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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Wednesday, May 16, 2012

कितने हैं मीडिया में, दूध के धुले मेरे दोस्त?

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कितने हैं मीडिया में, दूध के धुले मेरे दोस्त?

कितने हैं मीडिया में, दूध के धुले मेरे दोस्त?

By  | May 15, 2012 at 6:15 pm | No comments | चौथा खम्भा

जगमोहन फुटेला

'जनसत्ता' पर राजीव मित्तल के विचारों पर भाई देवेन्द्र सुरजन की एक प्रतिक्रिया देखिये. इस के बाद उन्हें हमारी राय भी…

स्व. प्रभाष जोशी जी के रहते मैंने जनसत्ता को लगातार पढ़ा और वर्षों तक पढ़ा. उनके दिवंगत होने के ३-४ बरस बाद उनकी अखबारनवीसी और कुव्वत पर एक तरफ मित्तल जी भड़ास निकाल रहे हैं तो दूसरी तरफ श्री शुक्ल भाषाई संवर्धन के लिए उन्हें श्रेय भी दे रहे हैं. स्व. प्रभाष जी की याददाश्त और उसे कम शब्दों में कागज़ पर उतारने की उनकी सिद्धि ही उनका वह गुण है जो जनसत्ता के लिए इंतज़ार करवाता था और पाठक को इस बात का कोई मलाल नहीं रहता था कि वह बासा बल्कि कभी कभी तिबासा अखबार पढ़ रहा है. सम्पादकीय पृष्ठ के लेखों का चयन हो या पाठकों के पत्र और दैनिक सम्पादकीय के लिए माकूल विषय का चयन वे तत्व थे जो जनसत्ता के महत्व को रेखांकित करते थे. बहुत से क्षेत्रीय शब्द, अपनी मां से मालवी में उनका संवाद और अपनी पसंद ना पसंद को बेलौस जनसत्ता में लिख देना उन्ही के बस की बात थी. श्री शुक्ल जी ने उनके भाषायी आग्रह को कि जैसा बोलते हो वैसा ही लिखो को उनके एक छद्म गुण के रूप में उजागर किया है. मेरा सोचना है कि वे बोलचाल के शब्दों के अलावा भी नए शब्द गढ़ लेते थे जैसे उन्होंने ९/११ को वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के ट्विन टावर्स को विमानों से गिरा दिए जाने पर लिखा था कि वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर " विमान फोड़े ". विमान फोड़ना, हिंदी के लिए बिलकुल नया शब्द था जबकि बम फोड़ना, पटाखा फोड़ना आम बोलचाल के शब्द है लेकिन बम की तरह विमान का प्रयोग किसी को तहस-नहस करने के लिए किये जाने पर " विमान फोड़ना " शब्द का प्रयोग ना केवल अब तक पहली बार हुआ बल्कि अंतिम बार भी हुआ और यह प्रभाष जोशी जी की कल्पना ही थी जो इतना उपयुक्त शब्द रच पाई. कई कई विषयों पर समान रूप से साधिकार लिखने वालों में उनका शुमार होता है जबकि वे तेंदुलकर और क्रिकेट के प्रति अपनी रूचि को छिपा नहीं पाते थे. अपने मन की, अपने घर की, पत्नी की, बच्चों की नितांत निजी बातें भी वे बड़ी खूबसूरती से जनसत्ता में छापकर सार्वजनिक कर दिया करते थे और पाठक उन्हें भी सहजता से पढ़ लेते थे. टर्की में श्री अभय छजलानी के छोटे भाई की अकाल म्रत्यु पर उन्होंने बहुत संयत लेकिन भावुक भाव से संस्मरण लिखा था. इन सब बातों को एक बार छोड़ भी दें तो भी उन्होंने जो भी लिखा एक शिक्षक की बतौर लिखा और पाठकों को हर खबर के अंदर की खबर से मिलवाया. साम्प्रदायिक सद्भाव के लिए भी उनका लिखा विशुद्ध इतिहास है और कभी दुनिया उनके लिखे के अनुसार चलने लगे तो कोई आश्चर्य नहीं होगा. यह लेख प्रभाष जी की भाषा के प्रति आग्रह को उजागर करता है और मित्तल जी प्रभाष जी के सम्पादकीय अवगुणों को गिनवा रहे हैं. एक सहज जिज्ञासा मेरे मन में उठ रही है कि " पुष्प सवेरा " भी किसी अखबार का नाम हो सकता है जिसके मित्तल जी संपादक हैं.

देवेन्द्र सुरजन, लेखक प्रतिष्ठित "देशबंधु" अखबार समूह के पूर्व निदेशक हैं

सुरजन जी से हमारा निवेदन…

भाई सुरजन जी,
इस धरती पर और धर्मों के अलावा हिन्दू धर्म और उस में भी कई तरह की रामायण है. दुनिया पूँजी और साम्यवाद में तो बंटी है ही, साम्यवाद भी अलग जगहों पर अलग तरह से परिभाषित है. प्रभाष जी को समझने का तरीका भी अलग हो सकता है. उन्हें आप मानव, महामानव, युगद्रष्टा जो भी कहें. कृष्ण और गाँधी हो सकते हैं तो फिर बहस का विषय तो वे भी हो ही सकते हैं. हम आप सहमत हों, न हों. राजीव मित्तल का भी एक नजरिया है.

