वैष्णव भक्ति आन्दोलन का अखिल भारतीय स्वरुप
कुमार गौरव
भारतीय इतिहास में मध्यकाल राजनीतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक तथा सामाजिक सभी दृष्टि से महत्वपूर्ण था । एक और जहाँ इस्लामी संस्कृति भारतीय सामाजिक संरचना को प्रभावित कर रही थी तो वहीं इसकी पृष्ठभूमि में भक्ति आंदोलन का सूत्रपात भी होता है । साहित्येतिहास में इसे स्वर्णिम काल की संज्ञा दी गई है । "भक्ति आंदोलन ने समय समय पर लगभग पूरे देश को प्रभावित किया और उसका धार्मिक सिद्धांतों, धार्मिक अनुष्ठानों, नैतिक मूल्यों और लोकप्रिय विश्वासों पर ही नहीं, बल्कि कलाओं और संस्कृति पर भी निर्णायक प्रभाव पड़ा।"
उत्तरी भारत में चोदहवीं से सत्रहवीं शताब्दी में फैली भक्ति आंदोलन की उद्दाम लहर समाज के वर्ण, जाति, कुल और धर्म की परिसीमाओं का अतिक्रमण कर सम्पूर्ण जनमानस की चेतना में व्याप्त हो गई थी । जिसने एक जन आंदोलन का रूप ग्रहण कर लिया । "भक्ति आंदोलन में साधक या भक्त के द्वारा मोक्ष प्राप्ति अथवा आत्म – साक्षात्कार के लिए परमात्मा के सगुण या निर्गुण रूप की भक्ति ही नहीं की गई वरन भक्ति के माध्यम से तदयुगीन सामाजिक जीवन में स्थित एक वर्ण या जाति के प्रति कीए गए अत्याचार, अन्याय और शोषण के खिलाफ असहमति और विरोध का प्रदर्शन था । साथ ही उसने जन सामान्य की आशाओं, आकांक्षाओं और आदर्शों की भी अभिव्यक्ति हुई थी ।"
भक्ति आंदोलन के केंद्र में सामाजिक व्यवस्था ही थी। प्राचीनतम रूढ़ियों, कर्मकांडों, वर्णवाद के खिलाफ एक सशक्त विरोध की लहर ही इस आंदोलन के केंद्र में थी । एक ऐसा वैचारिक आंदोलन जो भारतीय जनमानस के लिए पुनर्जागरण का युग भी था ।
भक्ति आंदोलन के जन्म को लेकर साहित्य के इतिहासकारों ने अपने अपने ढंग से तर्क दिये । यह भारतीय साहित्य के इतिहास में ऐसा वैचारिक आंदोलन था जिसकी सबसे अधिक व्याख्या की गई । इस आंदोलन की जड़ें इतनी गहरी थी की इस आंदोलन पर आज तक हर नई दृष्टि से विचार हो रहा है । " जार्ज ग्रियर्सन ने इसे ईसाईयत की देन कहा तो आचार्या रामचंद्र शुक्ल ने मुसलमानी साम्राज्य की स्थापना को मुख्य कारण माना, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने सम्पूर्ण भक्ति आंदोलन और साहित्य को 'भारतीय चिंता का स्वाभाविक विकास' यानि परंपरा का विकास माना है"।
भक्तिकाल पर साहित्य विद्वानों से इतर इतिहासकारों ने भी प्रकाश डाला उनमें विशेषतः इरफान हबीब और रामशरन शर्मा रहे । इरफान हबीब के अनुसार " उत्तर भारत में भक्ति आंदोलन की निर्गुण धारा के उत्थान में शिल्पियों और जाटों – कीसानों की प्रमुख भूमिका रही है । वे निर्गुण धारा को 'एकेश्वर धारा' कहते हैं"।
तेरहवीं-चोदहवीं शताब्दी में नए शासकों की सत्ता स्थापित होने पर विलास सामाग्री और सुविधाओं की मांग बढ़ी । केन्द्रीय सत्ता ( खिलजी-तुगलक-सूरी शासकों ) में स्थापित होने पर सड़कों,भवनों आदि का निर्माण तेजी से होने लगा । इससे अवर्ण, शिल्पियों की आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ । आर्थिक स्थिति बेहतर होने पर उनमें अपनी सामाजिक मर्यादा को ऊपर उठाने की भावना पैदा हुई । निर्गुण – पंथ के अवर्ण संतों की भावना का सामाजिक आधार यही था । भक्तिकाल में निम्न तबका ऊपर उठने की आकांक्षा रखने लगा तथा भक्तिकाल के रूप में उन्हे आशा की कीरण दिखाई दी ।
भक्तिकाल की सामाजिक सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को जानना अति आवश्यक है । राजनीतिक दृष्टि से यह युग इस्लामी प्रभाव से आक्रांत रहा । मध्ययुगीन विश्व में काफी उथल पुथल के कारण इस्लामिक शासकों ने भारत की तरफ रुख किया । तुर्कों तथा इस्लाम के आक्रमण से भारतीय समाज में अस्थिरता का दौर चालू हुआ । "उत्तर भारत में इस्लाम के आगमन और 12वीं सदी के अंत में तुर्कों द्वारा राजपूत राज्यों की पराजय ने शक्तिशाली तत्वों को खुला छोड़ दिया । आने वाली सदियों में इसने भक्ति के लोकप्रिय आंदोलनों के विकास का मार्ग प्रशस्त किया"।
