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Wednesday, May 16, 2012

लूट के इस महाभोज में सबसे ज्यादा किसी का पेट भरा तो वह था मीडिया

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लूट के इस महाभोज में सबसे ज्यादा किसी का पेट भरा तो वह था मीडिया

लूट के इस महाभोज में सबसे ज्यादा किसी का पेट भरा तो वह था मीडिया

By  | May 16, 2012 at 10:23 am | One comment | चौथा खम्भा

अरुण कुमार झा
बोलने और सुनने में बड़ा प्यारा लगता है कि ''शिक्षा वही, जो सच्चा इंसान बनाए'', लेकिन क्या ऐसा कभी संभव है? समाज और राज के चरित्रा में दिनों-दिन क्षरण जारी है। उनका नैतिक क्षरण बहुत तेजी से हो रहा है। जिन पर कानून बनाने की जिम्मेदारी है, वही घोड़े की तरह बिक रहे हैं। इस खरीद-फरोख्त के रेस में वे गर्व से शामिल होते हैं। तनिक लज्जा नहीं कि मनुष्य होकर भी जानवरों की तरह बिकते हैं। ये कैसी विडंबना है?
पिछले माह पूरे देश के जनमानस में निर्मल बाबा द्वारा की गयी ठगी की चर्चा छायी रही, तो राँची में संजीवनी बिल्डकॉन की। गौर करने वाली बात यह है कि दोनों के मूल में, ठगी में साथ देने वाले कारपोरेट मीडिया ही रही। कहा जाता है और लोगों का अनुमान है कि झारखंड में 50 करोड़ रुपए की ठगी संजीवनी द्वारा की गयी। इतनी बड़ी रकम को डकारना अकेले संजीवनी के वश की बात नहीं थी। इस रकम में 20 प्रतिशत हिस्सेदारी यहाँ की कारपोरेट मीडिया, 10 प्रतिशत गुण्डा, 10 प्रतिशत पुलिस और 15 प्रतिशत दलाल एवं दबंग समाजसेवी, राजनीतिक पार्टियांे की रही। लूट के इस महाभोज में सबसे ज्यादा किसी का पेट भरा तो वह था मीडिया। एक मीडियावाले 'न्यूज 11' ने तो उसे अपना पार्टनर ही बना डाला, तो प्रभात खबर मेला लगवाकर लूट की पूरी छूट ही दे डाली। दैनिक भास्कर ने भी कई प्रोग्राम में मीडिया पार्टनर ही बना डाला।

लूट के लिए विभिन्न प्रकार के कार्यक्रमों को करा कर झारखंड के अखबार चाहे हिन्दुस्तान हो, दैनिक जागरण हो, सभी ने लूट में अपना योगदान दिया। तरस आता है, घिन होती है, ऐसी पत्राकारिता से, उनको यह समझ में नहीं आता है कि जनता के पैसे से जो खेल खिलवाया जा रहा है, इस खेल के बाद जिनका पैसा गया, उनका क्या हाल होगा?मीडिया पर लोग आँख मूँद कर विश्वास करते हैं, उसी विश्वास का इन लोगों ने मिल कर गला घोंट दिया। ये कारपोरेट मीडिया वाले को दूर की कौड़ी तो बहुत तेजी से सूझ जाती है, पर उन्हें नजदीक की कौड़ी क्यों नहीं सूझी? संजीवनी वाले इतने पैसे कहाँ से ला रहे हैं, जिसकी बदौलत वे शान-व-शौकत के साथ ऐश की जिंदगी गुजार रहे थे? सुरा-सुन्दरी का बेहतरीन खेल खेला जा रहा था। उन्हें विज्ञापन के रूप में मोटी रकम मिल रही थी। यह सब चल रहा था, पर ये अनजान आँखें मूँदे क्यों बैठे थे?

यह बहुत बड़ा सवाल है कि उनकी पत्रकारिता उस वक्त कहाँ घास चरने गयी थी? उन्हें यह पता क्यों नहीं चल पाया कि जो पैसे उन्हें मिल रहे हैं, वह कहाँ से आ रहे हैं? संजीवनी वाले किनको-किनको पैसे दे रहे हैं, कौन और कैसे-कैसे लोग उनसे लाभान्वित हो रहे हैं? मीडिया को इसकी गंध् क्यों नहीं मिली? कितनी आश्यर्च की बात है भाई! अब संजीवनी वालों पर धर-पकड़ की कानूनी कार्रवाई चल ही रही है तो सिर्फ संजीवनी वाले पर ही क्यों? क्या संजीवनी वाले अकेले ही दोषी हैं? बाकी लोग, जो उनके साथ महाभोज में शामिल थे, उन पर कार्रवाई क्यों नहीं हो?
एक कमाल तो देखिए कि लोक सेवा समीति, जो लोगों को बेवकøफ बनाने वाली एक गैर सरकारी संगठन है, ने असंवैधनिक तरीके से संजीवनी के एक निदेशक को पैसे के बल ;लालच पर 'झारखंड रत्न' से ही अलंकृत कर दिया। एक दूसरी विडंबना देखिए कि ठगी में शामिल लोग समाज के तथाकथित शिक्षित, और सभ्य लोग हैं, लेकिन इनके कृत्य इतने घिनौने! जरूर हमारी शिक्षा पद्धति में कहीं न कहीं भारी कमी रह गयी है। उस कमी को दूर करने में हमारे शिक्षाशास्त्राी कर्तव्यच्युत रहे, अब तक।

अरुण कुमार झा, लेखक दृष्टिपात पत्रिका के प्रधान संपादक हैं।

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