आदिवासियों के लिए नहीं आकाशवाणी
दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों को भी नहीं स्थान
देश में पिछड़े और अति पिछड़े वर्ग की आबादी 50 फीसदी के आसपास बताई जाती है और उस समाज के लिए भी आकाशवाणी ने सालभर में कोई कार्यक्रम प्रस्तुत नहीं किया गया. यही हाल अल्पसंख्यक समूहों को लेकर भी है...
वरुण शैलेश
पिछले कुछ वर्षों में रेडियो के क्षेत्र में निजी एफएम चैनलों का विस्तार हुआ है. इनका अपना श्रोता वर्ग है, जो शहरों में रहता है. इन एफएम चैनलों के दायरे में ग्रामीण आबादी नहीं आती. ऐसे में देश की वह 70 फीसदी जनसंख्या जो गांवों में रहती है उसकी सूचना को लेकर निर्भरता आकाशवाणी पर बढ़ जाती है. इस लिहाज से राष्ट्रीय लोक प्रसारक के रूप में आकाशवाणी सभी वर्ग के लोगों को सशक्त बनाने को वचनबद्ध है.
मगर यह तभी मुमकिन है जब सामाजिक दायित्व को ध्यान में रखकर आकाशवाणी प्रसारित किए जाने वाले अपने कार्यक्रमों को तैयार करे. चूंकि इसकी पहुंच देश की अधिकतम आबादी तक है, ऐसे में बतौर लोक प्रसारक ऑल इंडिया रेडियो की तस्वीर अपने कार्यक्रमों के जरिए देशभर में मौजूद सभी समुदायों, समूहों, जातियों एवं वर्गीय स्तर पर विभाजित समाज के अभिव्यक्ति की बननी चाहिए. मगर ऐसा हो नहीं रहा है. पत्रकारों के संगठन मीडिया स्टडीज ग्रुप ((एमएसजी) के एक सर्वेक्षण के मुताबिक 'बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय' के तहत आकाशवाणी जो कार्यक्रम प्रसारित कर रहा है, वह उसके तयशुदा लक्ष्यों को हासिल करने के लिए नाकाफी हैं.
प्रमुख लोक प्रसारक आकाशवाणी की होम सर्विस में 299 चैनल हैं, जो 23 भाषाओं और 146 बोलियों में कार्यक्रम प्रसारित करते हैं. आकाशवाणी की पहुंच देश के 92 फीसदी क्षेत्र और कुल जनसंख्या के 99.18 फीसदी आबादी तक है. सर्वेक्षण में आकाशवाणी के समाचार प्रभाग का लिया गया जायजा बताता है कि वह जिन विषय वस्तुओं पर कार्यक्रम तैयार कर रहा है, उससे लोकतांत्रिक उद्देश्यों को पूरा कर पाना नामुमकिन है. समाचार सेवा प्रभाग का अंग्रेजी एकांश समाचार प्रसारण के अलावा समसामायिक विषयों पर चर्चा के तमाम कार्यक्रम तैयार करता है. इन कार्यक्रमों के लिए आकाशवाणी विभिन्न विषय के विशेषज्ञों, पत्रकारों और राजनीतिक दलों के सदस्यों को आमंत्रित करती है.
मगर आमंत्रित विशेषज्ञों या टिप्पणीकारों की सूची और प्रसारण के लिए कार्यक्रम तैयार करने के लिए जिस तरह के विषयों का चुनाव किया जाता है वह आकाशवाणी के एजेंडे पर सवाल खड़ा करता है. दूसरा सवाल- किसान, दलित, आदिवासी, पिछड़े और अल्पसंख्यक जैसे वंचित समाजों के मसलों पर कितने कार्यक्रम बनते और प्रसारित होते हैं. जवाब सिफऱ है. आकाशवाणी के कार्यक्रमों का अवलोकन करें तो इसकी अनुपस्थिति साफ नजर आती है.
लोक अभिव्यक्ति बनने के दायित्व को समझने के लिए आकाशवाणी के नागरिक घोषणा और 2011 के दौरान प्रसारित अंग्रेजी भाषा के कार्यक्रमों की बानगी बदरंग तस्वीर पेश करती है. इससे जाहिर होता है कि एआईआर देश की 99.18 फीसदी जनता को धोखा के सिवा कुछ नहीं दे रही है.