यह माना जा सकता है की प्रत्येक युग का साहित्य परिस्थितियों की उपज होता है । और मध्यकालीन धार्मिक आंदोलनों को तीव्र और गतिशील बनाने में इन परिस्थितियों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। परंतु मूलतः वह भारतीय चिंता की स्वाभाविक अभिव्यक्ति है। सहस्त्र वर्षों के अध्यत्मिक चिंतन का प्रतिफलन । उपनिषद उनके मूल स्रोत हैं । हिन्दी भक्ति को सच्चे परिप्रेक्ष में समझने के लिए यह आवश्यक है कि इसकी पूर्ववर्ती विचारधारा और धार्मिक साहित्य का अध्ययन किया जाए । इस दृष्टि से 8वीं से 15वीं सदी का धार्मिक साहित्य विशेष महत्व रखता है । पूरे देश में वेदमत और लोकमत का समन्वय हो रहा था अथवा यह कह सकते हैं कि पंडित वर्ग तक सीमित शास्त्रीय चिंतन के उच्च धरातल का स्थान अब जनमानस ले रहा था । भाषा और विचार दोनों दृष्टि से सम्पूर्ण धार्मिक आंदोलन लोकोन्मुख हो रहा था । संस्कृत का स्थान जन भाषाएँ ले रही थी, जिसमें शस्त्र निरेपक्ष उग्र विचारधारा का स्वर सुनाई पड़ रहा था । 8वीं सदी से प्रारम्भ हुये आंदोलन का न केवल धार्मिक अपितु सांस्कृतिक एवं सामाजिक महत्व भी था । यह आंदोलन इस दृष्टि से भी महत्वपूर्ण थे कि इन्होने ही राष्ट्रीय स्तर पर भक्ति आंदोलन की नीव रखी । मध्यकाल का भक्ति आंदोलन अचानक उत्पन्न नहीं हुआ बल्कि उसके विकास के सूत्र हमें 8वीं से 10वीं शताब्दी के धार्मिक आंदोलनों में प्राप्त होते हैं । मध्यकाल का आंदोलन सामाजिक दृष्टि से समानता और न्याय का आंदोलन है । यह वर्णव्यवस्था में पिसती, उंच-नीच की भेद भावना से कराहती तथाकथित अपरिश्य समझी जाने वाली जाति का आंदोलन है, जो वर्ग वैषम्य के अन्यायपूर्ण जूते को उतार फेंकने के लिए व्याकुल हो रही थी ।
भक्तिकाल के पथ प्रदर्शकों ने अपने युग काल के सभी सामाजिक वर्गों के समक्ष प्रश्न चिन्ह लगाए ।
" दादू सो मोमिन मोम दिल होई ।
साईं कुं पहिचाने सोई ॥
ज़ोर न करे हराम न खाई ।
सो मोमिन भिस्ति में जाई " ॥
भक्ति आंदोलन का महत्वपूर्ण पक्ष यह था कि इसमें विभिन्न संतों ने सामाजिक सुधार आंदोलन के माध्यम से समाज में एकता के सूत्र को सायोंजित किया । इरफान हबीब के अनुसार
"भक्ति आंदोलन के सभी नेता समाज की निम्न श्रेणियों और निम्न जातियों से संबन्धित थे । कबीर बनारस का जुलाहा, नानक एक छोटा व्यपारी, धन्ना एक जात कीसान, रैदास एक चमार और दादू एक बंजारा था । इन सबने एकेश्वरवाद को अपने सुधार आंदोलन का आधार बनाया"। उत्तर की तरह दक्षिण में विदेशी आक्रमणों से उत्पन्न संकट और विदेशियों के अर्यीकरण का प्रश्न तो न था, परंतु पिछड़ी, आदिम कबीलाई जातियों के संस्कृतिकरण की समस्या वहाँ कम गंभीर न थी । पुराना ब्राह्मण धर्म अनन्य प्रकृति के कारण यह कार्य करने में असमर्थ था । यह ऐसा कार्य था जिसे ईश्वर की सर्व सुलभ भक्ति पर आधारित वैष्णव और शैवमत सक्षमता के साथ सम्पन्न कर कर सकते थे । "शूद्र और निम्न जतियों को उनकी सुधरी हुई और मजबूत स्थिति तथा संख्या के अनुरूप कम से कम प्रशासनिक क्षेत्र में रियायतें व महत्व ब्रजबूलीकरके उन्हे संतुष्ट करने का कार्य भक्त ही कर सकते थे"। कुल मिलाकर दक्षिण में भारत की ऐसी धारा प्रवाहित हो रही थी जिसमें स्त्रियॉं सहित शूद्रों व निम्न वर्गों,जिनका अधिकांश वैष्णव धर्म के द्वारा संस्कृतिकरण की प्रक्रिया से आदिम कबीलाई जातियों से आया होगा, को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। 'पेरीय पुराण' के अनुसार नयनारों में कुछ ब्राह्मण थे, कुछ वेल्लाल और कुछ तो आदिवासी जातियों के थे । 'इसी तरह बारह अलवारों में दो शूद्र और एक निम्न पनर जतियों का था'
