते हैं कब मैं उस पर काम करता हूं। अभिनेत्री नंदिता दास अभिनीत उनकी अंतिम फिल्म आमार भुवन (यह, मेरी जमीन) वर्ष 2002 में प्रदर्शित हुई थी। उन्होंने कहा कि मैंने उसके बाद कोई फिल्म नही बनाई लेकिन मैंने यह कभी नहीं सोचा कि मैं सेवानिवृत हो गया हूं।
उनकी फिल्मों में प्रत्यक्ष राजनीतिक टिप्पणियों के अलावा सामाजिक विश्लेषण और मनोवैज्ञानिक घटनाक्रमों की प्रधानता रही है। वाम झुकाव वाले निर्देशक भारत में वैकल्पिक सिनेमा आंदोलन के अग्रणी के रूप में जाने जाते हैं और अक्सर उनकी तुलना उनके समकालीन सत्यजीत रे के साथ की जाती है। खंडहर (1984) और भुवन सोम (1969) जैसी फिल्मों में बेहतरीन निर्देशन के लिए चार बार राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों जीतने के अलावा उन्हें फिल्म निर्माण में भारत के सबसे बड़े पुरस्कार दादा साहेब फाल्के से वर्ष 2005 में सम्मनित किया गया था। हाल ही में एक बड़े निजी बैंक ने उन्हें फिल्म बनाने के लिए धन देने का प्रस्ताव दिया था।
सेन ने कहा कि मेरे लिए धन की समस्या नहीं है। बैंक ने कहा है कि हम लोग पांच करोड़ से अधिक की धनराशि देने के लिए तैयार हैं। मैंने उनसे कहा कि मैं पांच करोड़ में छह फिल्म बना सकता हूं। जब उनसे उनके जन्मदिन की पार्टी के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि वह जन्मदिन की पार्टी नहीं मनाएंगे। सेन ने कहा कि जन्म या मौत, पर जश्न मनाना मेरा काम नहीं है। मेरे दोस्त, संबंधी या अन्य लोग जो मेरे लिए सोचते हैं, वे अगर चाहते हैं तो जश्न मना सकते हैं।
उन्होंने कहा कि एक बात जो मुझे इस बुढ़ापे में परेशान करती है वह है मेरी फिल्मों के प्रिंट का जर्जर होना। जिसमें कई आज भी दर्शनीय मानी जाती है। सेन ने कहा कि उनमें से अधिकांश की स्थिति बहुत खराब है। ऐसा खराब जलवायु और उचित रखरखाव के अभाव के कारण हो रहा है।
मृणाल सेन की कथा के साथ भारतीय सिनेमा के बदलते हुए परिदृश्य को भी जेहन में रखें तो मृणाल सेन के संकल्प का सही मतलब समझ में आयेगा। गौरतलब है कि सत्तर के दशक के आक्रोश के प्रतीक ' एंग्री यंग मैन ' के रचयिता सलीम – जावेद की जोड़ी बिखर चुकी थी और सदी के महानायक अमिताभ का सितारा अब बुझ रहा था। ' तेजाब ', ' परिंदा ', ' काला बाजार ' जैसी फिल्मों के साथ आधुनिक शहर की अंधेरी गुफाएं सिनेमा में आने लगीं। इन्हीं बरसों में जेन नेक्स्ट के स्टार अनिल कपूर , जैकी श्रॉफ वगैरह उभरे। पॉपुलर फिल्मों के बरक्स समांतर सिनेमा ने इस दशक में अपनी मौजूदगी का अहसास और गहरा किया। ' जाने भी दो यारों ' ने सत्ता की काली करतूत , ' अर्धसत्य ' ने सड़ चुके सिस्टम के भीतर जीने की तकलीफ और ' सलाम बॉम्बे ' ने शहर के हाशिए को जिस असरदार अंदाज में पर्दे पर दिखाया , वह हिंदी समांतर सिनेमा किस ऊंचाई पर पहुंच चुका था , यह बताने के लिए काफी है। कहते हैं कि शुरुआती दिनों में स्क्रीनप्ले रायटर जोड़ी ' सलीम – जावेद ' खुद पेंट का डिब्बा हाथ में लेकर अपनी फिल्मों के पोस्टरों पर अपना नाम लिखा करती थी। यही वह जोड़ी थी , जिसने एक सत्तालोलुप और भ्रष्ट समाज के प्रति आम आदमी के विदोह को सिनेमाई पर्दे पर जिंदा किया। ' एंग्री यंग मैन ' का जन्म समाज में दहकते नक्सलबाड़ी के अंगारों पर हुआ था और अमिताभ बच्चन के रूप में हिंदी सिनेमा ने सदी के महानायक को इसी जोड़ी के जरिए ही पाया। अमिताभ दिन में ' शोले ' की शूटिंग किया करते और मुंबई की जागती रातों में ' दीवार ' का क्लाइमेक्स फिल्माया जाता था। इसी दशक में समांतर सिनेमा शुरू हुआ , जिसने हिंदी सिनेमा के चालू नुस्खों से अलग जाकर अपना रास्ता बनाया। श्याम बेनेगल की ' अंकुर ' के साथ शुरू हुआ यह सफर नसीरुद्दीन शाह , ओम पुरी , स्मिता पाटिल , शबाना आजमी जैसे कलाकारों को हिंदी सिनेमा में लेकर आया। 