किसी को भी राजीव मित्तल से अलग राय रखने का हक़ है. लेकिन पता नहीं क्यों ज़रुरत से ज़्यादा भावुक हो जाने भारतीय, हम अक्सर तर्क का जवाब तर्क से देने की बजाय उस के चरित्र हनन पे उतर आते हैं. मिसाल के तौर पे आपकी ये आपत्ति कि पुष्प सवेरा में क्यों हैं?..या ये कि ये भी कोई नाम है?

नाम से अधिक आपत्ति आपकी मित्र, शायद ये है कि बिजनेस घराने जैसे दीखते नाम अखबारों के क्यों हैं?…या कि कोई बिजनेस घराना है तो उस का अखबारनवीसी से क्या काम?.. क्या ठीक समझा मैं??..अगर 'हां' तो सुरजन जी, आप किस युग की बात कर रहे हैं? क्या उसकी जब इस देश के मीडिया पर सिर्फ बिरला या फिर नभाटा वाले जैन परिवार का वर्चस्व था? और फिर रामनाथ गोयनका समझाने लगे थे कि देश कैसे चलेगा!

क्या ये सच नहीं है कि बिरला जी का अख़बार से पहले भी ढेर सारा व्यवसाय था और वे अखबार आने के बाद और बढ़ा? दैनिक जागरण के नरेन्द्र मोहन भाजपा के कोटे से राज्यसभा में थे और अपने अखबार में बाकायदा कालम भी लिखते थे? खुद उनके ही एक सम्पादक कमलेश्वर ने ये कह के उनके अखबार से इस्तीफ़ा दे दिया था कि रथ यात्रा के दिनों रोज़ उन पे 50 घायलों वाले शीर्षक में एक शून्य और बढ़ा देने का दबाव होता है. उन्हीं नरेन्द्र मोहन ने एक चीनी मिल का लायसेंस हासिल करने के बाद की एक प्रेस कांफ्रेंस में दो दो सौ रुपयों वाले लिफ़ाफ़े उन पत्रकारों को बांटे थे जिन्हें वे अक्सर नैतिकता का पाठ पढाया करते थे. और चन्दन मित्र? वे तो अभी ताज़ी ही मिसाल हैं. वे भी भाजपा के प्रवक्ता हों, राजनीति करें. कोई दिक्कत नहीं. अखबार में भी वे वही सब क्यों परोसते हैं जो भाजपा को सूट करता है? … लेकिन उन पे कोई कुछ नहीं बोलेगा. अभी सचिन मनोनीत हो कर भी राज्यसभा चले गए तो कुछ लोगों को इस में भी क्रिकेट के साथ ये उनकी बायगेमी लगती है. लेकिन जो लोग सरासर अपने मीडिया का इस्तेमाल कर रहे हैं राजनीति में अपनी दुकान चलाने से लेकर भारत में अशांति फैलाने तक तो किसी की कोई प्राब्लम नहीं.
सुरजन जी, होने को हो क्या रहा है प्रैक्टिकली. घाटे में जब सिर्फ एक छोड़ कर देश के सब चैनल हैं तो चैनल आ ही क्यों रहे हैं और किन के? कौन ला सकता ही है चैनल और अख़बार? बिल्डरों के प्रोजेक्ट आते हैं तो चेंज आफ लैंड यूज़ से लेकर फ्लैटों में हिस्सेदारी तक और उन के चैनल आयें तो बिना कहे मुफ्त की पीआर सेवा तक. सरकार को और क्या चाहिए? सो ये सब लेनदेन के रिश्ते हैं भाई. लाइफ टू वे ट्रैफिक हुई पड़ी है. इस में सब को अपनी हिस्सेदारी चाहिए. प्रभाष जी ने ये किया हो या न किया हो. लेकिन ये सब होता उस दौर में भी था. इस से खुद उन्होंने भी कभी इनकार नहीं किया है कि विश्वनाथ सिंह को प्रधानमंत्री बनाने में उनकी एक बड़ी भूमिका थी. बोफर्स और अरुण शोरी नहीं होते तो कांग्रेस का तिलिस्म कभी टूटता नहीं. पेशेवर पत्रकारिता और पेशे में भी भी बहुत थोडा फर्क होता है, दोस्त. पेशे वाली पत्रकारिता से 'वर' ही गायब होता है बस. वधुएं फिर भी होती हैं! कभी कभी आचार्य चतुरसेन की नगरवधुओं जैसी!!

जगमोहन फुटेला, लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं journalistcommunity.com के संपादक हैं

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