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Friday, July 20, 2012

Fwd: [New post] भारत में सिनेमा के सौ साल



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From: Samyantar <donotreply@wordpress.com>
Date: 2012/7/20
Subject: [New post] भारत में सिनेमा के सौ साल
To: palashbiswaskl@gmail.com


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भारत में सिनेमा के सौ साल

by समयांतर डैस्क

भारतीय समाज में सिनेमा

जवरीमल्ल पारख

raja-harishchandra-publicity-poster-1913भारत की पहली फीचर फिल्म राजा हरिश्चंद्र जिसका निर्माण और निर्देशन दादा साहब फालके ने किया था, उसका सार्वजनिक प्रदर्शन तीन मई, 1913 को हुआ था। यह मूक फिल्म थी और एक लोकप्रिय हिंदू पौराणिक कथा पर आधारित थी। 1912-13 से लेकर 1930 तक बनने वाली 1300 से अधिक फिल्में मूक फिल्में थीं। 1931 में आर्देशिर ईरानी ने भारत की पहली सवाक फिल्म आलम आरा का प्रदर्शन किया। उसी साल तमिल की पहली सवाक फिल्म कालिदास और तेलुगु की सवाक फिल्म भक्त प्रह्लाद का प्रदर्शन किया गया। न्यू थिएटर्स ने बंगला में चंडीदास फिल्म का निर्माण 1932 में किया था। इसके बाद भारत की कई भाषाओं में सवाक फिल्मों के निर्माण की प्रक्रिया तेजी से शुरू हो गई। मूक फिल्मों के पूरे दौर में अधिकतर फिल्में या तो पौराणिक या धार्मिक या ऐतिहासिक कथाओं पर आधारित होती थीं। कुछ फिल्में अरब, यूरोप आदि की लोकप्रिय कहानियों पर भी बनी थीं। लेकिन सामाजिक विषयों पर फिल्मों का निर्माण बहुत ही कम हुआ। मूक सिनेमा में ही बाबूराव पेंटर जैसे फिल्मकार उभर चुके थे, जिनके लिए सिनेमा सिर्फ मनोरंजन का माध्यम नहीं था बल्कि वह सामाजिक संदेश देने का माध्यम भी था। 1930 और 1940 के दशक में मराठी और हिंदुस्तानी फिल्मों को ऊंचाइयों की ओर ले जाने वाले एस. फत्तेलाल, विष्णुपंत दामले और वी. शांताराम इन्हीं बाबूराव पेंटर की देन थे। भारतीय सिनेमा में यथार्थवाद की शुरुआत का श्रेय बाबूराव पेंटर को जाता है।

Alam_Ara_poster_1931इसके बावजूद यह कहना सही नहीं होगा कि भारतीय सिनेमा ने यथार्थवाद को अपनी रचनात्मक अभिव्यक्ति का आधार बनाया था। इसके विपरीत सिनेमा ने अपना संबंध 19वीं सदी के उत्तरार्ध में उभरे लोकप्रिय रंगमंच पारसी थियेटर से जोड़ा। लोकप्रिय रंगमंच की यह परंपरा पश्चिम की प्रोसेनियम परंपरा और भारतीय लोक रंग परंपरा का मिश्रण था। रंगमंच और रंगशाला की बनावट काफी हद तक पश्चिम के अनुकरण पर आधारित होती थी लेकिन जो नाटक खेले गए और नाटकों को जिस तरह मंच पर पेश किया गया, उस पर भारतीय लोक परंपरा का प्रभाव ज्यादा था। पौराणिक, ऐतिहासिक, रहस्य-रोमांच और जादुई चमत्कारों से भरपूर काल्पनिक कथाओं को पेश करने के साथ-साथ उनमें नृत्य, गीत और संगीत का समावेश किया जाना भारतीय लोक परंपरा के अनुरूप था।

