शिवानी चोपड़ा
नगरवधुएं अखबार नहीं पढ़तीं: अनिल यादव; पृष्ठ:112; मूल्य : रु. 100 ; अंतिका प्रकाशन
ISBN 9789380044675
कथा अपने समय को भाषा में लिखने का आख्यान है। यही कोशिश इस संग्रह की पहली कहानी में भी की गई है। बनारस जैसे पुराने, परंपरावादी और धार्मिक संस्कृति और ठगी से लैस परिवेश, जिसे कहानी में काशी कहा गया है, की नगरवधुओं के नैरेटिव को प्रस्तुत किया गया है। वे पूरे नगर की वधुएं थीं और आज उन्हें ही नगर से बाहर निकाला जा रहा है। कहानी संग्रह विमर्श के वैचारिक फ्रेमवर्क को तोड़कर सामाजिक यथार्थ को उसके आरपार देखने की कोशिश करता है। स्त्री, दलित, अल्पसंख्यक, अवसरवादी राजनीति और उदारीकरण के दौर में पिछड़ा साधारण आम आदमी जो अलगाव का शिकार होता जा रहा है—इन सभी पर केंद्रित कहानियां इस संग्रह में मिलती हैं।
कहानियों का यह पहला संग्रह लेखक ने तमाम वेश्याओं को समर्पित किया है। इसी से कहानियों में अभिव्यक्त विषयवस्तु का अंदाजा लगाया जा सकता है। इसका आवरण प्रसिद्ध चित्रकार अशोक भौमिक ने बनाया है, यह चित्र एक खड़े हुए बैल का है, जो अपनी जगह से हिल नहीं सकता। यह बैल अपने ही बोझ से परेशान और त्रस्त, अपने सींग निकाले आक्रमण करने के लिए तैयार है, जो प्रतीक है उस विशाल युद्धरत परिस्थिति का जो टस से मस नहीं हो रही, जिसे बदल पाना अब स्वप्न में भी संभावित नहीं लगता। इस संग्रह में छह कहानियां हैं, जिनके विषय प्रौढ़ और जटिल हैं। आज जब आलोचना के टूल्स ही कथा साहित्य के विषय तय कर रहें हैं तब रचनाकार के लिए यह एक चुनौतीपूर्ण काम हो जाता है कि वह कैसे विषयों में नयापन रचे जिससे पाठक के मन में कौतुक व जिज्ञासा बनी रहे। लेकिन इस संग्रह की सभी कहानियों में हमारे आसपास लगातार बदल रहे यथार्थ को एक खबरी और खोजी की तरह भेदने की कोशिश की गई है। इनमें विमर्शवाद से आगे बढ़ कर वास्तविकता की त्रासदियों को ह्युमर का टच दिया गया है। कहानी-संग्रह का शीर्षक संग्रह की पहली कहानी 'नगरवधुएं अखबार नहीं पढ़ती' पर आधारित है।
कहानी की शुरुआत फोटो जर्नलिस्ट प्रकाश के दु:स्वप्न से होती है जिसमें एक कैप्शन दिया गया है, यह कहानी को नई तकनीक में ढालता है। ' सैकड़ों नंगी, मरियल, उभरी पसलियों वाली कुलबुलाती औरतें.....' यह दृश्य एक पुराने शहर की अभावग्रस्त व बेहद गरीब वेश्याओं का है। ये वेश्याएं शरीफों के मुहल्लों को खराब कर रहीं हैं, तब वेश्याएं पूछतीं हैं कि हमें बनाने और बसाने वाला कौन है? वेश्यावृत्ति के कलंक को मिटा देने वाले नेताओं, सरकारी किस्म के समाजसुधारकों व महिला एक्टिविस्टों को बेनकाब किया गया है। मंड़ुवाडीह की बस्ती से वेश्यावृत्ति को खत्म करने का उनके पास एक ही उपाय है कि वेश्याएं शहर छोड़ दें, धर्म और संस्कृति की राजधानी में अचनाक कुछ ऐसा बदलाव आया कि सरकार अब इस कलंक को और बर्दाश्त नहीं कर सकती थी। काशी की पूरी संस्कृति और भाषा में ही विरोधाभास है। इन वेश्याओं की चर्चा करना अखबार में वर्जित है, अगर नाम दिया भी जाता है तो मां या बहन कह कर संबोधित किया जाता है। कहानीकार ने इसे आचार्य चतुरसेन शास्त्री के जमाने की बची हुई जूठन कहा है। 'अपहरण की जगह बलान्नयन, बलात्कार की जगह शील भंग जैसे प्रयोग प्रचलित थे, सूट के नीचे जनेऊ की तरह अखबारों के व्यक्तित्व में ये शब्द छिपे हुए थे।'