दूसरे उत्थानकाल में भी हम भक्ति के प्रवाह को पहले लोक प्रवाह के रूप में ही पाते हैं । "शैव व वैष्णव भक्त अधिकांशतया सामान्य जनता के लोग थे । और अति भावमुलक भक्ति सरल धर्म की द्योतक थी । बाद में उनके भक्ति गीतों की सरलता, भावोंज्ज्वलता और उनकी सौन्दर्य भावना को पौराणिक अंधविश्वासों तथा तात्विक मताग्रहों के बीच दबा दिया गया"। आलवार भक्तों के उपरांत आने वाले वैष्णव आचार्य कट्टर धार्मिक कुलों के थे और परंपरागत शास्त्रों की सब मर्यादाओं की रक्षा करना अपना कर्तव्य समझते थे। इसलिय एक तरफ जहाँ वैष्णव में कर्मकांड,वर्णवाद,का विरोध था तो वहीं दक्षिण में शास्त्रों की अवहेलना को घोर दंडनीय माना जाता था । अलवार भक्तों में धार्मिक कर्मकांडों को नियमित रूप से अपनाया जाता था ।
भक्तिकाल के सामाजिक आंदोलन की पृष्ठभूमि पर भी सवाल उठता है । प्रश्न यह उठता है की क्या है जन – आंदोलन था ? यह सीमित अर्थों में ही जन आंदोलन था, सम्पूर्ण अर्थों में नहीं । यह जनता के जीवन स्तर में किसी परिवर्तन का अहवाहन नहीं करता । इस आंदोलन की दर्शननिक परिणति स्वयं की मुक्ति और ईश्वर से एकात्म स्थापित करना था । गुरु की सहायता से मोक्ष प्राप्ति तथा प्रभु कृपा पर अधिक बल था । इस आंदोलन का दार्शनिक पक्ष भी था । भक्त और ईश्वर का संबंध, धर्मग्रंथों की मान्यता तथा समाज के संबंध में इनके दृष्टिकोण अलग-अलग है ।
16वीं और 17वीं सदियों ने उत्तर, पूर्व और पश्चिम भारत में लोकप्रिय भक्ति के एक आश्चर्यजनक पुनरुत्थान को देखा जो समान्यतया विष्णु के अवतारों के रूप में राम और कृष्ण की पूजा के चारों और केन्द्रित था । पंजाब और राजस्थान के कुछ क्षेत्र को छोड़कर इन आंदोलनों ने लोकप्रिय एकेश्वर आंदोलनों को धूमिल कर दिया ।
मध्यकाल का युग त्रस्त समाज को विकल्प देने का भी था । समाज से निकले नेताओं ने अपने व्यक्तिगत विचारों को आंदोलन का रूप दिया था उसे धार्मिक जमा पहनाया गया । यूरोप के महान सुधार आंदोलन का उल्लेख करते हुए एंगल्स ने लिखा था –
"मध्य युग ने धर्म दर्शन के साथ विचारधारा के सभी रूपों, दर्शन,राजनीति विधिशास्त्र को जोड़ दिया और इन्हे धर्म दर्शन की उप-शाखाएँ बना दिया । इस तरह उसने हर सामाजिक और राजनीतिक आंदोलन को को धार्मिक जमा पहनाने के लिए विवश कर दिया । आम जनता की भावनाओं को धर्म का चारा देकर और सब चीजों से अलग अलग रखा गा । इसलिए, कोई भी प्रभावशाली आंदोलन आरंभ करने के लिए अपने धार्मिक हितों को धार्मिक जामें में पेश करना आवश्यक था "।
यही कथन 14वीं और 17वीं शताब्दियों के काल के भारत पर भी समान रूप से लागू होता है । परंतु यह शुद्धतः धार्मिक आंदोलन था । वैष्णव के सिद्धान्त मूलतः उस समय व्याप्त सामाजिक – आर्थिक यथार्थ की आदर्श अभिव्यक्ति थे । इस आंदोलन ने विभिन्न भाषाओं और विभिन्न धर्मवालों जन समुदायों को एक सुसंबंध भारतीय संस्कृति के विकास मदद की ।
भक्तिकाल की धाराएँ
भक्तिकाल की दो धाराएँ हमें मध्यकाल में दिखती है एक जिसे सगुण कहा गया है तथा दूसरा निर्गुण धारा । "निर्गुण और सगुण धारा में अंतर इस बात का नहीं है की निर्गुणियों के राम गुणी नहीं है और सगुण मतवादियों के राम और कृष्ण गुण सहित । निर्गुण और सगुण मतवाद का अंतर अवतार एवं लीला की दो अवधारनाओं को लेकर है" । निर्गुण मत के इष्ट भी कृपालु, सहृदय,दयावान करुणाकर है, वे भी मानवीय भावनाओं से युक्त है, वे न अवतार ग्रहण करते हैं न लीला । वे निराकार है, सगुण मत के इष्ट अवतार लेते हैं, दुष्टों का दमन करते हैं,साधुओं की रक्षा करते हैं और अपनी लीला से भक्तों के चित्त का रंजन करते हैं । भक्तिकाल की सगुण तथा निर्गुण धाराओं का विभाजन ईश्वर के लौकिक तथा आलौकिक रूपों को ध्यान में रखकर हुआ । "सम्पूर्ण भक्तिकाल में सगुण और निर्गुण भक्ति का द्वंद देखने को मिलता है, जहाँ सूरदास के भ्रमर गीत में उद्धव और गोपीयों के मध्य संवादों में यह झलकता है तो कबीर और तुलसी के राम के रूप में यह द्वंद मध्यकाल के रूप में स्थापित है" ।