1975 में स्थापित हुई नैशनल फिल्म डिवेलपमेंट कॉरपोरेशन ने इसमें सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ऋषिकेश मुखर्जी , गुलजार , बासु चटर्जी की फिल्मों को साथ लेकर देखें तो पता चलेगा कि इस दशक तक आते – आते हिंदी सिनेमा में काफी वरायटी आ चुकी थी और कई मिजाज , सोच और अप्रोच की फिल्में एक साथ दर्शकों के बीच थीं। लेकिन समांतर सिनेमा के वे चर्चित नाम अब कहीं सुलायी नहीं देते, जबकि हमें मृणालदा की सिंह गर्जना की गूंज अब भी सुनायी पड़ रही है।
विनोद भारद्वाज के लिखे से उद्धरण मृणाल दा के अवदान और समांतर सिनेमा दोनों को समझने और जानकारी बढ़ाने में सहायक है। उन्होंने जो लिखा है, खासा महत्वपूर्ण है, जरा गौर फरमाये!
साठ के दशक में उभरे नये सिनेमा के कई नाम हैं-समांतर सिनेमा, सार्थक सिनेमा, आर्ट सिनेमा, नयी धारा, प्रयोगधर्मी सिनेमा, गैर-पेशेवर सिनेमा। समांतर सिनेमा (पैरलल सिनेमा) ही शायद सबसे सही नाम है। सन् 1960 में फिल्म वित्त निगम (फिल्म फाइनेंस कार्पोरेशन या एफएफसी) ने सिनेमा के लिए जगह बनानी शुरू की थी और साठ के दशक के अंतिम वर्षों में भारतीय भाषाओं में एक साथ कई ऐसी फिल्में बनीं जिन्होंने नयी धारा आंदोलन को ऐतिहासिक पहचान दी। फ्रांस में पचास के दशक में कुछ युवा फिल्म समीक्षकों ने नयी धारा को विश्व सिनेमा के इतिहास में अपने ढंग से रेखांकित किया और जब उन्होंने (गोदार, फ्रांसुआ, त्रुफो आदि) अपनी फिल्में बनानी शुरू कीं तो उन फिल्मों को फ्रांसीसी भाषा में नूवेल वाग (न्यू वेव यानी नयी धारा या लहर) नाम दिया गया। एफएफसी ने शुरू में सुरक्षित रास्ता चुना था और वी शांताराम की "स्त्री' (1962) सरीखी फिल्मों से शुरुआत की थी। सत्यजित राय की "चारुलता', "नायक', "गोपी गायन बाघा बायन' सरीखी फिल्में भी इसी स्रोत से बनीं। राय तब तक अंतरराष्ट्रीय ख्याति पा चुके थे। शांताराम तो खैर मुख्यधारा के सिनेमा की पैदाइश थे। लेकिन फिल्म पत्रकार बीके करंजिया जब एफएफसी के अध्यक्ष बने, तो कम बजट की प्रयोगधर्मी फिल्मों को बढ़ावा मिलना शुरू हुआ।
उन्होंने जो लिखा है, बांग्ला फिल्मकार मृणाल सेन की "भुवन शोम' (1969) से समांतर सिनेमा की शुरुआत मानी जा सकती है। इस फिल्म का बजट कम था, नायक उत्पल दत्त भले ही नायककार और अभिनेता के रूप में मशहूर थे, लेकिन नायिका सुहासिनी मुले बिलकुल नया चेहरा थीं। "भुवन शोम' का नायक रेलवे में एक अक्खड़-अकड़ू अफसर था जो गुजरात के उजाड़ में चिड़ियों के शिकार के चक्कर में एक ग्रामीण लड़की के सामने अपनी हेकड़ी भूलने पर मजबूर हो जाता है। लड़की को इस तानाशाह अफसर का कोई डर नहीं है। अफसर को जीवन की नयी समझ मिलती है।