आधुनिक और पुरातनपंथी विचारों के घालमेल वाली इस व्यवस्था में सभ्य समाज की खोखली नैतिकता, कानून, राजनीति और धर्म के चरित्र में व्याप्त विरोधाभास वास्तव में रिफलैक्सिव हैं, जो इन संरचनाओं की बनावट में रचे-बसे और बुने हुए हैं। वेश्यावृति अपने आप में एक अपराध या एक समस्या नहीं है, यह इस व्यवस्था की एक संरचना है। ऐसी व्यवस्था जिसमें गुलामी, भेदभाव और कई तरह की असमानताएं हैं , वहां नैतिकता के मिथक गढ़े जाते हैं परंतु असली चेहरा क्रूर और हिंस्र है। इसकी झलक इन कहानियों में भी मिलती है, जैसे- 'नौकरशाही और धर्म का संबंध अरहर और चने के पौधों जैसा अन्योन्याश्रित है।' या... 'धर्म की छतरी के नीचे यहां आधुनिक और पुरातन , वैराग्य और ऐश्वर्य, धंधे और अध्यात्म, सहजता और तिकड़म ईश्वर की उपस्थिति में इस कौशल से आपस में घुल-मिल जाते हैं कि कहीं कोई जोड़ नजर नहीं आता। जो जितने शक्तिशाली और संपन्न दिखते हैं उनकी आत्मा उतनी ही खोखली और असुरक्षित हो जाती है।' एक शहर के भी कई हाशिए होते हैं, ये नगरवधुएं न केवल इसलिए बहिष्कृत हैं क्योंकि ये देह-व्यापार करती हैं, बल्कि इसलिए भी क्योंकि ये अत्यधिक गरीब और लाचार भी हैं। इनके माध्यम से सामाजिक-आर्थिक लेन देन वाले सत्ता संबंधों के जटिल तंत्र को बेपर्दा किया गया है। आज जब यह बताना मुश्किल हो गया है कि कौन असामाजिक है और कौन राजनीतिक, वहां उत्पीडि़त और अभावग्रस्त वर्ग के आंदोलन को कमजोर करना आसान हो जाता है। वेश्याएं शहर से उजाड़े जाने के विरोध में आंदोलन करती हैं पर उन्हें शहर से बाहर पुन:स्थापित करने और देह व्यापार की जगह रोजगार के नए धंधों में लगवाने के सरकारी वादे किए जाते हैं। परंतु वेश्याएं सरकारी संस्थानों के संरक्षण का उपहास उड़ाती हैं, और वापस अपने धंधे पर लौटने की विनती करती हैं।
अखबार की खबर जिन विवरणों को बताने से परहेज करती है, प्रकाश का कैमरा उन्हें देखता है। वेश्याओं के आंदोलन की कोई खबर अखबार में नहीं छप पाती पर वे अपने अनुभव से जानती हैं कि उनका आखिरी हक, उनकी देह भी अब वे नहीं बेच पाएंगी। उनकी जिस बस्ती से पुलिस हफ्ता वसूल करती थी, उसी पर बुलडोजर चलाया जाएगा। सभ्य समाज की ओड़ी हुई नैतिकता तब पूरी तरह से झूठी साबित होती है जब वेश्याएं कहती हैं कि उनके कोठों पर आने वालों में बाप भाई जैसा कोई रिश्ता या सामाजिक दबाव नहीं रहता है, और न ही हिंदू मुसलमान होने का कोई फर्क रहता है। शहर के अंदर कई शहर होते हैं जहां विस्थापन और भूमि अधिग्रहण किया जाता है। पर सारा सूचना तंत्र इस हेर फेर की दास्तान को दफन कर बैंगन के पत्तों पर अल्लाह के हस्ताक्षर, खीरे में से भगवान का निकलना और गणेश जी का दूध पीना जैसी फूहड़ और झूठी खबरें देता है। अखबार और वेश्याएं एक दूसरे से अलग नहीं, दोनों बाजार में बिक रहें हैं, गलत तरीके से और उनका सच या तो अधूरा बताया जाता है या सामने ही नहीं आ पाता।