अतः सगुण मतवाद में विष्णु के 24 अवतारों में से अनेक की उपासन होती है,यद्यपि सर्वाधिक लोकप्रिय और लोकपूजित अवतार राम एवं कृष्ण ही है ।
सगुण तथा निर्गुण दोनों की उपधाराएँ हैं । सगुण काव्य की उपधाराओं को राम-भक्ति शाखा तथा कृष्ण भक्ति शाखा कहा जाता है । निर्गुण की दो उपधाराएँ 'ज्ञानाश्रयी शाखा' और 'प्रेमाश्रयी शाखा' है । प्रेमाश्रयी ही हिन्दी हिन्दी का सूफी काव्य है । निर्गुण में ज्ञनाश्रयी शाखा के संतों ने ज्ञान पर अधिक बल दिया । इनमें कबीर, संत रैदास, गुरु नानक, दादूदयाल, सुंदरदास, रज्जब आदि आते हैं । सूफी संतों ने लोक प्रचलित कथानकों को अपने साहित्य में रचा । इन सभी संतों ने लोक प्रचलित कथानकों को अपने साहित्य में रचा। इन सूफी संतों में कुतुबन, मालिक मोहम्मद जायसी, मंझन, उस्मान, कासिम शाह, नूर-मुहम्मद प्रमुख थे ।
सगुण भक्त कवियों ने प्राचीन भारतीय मान्यताओं में नया संदेश दिया । सगुण भक्ति काव्य का सामाजिक, पारिवारिक एवं सांस्कृतिक सभी दृष्टियों से विशेष महत्व रहा । "मर्यादावद के पोषक राम भक्त कवि तुलसीदास ने जो सामाजिक आदर्श उपस्थित किया उसका प्रभाव आज भी विद्यमान है । तत्कालीन सामाजिक एवं सांस्कृतिक विश्रिंखलता एवं अराजकता के युग में उनकी वाणी ने भारतियों को श्रेयस्कर मार्ग दिखलाया। टूटते हुए पारिवारिक सम्बन्धों और स्वार्थ के लिए संघर्षशील मनुष्यों को आलोक ब्रजबूलीकिया । रामकाव्य इसका उत्कृष्ट उदाहरण है"।
भक्ति आंदोलन ने सम्पूर्ण भारत को भाषायी विविधता के बावजूद सांस्कृतिक एकता में बंधा । उदाहरण के लिए वैष्णव आंदोलन एक ही मत को लेकर चला परंतु उसका प्रचार प्रसार दक्षिण भारत से लेकर उत्तर भारत तक हुआ । राम तथा कृष्ण सम्पूर्ण भारत में जनमानस के लोकप्रिय चरित्र के रूप में उभरे।
लोक मर्यादा का आदर्श स्थापित करने की दृष्टि से अकेला 'रामचरितमानस' उत्तम ग्रंथ है । कृष्ण भक्त कवियों ने अपने आराध्य के लोकरंजक स्वरूप को उपस्थित करते हुए जीवन में आनंद का संचार किया । इन कवियों में निहित समर्पण की भावना ने अहं का विकास किया । सगुण भक्त कवियों का सर्वाधिक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक योगदान वर्ण व्यवस्था का आदर्श प्रस्तुत करते हुए उनका संरक्षण रहा है । इन कवियों ने एक और धूर्त पंडितों के संकीर्ण मतों का खंडन किया तो दूसरी और निर्गुणियाँ संतों के श्रुति सम्मत तथा विरति विवेक युक्त मार्ग के अनुकरण पर बल दिया । उस समय धर्म या संस्कृति के दो केंद्र बने काशी और वृन्दावन । इन केन्द्रों से जीवन के आचार और विचार दोनों पक्षों को बहुत प्रेरणा मिली ।
भक्त कवियों ने आभिजात्य के अछद्द को तोड़ा और इसके लिए अपने चरितनायकों को लोकभूमि पर संचारित किया । मूल्य भरे सामाजिक कर्म से ही मानव व्यक्तित्व को अर्थदीपति मिलती है । भक्ति काव्य अपने नायकों को देवत्व की भूमि से बाहर लाकर उन्हे सामान्यजन के मध्य सक्रिय करते है । तुलसी का ध्यान ग्राम – कृषक समाज है । सूर में कृषि – चरागाही संस्कृति की प्रधानता है । कबीर का बल सांस्कृतिक सौमनस्य पर है और जायसी प्रेमपंथ को विकल्प के रूप में प्रस्तुत करते हैं ।
"भक्तिकाव्य में लोकजीवन की केन्द्रियता के मूल में सजग सामाजिक – सांस्कृतिक चेतना है, जहाँ भक्तिशास्त्र पांडित्य, कर्मकांड, पुरोहितवाद से निकलकर सामान्य भूमि पर विचरण करती है" ।
