समाजवादी पार्टी की जाति नीति
यह उस समाजवादी पार्टी की जाति नीति नहीं है जो आजकल उत्तर प्रदेश में शासन कर रही है. लेकिन इस समाजवादी पार्टी का उस राममनोहर लोहिया से कोई न कोई नाता जरूर जुड़ता है जिन्होंने देश में इस समाजवादी की बुनियाद रखी जिस पर चलने का दावा मुलायम सिंह यादव करते हैं. समाजवाद के सुनहरे स्वर्ग में जाति के लिए कोई जगह नहीं है. लेकिन 1962 में दक्षिण के नागार्जुन सागर में आयोजित एक शिविर में बोलते हुए डॉ राममनोहर लोहिया ने आश्चर्यजनक रूप से जातियों के अस्तित्व को ही स्वीकार नहीं किया बल्कि उनकी मजबूती के सामने समाजवाद की व्यावहारिक कमजोरी को भी स्वीकार किया है. डॉक्टर लोहिया से किसी ने सवाल पूछा कि पार्टी की जाति नीति क्या है तो जवाब में डॉ लोहिया ने जो कुछ कहा वह आज की समाजवादी राजनीति के लिए ऐतिहासिक संदर्भ हो सकता है.
जब हम लोगों को यानी समाजवादी लोगों को हिन्दुस्तान में पता लगा कि हमारी राजनीति असफल हो रही है, हिन्दुस्तान में समाजवाद नहीं आ रहा है, गरीबों का राज नहीं बन पा रहा है, खेती कारखाने नहीं सुधर पा रहे हैं और उसके साथ-साथ यह कि हम गुलाम भी हमेशा बहुत जल्दी हो जाते हैं, तो इनका कारण ढूंढ़ते- ढूंढ़ते जाति ही कारण समझ में आया। जब जाति के ऊपर ज्यादा सोचा गया तो यह पता चला कि जातियों के कारण हजारों बरस का एक संस्कार बन गया है। जैसे ब्राह्मण हैं। उनका संस्कार हो गया हे कि वे पढ़ाने लिखाने, सरकार चलाने, मंत्री बनने या लिखने पढ़ने का काम करें। उसी तरह से वैश्यों का संस्कार हो गया है कि वे व्यापार करें, खाली दुकानदारी नहीं, कारखाना, पैसे का जितना काम है, वो करें। इससे कहीं यह नतीजा मत निकाल लेना कि वैश्यों और ब्राह्मणों में गरीब नहीं होते बल्कि अधिकतर गरीब होते हैं। आज हिन्दुस्तान में एक तरफ सरकार का काम और दूसरी तरफ पैसे का काम करते हैं वे या तो नौकरशाह हैं या सेठ हैं। ये प्रायः सभी ब्राह्मण, वैश्य इत्यादि में से आते हैं। दक्षिण में रेड्डी और नायर को भी मैं क्षत्रिय की तरह समझता हूं। उसको छोटी जाति कहना गलत बात है।
इन संस्कारों के बन जाने के कारण हमारे सामने एक बड़ी जबरदस्त दिक्कत आ गयी है। अपनी पार्टी में भी, 1955 तक, इस संबंध में कोई सिद्धांत नहीं रहा है। हालांकि, बहुत पहले से यह दृष्टि ते रही है कि जाति खराब है। 1955 के आसपास यह दिखाई पड़ा कि समाजवाद ने परम्परागत ढंग से सोचा कि संपत्ति को सामूहिक बनाओ, सेठों को खतम करो और जब समाज में रोजाना से खेती-कारखाने सुधरेंगे तो दौलत बढ़ेगी और जब आर्थिक गैरबराबरी नहीं रहेगी तो परिणामस्वरूप अपने-आप जातियां खत्म हो जाएंगी। अब यह चीज गलत लगी। उसका प्रमाण भी है। समाजवादी आंदोलन हिन्दुस्तान में पिछले 28 बरस से चल रहा है, किसी न किसी रूप में। कम्युनिस्ट आंदोलन हिन्दुस्तान में 34-35 बरस से चल रहा है। इन दोनों से कुछ नतीजे निकालने चाहिए। दोनों में बहुत लड़ाई रही है, अलगाव है, दोनों के सिद्धांत एक से नहीं है, लेकिन एक बात दोनों ने समझ रखी थी कि अगर आर्थिक गैरबराबरी खतम करोगे तो जातिगत भेद और गैरबराबरी अपने-आप खतम हो जाएंगे। समाज की बात छोड़ो, थोड़ी देर के लिए, क्योंकि समाज के ऊपर न तो समाजवादियों का कब्जा आया और न कम्युनिस्टों का, लेकिन इनकी पार्टियों के अंदर देखो की क्या है?
