देवेनदा के जन्मदिन पर गिरदा के पहाड़ की भूली बिसरी यादें
नैनीताल समाचार के लिए हमारी धारावाहिक पंतनगर गोलीकांड की वह साझा रपट मानीय रघुवीर सहाय जी ने दिनमान में भी छाप दी और इसका असर यह हुआ कि आल इंडिया रेडियो नई दिल्ली में रिकार्डिंग के लिए रवाना हुए गिरदा को रुद्रपुर में बस से उतारकर धुन डाला।
लहूलुहान गिरदा नैनीताल समाचार वापस पहुंचे तो उनने न हमें एफआईआर दर्ज कराने दिया और न इस सिलसिले में खबर बनाने दी।गिरदा का कहना था कि आंदोलन में किसी भी सूरत में किसी भी बहाने व्यक्ति को आंदोलन का चेहरा बनाओगे तो आंदोलन का अंत समझ लो।व्यक्ति का चरित्र बदलते ही आंदोलन बिक जायेगा।
अंग्रेजी माध्यम और अंग्रेजी साहित्य का छात्र होने के बावजूद हिंदी पत्रकारिता के मेरी पहचान बनने के पीछे फिर देवेन दा गिरदा का वही अंतरंग पहाड़ हो जो मेरा असल घर है।बाकी कोई घर नहीं है।
देवेनदा को पढ़ना हमें हमेशा वैज्ञानिक दृष्टि से लैस करता है। हमारे एक और मित्र पंकज प्रशून भी विज्ञान लेखन करते थे और अब वे तंत्र मंत्र यंत्र के विशेषज्ञ हैं।देवेन दा को जबसे जाना है,उनके लेखन और जीवन में हमें कोई विसंगति देखने को नहीं मिली है और कोई माने या न माने मैं उन्हें रचनाधर्मिता का वैज्ञानिक मानता हूं।
बिहार का फार्मूला बाकी देश में फेल समझिये। संघ परिवार जीत रहा है और आगे लडा़ई बेहद मुश्किल है।उग्र हिंदुत्व का मुकाबाल जाति नहीं कर सकती।
सारे द्वीपों को जोड़कर मुख्यधारा बनाना अब हमारा एजंडा है।
पलाश विश्वास
देश निरमोही का ताजा स्टेटस हैः
आज हिंदी के सुप्रसिद्ध विज्ञान लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी का जन्मदिन है।
आधार प्रकाशन परिवार की ओर से उन्हें ढ़ेरों शुभकामनायें। हम उनकी सफल,
स्वस्थ एवं दीर्घायु की कामना करते हैं। उल्लेखनीय है कि आधार प्रकाशन ने
अब तक उनकी सात पुस्तकें प्रकाशित की हैं।
19 मई को जो नतीजे आने वाले हैं ,उसकी भविष्यवाणियां जारी हो चुकी है।थोड़े फेर बदल के साथ जो जनादेश आने वाला है,उससे फासिज्म के राजकाज के और निरंकुश होने के भारी खतरे हैं।
इसके साथ ही तय हो गया कि जाति धर्म के राजनीतिक समीकरण से आप फासिज्म का मुकाबला चुनाव मैदान मे भी नहीं कर सकते।बिहार का फार्मूला कहीं और चलने वाला नहीं है क्योंकि उग्रतम हिंदुत्व ने बाकी अस्मिताओं को आत्मसात कर लिया है।
इसलिए आगे लड़ाई और मुश्किल है जिसका आसान बनाने के लिए सारे द्वीपों को जोड़कर मुख्यधारा बनाना अब हमारा एजंडा है।
हमारे देवेन निरंतर वैज्ञानिक रचनाधर्मिता के पर्याय बने रहे हैं।आज उनके जनमदिन पर बहुत सारी यादें ताजा हो रही हैं।
देवेन दा से हमारी मुलाकात पंतनगर गोलीकांड के तुरंत बाद हुई,जब गिर्दा के साथ मैं और शेखऱ पाठक पंतनगर में उनके बंगले में पहुंचे।देवेनदा और भाभीजी ने हमारी जो आवभगत की,वह हमें उस परिवार से हमेशा जोड़े रहा।
नैनीताल समाचार के लिए हमारी धारावाहिक पंतनगर गोलीकांड की वह साझा रपट मानीय रघुवीर सहाय जी ने दिनमान में भी छाप दी और इसका असर यह हुआ कि आल इंडिया रेडियो नई दिल्ली में रिकार्डिंग के लिए रवाना हुए गिरदा को रुद्रपुर में बस से उतारकर धुन डाला।