भारतीय इतिहास में समाज के भीतर ही कलाओं का विकास होता रहा । सामाजिक परिवर्तन का स्पष्ट प्रभाव उन पर देखने को मिलता है । इन लोक कलाओं ने सदियों से अपने भीतर संस्कृत को संजोय रखा है ।
भक्तिकाल में जब भारत विशाल सांस्कृतिक बदलाव के दौर से गुजर रहा था, तो इन कलाओं ने अपने स्तर पर इसे बचाए रखा । भक्तिकाल में न केवल काव्यकला अपितु संगीत, नृत्य, चित्र, मूर्ति आदि कलाओं की उन्नति भी हुई । "सगुण भक्ति धारा के अधिकांश कवि संगीत के भी अच्छे जानकार थे । वृन्दावन, काव्य और संगीत दोनों का केंद्र था । अष्टछाप के सभी कवि अपने समय के श्रेष्ठ संगीतज्ञ थे । अकबरी दरबार के के प्रसिद्ध गायक तानसेन कृष्णभक्त कवि हरिदास के ही शिष्य थे । श्री नाथ जी के मंदिर में प्रतिदिन कीर्तन के आयोजन होते थे, जिनमें विभिन्न राग – रागनियों के आधार पर स्वरताललयबद्ध संगीत की गूंज सुनाई पड़ती थी । राधावल्लभ संप्रदाय के प्रसिद्ध आचार्य थे । इसी प्रकार हरीराम व्यास ध्रुपद शैली के प्रमुख प्रचारक थे" ।
कृष्ण भक्ति काव्य के माध्यम से नृत्य कला के विकास में भी सहायता मिली । कृष्ण भक्त कवि अपने उपास्य की प्रेममयी लीलाओं का आनंद विभोर होकर अभिनय करा करते थे, रासलीला के माध्यम से नृत्य कला की विविध झाँकीयाँ प्रस्तुत करते थे । इनके आराध्य श्री कृष्ण तथा नाट नागर थे । गौस्वामी तुलसीदास ने मानस के आधार पर रामलीला का प्रचार किया था । इस प्रकार रामलीला और रासलीला के माध्यम से जिस लोकधर्मी नाट्य परंपरा का विकास हुआ,उसने भारतीय सांस्कृतिक जीवन को बहुत गहराई तक प्रभावित किया । कत्थक नृत्य में प्रायः राधा-कृष्ण की प्रेममयी लीलाओं की ही अभिव्यक्ति हुई है । इस प्रकार इन भक्त कवियों ने भारतीय जीवन की आध्यात्मिक चेतना को दिशा-निर्देश दिया दिया तथा लोक जीवन में नूतन : स्फूर्ति का संचार भी किया ।
इन भक्त कवियों ने ईश्वर की लीलाओं को सामाजिक सांस्कृतिक चेतना का आधार बनाया तथा इन लीलाओं को लोकनाट्यों के माध्यम से जनमानस तक प्रसारित किया ।
भक्तिकाल का प्रतिपाद्य विषय की दृष्टि से महत्व है ही, अर्थात इन कवियों ने सदाचार की प्रतिष्ठा की, भगवान के नाम, रूप-गुण, लीला धामका चित्रण करते हुए भारतीय संस्कृति के प्रतिनिधि रक्षक बने तथा धर्म, दर्शन और ललित कलाओं के माध्यम से जीवन को परिपुष्ट किया । यह काल इतिहास में वैचारिक आंदोलन के रूप में जाना जाता है । एक ऐसा आंदोलन जिसने सम्पूर्ण भारत को एकसूत्र में जोड़ दिया । भाषायी विविधता के बावजूद राम और कृष्ण जन-जन में व्याप्त है । रामायण तथा महाभारत के प्रसंगों को संतों ने लोक कलाओं के माध्यम से जन-जन तक पहुंचाया । यह वास्तविक में समाजिक चेतना का का आंदोलन था ।
मुख्य बिन्दु :-
भक्ति साहित्य में जहाँ एक और मध्यकाल की सामाजिक, सांस्कृतिक चेतना उजागर हुई वहीं, दुसरी और मध्यकालीन लोक जीवन के भी पक्ष अंकीत हुए ।
संतों ने भक्तिकाल में ईश्वरीय आलौकिक ता को लौकिक धरातल पर उतारा । यहाँ वह मानवीय चरित्र के रूप में आते है । यही कारण है की राम और कृष्ण दो अवतारों का चरित्र भारतीय जनमानस के मन में बसा ।
भक्तिकाल में सबसे अधिक प्रभावी वैष्णव साहित्य ही रहा । इतिहास में व्याप्त कृष्ण की कथाओं को कलाओं के माध्यम से प्रचारित किया गया ।
भक्ति आंदोलन में सबसे प्रभावी कृष्णभक्ति शाखा रही । वैष्णव आंदोलन में संतों ने कृष्ण विषययक कथानकों का प्रचार किया खासकर उत्तर भारत में कृष्ण भारतीय लोकमानस में प्रचलित थे ।
1.2 वैष्णव भक्ति :-
भक्तिकाल की सगुण धारा के अंतर्गत एक ऐसी शाखा थी जिसने सम्पूर्ण भारत की विचारधाराओं को प्रभावित किया । विष्णु आलोचित पुरानो में प्रमुख देवता के रूप में है । वायु पुराण और ब्रह्मांड पुराणों में उन्हे विश्वेस,प्रभु तथा सभी लोगों के करता की उपाधि दी गई है ।
" विश्वेशो लोककृदेव:...."
" प्रभुविष्णु दिवाकर:...."