संग्रह की अन्य कहानियां अपने शिल्प में पहली कहानी से अपेक्षाकृत छोटी हैं। 'दंगा भेजियो मौला' में गरीबी और गंदगी का ऐसा चित्र प्रस्तुत किया है जो बदहाली की सारी सीमाओं को तोड़ देता है। शहर से बाहर गंदे नाले पर बसी उजाड़ बस्ती समाज का वीभत्स यथार्थ है। जिंदगी की ऐसी बदतर स्थिति जहां शायद कोई इसलिए जी रहा है कि जिंदा है। सामुदायिक सौहार्द का लिटमस टैस्ट क्यों फेल हो जाता है, इस विडम्बना का यथार्थ अपने से बड़ी त्रासद स्थिति का खुलासा करता है। जिंदगी बसर करने की स्थिति उस अमानवीय अवस्था में पहुंच गई है कि हिंसा शब्द उसके आगे छोटा जान पड़ता है। दंगा, सांप्रदायिक तनाव और राजनीति इस भीषण स्थिति से निपटने के लिए उपाय के रूप में सामने आते हैं। राजनीति, दंगा, मुसलमान जैसे शब्द समाज में प्रतीक बन गए हैं, इन्हें इसी रूप में देखने का आदी हो चुका समाज वास्तविकता से लगातार दूर होता जा रहा है। साहित्य की संरचना यथार्थ के इस क्रूर चेहरे को पढऩे व अर्थ देने की कोशिश करती है। मोमिनपुरा इलाके का भी कुछ ऐसा ही हाल है जिसकी खबर लेने कोई सरकारी मुलाजिम या राजनेता तभी आता है जब कोई बड़ी राजनितिक खबर बनती है जैसे दंगा या सांप्रदायिक हिंसा जैसी घटनाएं हो जाएं। वहां रहने वाले लोग अपने अनुभव से जानते हैं कि कस्बे की बदहाली को सुधारने का एक ही उपाय है — दंगा। 'दंगा भेजियो मोरे मौला', वरना हम सब इस नर्क में सड़ कर मर जाएंगे। गू-मूत में लिथड़ कर मरने की जिल्लत से बेहतर है कि खून में डूब कर मरें।
'लोक कवि का बिरहा' दलित समुदाय के जीवन से जुड़ी कहानी है। बिरहा गाने वाला लोक कवि रामजनम गांव से शहर जाने, सरल-साधारण जीवन से राजनीति में प्रवेश करने, अभाव से अवसरवाद की ओर जाने की कीमत चुकाता है। वह जीवन के हर अनुभव व अवसर पर बिरहा गा सकता था। उसकी यही कला उसे लोकप्रिय बनाती है और दलित पार्टी की राजनीति में विधायक बनाती है, जहां वह अपमान और अवहेलना सहता है। शहर की चकाचौंध और बाजारूपन उससे गीतों का असली रूप भी छीन लेते हैं। पहले इन गीतों में चिबिल्लापन और हंसी थी, जीवन के हर मौके पर गाए जाते थे- विवाह, बरही, तेरही, गृहप्रवेश, कराहा, यज्ञ, दुकान का उद्घाटन या कोई प्रेम प्रसंग लेकिन अब शहर में बिरहा-लोकगीत राजनीति, विवाद, दंगे, दुर्घटना से लेकर अखबार की खबरों और फिल्मी धुनों का घोल था। जो बिरहा व्यंग्य का, विरोध का और हास्य का प्रतीक था, जिसका स्वरूप अब बदल चुका था। यह कहानी रामजनम के ग्रामीण दलित जीवन के माध्यम से भ्रष्ट राजनीति, सांस्कृतिक बदलाव और उसके वस्तुकरण पर व्यंग्य है।
'लिबास का जादू', 'उस दुनिया को जाती सड़क' और अंतिम कहानी 'आर.जे साहब का रेडियो ' पहली तीन कहानियों की अपेक्षा भिन्न इस अर्थ में हैं कि इनमें सीधे-सीधे अभावग्रस्तता नहीं है, जितना कि संवेदन-शून्यता या सेंसेबिलिटी के विकसित न होने से पैदा होने वाली समस्याओं को दिखाया गया है। नलिन बाजार के माया जाल से अपनी पहचान तय करता है या कहें बाजार ही उसके लिए सब तय कर रहा है और उसकी अपनी स्वतंत्र सोच को घुन की तरह खाए जा रहा है। नीलिमा सामान्य इच्छाओं को पूरा करने का तरीका जानती है, 'मैं इन कमीजों की तरह तुम्हारे साथ सडऩा नहीं चाहती... मैं जीना चाहती हूं' । शहर के उन्मुक्त परिवेश में भी प्रेम के असफल हो जाने की कहानी 'लिबास का जादू' दरअसल वस्तुकरण और बाजार के हावी हो जाने से सेल्फ के विभाजित हो जाने की ओर इशारा करती है।