पारसी थियेटर की भूमिका

yahudi-posterपारसी थियेटर ने आमतौर पर ऐसे ही नाटक खेले जो जनता के व्यापक हिस्से के बीच लोकप्रिय हो सकते थे, समाज के किसी भी हिस्से की भावनाओं को आहत किये बिना उनका मनोरंजन कर सकते थे। लेकिन वे यह सावधानी जरूर रखते थे कि उन्हें अपने नाटकों के कारण तत्कालीन ब्रिटिश सरकार के राजनीतिक कोपभाजन का शिकार न होना पड़े। इसने काफी हद तक नाटकों की अंतर्वस्तु को सीमित कर दिया। धार्मिक, पौराणिक और काल्पनिक कथाओं की भरमार जो पारसी थियेटर में दिखाई देती है उसके पीछे यह सोच ही काम कर रही थी। इसके बावजूद यह कहना उचित नहीं है कि पारसी थियेटर ने किसी तरह की सकारात्मक भूमिका नहीं निभायी। इसके विपरीत पारसी थियेटर ने धार्मिक और पौराणिक कथानकों को पेश करते हुए भी धार्मिक संकीर्णता या धार्मिक विद्वेष की भावनाओं से बचने की कोशिश की। उनके नाटकों से उदार और धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण ही व्यक्त हुआ। उन्होंने हिंदू-मुस्लिम एकता को प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से बढ़ावा दिया। आगा हश्र कश्मीरी (1879-1935) का नाटक 'यहूदी' इसका श्रेष्ठ उदाहरण है, जिस पर कई बार फिल्में बनीं और बिमल राय ने भी इस नाटक पर फिल्म बनाना जरूरी समझा।

पारसी थियेटर ने हिंदी-उर्दू विवाद से परे रहते हुए बोलचाल की एक ऐसी भाषा की परंपरा स्थापित की जो हिंदी और उर्दू की संकीर्णताओं से परे थी और जिसे बाद में हिंदुस्तानी के नाम से जाना गया। यह भारतीय उपमहाद्वीप के बड़े हिस्से में संपर्क भाषा के रूप में विकसित हुई थी। हिंदी सिनेमा ने आरंभ से ही भाषा के इसी रूप को अपनाया। इस भाषा ने ही हिंदी सिनेमा को गैर हिंदी भाषी दर्शकों के बीच भी लोकप्रिय बनाया। यह द्रष्टव्य है कि भाषा का यह आदर्श उस दौर में न हिंदी वालों ने अपनाया और न ही उर्दू वालों ने। साहित्य की दुनिया में इसे प्रेमचंद ने ही न सिर्फ स्वीकार किया बल्कि इस भाषा का रचनात्मक और कलात्मक परिष्कार भी किया। बाद में साहित्य के प्रगतिशील आंदोलन ने भाषा के इस आदर्श को अपना वैचारिक समर्थन भी दिया और उसका विकास भी किया। लेकिन यहां यह रेखांकित करना जरूरी है कि हिंदी-उर्दू सिनेमा का भाषायी आदर्श इसी पारसी थियेटर की परंपरा का विस्तार था और इसी वजह से जिसे आज हिंदी सिनेमा के नाम से जाना जाता है उसे दरअसल हिंदुस्तानी सिनेमा ही कहा जाना चाहिए।

1912-13 से भारत की विभिन्न भाषाओं में कथा फिल्मों का जो निर्माण शुरू हुआ, इन सौ सालों में एक बहुत बड़ा उद्योग बन चुका है। प्रत्येक वर्ष भारत में पचीस से अधिक भाषाओं में औसतन 1100 से अधिक फिल्मों का निर्माण होता है। यह संख्या हॉलीवुड में बनने वाली फिल्मों से लगभग 40 प्रतिशत ज्यादा है। फिल्म उद्योग में प्रति वर्ष बीस हजार करोड़ का व्यवसाय होता है। लगभग 20 लाख लोगों का रोजगार इस उद्योग पर निर्भर है। हिंदी फिल्में कुल बनने वाली फिल्मों के एक तिहाई से अधिक नहीं होती लेकिन व्यवसाय में उनकी भागीदारी लगभग दो तिहाई है। वैसे तो भारतीय (विशेषत: हिंदी) फिल्में चौथे-पांचवे दशक से ही भारतीय उपमहाद्वीप के बाहर भी देखी जाती थीं, खासतौर पर अफ्रीका के उन देशों में जहां भारतीय बड़ी संख्या में काम के सिलसिले में जाकर बस गए थे। लेकिन पिछले दो दशकों में भारतीय फिल्मों ने अमेरिका, यूरोप और एशिया के दूसरे क्षेत्रों में भी अपना बाजार का विस्तार किया है। यह भी गौरतलब है कि भारत में अब भी हॉलीवुड की फिल्मों की हिस्सेदारी चार प्रतिशत ही है जबकि यूरोप, जापान और दक्षिण अमरीकी देशों में यह हिस्सा कम-से-कम चालीस प्रतिशत है। भारत की कथा फिल्मों ने कहानी कहने की जो शैली विकसित की और जिसे प्राय: बाजारू, अरचनात्मक और अकलात्मक कहकर तिरस्कृत किया जाता रहा उसी ने भारतीय फिल्मों को हॉलीवुड के वर्चस्व में जाने से बचाये रखा।