निजी मीडिया शहरी और बहुसांस्कृतिक महानगरों (कॉस्मोपॉलिटन) की आबादी को अपना उपभोक्ता मानते हैं. ऐसे में दूरदराज के इलाकों में रहने वाली आबादी की आकाशवाणी से ज्यादा अपेक्षा रहती है, जिसके जरिए वह अपनी समस्याओं और तकलीफ की वजहों को जानना व उसे साझा करना चाहेगा. मगर आकाशवाणी में आयोजित कार्यक्रमों के विषय वस्तुओं में किसान, दलित-आदिवासी और पिछड़े व अल्पसंख्यक समाज के सवालों का अभाव दिखता है, जबकि प्रसार भारती बहुजन श्रोता की हितैषी होने का दावा पेश करती है.
बहरहाल, ऑल इंडिया रेडियो ने 2011 के दौरान सामयिकी, स्पॉटलाइट, न्यूज एनालिसिस, मनी टॉक, समाचार चर्चा, कंट्रीवाइड और करेंट अफेयर्स के तहत 527 कार्यक्रम प्रसारित किए. मगर इनमें अनुसूचित जाति के मुद्दे पर सात नवंबर 2011 को सिर्फ एक कार्यक्रम 'सरकारी नौकरियों में बढ़ती दलित आदिवासी अधिकारियों की संख्या' को प्रस्तुत किया गया. मतलब इस वर्ग को औसतन 0.19 तरजीह के लायक समझा गया. हालांकि इसे केवल अनुसूचित जाति का मुद्दा कहना भी ठीक नहीं होगा क्योंकि इसके साथ आदिवासी शब्द थी जुड़ा हुआ है, जिनकी जनसंख्या आठ फीसदी से ऊपर है. वहीं देश की कुल आबादी में अनुसूचित जातियों की हिस्सेदारी 15 फीसदी से ज्यादा है.
इसी तरह आकाशवाणी के कार्यक्रम तैयार करने वालों को आदिवासी सवाल नहीं सूझे या उसे समझा नहीं गया, जबकि यह समाज देश में सबसे संकटग्रस्त समाज है जो अपने अस्तित्व पर चौतरफा हमले का सामना कर रहा है. आकाशवाणी ने आदिवासी समस्या को लेकर कोई कार्यक्रम प्रसारित नहीं किए. जबकि आकाशवाणी ने 16 अगस्त, 2011 को 'स्पेशल डेवेलपमेंट प्रोग्राम फॉर नक्सल अफेक्टेड ट्राइबइल डिस्ट्रीक' विषय पर तो एक कार्यक्रम आयोजित किया गया, लेकिन पूरे साल के दौरान अनुसूचित जनजाति की समस्याओं को रेखांकित नहीं किया गया.
आदिवासी बहुल इलाकों को नक्सल प्रभावित बताकर अनुसूचित जनजाति की एक खास छवि गढ़ने की कोशिशें की जाती हैं. बिल्कुल वैसे ही जिस तरीके से किसी आतंकवादी घटना के बाद इस्लाम मानने वालों की छवि बुनी जाती है. हां, एक कार्यक्रम केंद्र के जनजातीय मंत्री वी. चंद्रकिशोर देव के साथ साक्षात्कार का प्रसारित किया गया.
वहीं देश में पिछड़े और अति पिछड़े वर्ग (ओबीसी) की आबादी 50 फीसदी के आसपास बताई जाती है और उस समाज के लिए भी सालभर में कोई कार्यक्रम प्रस्तुत नहीं किया गया. यही हाल अल्पसंख्यक समूहों को लेकर भी है. उनके लिए वर्षभर में महज तीन कार्यक्रम पेश किए गए, जबकि इस समुदाय के दायरे में कई धर्म आते हैं. अल्पसंख्यक का अर्थ सिर्फ मुस्लिम नहीं होता है. इन कार्यक्रमों भी में एक केंद्रीय अल्पसंख्यक मंत्री का साक्षात्कार है.
इसके अलावा महिलाओं के उत्थान की चिंताओं को लेकर वर्ष 2011 के दौरान महज आठ कार्यक्रम प्रस्तुत किए गए. यानी महिलाओं से संबंधित औसतन 1.52 फीसदी कार्यक्रम प्रसारित किए गए. इन कार्यक्रमों में महिलाओं की सुरक्षा और उनके लिए आरक्षण पर आकाशवाणी का ज्यादा जोर दिखा है. चर्चाओ में केवल शहरी महिलाओं की सुरक्षा के प्रति चिंता होती है, मगर ग्रामीण महिलाएं इस दायरे में नहीं आतीं.
इसी तरह सामाजिक न्याय और शोषण से संबंधित 2.28 फीसदी कार्यक्रम मतलब सालभर में 12 प्रोग्राम पेश किए गए. खेतिहर मजदूर और श्रमिक वर्ग के कार्यक्रमों को एक श्रेणी में रखा जिसे 1.32 फीसदी महत्व दिया गया और उनके लिए सात कार्यक्रम पेश किए किए गए. ये कार्यक्रम सीधे श्रमिकों पर केंद्रित न होकर सरकारी योजनाओं के इर्द-गिर्द नजर आते हैं. यह बात स्थापित की गई है कि भारत गांवों में बसता है और देश की कुल 70 आबादी ग्रामीण इलाकों में रहती है.