जिस किसी ने सार्वजनिक काम हिन्दुस्तान में किया है अगर वह थोड़ा भी भला रहा है तो उसको जाति के बारे में सोचना पड़ा है, चाहें वे महात्मा गांधी रहे हों या पहले गौतम बुद्ध रहे हो या बीच में स्वामी दयानंद रहे हों। लेकिन जाति का अमूल नाश हो, यह विचार बहुत कम लोगों के दिमाग में आया। पुराने जमाने में शायद आया था। कुछ उपनिषद् में वह केवल धर्म की सीमा तक कि खाना पीना एक हो जाए या, मै समझता हूं, तर्क में तो जाति के नाश की बात है, लेकिन उससे आगे बढ़ कर नहीं। या फिर यह है कि ईश्वर और मनुष्य का संबंध ऐसा हो कि जाति का नाश हो जाए।
समाजवादी पार्टी और कम्युनिस्ट पार्टी के अंदर नेता कौन बने? आखिर कम्युनिस्टों के पास 35 बरस का मौका रह और समाजवादियों के पास 28 साल का, लेकिन नेता और खासतौर से जो अखिल भारतीय नेता हैं, वे दोनों पार्टियों में ऊंची जाति वाले ही ज्यादा हैं यानी वही ब्राह्मण, ठाकुर, वैश्य वगैरह। बल्कि, कम्युनिस्टों में तो एक विचित्र बात है कि शुरू में कुछ छोटी जाति के नेता चाहे आते भी रहे, लेकिन जैसे-जैसे समय बढ़ता है, वैसे-वैसे छोटी जातियों से नेता आने की बजाय उनकी तादाद घटती जाती है और ऊंची जाति वाले नेता ज्यादा तादाद में आ जाते हैं। इसका कारण बिलकुल साफ है। लड़ाई के लिए शक्ति चाहिए, मन की मजबूती चाहिए, हिम्मत चाहिए, कुछ अटक अड़ जाने वाली ताकत चाहिए और ये सब संस्कार हैं उन्हीं द्विज लोगों में। जब मै द्विज कहता हूं तो उसी हिसाब से मुसलमानों में भी शेख, सैयद होते हैं, जुलाहा वगैरह के अलावा।
इससे दो नतीजे निकाले गए। एक तो यह कि इससे नया समाज कभी बन ही नहीं पाएगा। जो अपनी पार्टी में व्यवस्था हो रही है, वही आगे चल कर समाज में भी रहेगी। आखिरकार समाजवादी पार्टी या कम्युनिस्ट पार्टी, ये दोनों संपत्ति के समूहीकरण के सिद्धांत को अपनाए हुए हैं और अपने घर में भी 28 बरस की मेहनत के बाद और 35 बरस की मेहनत के बाद अवस्था नहीं सुधार पाए। अपने यहां तो सुधरी है थोड़ी-सी और इसी जाति-नीति के कारण सुधरी है। लेकिन मै सामूहिक तौर से कह रहा हूं कि नहीं सुधार पाए। फिर सोचने के लिए विवश होना पड़ा कि समाज को बदलने की दृष्टि से भी और दूसरे, स्वार्थ की दृष्टि से भी यानी गद्दी पर पहुंचने के लिए भी, जाति के संबंध में परम्परागत नीति को अपनाए चलते हो, तो कांग्रेस जैसी पार्टी ही हिन्दुस्तान में गद्दी पर बैठी रहेगी।
परम्परागत नीति जाति के मामले में यह है कि जाति खतम करो। यह तो आजकल हिन्दुस्तान की सभी पार्टियां कहती है और कांग्रेस बड़े जोर से कहती है। कांग्रेस का नेता तो बहुत ज्यादा चिल्लाता है कि जाति खतम करो। सभी दल उसका इलाज बताते हैं कि सबको समान अवसर दे कर जाति खतम करो। लोग जब सुनते हैं कि बराबर मौका मिले, तो सोचते हैं कि बात तो सही है और क्रांतिकारी बात है, लेकिन वास्तव में इस संस्कार वाले समाज में समान अवसर का अर्थ केवल इतना ही होगा कि जो पहले से ऊंचा है, वह और ज्यादा ऊंचा बन जाएगा और जो नीचा है वह और ज्यादा नीचा होता चला जाएगा।