बदलाव की शुरूआत

कुछ अपवादों को छोड़कर अधिकतर मूक फिल्मों को देखने से यह स्पष्ट नहीं होता था कि भारत में देश की आजादी का संघर्ष चल रहा है। फिल्म माध्यम की शक्ति को तो रवींद्रनाथ, प्रेमचंद आदि आरंभ में ही पहचान गए थे, इसके बावजूद यह मुमकिन नहीं हो पा रहा था कि साहित्य की तरह सिनेमा के द्वारा भी लोगों को राजनीतिक और सामाजिक रूप से जागरूक बनाया जा सकता है। लेकिन सवाक फिल्मों की शुरुआत के साथ बदलाव के संकेत दिखने लगे थे। फिल्मों में जो नयी पीढ़ी आ रही थी, वह सामाजिक और राजनीतिक रूप से ज्यादा जागरूक थी। 1930 के दशक में वी. शांताराम, एस. फत्तेलाल, वी. दामले, बाबूराव पेंढेरकर, नितिन बोस, देवकी बोस, पी.सी.बरुआ, ज्योतिप्रसाद अगरवाला, अमिय चक्रवर्ती, धीरेंद्र नाथ गांगुली, सोहराब मोदी, हिमांशु राय, ज्ञान मुखर्जी, अमिय चक्रवर्ती, गजानन जागीरदार, पृथ्वीराज कपूर, महबूब खान, ख्वाजा अहमद अब्बास, बी.एन. रेड्डी, एच. एम. रेड्डी, केदार शर्मा, जिया सरहदी, के. सुब्रह्मण्यम, आदि कई फिल्मकार उभर कर आये। 1930 तक आते-आते आजादी का संघर्ष जनता के व्यापक हिस्सों तक पहुंच गया था। गांधी-नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस व्यापक जन आंदोलनों की तरफ बढ़ रही थी, तो दूसरी तरफ रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाकउल्लाह, भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद आदि सैंकड़ों युवा देश को आजाद कराने के लिए क्रांतिकारी मार्ग अपना रहे थे। कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना हो चुकी थी और प्रतिबंध के बावजूद उसका प्रभाव क्षेत्र बढ़ रहा था। अब आजादी का आंदोलन सिर्फ मध्यवर्ग तक सीमित नहीं था। किसानों, मजदूरों, स्त्रियों, दलितों, विद्यार्थियों और युवाओं की समस्याएं भी राजनीतिक विमर्श का हिस्सा बन रही थीं। ऐसे में यह मुमकिन नहीं था कि फिल्मों पर इसका असर न हो।