भारतीय तत्वेताओं ने भक्ति के महात्म को समझा । विविध देवोपासनाओं के फलस्वरूप भक्ति संप्रदायों का जन्म हुआ । समन्वयवादी मनीषियों ने सबका सम्मान किया, परंतु वैष्णव भक्ति में कुछ ऐसे लोकपयोगी तत्व है, जिनके कारण इसका सर्वाधिक प्रसार हुआ । उन साधकों ने वैष्णव भक्ति में साधन –त्रय का समन्वय किया । जिससे भक्ति पाठ और भी प्रशस्त हुआ । अब भागवत भक्ति ही परम पुरुषार्थ समझी जाने लगी । भक्ति के परिवर्ती विकास पर प्रो॰ विल्सन ने इसे विभिन्न संप्रदायों के गुरुओं द्वारा अपनी प्रतिष्ठा के परिणामस्वरूप दृष्टि एवं प्रचारित बताया है ।
'भक्ति' शब्द की उत्पत्ति 'भज' धातु से हुई है। जिसका अर्थ है 'भजना','भज'रूपी धन अथवा द्रव्य के अधिपति को भागवत कहा गया है अन जिसके लिए 'भाग' एक भाग निर्दिष्ट हुआ है । वह 'भक्त' ऋग्वेद में 'भक्त' 'भक्ति' और 'भागवत' शब्दों का प्रयोग इन्ही अर्थों में हुआ है । यदि आगे चलकर भवत शब्द से एक आलौकिक सर्वशक्तिमान परम तत्व का बोध होने लगा तो उसके मूल में यही तथ्य है की उस तत्व की कल्पना एक ऐसे शक्ति के रूप में की गई, जिसका समस्त एश्वर्य एवं सम्पदा पर प्रभुत्व था और जो अपने उपासक को उसका एक अंश, 'भक्ति', ब्रजबूलीकर उसे अपना 'भक्त' बना सकती थी । इसी कारण 'भक्ति' और 'भक्त' के प्रारम्भिक प्रयोग कर्मवाच्य में हुए है और ऋग्वेद की एक ऋचा में अग्नि को भक्तों और अभक्तों में भेद करने वाला कहा गया है । 'भागवत' के अनुग्रह से 'भाग' के एक अंश के प्रापक, अतिग्रहिता होने से 'भक्त' और 'भक्ति' शब्द देवी शक्ति के आठ एक प्रकार की सहभागिता एवं घनिष्ठ आत्मीयता की भावनाओं को व्यक्त करने के लिए सर्वथा उपयुक्त थे और संभवतः इसी कारण धार्मिक विचारधारा में 'भक्ति' शब्द एक सशक्त प्रतीक सिद्ध हुआ ।
ऋग्वेद में अनेक अर्थों को अपने में अनुस्यूत करने के बावजूद 'विष्णु' शब्द का प्रयोग एक महान शक्ति के रूप में हुआ है । यस्क ने रश्मियों के व्याप्त होने के कारण सूर्य को विष्णु कहा है ,जिस विष्णु के प्रताप से वृष्टि होती है और साथ हि गायों को दुग्ध होता है उसका कालांतर में गोपवेषधारियों कृष्णारव्य विष्णु होना कल्पना गामी माना जाता है , विष्णु ही यजमान तथा देवगणों के लिए ब्रज प्राप्त कराने वाला होने से ब्रजनंदन गोपीजनवल्लभ हो सकता है । 'विष्णु को कहीं इन्द्र, इन्द्र का सखा' कहीं अग्नि बताया गया है ।
इस तरह विविध रूपों एवं नामों में उपासना का आधार होने पर भी वैदिक ऋषियों को एक परम सत्ता की आराधना अभीष्ट थी जो परिवर्ती वैष्णव भक्ति के रूप में दिखाई पड़ती है । वैष्णव धर्म में 'अनुग्रह या प्रसाद' की बड़ी महिमा गाई गाई है । श्रीमदभागवत महापुराण के 'पोषनं तदनुग्रह' के आधार पर ही वल्लभचार्य की पुष्टि मार्गीय भक्ति आधारित है । इनके अनुसार भक्ति की प्राप्ति केवल भागवत कृपा से होती है ।
वैष्णव धर्म या वैष्णव संप्रदाय का प्राचीन नाम भागवत धर्म या पंचरात्र मत है । इस संप्रदाय के प्रधान उपास्य देव वासुदेव है, जिन्हे ज्ञान, शक्ति बल, वीर्य, एश्वर्य और तेज इन छः गुणों के कारण भगवन या भगत कहा गया है ।
" ज्ञान शक्ति बलैश्वर्य वीर्य तेजां स्त्रिशेषतः ।
भगवच्छ्वद वाच्यानि विना हर्येगुर्णादिभी:" ॥
महाभारत के अनुसार चारों वेदों और संखई योग के समावेश के कारण इसे 'पांचरात्र' कहते है । वैष्णव भक्ति के प्रचार में इसका प्रमुख स्थान है । आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने विष्णु और वासुदेव की एकता तथा वासुदेव भक्ति का प्रारम्भ महाभारतकाल में ही सिद्ध किया है । महाभारत के शांतिपर्व में विष्णु को वासुदेव कहा गया है ।
उपनिषदों, पुराणों ( विष्णु पुराण, वामन, वराह, नारद, पदम, मत्स्य, ब्रह्मवैवर्त ) के पश्चात श्रीमदभागवत में विष्णु का उल्लेख हुआ है, इसमें विष्णु के अन्य स्वरूपों एवं अवतारों का तो वर्णन किया ही गया है, भगवन के श्रीकृष्ण अवतार की विविध लीलाओं का वर्णन पर्याप्त रूप में किया गया है । श्रीमदभागवत के द्वारा ही सम्पूर्ण भारत वर्ष में वैष्णव धर्म का प्रचार हुआ । परवर्ती सभी वैष्णव संप्रदायों का आधार ग्रंथ यही रहा है । विष्णु के अवतारों का विस्तृत वर्णन भागवत में मिलता है ।भगवान का लीला – वैचित्र्य जनता इतना दुरूह है की समान्य लोग मोहित हो जाते हैं । यही कारण भी है की वैष्णव धर्म का इतना व्यापक प्रसार हो सका ।