आधुनिक संचार माध्यमों की जब-जब चर्चा होती है तब-तब रेडियो का जिक्र सबसे पहले आता है. आकाशवाणी की पहुंच कुल जनसंख्या के 99.18 प्रतिशत तक है.7 इस लिहाज से तमाम जनसंचार माध्यमों का दायरा बढ़ने के बादजूद ग्रामीण श्रोताओं तक रेडियो की पहुंच अधिक है और उसे सुना जाता है. मगर फिर भी आकाशवाणी ने वर्षभर में ग्रामीण इलाकों के लिए सिर्फ तीन कार्यक्रम यानी गांव आधारित औसतन 0.57 फीसदी प्रोग्राम प्रसारित किए. शिक्षा से संबंधित 12 कार्यक्रम प्रसारित किए गए, लेकिन इन कार्यक्रमों का रुख शिक्षित और सझदारी भरा समाज बनाने के बजाय कुशल कामागार तैयार करने का है. ज्यादातर कार्यक्रमों में सरकार द्वारा तय तकनीकी पढ़ाई के ढांचे पर बातचीत प्रसारित की गई है.
किन मुद्दों पर कितनी चर्चाएं हुईं-
आर्थिक | 163 | 30.93 |
पर्यावरण | 25 | 4.74 |
शिक्षा | 14 | 2.65 |
प्रदेश | 22 | 4.17 |
अंतरराष्ट्रीय मसले | 97 | 18.40 |
स्वास्थ्य | 24 | 4.55 |
ग्रामीण इलाके | 03 | 0.57 |
दलित | 01 | 0.19 |
आदिवासी | 00 | 00 |
पिछड़ा | 00 | 00 |
अल्पसंख्यक | 03 | 0.57 |
श्रमिक/खेतिहर मजदूर | 07 | 1.32 |
महिला | 08 | 1.52 |
युवा | 05 | 0.95 |
खेल | 12 | 2.28 |
राजनीति | 89 | 16.88 |
सामाजिक न्याय | 12 | 2.28 |
विज्ञान/प्रोद्यौगिकी | 24 | 4.55 |
अन्य | 18 | 3.04 |
कुल | 527 | 100 |
दिल्ली से आकाशवाणी के राष्ट्रीय कार्यक्रमों में देश के सभी प्रदेश अपना प्रतिबिंब तलाशते होंगे, लेकिन उन्हें इसमें निराशा ही हाथ लगेगी. एआईआर ने सालभर में प्रदेशों से जुड़े 22 कार्यक्रम पेश किए जो औसतन 4.17 है. इनमें 12 प्रोग्राम जम्मू कश्मीर पर आधारित हैं. जम्मू कश्मीर चर्चा के दायरे में इसलिए अधिक बार आया क्योंकि उसके लिए डोंगरी व कश्मीरी भाषा में तबसारा नाम से विशेष कार्यक्रम पेश किए जाते हैं. बाकी प्रदेश कार्यक्रमों के दायरे बाहर हैं. एक प्रोग्राम तेलंगाना पर श्रीकृष्णा कमेटी की रिपोर्ट को लेकर प्रसारित किया गया. इसके अलावा पांच राज्यों में चुनाव और उसके नतीजों को लेकर बातचीत की गई है. इस तरह संघ आधारित परिकल्पना पर आकाशवाणी की कार्यशैली को तौला जा सकता है.
इसी तरह युवाओं पर केवल पांच कार्यक्रम पेश किए गए. इसके उलट आकाशवाणी ने आर्थिक मुद्दों पर 136 कार्यक्रम किए जो औसतन 30.93 फीसदी है. इसी तरीके से पर्यारवण पर 25 यानी 4.74 फीसदी कार्यक्रम प्रसारित किए गए. जबकि विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के विषय को भी सामाजिक मसलों से ज्यादा तरजीह दी गई है. लेकिन इसमें भी तकनीकी और सामरिक या मिसाइल परीक्षण पर आधारित कार्यक्रम अधिक हैं. आकाशवाणी ने कम से कम राजनीतिक मगर सत्ता के लिहाज से 89 कार्यक्रम दिए जो औसतन 16.88 प्रतिशत है. विश्लेषण के दौरान अन्य में 15 कार्यक्रम रखे, जिसमें सांकृतिक या भाषा आधारित कार्यक्रम हैं.
वरुण शैलेश युवा पत्रकार हैं.
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