औपनिवेशिक राजसत्ता की अधीनता और सेंसर बोर्ड के नियंत्रण के कारण फिल्मकार खुलकर राजनीतिक जागरूकता वाली फिल्में नहीं बना सकते थे। इसलिए उन्होंने अपनी राष्ट्रीय और जनोन्मुखी भावनाओं को सांकेतिक रूप में व्यक्त करने की कोशिश की। सवाक फिल्मों के इस आरंभिक दौर की फिल्मों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है। पहली श्रेणी उन फिल्मों की है जिनमें किसी मध्ययुगीन संत या शासक के जीवन को पेश किया गया था। दूसरी श्रेणी उन फिल्मों की है जो किसी-न-किसी सामाजिक समस्या से प्रेरित थीं। इन दोनों तरह की फिल्मों का मकसद सिर्फ मनोरंजन नहीं था। इनके अलावा अधिकतर फिल्में वे थीं जो मनोरंजन के लिए बनायी गई थीं और पैसा बनाना ही जिनका मकसद था। पहली श्रेणी की फिल्मों का मकसद भारत के मध्ययुग की गौरवपूर्ण तस्वीर पेश करना था। अंग्रेजी राजसत्ता के अंतर्गत औपनिवेशिक इतिहासकारों ने भारतीय मध्ययुग का इतिहास जिस रूप में निर्मित किया था, ये फिल्में उससे भिन्न ढंग का इतिहास रच रही थीं। राष्ट्रवादी प्रभाव इन पर भी था, लेकिन वे मध्ययुग को अंधकार युग के रूप में पेश नहीं कर रहे थे जैसाकि औपनिवेशिक इतिहासकार कर रहे थे। इस दौर के शासकों पर बनी फिल्मों का मकसद उनकी वीरता और अपराजेयता का गुणगान करना नहीं वरन समानता और सहिष्णुता की भावना पर आधारित एक न्यायकारी व्यवस्था पर बल देना था। महत्त्वपूर्ण यह है कि हुमायूं, अकबर, शाहजहां आदि मुगल शासकों को वे विदेशी शासकों के रूप में नहीं वरन भारतीय शासकों के रूप में ही पेश कर रहे थे। चंडीदास, विद्यापति, संत तुकाराम, संत ज्ञानेश्वर, मीरा, संत पोतना आदि पर बनी फिल्मों का मकसद धर्म का प्रचार करना नहीं था बल्कि धार्मिक कट्टरता और रूढि़वाद के विरुद्ध धार्मिक सहिष्णुता, जाति और धर्म की संकीर्णता से ऊपर उठकर मानवीय एकता और भाईचारे की भावना पर बल देना था। निश्चय ही 1930 से पहले की पौराणिक फिल्मों से भिन्न यह महत्त्वपूर्ण बदलाव था और इस दृष्टि से यह प्रगतिशील कदम भी था।