विजयेन्द्र स्नातक ने अपने ग्रंथ 'राधावल्लभ संप्रदाय सिद्धान्त और साहित्य' में कहा है " वैष्णव धर्म के विकास और प्रसार में पुराणों का सर्वाधिक योगदान रहा है । वैष्णव संप्रदायों के परवर्तन में जिन सिद्धांतों को स्वीकार किया गया उनमें से अधिकांश का आधार पुराण – साहित्य ही है। उदाहरणार्थ चतुः संप्रदाय के अतिरिक्त श्री कृष्ण चैतन्य का 'गौड़ीय संप्रदाय' श्रीवल्लभ संप्रदाय या पुष्टिमार्ग और हितहरिवंश का 'राधा वल्लभ संप्रदाय' मुख्यतः श्रीमदभागवत और ब्रह्मवैवर्त पुराण में प्रतिपादित भक्ति पद्धति और राधाकृष्ण स्वरूप को लेकर आगे बढ़े है।
कृष्ण की उपासना का साक्ष्य गुप्त युग में भी मिलता है साथ ही विभिन्न क्षेत्रों से प्राप्त प्राचीन कृष्ण की मूर्तियों से ज्ञात होता है की कृष्ण की उपासना अत्यंत प्राचीन काल से चलती आ रही है। लोकमानस में कृष्ण अलग-अलग उपनामों में व्याप्त थे । मध्यकाल में उत्पन्न भक्ति आंदोलन की सगुण शाखा में कृष्णकथा का विस्तार देखा जा सकता है । विष्णु के अवतारों में लोक रक्षक तथा लोक रंजक दृष्टिकोण से राम और कृष्ण की भक्ति का सर्वाधिक विस्तार हुआ । कृष्ण विष्णु के पूर्ण कला के अवतार कहे जाते हैं।
कहा गया है की 'भक्ति द्रविड़ उपजै लाय रमानन्द' श्रीमदभागवत पुराण के महातम वर्णन में भक्ति ने स्वयं नारदजी से कहा की में द्रविड़ में उत्पन्न हुई, कर्नाटक में बढ़ी.... अर्थात जिस भक्ति का सूत्रपात वैदिक युग से होता चला आ रहा था उसी को विकसित होने के सुअवसर द्रविड़ प्रदेश में हुआ । आलवार भक्तो के कारण दक्षिण में वैष्णव भक्ति का पूर्ण प्रचार प्रसार हुआ ।
वैष्णव भक्ति को प्रचारित प्रसारित करने वाले आचार्य शंकराचार्य के अद्वैत सिद्धान्त के विरुद्ध अपने दार्शनिक तथा व्यवहारिक विचार व्यक्त किया । उनकी विचारधारा को स्वीकार न कने वालों में रामानुजाचार्य, निंबकचार्य, माध्वाचार्य, विष्णुस्वामी एवं वल्लभाचार्य ने भक्ति के लिए नवीन मार्ग खोजा । भक्ति के क्षेत्र में इन आचार्यों की देन बहुमूल्य है क्योंकी विष्णु के अवतारी रूप राम और कृष्ण को इन्होने भक्ति का उपास्य देव बना दिया । मध्यकालीन भक्ति का जो रूप संस्कृत और भारतीय भाषाओं में विकसित हुआ उसका श्रेय इन्हीं आचार्यों को है । रामानुजाचार्य के बाद रमानन्द ने राम को अधिक व्यापक स्तर पर ग्रहण किया । रामभक्ति की यह परंपरा बाद में हिन्दी कवियों में तुलसीदास जैसे समर्थ कवि द्वारा अपने सर्वोच्च शिखर तक पहुंची । कृष्ण भक्ति के लिए निंबर्क, महत्व, विष्णुस्वामी तथा इनके बाद वल्लभचार्य, कृष्णचैतन्य, हितहरिवंश, हरिदास आदि भक्तों ने जो पर्यास कीए थे वे कृष्ण भक्ति को व्यापक आयाम ब्रजबूलीकरने वाले सिद्ध हुए । वैष्णव चैतना के माध्यम से सभी साहित्य एक दूसरे के समीपी है । बंगाल पूर्वाञ्चल में चैतन्य चंडीदास ने वैष्णव मत का प्रचार किया और वह अंचल वृन्दावन से जुड़ गया । बंगाल की वैष्णव चैतना का व्यापक प्रभाव रहा और चैतन्य की प्रेरणा से षटगोस्वामी, सनातन, रघुनाथदास, रघुनाथ भट्ट, गोपाल भट्ट, जीवगोस्वामी ने ब्रजमंडल में कृष्णभक्ति को वैचारिक आधार दिया । असम में शंकरदेव का 'एकशरण धर्म' काव्य तथा नाटक के माध्यम से प्रसारित हुआ और जनसमान्य में प्रभावी बना । तमिल अलवार संत एवं वैष्णवाचार्य तेलगु में बेमना, संभेर पोतना गुजरात में 'नरसी मेहता, राजस्थान में मीरा आदि से इस व्यापक आंदोलन की सक्रियता का पता चलता है । अवतारवाद में कृष्ण सर्वोपरि देवता रहे और केंद्र में रखकर भक्ति काव्य विकसित हुआ । विष्णु के दो प्रमुख अवतार वैष्णव परंपरा को रचना में नई गति देते है । कृष्णकाव्य का ऐसा आकर्षण है की इसमें भी संप्रदाय जाति के है । रामायण – महाभारत के चरित नायक द्वापर के है, पर जहाँ तक भक्तिकाव्य का संबंध है, कृष्ण कुछ पहले