सुरक्षा-सुविधा की गारंटी दीजिये रेलमंत्री
केवल एक चौथाई दुरी पर विद्युत् ट्रेनें
देश के रेलमंत्री पवन कुमार बंसल आज संसद में रेल बजट पेश करेंगे. रेलमंत्री से लोगों की ढेर सारी अपेक्षाएं भी हैं. आमजन की सर्वाधिक दिलचस्पी रेल किराए और सुरक्षा-सुविधाओं को लेकर है. लोगों के मन में यह आशंका बनी हुई है कि डीजल मूल्य में वृद्धि से रेल किराए में वृद्धि हो सकती है...
अरविंद जयतिलक
पिछले दिनों रेल किराए में जब वृद्धि की गयी तो रेलमंत्री ने भरोसा दिया कि बजट सत्र में पुनः रेल किराए में वृद्धि नहीं की जाएगी, लेकिन बजट पेश करने से एक दिन पहले रेलमंत्री ने 25 फरवरी को रेल किराए में वृद्धि का संकेत दे दिये. कोई दो राय नहीं कि एक दशक से रेल किराए में वृद्धि न होने से रेल खस्ताहाल में है. उसका घाटा लगातार बढ़ता जा रहा है. लेकिन इसके लिए आमजन दोषी नहीं है. सच यह है कि रेल की दुर्दशा के लिए सरकार की नीतियां और रेल मंत्रालय की कार्यप्रणाली जिम्मेदार है.
सवाल रेल किराए में वृद्धि तक ही सीमित नहीं है. सवाल यह है कि क्या रेल मंत्री किराए में वृद्धि के साथ यात्रियों की सुरक्षा और सुविधाओं का भी विस्तार करेंगे? क्या आए दिन हो रहे रेल हादसों पर लगाम लगेगा? क्या रेल से जुड़ी आधारभूत परियोजनाएं जो अभी तक अधूरी हैं वह पूरी होंगी? ढेरों ऐसे सवाल हैं जिनका उत्तर रेलमंत्री को रेल बजट में देना होगा.
भारतीय रेल एशिया का सबसे बड़ा और एक प्रबंधन के तहत दुनिया का सबसे बड़ा नेटवर्क है. लेकिन सेवा और गुणवत्ता के मामले में उसका रिकार्ड बेहद घटिया और असंतुष्टों करने वाला है. पिछले वर्षों में सैकड़ों रेल हादसे हो चुके हैं. इन हादसों में हजारों लोगों की जानें जा चुकी है. दुर्घटना की मुख्य वजह ट्रेन का पटरी से उतरना, रेलवे स्टाफ व उपकरणों की विफलता, टक्कर एवं तोड़फोड़ रहा है. लेकिन उसे सुरक्षित रखने का कोई सार्थक उपाय नहीं ढुंढा जा सका है. हर दुर्घटना के बाद समितियों का गठन होता है और इंफ्रास्ट्रक्चर को मजबूत करने का राग अलापा जाता है. लेकिन समितियों की सिफारिशों कुड़ेदान का हिस्सा बनकर रह जाती हैं. कारण धन की कमी बताया जाता है.
वर्ष 1962 में कुंजरु कमेटी का गठन हुआ. इस समिति ने 359 सिफारिशों दी. 1968 में गठित बांचू समिति ने 499 सिफारिशों के साथ रेल दुर्घटनाओं के लिए रेल कर्मचारियों को जिम्मेदार माना और रेलवे ट्रैक की अल्ट्रासोनिक जांच की सिफारि'ा की. लेकिन सिफारिशों को दरकिनार कर दिया गया. 1978 में गठित सीकरी समिति ने रेलवे संरक्षा पर 484 और 1998 में गठित खन्ना समिति ने 278 सुझाव दिए. इनके द्वारा विशेष रेल संरक्षा कोश की स्थापना की बात कही गयी. लेकिन आज तक उसका अनुपालन नहीं हुआ. 2011 में गठित काकोदकर समिति ने संरक्षा कार्यों पर एक लाख करोड़ रुपए खर्च करने की बात कही. साथ ही रेल ट्रैक से लेकर सिग्नल प्रणाली, रोलिंग स्टाक, नई तकनीकें एवं नए उपकरणों को चुस्त-दुरुस्त करने की सलाह दी. इसके अतिरिक्त अनुसंधान ढांचे में वि'वस्तरीय बदलाव पर जोर दिया.
तकरीबन हर सिफारिशों में कहा गया कि रेलवे का मौजूदा ट्रैक ज्यादा वजन ढोने वाली मालगाडि़यों के अनुकूल नहीं है. अंतर्राष्ट्रीय स्तर की मजबूत पटरियां बिछाकर इसे चुस्त-दुरुस्त किया जा सकता है. रेल इंजन, वैगन और डिजायन सब पुराने पड़ चुके हैं. इन्हें आधुनिक रुप दिया जाना जरुरी है. काकोदकर समिति ने रेलवे में कलपुर्जों की खरीद और उनकी गुणवत्ता पर भी सवाल उठाया. समिति ने कहा है कि सैकड़ों साल पुराने पड़ चुके रेल पुल बेहद खतरनाक स्थिति में हैं और भयंकर दुर्घटनाओं को न्यौता दे रहे हैं. यथाशीघ्र उनका पुनर्निमाण किया जाना जरुरी है.