सामाजिक समस्याओं की अभिव्यक्ति

इस दौर में सामाजिक समस्याओं पर भी कई फिल्में बनीं, जिनका मूक सिनेमा के दौर में लगभग अभाव था। अछूत समस्या, विधवा विवाह, अनमेल विवाह, बाल विवाह, वेश्यावृत्ति आदि समस्याओं पर साहसपूर्ण फिल्में बनायी गईं। किसानों, मजदूरों, बेरोजगारों आदि के जीवन की समस्याओं को भी फिल्मों का विषय बनाया। पहली बार साहित्य की कई रचनाओं का फिल्मांतरण किया गया। रवींद्रनाथ ठाकुर, बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, शरतचंद्र चट्टोपाध्याय, प्रेमचंद आदि लेखकों की रचनाओं पर फिल्में बनीं। प्रेमचंद के उपन्यास पर 1938 में तमिल में सेवासदन के नाम से फिल्म बनायी गई। हिंदी और उर्दू के कई लेखक फिल्मों से जुड़े। यह भी उल्लेखनीय है कि मराठी और बांग्ला में बनने वाली बहुत सी फिल्में साथ ही साथ हिंदी में भी बनती थीं। यहां तक कि 1945 में तमिल में बनी मीरा फिल्म को साथ ही साथ हिंदी में भी बनाया गया था। इसी दौर में कई ऐसे फिल्मकार भी सामने आये जिन्होंने सामाजिक समस्याओं पर फिल्म बनाना ही अपना लक्ष्य बनाया। 1930 के दशक में होने वाले इन परिवर्तनों ने ही कई गंभीर लेखकों को फिल्मों के लिए लिखने को प्रेरित किया। हिंदी-उर्दू के महान लेखक प्रेमचंद 1934 में इस आशा से मुंबई पहुंचे थे कि वे स्वतंत्र लेखन और पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन द्वारा जिन आर्थिक दुश्वारियों में फंसे रहते हैं, उन्हें उससे कुछ हद तक मुक्ति मिलेगी। उन्होंने मुंबई में रहकर मोहन भवनानी की फिल्म मजदूर की पटकथा लिखी। लेकिन फिल्मों का यह अनुभव प्रेमचंद को ज्यादा रास नहीं आया। प्रेमचंद ने थोड़े समय में ही फिल्मी दुनिया की बुनियादी कमजोरियों को पहचान लिया था। बलराज साहनी सहित कई अन्य लेखकों का अनुभव भी फिल्मी दुनिया के बारे में इससे कुछ अलग नहीं था। प्रेमचंद के इन कटु अनुभवों के बावजूद फिल्मों से साहित्यकारों के जुडऩे का सिलसिला लगातार चलता रहा। जिस वजह से प्रेमचंद फिल्मों से जुड़े थे, वह वजह लेखकों को फिल्मों की तरफ आकृष्ट करती रही लेकिन सिर्फ यही कारण नहीं था। इस माध्यम में निहित रचनात्मक संभावना और व्यापक समुदाय तक पहुंचने की क्षमता ने भी लेखकों को इसकी ओर खींचा। दृश्य माध्यम होने के कारण सिनेमा उन लोगों तक भी पहुंच सकता था जो पढऩा-लिखना नहीं जानते थे। लेकिन इस माध्यम के साथ कठिनाई यह थी कि इसका निर्माण और प्रदर्शन साहित्य लेखन और उसके प्रकाशन की तुलना में कहीं ज्यादा महंगा था। यहां तक कि नाटकों की तुलना में भी यह बहुत महंगा था। फिल्म बनाने के लिए जितने निवेश की जरूरत थी, उसका प्रबंध करना आसान नहीं था।ऐसी स्थिति में यह बहुत जरूरी था कि फिल्मकार मनोरंजक फिल्म के जरिए ही उन संदेशों को अभिव्यक्त करने का रास्ता भी ढूंढे जिन्हें साहित्य अपने ढंग से अभिव्यक्त कर रहा था।

वामपंथ का उदय और इप्टा का योगदान

1930 के बाद के दौर में राजनीति में ही नहीं साहित्य में भी परिवर्तन हो रहा था। समाज सुधार और देशभक्ति की जिन भावनाओं को साहित्य अभिव्यक्ति दे रहा था, उसे वामपंथ के उदय ने एक ठोस वैचारिक आधार प्रदान किया। अब तक मुक्ति की इच्छा बहुत कुछ अमूर्त रूप में ही व्यक्त हो रही थी। राजनीतिक मुक्ति के बाद का भारत कैसा होगा, यह अभी न राजनीति का और न साहित्य रचना का ठोस मुद्दा बना था। लेकिन जनता की बढ़ती भागीदारी के साथ ये प्रश्न भी आकार लेने लगे थे और साहित्य में भी इन्हें विषय बनाया जाने लगा था। 1917 की बोल्शेविक क्रांति और उसके बाद की विश्व घटनाओं का असर भारत पर भी पडऩा स्वाभाविक था। क्रांति के बाद सोवियत संघ जिस तरह के बदलाव के दौर से गुजर रहा था, उसकी ओर भी भारत जैसे देश उत्सुकता से देख रहे थे। भारतीय लेखकों के वामपंथ की ओर बढ़ते झुकाव ने ही 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना के लिए पृष्ठभूमि तैयार की थी। प्रगतिशील लेखक संघ लेखकों का एक ऐसा व्यापक संगठन था जिसमें उन सब लेखकों के लिए गुंजाइश थी जो स्वतंत्रता, समानता, लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों में विश्वास करते थे और जो किसी भी तरह के शोषण और उत्पीडऩ का विरोध करना अपना कर्तव्य समझते थे।यह संगठन किसी भाषा विशेष या क्षेत्र विशेष तक सीमित नहीं था। भारत की लगभग सभी प्रमुख भाषाओं के लेखक इससे जुड़े थे। अगले कुछ सालों में देश के हर हिस्से में लेखक संगठन की गतिविधियों का विस्तार हुआ। यह विस्तार सिर्फ लेखकों तक सीमित नहीं था बल्कि संस्कृति के अन्य क्षेत्रों में भी इसका असर देखा जा सकता था। संगठन के इसी विस्तार ने नाटकों के मंचन के लिए एक सहयोगी संगठन बनाने की आवश्यकता महसूस की जाने लगी। 1943 में मुंबई में भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) की स्थापना की गई। इप्टा की गतिविधियों का भी विस्तार हुआ और कई लेखक और रंगकर्मी इप्टा की गतिविधियों से जुड़ते चले गए थे। इन गतिविधियों के विस्तार के साथ ही इप्टा के संस्कृतिकर्मियों ने महसूस किया कि इप्टा को फिल्म निर्माण की ओर भी गतिशील होना चाहिए।