खुद सत्यजित राय को समांतर सिनेमा का एक नाम कहा जा सकता है। मृणाल सेन, राय और ऋत्विक घटक लगभग एक ही दौर में अपनी फिल्मों से भारत के बेहतर सिनेमा के चर्चित प्रतिनिधि साबित हुए थे। राय को पश्चिम में अधिक ख्याति और चर्चा मिली, मृणाल सेन राजनीतिक दृष्टि से अधिक प्रतिबद्ध थे और ऋत्विक घटक बाद में भारतीय समांतर सिनेमा के अघोषित गुरु बना दिये गये। मणि कौल, कुमार शहानी आदि नयी धारा के फिल्मकार घटक के छात्र थे और वे राय के सिनेमा को अपना "पूर्ववर्ती' नहीं मानते थे। कुमार शहानी क्योंकि फ्रांस में रॉबर्ट ब्रेसां सरीखे चर्चित प्रयोगधर्मी फिल्मकार के साथ भी काम कर चुके थे, इसलिए उनकी पहली फिल्म "माया दर्पण' को प्रयोगधर्मी सिनेमा के प्रारंभिक इतिहास में मील का पत्थर बना दिया गया। मणि कौल की "उसकी रोटी' एक दूसरा मील का पत्थर थी।
उन्होंने जो लिखा है, समांतर सिनेमा के दो सिरे थे- एक सिरे पर "भुवन शोम', "सारा आकाश' (बासु चटर्जी) "गर्म हवा' (एमएस सत्यू), "अंकुर' (श्याम बेनेगल) आदि थीं जिनमें सिनेमा के मुख्य गुणों को पूरी तरह से छोड़ नहीं दिया गया था। दूसरे सिरे पर "उसकी रोटी', "माया दर्पण', "दुविधा' (मणि कौल) आदि फिल्में थीं जो सिनेमा की प्रचलित परिभाषा से काफी दूर थीं।राय ने 1971 में "एन इंडियन न्यू वेव?' नाम से एक लंबे लेख में विश्व सिनेमा को ध्यान में रख कर भारतीय समांतर सिनेमा पर सवाल उठाये थे। सन् 1974 में उन्होंने "फोर ऐंड ए क्वार्टर' नाम से अपने एक दूसरे लेख में "गर्म हवा', "माया दर्पण', "दुविधा', "अंकुर' पर लिखा था। "क्वार्टर' से उनका आशय चित्रकार तैयब मेहता की लघु फिल्म "कूडल' से था, जिसे वे मकबूल फिदा हुसेन की बर्लिन महोत्सव में पुरस्कृत फिल्म "थ्रू द आइज ऑफ ए पेंटर' से बेहतर मानते थे- फिल्म भाषा की पकड़ के कारण। लेकिन उन्होंने मणि कौल और कुमार शहानी की फिल्म भाषा को लेकर कुछ गंभीर प्रश्न उठाये। राय इस भाषा से आश्वस्त नहीं थे।"भुवन शोम' के बारे में राय की टिप्पणी गौर करने लायक और दिलचस्प है। राय के अनुसार, "भुवन शोम' में सिनेमा के कई लोकप्रिय तत्त्वों का इस्तेमाल किया गया था- एक "आनंददायक' नायिका, कर्णप्रिय बैकग्राउंड संगीत और सरल संपूर्ण इच्छापूरक पटकथा (सात अंग्रेजी के शब्द में "बिग बैड ब्यूरोक्रेट रिफॉर्म्ड बाइ रस्टिक बैले')। यानी एक अक्खड़ अफसर को ग्रामीण सुंदरी ने सुधार दिया। लेकिन "भुवन शोम' को पहली "ऑफ बीट' फिल्म मान लिया गया। इस फिल्म को थोड़े बहुत दर्शक मिले। "भुवन शोम', "गर्म हवा', "अंकुर' ऐसी फिल्में नहीं थीं जिन्हें देखकर दर्शक "अपना सर पकड़ कर' बाहर आये। "गाइड' (जो निश्चय ही हिंदी सिनेमा की एक उपलब्धि है) के निर्देशक विजय आनंद मुंबई के मैट्रो सिनेमा में अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव के दौरान एक फिल्म छोड़कर अपना सर पकड़े बाहर आये और कॉफी पी रहे थे। उन्होंने इन पंक्तियों के लेखक से यह टिप्पणी की थी।
प्रसिद्ध फिल्में
रातभोर
नील आकाशेर नीचे
बेशाये श्रावण
पुनश्च
अवशेष
प्रतिनिधि
अकाश कुसुम
मतीरा मनीषा
भुवन शोम
इच्छा पुराण
इंटरव्यू
एक अधूरी कहानी
कलकत्ता १९७१
बड़ारिक
कोरस
मृगया
ओका उरी कथा
परसुराम
एक दिन प्रतिदिन
अकालेर संधनी
चलचित्र
खारिज
खंडहर
जेंनसिस
एक दिन अचानक
सिटी लाईफ-कलकत्ता भाई एल-डराडो
महापृथ्वी
अन्तरीन
१०० ईयर्स ऑफ सिनेमा
आमार भुवन

 

पलाश विश्वास। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं । आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के पॉपुलर ब्लॉगर हैं। "अमेरिका से सावधान "उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना ।

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