अंग्रेजी माध्यम औक अंग्रेजी साहित्य का छात्र होने के बावजूद हिंदी पत्रकारिता के मेरी पहचान बनने के पीछे फिर देवेन दा गिरदा का वही अंतरंग पहाड़ हो जो मेरा असल घर है।बाकी कोई घर नहीं है।
लहूलुहान गिरदा नैनीताल समाचार वापस पहुंचे तो उनने न हमें एफआईआर दर्ज कराने दिया और न इस सिलसिले में खबर बनाने दी।गिरदा का कहना था कि आंदोलन में किसी भी सूरत में किसी भी बहाने व्यक्ति को आंदोलन का चेहरा बनाओगे तो आंदोलन का अंत समझ लो।व्यक्ति का चरित्र बदलते ही आंदोलन बिक जायेगा।
उस वक्त भारत के जनता पार्टी सरकार के गृहमंत्री चरणसिंह थे और पंतनगर विश्वविद्यालय में भारी संख्या में मजदूरों और उनके आंदोलन के दमन में सत्ता का जातिवादी चेहरे से हमारा वास्ता 1978 में हुआ।हालांकि 1977 तक हम एसएफआई से जुड़े थे और इसीलिए हम 1977 के चुनाव में इंदिरागांधी का तख्ता पलटने के लिए लामबंद थे और राजा बहुगुणा तब युवा जनतादल के जिलाध्यक्ष थे।तो हम चुनाव के दौरान तराई के नेतृत्व में थे।
इस राजकरण के खातिर 1977 में ही पिताजी से आमने सामने मुकाबला हो गया क्योंकि वे इंदिरागांधी के पक्ष में चुनाव प्रचार की कमान संभाले हुए थे और नारायणदत्त तिवारी और कृष्णचंद्र पंत के साथ थे।
नैनीताल से केसी पंत लड़ रहे थे।तो उन्हें हराने के लिए छात्र युवाओं के साथ बिना मताधिकार हम लोग गांव गांव दौड़ रहे थे।
इस टकराव में मैं चुनाव नतीजा न आने तक बसंतीपुर गया नहीं क्योंकि हर हाल में बसंतीपुर वाले पिताजी के साथ थे और पूरी तराई में वह इकलौता गांव था,जहां कोई मेरे साथ खड़ा होने को तैयार न था।जो लोग तीन चार थे,उनका भी मानना था कि गांव का बंटवारा न हो,इसलिए तुम बसंतीपुर से बाहर ही रहो।
चुनाव से पहले जाड़े छुट्टियों में हम बसंतीपुर में ही थे और मेरी सारी किताबें वहीं थी।चुनाव जीतकर जब हम डीएसबी पहुंचे तो परीक्षा में बैठने के लिए हमारे पास किताबें नहीं थी।बीए फाइनल की परीक्षा हमने दोस्तों की किताबें पढ़कर दी।
28 नवंबर को नैनीताल में वनों की नीलामी के खिलाफ गोलीकांड और नैनीताल क्लब जलाने के मामले में जाड़ों की छुट्टियों के दौरान डीएसबी के तमाम छात्रनेताओं की गिरफ्तारी से सत्ता की राजनीति से हमारा तुरंत मोहभंग हो गया और पूरे पहाड़ के छात्र युवा एक झटके के साथ सुंदर लाल बहुगुणा के चिपको आंदोलन में सक्रिय हो गये।हम लोग शमशेर सिंह बिंष्ट की अगुवाई में उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी में थे तो नैनीताल से नैनीताल समाचार भी निकाल रहे थे।
पत्रकारिता में शेखर और गिरदा के साथ हमारी तिकड़ी बनी और गिरदा ङर संकट और दमन की घड़ी में जनता के साथ लामबंद हो रहे थे तो हम भी पहाड़ पहाड़ पैदल पैदल दौड़ रहे थे।
इसी के मध्य, अखबार के लेआउट से लेकर रपट के एक एक शब्द के चयन के लिए चौबीसों घंटे आपस में खूब लड़ भी रहे थे और इस लड़ाई को झेलने वाले राजीव लोचन शाह,उमा भाभी,हरीश पंत और पवन राकेश के बिना हमारा किया धरा फिर गुड़गोबर है।हमने जो रचा,जनता तक पहुंचाने का माध्यम बनाने में इनकी भूमिका निर्णायक है।
