Saturday, 21 July 2012 11:55 |
शेखर पाठक इन योजनाओं का सिलसिला एक अखिल हिमालयी संकट की तरह सामने खड़ा हो रहा है। पूर्वोत्तर भारत के आठ प्रांतों में 157 जलविद्युत परियोजनाओं की तैयारी हो रही है। इनमें राज्य सरकारों की तीस, केंद्र सरकार की तेरह परियोजनाएं हैं, जबकि निजी क्षेत्र की एक सौ चौदह। इससे मुनाफे और राजनीति से निजी कंपनियों के संबंधों का अनुमान लगाया जा सकता है। पूर्वोत्तर में भी बांधों के विरोध में आंदोलन हो रहे हैं। सिक्किम में तो वहां के मुख्यमंत्री ने तीस्ता नदी के कुछ बांध रोक दिए हैं। काली नदी पर पंचेश्वर बांध नेपाल में राजनीतिक अस्थिरता के कारण रुका पड़ा है। किसी भी परियोजना पर स्थानीय जनता की कभी राय नहीं ली गई। उत्तराखंड में गोरी, सरयू, पिंडर, धौली, मंदाकिनी और भिलंगना घाटियों में इन योजनाओं का जनता द्वारा विरोध किया जाता रहा। इस विरोध को मामूली और खंडित नहीं कहा जा सकता। दमन और गिरफ्तारियों का सिलसिला चला। जांच कमेटियां भी बैठीं। कभी-कभी अदालतें भी जनता और प्रकृति के पक्ष में आर्इं। पर हिमालय की नदियों के इस्तेमाल की बाबत कोई स्पष्ट नीति नहीं विकसित हो सकी। पिछले लगभग दो साल से जीडी अग्रवाल आदि और विभिन्न संतों ने गंगा की निर्मलता और अविरलता को कायम रखने की मांग की। अनशनों का क्रम चला। 1985 में स्थापित 'केंद्रीय गंगा प्राधिकरण' और 1986 से प्रारंभ 'गंगा कार्य योजना' (फरवरी 2009 में लोकसभा चुनाव के समय इसे 'राष्ट्रीय गंगा नदी घाटी प्राधिकरण' बनाया गया) के माध्यम से गंगा को बचाने का प्रयास शुरू हुआ, पर 'गंगा कार्य योजना' भ्रष्टाचार, सरकारी ढील और जनता को न जोड़ पाने के कारण पूरी तरह विफल रही। इतने व्यय और बरबादी के बाद भागीरथी घाटी की कुछ परियोजनाएं- भैंरोघाटी, लोहारीनाग-पाला और पाला-मनेरी- समेट ली गर्इं। हाल ही में श्रीनगर परियोजना को रोके जाने का निर्णय भी आया। यह बात चर्चा में आई कि बिना पर्यावरण मंत्रालय की स्वीकृति के बांध की ऊंचाई कंपनी ने बढ़ा दी थी। यह समझ से परे है कि जिन परियोजनाओं का काम इतना आगे बढ़ गया था, उन्हें बंद करने की क्या तुक थी। या, वे शुरू ही क्यों की गई थीं। आगे नई परियोजनाओं को रोका जा सकता था। जैसे भिलंगना, मंदाकिनी, धौली, पिंडर, सरयू, गोरी आदि नदियों में। अब भागीरथी घाटी से अलकनंदा और इसकी सहायक और अन्य नदियों की तरफ रुख हुआ। इस बीच परियोजनाओं के मुखर और मूक समर्थक भी सामने आए। तरह-तरह के आर्थिक स्वार्थ अब तक विकसित हो चुके थे। नए राज्य ने रोजगार के अवसर तो नहीं बढ़ाए, पर रोजगार की आकांक्षा जरूर बढ़ा दी। आर्थिक और राजनीतिक स्वार्थ सर्वोपरि और निर्णायक सिद्ध हुए। जीडी अग्रवाल, संत और शंकराचार्य और उमा भारती जैसे जाने-माने लोग गंगा और अन्य नदियों को लेकर विवेक-सम्मत दृष्टि विकसित नहीं कर सके हैं। उनमें आपसी मतभेद भी रहे हैं। गंगा के आसपास खनन के खिलाफ स्वामी निगमानंद ने हरिद्वार में अपने प्राण दे दिए, पर स्वामी रामदेव सहित कोई भी मुखर संत इससे चिंतित नजर नहीं आया। गंगा के मुद््दे को राजनीतिक-धार्मिक और भावनात्मक तो बनाया जा रहा है, पर तार्किक नहीं। सीमित हिंदू नजर से गंगा को देखने वालों को कैसे बताया जाए कि गंगा करोड़ों मुसलमानों और बौद्धों की मां भी है। गंगा आरती में उत्तराखंड के राज्यपाल शामिल नहीं हो सकते, क्योंकि वे मुसलिम हैं। संत और शंकराचार्य मानव अस्तित्व के मुकाबले आस्था को ऊपर रख रहे हैं। उन्हें गंगा के किनारे रहने वालों में गरीबी, बेरोजगारी या पिछड़ापन नजर नहीं आता है। इसी तरह का दृष्टिकोण जीडी अग्रवाल, राजेंद्र सिंह आदि ने विकसित किया है। वे जनता के बदले संतों के साथ संयुक्त मोर्चा बनाना चाहते हैं। गंगा के 'राष्ट्रीय नदी' घोषित होने भर से क्या संकट का समाधान हो जाएगा? जब तक आम लोगों के रोजगार, शिक्षा और अन्य बुनियादी जरूरतों को नहीं समझेंगे, आप उनसे और वे आपसे नहीं जुड़ सकते हैं। यह काम एक व्यापक जन आंदोलन के जरिए ही हो सकता है। अति उपभोग के खिलाफ भी वैज्ञानिकों, बुद्धिजीवियों, संतों और राजनीतिकों, सभी को बोलना चाहिए। अमेरिका के 'वाइल्ड ऐंड सिनिक रीवर एक्ट' की तरह कानून बने ताकि किसी नदी का बहने का प्राकृतिक अधिकार कायम रखा जा सके। बहु-राष्ट्रीय और बहु-प्रांतीय नदियों के प्रबंध और जलोपयोग पर गंभीर बहस हो और आम राय बनाई जाए। पारिस्थितिकी और विकास के भी आयामों पर नजर डाली जाए। जैसे, क्या आज गंगा में मुर्दे बहाने और जलाने का औचित्य है? इस मुद्दे को कोई धर्माचार्य या राजनेता उठाए तो अच्छा होगा। ऐसे ही पूरी नदी-घाटी में पॉलीथीन प्रतिबंधित होे। नाजुक हिमालयी इलाकों में जाना प्रतिबंधित या नियंत्रित होे। जलवायु परिवर्तन के विभिन्न पक्षों के साथ ग्लेशियरों का लगातार गहन अध्ययन हो ताकि कोई एकाएक आइपीसीसी की तरह घोषणा न कर सके कि 2035 तक हिमालय और तिब्बत के ग्लेशियर पिघल कर बह जाएंगे। |
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Saturday, July 21, 2012
बांधों की चकाचौंध और दुराग्रहों का दौर
बांधों की चकाचौंध और दुराग्रहों का दौर
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