इप्टा के साथ बहुत गहरे रूप से जुड़े उर्दू के कथाकार ख्वाजा अहमद अब्बास 1940-41 से फिल्मों से भी जुड़े थे। वे पहले से ही पत्रकार के रूप में फिल्मों की समीक्षा लिखते रहे थे और उन्होंने 1941 में बांबे टॉकीज की फिल्म नया संसार के लिए ज्ञान मुखर्जी के साथ मिलकर पटकथा लिखी थी। इसी तरह उर्दू के प्रख्यात कथाकार सआदत हसन मंटो ने 1937 में किसान कन्या फिल्म की पटकथा और संवाद लिखे थे। पृथ्वीराज कपूर जो 1929 से फिल्मों में अभिनय कर रहे थे और जिन्होंने पहली सवाक फिल्म आलमआरा में भी काम किया था, अपनी लोकप्रियता के शिखर पर रहते हुए 1944 में पृथ्वी थियेटर्स के नाम से नाटकों के मंचन की संस्था बनायी। पृथ्वी थियेटर्स के साथ इप्टा के भी कलाकार जुड़े थे। उन्होंने पठान, किसान, गद्दार, दीवार आदि कई नाटक खेले जो काफी प्रसिद्ध हुए इस तरह के कई संगठन देश के और क्षेत्रों में भी काम कर रहे थे।

1946_Dharti-ke-lalइप्टा के अपने प्रयत्नों से 1946 में धरती के लाल फिल्म का निर्माण हुआ। इसी साल इप्टा से जुड़े चेतन आनंद ने इप्टा के सहयोग से ही नीचा नगर फिल्म बनायी। यह फिल्म उसी साल केन्स फिल्म समारोह में दिखाई गई और उसे दो अन्य फिल्मों के साथ सर्वोत्तम फिल्म का पुरस्कार प्राप्त हुआ। विश्व के किसी भी समारोह में पुरस्कृत होने वाली यह पहली भारतीय फिल्म थी। इसके अतिरिक्त इसी साल प्रदर्शित होने वाली वी. शांताराम की फिल्म डॉ. कोटनीस की अमर कहानी में भी इप्टा से जुड़े कलाकारों का सहयोग था। हिंदी सिनेमा की प्रगतिशील और यथार्थवादी धारा से इन फिल्मों का बहुत गहरा संबंध है। इन फिल्मों से पहले भी कई फिल्में किसानों और मजदूरों की समस्याओं पर और समाज में व्याप्त वर्ग विभाजन पर बन चुकी थीं। लेकिन स्पष्ट राजनीतिक परिप्रेक्ष्य के साथ बनने वाली पहली फिल्में धरती के लाल और नीचा नगर ही थीं। इस दृष्टि से इन दोनों फिल्मों का ऐतिहासिक महत्त्व है। दोनों फिल्मों पर पश्चिम के यथार्थवाद का असर साफतौर पर देखा जा सकता है। लेकिन ये फिल्में उनका अनुकरण नहीं हैं। इसके विपरीत भारत की लोकनाट्य परंपरा के अनुरूप इनमें नृत्य और गीतों का सहारा भी लिया गया है। कुछ हद तक फिल्मों की मेलोड्रामाई शैली को इन फिल्मकारों ने भी अपनाया।

अगले भाग में जारी ...

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