राजीव लोचन ने हमें सिखाया कि संपादन क्या होता है और साधनों की कमी के बावजूद एक जेनुइन संपादक क्या कर सकता है।आज अक्सर ही अमलेंदु हस्तक्षेप के लेआउट और कांटेट से मुझे इस उम्र में करीब साढ़े चार दशक की पत्रकारिता के बावजूद रोज नया पाठ पढ़ा रहा है तो अनुपस्थित संपादक के अवसान के दर्द से बार बार
दिलोदिमाग लहूलुहान भी हो रहा है।इसीलिए हस्तक्षेप को जारी रखने की जितनी चुनौती अमलेंदु की है,उससे बड़ी चुनौती मेरे लिए है क्योंकि हमने पत्रकारिता गिरदा और रघुवीर सहाय से सीखी है और आज भी राजीव लोचन शाह मेरे दाज्यू हैं।
राजीव लोचन के उस छोटे से अखबार से शुरु पत्रकारिता दिनमान के रघुवीर सहाय जी के नेतृत्व में हमें पर पल सिखाती रही कि पल पल अपने को साबित करना होता है।
जिंदगी में भी और मौत में भी।
जिंदगी में भी और मौत में भी पत्रकार को भी रचनाकार,कलाकार और संस्कृति के हर माध्यम और विधा में सक्रिय रचनाधर्मियों की तरह पल पल अपना होना साबित करना पड़ता है।
मरकर भी गिरदा रोज रोज अपना होना साबित करते हैं क्योंकि वे पीछे लामबंद हमें कर गये।अफसोस,हम ऐसा नहीं कर सके हैं।
पंतनगर गोली कांड से पहले नैनीताल समाचार में मेरा धारावाहिक कब तक सहती रहेगी तराई का तराई में इतना विरोध हुआ कि 1977 में हीरो बनने के बाद 1978 में भूमि माफिया के साथ सीधे टकराव की वजह से तराई में मुझे लगातार भूमिगत रहना पड़ा।तब नैनीताल ही मेरा घर था।
ऐसे ही माहौल में पंतनगर गोलकांड का खुलासा करना हमारे लिए भारी चुनौती काम मामला था।शुक्र है कि तब पंतनगर में देवेनदा थे और हमने उनके घर को पत्रकारिता का कैंप बना डाला।
देवेनदा को पढ़ना हमें हमेशा वैज्ञानिक दृष्टि से लैस करता है। हमारे एक और मित्र पंकज प्रशून भी विज्ञान लेखन करते थे और अब वे तंत्र मंत्र यंत्र के विशेषज्ञ हैं।
देवेन दा को जबसे जाना है,उनके लेखन और जीवन में हमें कोई विसंगति देखने को नहीं मिली है और कोई माने या न माने मैं उन्हें रचनाधर्मिता का वैज्ञानिक मानता हूं।
पहले तो देश निर्मोही के पोस्ट को मैं ब्लाग पर शेयर करने जा रहा था,लेकिन पंतनगर गोलीकांड की उस साझा रपट की सिलिसिलेवार यादों की रोशनी में देवेन दा की जो तस्वीर मेरे दिलोदिमाग में बन रही है और गिरदा के जिस पहाड़को मैं तजिंदगी जीता रहा,उसे साझा करना जरुरी लगा और उसी सिलसिले में आज का यह रोजनामचा।
तब हम डीएसबी से बीए पास करके डीएसबी में ही एमए प्रथम वर्ष के छात्र थे।पिताजी से मेरे भारी राजनीतिक मतभेद थे।
तब तक हमने अल्पसंख्यकों और शारणार्थियों के सत्ता से नत्थी होने के रसायनशास्त्र का अध्ययन किया नहीं था।
दरअसल तब तक हम वैचारिक दार्शनिक अंतरिक्ष की सैर कर रहे थे और देश दुनिया के मेहनतकशों के बहुआयामी रोजनामचे से हमारा सामना हुआ भी तो उसे सिलसिलेवार समझने की हमारी कोई तैयारी नहीं थी।
हम आंदोलनों में जरुर थे लेकिन इस देश के सामाजिक ताना बाना और हमें हमारे पुरखों की गौरवशाली विरासत,लोकसंस्कृति की तहजीब हासिल आज भी नहीं है।इसलिए बहुआयामी सामाजिक राजनीतिक मसलों को हम फार्मूलाबद्ध तरीके से सुलझाने का दुस्साहस बी धड़ल्ले से करते हैं और फिर औंधे मुंह गिरते भी हैं,लेकिन कभी सीखते नहीं हैं।