आ गए और सोलह कला अवतार वाले अपने बहुरंगी व्यक्तित्व से लोकप्रिय भी हुई । राम त्रेता युग से जुड़कर भाषा रचना में थोड़ी देर से आए और चरित्र की मर्यादाओं ने उसकी सीमा तय कर दी । कृष्ण के चारों और एक समग्र लीला संसार है जिसमें राधा का प्रवेश नई भंगिमा का जन्मता है । प्रायः कहा जाता है की कृष्णकाव्य में लोकरंजक रूप अधिक है। जिसका एक कारण भागवत की प्रेरणा भी है । कृष्ण का महत्व यह है की उन्होने सम्पूर्ण कला संसार – मूर्ति, वास्तु, चित्र, संगीत आदि में स्थान प्राप्त किया । ये जनप्रिय देवता हुए और उनसे सनरस होने में कठनाई नहीं हुई । उन्हे केंद्र में रखकर संप्रदाय बने – निंबर्क, हरिदास, वल्लभ, राधावल्लभ आदि । विद्वान हाल चरित गाथा सतसई तथा गाथा सप्तसती का उल्लेख करते हैं । जहाँ कृष्ण राधा के प्रसंग आए हैं । रासलीला महत्वपूर्ण विषय बना,जिसका संकेत भागवत की रास पंचाध्यायी है । आगे चलकर जयदेव, विद्यापति में कृष्णागाथा को विकास मिला । जयदेव का गीतगोविंद अपनी मधुर कोंलकांत पदावली के लिए विख्यात है,जहाँ श्रृंगार खुली भूमि पर है और राधा कृष्ण का मानुषिकरण रासप्रसंग, मान-मुहार आदि में विशेष रूप से उभरा है । श्रृंगार की यह रासभूमि विद्यापति में विद्यमान है, जहाँ राधा लावण्य सार है और कृष्ण रास रूप हैं । संयोग – वियोग दोनों स्थितियों में विद्यापति के राधा-कृष्ण उन्मुक्त भूमिपर हैं । चैतन्य कृष्णगाथा को प्राथनाभाव से जोड़ते है और बंगाल तथा पूर्वाञ्चल में कृष्ण भक्तिकाव्य का मार्मिक विकास हुआ।
कृष्ण की उपासना की जहाँ प्रचार प्रसार हुआ , वहाँ गायन और नृत्य के साथ रहा । वैष्णव संगीतशास्त्र ( चौखम्बा प्रकाशन 1982 ) की भूमिका में दर्शना झवेरी ने लिखा है : " श्री चैतन्य ने नाम कीर्तन का प्रवर्तन किया, जिसका ठाकुर नरोत्तम ने नए ढंग से विकास किया । श्री नरोत्तम ने आलाप, राग ताल आदि का प्रयोग कर रास अथवा लीला कीर्तन का प्रवर्तन किया"
'रूपराम' के धर्म मंगल और कल्हण की राजतरिंगिनी से पता चलता है की नटियों और देवदासियों द्वारा शास्त्रीय नृत्य किया जाता था और उसका प्रदर्शन बंगाल के मंदिरों में होता था । दरभंगा, मिथिला, गौड़, कामरूप, एवं कलिंग(उड़ीसा) शास्त्रीय संगीत एवं, नृत्य के प्रमुख केंद्र थे । गोड़ और मगध के जरिये नेपाल, कश्मीर एवं गांधार को भी बंगाल में संगीत, वाद्य एवं नृत्य की प्रेरणा मिली । निस्संदेह संगीत के सहयोग वैष्णव मत का प्रसार हुआ और वैष्णव मत की प्रेरणा से मणिपुर जैसे आर्येत्तर भाषा क्षेत्र में इस कला का विकास और प्रचार हुआ । विभिन्न प्रदेशों में लोकगीतों एवं लोकनृत्यों की परंपरा रही । महापुरुष शंकरदेव – ब्रजबूली ग्रंथावली सम्मेलन, प्रयास 1974 के संपादक लक्ष्मीशंकर गुप्त ने ठीक लिखा है की " पूर्वाञ्चल में वैष्णव धर्म के उन्नायक " शंकरदेव ने अपने नाटकों के के लिए "तत्कालीन जन समुदाय में प्रचलित नृत्य, गीत तथा मनोरंजन के साधन को ढांचे के रूप में ग्रहण किया और उनके साथ अनेक संस्कृत नाट्य नियमों का संयोजन करके अंकिया नाट का नवीन स्वरूप ढाला ।
संगीत नाटकों के साथ संगीत शब्द जोड़ने से अभिप्राय ऐसे नाटक जिनमे नृत्य,गीत,वाद्य,ताल तत्व मौजूद हो । 11वीं शताब्दी के पश्चात पूर्वी भारत में संगीत नाटकों का उदय हुआ । पूर्वी भारत में बिहार इन नाटकों की दृष्टि से सम्पन्न है । 11वीं शती में ही रचा गया ज्योतिरीश्वर ठाकुर का वर्णरत्नाकर लोक नाट्यों में संगीत पद्धति का आधार ग्रंथ है जिसमें, गीत, नृत्य, ताल , वाद्य, आदि का वर्णन किया गया है ।
असम के इस नवजागरण से मिथिला का गहरा संबंध था । 16वीं सदी में काशी, मिथिला, शांतिपुर, नवद्वीप आदि विद्या के केंद्र थे । मिथिला तो विशेष रूप से संगीत विद्या का केंद्र बना हुआ था । कोई आश्चर्य नहीं महापुरुष शंकरदेव की ब्रजबूली का आधार विद्यापति की पदावली की भाषा है और " महापुरुष शंकरदेव ने अपने कीर्तन तथा अन्य काव्य की रचना से तत्कालीन आसामी भाषा में की , किन्तु गीतों की रचना ब्रजबुली में की ।
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