इसलिए समान अवसर के सिद्धांत को छोड़ कर, विशेष अवसर के सिद्धांत को अपनाना पड़ेगा कि जो संस्कार से दबे हुए हैं, यानी बुद्धि वाला संस्कार, व्यापार का संस्कार, पढ़ाई-लिखाई का संस्कार, गद्दी वाला संस्कार उनको विशेष अवसर दो। वे कम योग्य हैं तो भी उनको गद्दी पर बिठाओ क्योंकि समाजवाद विचारधारा में यह है कि अवसर मिलने से योग्यता निखरेगी। दूसरी जितनी पार्टियां हैं, कम्युनिस्ट, कांग्रेस, जनसंघ, स्वतंत्र यह कहती हैं, पहले योग्य बनाओ फिर अवसर दो। इस मानी में देखा जाए तो हिन्दुस्तान की सब पार्टियां, सोशलिस्ट पार्टी को छोड़ कर, दक्षिणपंथी हैं, नरमपंथी हैं, प्रतिक्रियावादी हैं, संठों और नौकरशाहों की पार्टियां हैं। सोशलिस्ट पार्टी यह जोखम को तैयार है कि पहले अवसर और फिर योग्यता और नहीं तो, बहुत ज्यादा कहो तो उसी के साथ-साथ योग्यता। यह एक बड़ा भारी फर्क आया। उसके दो कारण रहे। एक समाज की सचमुच बदलना और दूसरे शक्ति हासिल करना।
अब जाति के मामले में चौतरफा हमला हो गया है जो कि शायद हिन्दुस्तान में पहले कभी नहीं हुआ। पहले जो भी हमले हुए, उपनिषद् वगैरह काल में, वे धर्म के स्तर पर थे। फिर जो हमला हुआ जाति के ऊपर, वह थोड़ा-बहुत समज के स्तर पर हुआ, जैसे आपस में खाना-पीना। यह रामानुज ने तो नहीं किया था, लेकिन रामानंद ने किया। रामानंद को जो संप्रदाय था उसमें भी चेले लोग आपस में बेठ कर खाते थे और समाज में उनकी भी हिम्मत नहीं हुई थी। शादी-विवाह में जाति टूट जाए, यह हिम्मत तो पुराने जमाने में कुछ इने-गिने ऋषियों को छोड़ कर और आजकल कुछ इने-गिने समूहों को छोड़ कर नहीं हुई। धर्म और समाज के स्तर पर जाति पर हमले के अलावा तीसरा होता है अर्थ के स्तर पर। यह हमला समाजवादियों और कम्युनिस्टों ने चला रखा था कि आर्थिक गैरबराबरी मिटे, मजदूरी बढ़े, कारखाने सामूहिक बने या जैसे अब जो कहते हैं हम लोग कि गैर-मुनाफे की जमीन के ऊपर से लागत खतम करो या जमीन का वितरण करो। चौथा, अब राजकीय हमला है। विशुद्ध रूप से हिन्दुस्तान में समाजवाद की विचार-धारा ने इसे जोड़ा है कि जाति को खतम करने के लिए राजकीय स्तर पर जहां एक तरफ बालिग मताधिकार है, वहां दूसरी तरफ उससे भी ज्यादा आवश्यक है विशेष अवसर का सिद्धांत।
अब यह चौतरफा हमला चला है और यह बात अलग है कि हम लोग चाहे नहीं सफल हों लेकिन हिन्दुस्तान को अगर कोई पुनः जीवन देगा तो यही सिद्धां देगा। यह है जाति-नीति वाला मामला और इसकी इस शकल में उत्पत्ति 1955-56 के आस-पास ही रख सकते हो, बल्कि पूरी सरह से तो शायद 1957-58 में या 59 के आसपास कहीं मान सकते हैं। लेकिन, मोटे रूप में कि जाति ही हमारे दुःखों और कमजोरियों और आफतों का बड़ा कारण है, यह सिर्फ समाजवाद में ही नहीं वैसे भी लोगों का मानना रहा है। मैने कुछ लोगों के नाम भी गिनाए।
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