पिताजी को इसी किताबी ज्ञान को लेकर हमसे गंभीर शिकायत थी और अफसोस विश्विद्यालयी पढ़ाई के बूते हमने अपने अपढ़ पिता के जुनून को उनके जीते जी समझा ही नहीं है।इसलिए उनकी किसी उपलब्धि में मैं कहीं शामिल भी नहीं हूं और उनकी नाकामियों का जिम्मेदार सबसे ज्यादा मैं हूं क्योंकि उनके मिशन को कामयाब बनाने में हमने कभी उनकी मदद नहीं की।
हमारे गुरु जी की अनिवार्य पाठ्यसूची के मुताबिक डीएसबी कालेज की लाइब्रेरी से अपने और मित्रों के कार्ड से रोज गट्ठर गट्ठर किताबें ढोकर कमरे में लाकर रातदिन पढ़ना और समझना सिलेबस से बेहद जरुरी था हमारे लिए।मिडलेक के प्राचीन पुस्तकालय पर मेरा और कपिलेश भोज का कब्जा था और दुनियाभर में नया जो कुछ छपता था,तुरंत इंडेंट करके मंगवाकर अपने नाम इश्यू कराने की महारत हमें थी।गुरुजी के घर में मेरे साथ भोज भी थे।
पढ़े लिखे होने से हर कोई बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर नहीं होता और अपढ़ लोग भी अमूमन इतिहास बनाते हैं।
दूसरी ओर,मथुरा से उत्तरार्द्ध निकाल रहे राजनीति विज्ञान के कुँआरे प्रोफेसर वशिष्ठ यानी सव्यसाची के लिखे से हम मार्क्सवाद का पाठ ले रहे थे।
तब हम डीएसबी कैंपस के जीआईसी में हम लोग इंटरमीडियेट प्रथम वर्ष के छात्र थे तो इमरजेंसी के खिलाफ कोटा में साहित्यकारों की गोपनीय बैठक में शामिल होने के लिए बिना जेब में पैसे लिए हम मथुरा होकर कोटा पहुंच गये और घड़ी बेचकर वापसी का किराया निकालने के लिए बाजार में घूम रहे थे तो आयोजक रंगकर्मी नाटककार शिवराम ने हमें धर लिया और कहा कि चुपाचाप बैठक में भाग लो,हम वापसी का इंतजाम करेंगे।
उस बैठक में जनवादी लेखक संघ की रचनाप्रक्रिया शुरु हुई तो उसी बैठक में सुधीश पचौरी.डां.कुंअर पाल सिंह,डा.भरत सिंह और कांति मोहन स्वसाची के अलावा हमारे वैचारिक मार्गदर्शक थे।
इसी बैठक के जरिये मथुरा में डेरा डालने के दौरान कामरेड सुनीत चोपड़ा,कवि मनमोहन, प्रखर पत्रकार विनय श्रीकर और कथाकार धीरेंद्र अस्थाना से हमारी मित्रता हुई।
इनमें से सिर्फ सुधीश पचौरी बदले,बाकी कोई नहीं।विनयश्रीकर अपने मित्र कौशल किशोर की तरह सक्रिय नहीं हैं,लेकिन वे भी सत्ता के साथ नत्थी कभी नहीं रहे।
बहरहाल तब भोज का मानना था कि अगर लेखकों कवियों को मालूम पड़ा तो कि हम इंटर में पढ़ने वाले बच्चे हैं तो हमें कोई भाव देने वाला नहीं है।वह बेखटके बोलता रहा कि वह एमए इतिहास पढ़ रहा है और मैं एमए राजनीति शास्त्र।
जीआईसी उन दिनों डीएसबी कैंपस में ही था और बाकी शहर में हम फर्स्ट ईअर या सेकंड ईअर के साथ डीएसबी जोड़ देते थे तो लोग एमए या बीए ही सोचते थे और बाकी सिलेबस और पाठ हमारे लिए कोई झमेला न था,वह हम आत्मसात करते रहे।
इस सिद्धांत के तहत कोटा में हमारी बहुत आवभगत भी हुई।
हालांकि धीरेंद्र को थोड़ा शक भी हुआ और पूछ ही डाला कि तुम लोगों की दाढ़ी मूंछ नहीं आयी और एमए पढ़ते हो।
इसपर भोज ने कह दिया कि हिमालय के वासिंदों की दाढ़ी मूंछें नहीं होतीं अमूमन।नेपालियों को देख लो और हम लोग तो नेपाल बार्डर के हैं।इस अकाट्य तर्क का धीरेंद्र के पास भी जवाब न था।
बहराहाल हमारे एमए पास करने तक जो भी हमारे दावे के जानकार थे,वे कभी नैनीताल में आये तो उन्हें अलग अलग विषय में एमए करते रहने का भरोसा दिलाना भोज का काम था।
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