समिति ने आश्चर्य व्यक्त किया कि 14000 से अधिक रेलवे क्रासिंगों पर सुरक्षा का कोई बंदोबस्त नहीं है. सलाह के तौर पर समिति ने यहां चैकीदार या ओवरब्रिज बनाने की बात कही. लेकिन उसका अनुपालन होगा कहना कठिन है. हर दुर्घटना के बाद ट्रेन प्रोटेक्शन एंड वार्निंग सिस्टम यानी टीपीडब्लूएस को लागू करने की जुगाली की जाती है. लेकिन आज तक उसे लागू नहीं किया गया. जबकि उसका ट्रायल हो चुका है. जो सबसे बड़ा सवाल है वह आधुनिकीकरण पर खर्च होने वाले धन की उपलब्धता की. जो रेलवे के पास नहीं है.
जानकर आश्चर्य होगा कि उसकी पुरानी संपत्तियों को बदलने के लिए मूल्यह्नास आरक्षित निधि यानी डीआरएफ में डालने के लिए भी पैसा नहीं है. कुछ यही हाल उसके विकास निधि का भी है. यह किसी से छिपा नहीं है कि रेलवे को चुस्त-दुरुस्त बनाए रखने के लिए हर साल रेल बजट के माध्यम से नई नीतियों और महत्वपूर्ण योजनाओं की घो"ाणा कर दी जाती है. ट्रेनों की संख्या बढ़ायी जाती है. राजनीतिक लाभ के लिए कई परियोजनाओं सहित रुट विस्तार का वादा किया जाता है. लेकिन पैसे के अभाव में सभी घोषणाएं और योजनांए दम तोड़ देती हैं. रेलवे की हर रोज कमाई तकरीबन 245 करोड़ रुपए से अधिक है. लेकिन खर्च उससे भी अधिक.
रेल रुट तकरीबन 63000 किलोमीटर है. लेकिन धनाभाव के कारण केवल 16000 किलोमीटर विद्युतीकरण कार्य हो सका है. धन की कमी के कारण नए रेल रुट का विस्तार नहीं हो रहा है. स्टेशनों पर बुनियादी सुविधाएं नदारद हैं. खानपान की शिकायतें कई बार सतह पर आ चुकी हैं. रेल डिब्बों में साफ-सफाई की हालत गंभीर है. आज से पांच साल पहले रेलवे के पास 20000 करोड़ रुपए से अधिक का सरप्लस हुआ करता था. लेकिन आज रेल आर्थिक तंगी में है. धनाभाव के कारण हाईस्पीड कारीडोर, वल्र्ड क्लास स्टेशनों, डेडीकेटेड फ्रेट कारिडोर, नए इंजन एवं रेल कोच कारखानों समेत कई परियोजनाएं ठप्प पड़ी हैं.
संभावना जतायी जा रही थी कि निजी क्षेत्र की भागीदारी से परियोजनाओं को गति देने में मदद मिलेगी लेकिन वह भी ढाक का तीन पात साबित हुआ है. रेलवे की वित्तीय स्थिति बेहद खतरनाक अवस्था में है. एक आंकड़े के मुताबिक 2010-11 में सकल राजस्व प्राप्तियां 89,229 करोड़ रुपए रही. जबकि वर्किंग खर्च 83,685 करोड़ रुपए और वेतन खर्च 51,237 करोड़ रुपए रहा. ऐसे में रेलवे की दुर्दशा को आसानी से समझा जा सकता है. सवाल उठना लाजिमी है कि रेलवे को चाक-चैबंद रखने के लिए सरकार और रेल मत्रालय धन कहां से जुटाएगा? वर्तमान रेल किराया बढ़ाने से सिर्फ 6600 करोड़ का आएगा. विगत एक दशक में संकीर्ण राजनीतिक कारणों की वजह से रेल किराए में वृद्धि नहीं हुई है. जिससे रेल घाटा खतरनाक स्थिति में पहुंच चुका है.
अगर हर साल थोड़ी वृद्धि हुई होती तो आज जनता पर भारी बोझ नहीं पड़ता और न ही रेल को संकट से जुझना पड़ता. इन परिस्थितियों के लिए हमारी सरकारें ही जिम्मेदार हैं. आज जरुरत इस बात की है कि रेल मंत्रालय रेलवे की आमदनी बढ़ाने का समुचित जरिया तलाशें. अनुत्पादक कार्यों में खर्च कम करे. सुरक्षा संबधित अधूरी पड़ी महत्वपूर्ण योजनाओं और यात्री सुविधाओं का विस्तार करे. गाडि़यों की संख्या बढ़ाए. सिर्फ जनता पर बोझ लादने से उसकी समस्या का अंत नहीं होने वाला.
अरविंद जयतिलक राजनितिक टिप्पणीकार हैं.
No comments:
Post a Comment