'उस दुनिया को जाती सड़क', कहानीकार के बचपन, गांव, उसके आसपास के जंगल और कच्ची सड़क की ओर जाने वाली दुनिया है, जो अब लुप्त हो गई है। नब्बे के दशक के पहले की दुनिया और मुक्त बाजार, निजीकरण के दौर की तेज रफ्तार से बदलती दुनिया के फर्क को कहानी में दर्ज किया गया है। इन दो युगों के बीच का अंतर लेखक के अपने अनुभव से जुड़ा हुआ है। बचपन का गांव, मौसी का घर, जंगल और घास की महक, हैंडपंप के हैंडिल का स्वाद- यह सब एक स्मृति में तब्दील हो चुका है। दूसरी ओर बनती हुई सड़क थी, जिसे बचपन में बनते देखा था पर किस तरफ जाएगी यह सड़क? यह एक सवाल था, जो अब भी एक महत्त्वपूर्ण सवाल है कि हम विकास के किस मॉडल को अपनाते हुए अपने बचपन की स्मृतियों से पीछा छुड़ा रहे हैं। क्योंकि अब ... 'नाना का वह गांव अतीत में लुप्त हो चुके किसी ग्रह के अवशेष सा लगता है।'
आर.जे साहब का रेडियो एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी में काम करने वाले मुलाजिम के जीवन के खोखलेपन पर केंद्रित है। मध्यवर्ग का एक बड़ा हिस्सा ऐसी ही खोखली और उबाऊ जिंदगी जी रहा है। वे अपने ही शहर के हाशिए पर बसे कस्बे की गंदगी और गरीबी से अनजान हैं। वह अपनी परेशानियों में इतना कैद है कि उसकी संवेदना उस अभावग्रस्त जीवन की मुश्किलों को पहचानना तो दूर एक नजर देखने की कोशिश भी नहीं करते। ऐसा वर्ग नौकरी तरक्की, ट्रांसफर, विदेश यात्रा, बोनस, शेयर मार्किट के उतार-चढ़ाव से लेकर बदलती सरकार और अवैध संबंधों के किस्सों में फंसा रहता है। अचानक एक दिन इस जीवन की ऊब और क्रम को तोड़ते हुए वे शहर के बाहर बसी आबादी की दुनिया में प्रवेश करते हैं। यह आबादी चूहे, कुत्ते और बूचडख़ानों से फैंके छीछड़ खाती है, जो लगातार बढ़ती जा रही है और अब सारे शहर में धुस कर कब्जा कर रही है। पर शहर की खूबसूरती को ध्वस्त करने वाली यह आबादी अपने बहुमत से भय उत्पन्न करती है कि आर.जे साहब जैसे वर्ग की दुनिया मिटती जा रही है। इसलिए जिस घर और नौकरी से वे भागे थे, उस सुरक्षा के घेरे में पुन: लौट जाते हैं, अपनी बीवी व बेटी के पास और पहले की तरह रेडियो सुनने लगते हैं।
वर्चुअल दुनिया, अखबार और रेडियो सूचना के ये सभी तंत्र विस्मृति पैदा करने वाले यंत्र हैं। जो आम समाज के समक्ष सच का पूरा विवरण नहीं देते और काल्पनिक दुनिया के रहस्य और छद्म से सत्ता के भ्रष्ट और झूठे तंत्र को मजबूत करते जाते हैं। वर्चुअल दुनिया में चमक, रोशनी की चकाचौंध और भरपूर संपन्नता और विलास के माया जाल को सच्चाई समझने वाला वर्ग यह भूल जाता है कि यथार्थ का असली चेहरा क्रूर और वीभत्स है जिसे साहित्यकारों का भी एक छोटा भाग अभिव्यक्त करने की दृष्टि रखता है। अलग और नया कहने की दौड़ में जटिल विषयवस्तु को जटिल भाषा या शिल्प से सजाना आवश्यक नहीं। कहानीकार की भाषा शैली कहानी की उम्र को बढ़ाती है। इसलिए लेखक उसे जितना जमीन से और पाठक के मानस से जोड़ेगा, कहानी उतनी ही स्फूर्त, ऐंद्रिय और सफल होगी।
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